सामाजिक >> आदमी बैसाखी पर आदमी बैसाखी परयादवेन्द्र शर्मा
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निजी व्यक्तित्व की स्थापना और उसके भीतरी द्वंद्व का प्रतीक...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
साहित्य अकादमी, फणीश्वरनाथ रेणु तथा मीराँ सहित अनेक पुरस्कारों से
सम्मानित हिन्दी व राजस्थानी के विख्यात लेखक यादवेन्द्र शर्मा
‘चन्द्र’ का यह श्रेष्ठ उपन्यास आदमी के निजी
व्यक्तित्व की
स्थापना और उसके भीतरी द्वन्द्व का प्रतीक है। अपनी अपंगता को गौण करने के
लिए नायक कैसे-कैसे लबादे ओढ़ता है और किस तरह सामाजिक व पारिवारिक
दायित्वों से भागता है-यही इस उपन्यास का सच है। उपन्यास भावना प्रधान है
और अपनी सहज शैली से मन को मोहता है। यह एक लघु कलेवर का विराट उपन्यास
है।
एक
उसके सामने एक कापी पड़ी है और कापी के पास एक दवात, जिसकी स्याही सूख गई
थी, जैसे कई दिनों से इसका उपयोग नहीं हुआ है और यह केवल मेज की शोभा के
लिए ही रखी हुई हो। दो-चार हिन्दी की पुस्तकें और दो-चार अंग्रेजी के
प्रसिद्ध उपन्यास, बेतरतीब पड़े हुए थे। भूरे रंग के टेबल-क्लॉथ पर
कहीं-कहीं हल्के स्याही के छोटे-छोटे धब्बे थे, जो नये नहीं जान पड़ते थे।
कुछ देर तक वह बहुत जिम्मेदार राजनीतिक नेता की तरह गम्भीर मुद्रा बनाकार सामने पड़े कागज पर आधुनिक प्रयोगवादी चित्रकारी का नमूना बनाता रहा...उसका शीर्षक दिया उसने-आलिंगन ! फिर उसके होंठो पर सूखी मुस्कान थिरक उठी, मानो वह अपने-आपसे कह रहा हो, ‘वह भी कैसा आदमी है ? एकदम अजीब !’
फिर उसने अपने सिर को हथेली के सहारे टिका दिया और लिखने लगा, जीवन = शून्य। आगे उसने लिखा नहीं। वस्तुतः उससे लिखा नहीं गया।
वह कुछ देर तक विचारमग्न बैठा रहा। फिर उसकी कलम स्वतः ही चली।
जीवन + पैसा = आनंद।
जीवन ÷ पैसा = समझदारी से जीवनयापन।
जीवन × पैसा = विलासमय जीवन।
जीवन - पैसा = दुःख, चरम दुःख और नीरसता।
और फिर उसने उन सबको काटकर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा, ‘इन्दु !’
इन्दु के साथ उसके मानस-पटल पर एक युवती का चित्र उभर आया जो किसी प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका थी और जो आजकल उसके आकर्षण का बिन्दु थी। उसने खिड़की की राह अनंत नीलिमा को देखा और फिर मन-ही-मन कुछ बड़बड़ाता हुआ अपनी बैसाखी लेकर उठ खड़ा हुआ। लाल सीमेंट के फर्श पर उसकी बैसाखी की ‘खट्-कट्’ उसके मन की व्यथा को साकार करती हुई उस सूने कमरे में गूंज उठी। ‘खट्-खट्’ उस भाग्यहीन मनुष्य के जीवन की वह दुखभरी ध्वनि थी जो उसके अन्तराल में प्रतिध्वनियों की भाँति टकरा-टकराकर उसे पीड़ा पहुँचा रही थी। वह उदास-सा खिड़की का सम्बल लेकर खड़ा हो गया। क्षण-भर के लिए वह इतना गम्भीर हो गया कि उसकी भृकुटियाँ स्पष्ट तनी हुई जान पड़ी, फिर उसके चेहरे पर व्यथा के गहरे काले बादल छा गए। उसका मुख क्षण-भर में एकदम पीला-पीला सा जान पड़ा। उसने खिड़की के झूमते हैंडलूम के बने आकर्षक पीले पर्दों को अपने दोनों हाथों से पकड़ा और बड़बड़ाया, ‘तैमूरलंग !’
आज नीरोज रेस्त्राँ में नवोदित लेखक ने अनाम को तैमूरलंग कह दिया था। अनाम ने उस लेखक की जिसका नाम ‘निर्वाण’ था, एक कहानी की कटु आलोचना किसी पत्र में छद्म नाम से लिख दी थी। वह आलोचना इतनी द्वेषभरी और पक्षपातपूर्ण थी कि ‘निर्वाण’ बात की बात में बहुत नीचे स्तर पर उतर आया और उसने अनाम को एक वाहियात चित्रकार का घटिया कहानीकार बताते हुए ‘तैमूरलंग’ कह दिया। उस समय अनाम हँसता रहा ताकि रेस्त्राँ के बुद्धिजीवियों की उपस्थिति यह अनुभव न करे कि उसने इसे बुरा माना है लेकिन बाद में इस शब्द ने उसको मर्मांतक पीड़ा पहुँचाई और वह अब तक उसी तरह परेशान है।
‘अनाम बाबू !’ किसी लड़की का मृदु स्वर सुनाई पड़ा।
अनाम ने देखा—वरदा हाथ में चाय की प्याली लिए खड़ी है। अनाम कृत्रिम मुस्कान होंठों पर लाता हुआ बोला, ‘चली आओ, वहाँ क्यों खड़ी हो ?’
‘आज आपका मूड अच्छा नहीं है न, इसलिए मैंने सोचा कि आपसे आज्ञा ले लूँ। देखो न, खिड़की का पर्दा कितना खराब हो गया है।’ और सचमुच अनाम ने देखा कि मुट्ठी में पर्दें के छोर के आ जाने से उसमें काफी सलवर्टें पड़ गई हैं। वह पर्दा भीगे कपड़े को फूहड़ता से निचोड़ा हुआ सा जान पड़ता है। उसने वरदा के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। वह बैसाखी के सहारे मेज के पास बिछे पलंग पर आकर बैठ गया और चाय की चुस्कियाँ लेने लगा।
वरदा उसकी ओर बिना देखे हुए उसकी पुस्तकों को उठाकर अलमारी में रखने लगी। एकाएक वरदा ने पूछा, ‘अनाम बाबू, मनुष्य उदास क्यों हो जाता है ?’
‘जब तुम उदास हो, तब उत्तर ढूँढ़ लेना।’
वरदा ने मौन धारण कर लिया और अनाम पलंग पर लेटकर सुप्रसिद्ध चित्रकार विन्सेण्ट वानगाग के जीवन पर आधिरत उपन्यास ‘लस्ट फॉर लाइफ’ पढ़ने लगा। कुछ देर तक दोनों एक दूसरे से नहीं बोले। फिर वरदा प्याला लेकर चली गई। उसके जाते ही अनाम ने करवट लेते हुए कहा, ‘बेचारी !’
वरदा एक निम्न मध्य वर्ग की कुंवारी बंगालिन कन्या ! काली पर जरा माँसल। छोटे-छोटे पाँव, चीनियों की तरह, जैसे वरदा के माँ-बाप ने भी उसे जन्मते ही लोहे के जूते पहना दिए हों। आँखें बड़ी-बड़ी गहरी और काली। बाल श्याम घटाओं की तरह घने और काले और उसकी कमर के नीचे तक फैले हुए। आठवीं में पढ़ती थी। उम्र चौदह-पन्द्रह, पर शरीर का फैलाव पूर्ण युवती का-सा। विवाह के योग्य। अनाम के नीचे के दो कमरों के प्लैट में रहती थी। बाप सरकारी ऑफिस, में हेड क्लर्क ! तीन छोटी बहनें और एक छोटा भाई। घर गृहस्थी का संचालन माँ के हाथ में।
अनाम इस परिवार का एक अभिन्न सदस्य-सा हो गया। वरदा का बाप चित्रकारों का सम्मान करता है और उनसे मित्रता बनाए रखने में गौरव का अनुभव करता है। कॉलेज में वह भी चित्रकारी का शौक रखता था।
अनाम को वरदा चाहती थी, इसे अनाम भी जानता था। कभी-कभी वह वरदा के बारे में सोचा भी करता था। सोचता-सोचता वह इतना क्रूर हो जाता था कि वरदा के हृदय को निर्दयी आवारा प्रेमी की तरह छलकर तोड़ देना चाहता था। ऐसा विचार उसे मन में यदाकदा आया करता था। ऐसा विचार उसके मन में तब आता था जब या तो वह अधिक उद्विग्न होता था या अधिक प्रसन्न-रोमांटिक मूड में।
अनाम अभी तक पलंग पर वैसे ही सोया हुआ था। उसकी आँखें पुस्तक पर जमी हुई थीं कि वरदा ने उसके कमरे में पुनः प्रवेश किया। इस बार वरदा ने शांति-निकेतन की साड़ी पहन रखी थी और चेहरे पर पाउडर मल कर उसने अपने हाथों और चेहरे के रंग में काफी फर्क डाल लिया था।
‘अनाम बाबू !’
‘क्या है ?’ अनाम ने उसकी और बिना देखे ही कहा।
‘सिनेमा नहीं चलेंगे ?’
‘नहीं।’
‘क्यों ?’
‘मुझे किसी काम से कहीं और जाना है।’
‘क्या आप उस काम को आज के लिए टाल नहीं सकते ?’
‘नहीं।’
‘क्यों ?’
‘बहुत आवश्यक है।’
अभी तक अनाम ने वरदा की ओर नहीं देखा था। वह उपेक्षा वरदा को बुरी लग रही थी। यह व्यवहार अशिष्टता का भी सूचक है, ऐसा वरदा ने मन-ही-मन सोचा और वह कुछ अवश-सी बोली, ‘फिर आपने चलने का वचन क्यों दिया था ?’
‘पर वचन को तोड़ा भी जा सकता है।’
अभिजात वर्ग की सजी-सजाई महिला की प्रदर्शन-भावना लिए वरदा चाहती थी कि अनाम उसे देखे पल-भर के लिए देखे ताकि वह गर्व करे अपने मन को तुष्ट करे, पर अनाम द्वारा निरन्तर उपेक्षा पाकर उसका अहंकार तड़प उठा। वह तनिक रोष में बोली, ‘तुम्हारे वचनों का क्या मोल ? तुम दूसरों की इच्छा को इच्छा नहीं समझते, इतना दम्भ अच्छा नहीं...।’
अनाम तुरन्त पलंग पर बैठ गया। उसने वरदा की ओर देखा। नजरें चार हुईं। दोनों ने अनिमेष दृष्टि से कुछ क्षण के लिए एक दूसरे को देखा। वरदा अपनी धोती का पल्लू अपनी उँगुली के चारों ओर लिपटाने लगी और अनाम के चेहरे पर समझौता सूचक हँसी नाच उठी। वह शांत स्वर में बोला, ‘मुझे मेरे एक मित्र के घर जाना है, उसकी पत्नी अस्वस्थ है। वरदा ! वहाँ नहीं जाऊँगा तो उन्हें कितना बुरा लगेगा।’
वरदा की आँखें भर आयीं वह आँखों को पोंछती हुई कोमल स्वर में बोली, ‘अनाम बाबू, आप अपने मित्र के पास अवश्य जाइए लेकिन इन्दु दीदी के यहाँ नहीं। यह इन्दु दीदी मुझे अच्छी नहीं लगती।’
और वह हवा की तरह बाहर चली गई।
उसके जाने के बाद अनाम नारी की स्वाभाविक ईर्ष्या को देखकर गंभीर हो गया। फिर वह वरदा के अधिकारपूर्ण वाक्य को लेकर कई बार सोचता-विचारता रहा और बाद में उसने निर्णय निकाला कि वरदा उसे प्रेम करती है, वह उस पर अपना कुछ अधिकार समझती है तभी वह उसे ऐसी आज्ञा दे सकती है। तभी वह उससे ऐसा हठ कर सकती है।
पाँच बजे चुके थे।
मई की उष्णता और जयपुर की भीषण गर्मी। न चाहते हुए भी उसने नई पोशाक पहनी। कुर्ता और पायजामा। पाँवों में जोधपुर की हल्की जूती। जेब में कैलिको मिल का रंगीन रूमाल।
मेज की दराज में से उसने एक बटुआ निकाला। बटुए का रंग काला था और वह किसी फर्म की भेंट थी और तभी सेठ रणछोड़ की हवेली का नक्शा उसके मस्तिष्क में घूम गया। उसने तुरन्त अपने कमरे की खिड़कियाँ बन्द की; पंखे का स्विच ऑफ किया और चल पड़ा।
सीढ़ियों के बीच वरदा मिल गई। उसकी आँखों में करुणा और शिकायत दोनों थीं। अनाम ने अर्थभरी दृष्टि से उसे देखा। उसके भावों को समझती हुई वरदा बोली, ‘आपकी विवशता मैं जानती हूँ अनाम बाबू, लेकिन यदि आप साथ होते तो हमें बड़ा आनंद आता। माँ भी यही चाहती थी। सम्भव हो सके, तो आने का कष्ट करिएगा, हम प्रेम प्रकाश में जा रहे हैं हिन्दी फिल्म देखने।’
अनाम कुछ कहे, इसके पहले वह पुनः बोली, ‘आप बस में जाएंगे या तांगे में।’
‘जो मिल जाएगा, उसी में जाऊँगा।
‘बस जब रुक जाए, तब उसमें बैठिएगा।’ वरदा की करुणा-भरी दृष्टि अनाम के झूलते हुए पाँव पर जम गई।
अनाम उस दृष्टि को नहीं सह सका। उसके मन में हजारों बिच्छुओं के डंक की पीड़ा का संचरण हो उठा। उसने आवेश में तुरन्त सोचा कि क्या वह यह कहना चाहती थी कि आप लंगड़े हैं, उतावली में गिर जाएंगे।....ओह ! दया कर रही है। उसके प्रशस्त ललाट पर श्वेत कण उभर आए। उसका निचला होंठ ऊपर के दो दाँतों से दब गया। भंगिमा में कुछ कठोरता और भयानक प्रतीत हुई। वरदा स्थिरता से सहम गई और कुछ उसकी आन्तरिक भावना को समझती हुई वह शीघ्रता से चली गई।
उसके जाते ही अनाम ने अपने आपको संभाला। अपने आवेश और रोष पर काबू किया। रुमाल से चेहरा पोंछा और चल पड़ा। बैसाखी की ‘खट्-खट्’ उसे अपने हृदय पर पड़ रही हथौड़े की चोटों-सी प्रतीत हुईं।
घर के बाहर निकलकर उसने साधारण व्यक्ति की चाल से अधिक तेजी से चलना शुरु किया जैसे वह सोच रहा हो कि खिड़की में खड़ी वह काली-कलूटी वरदा उसके बारे में सोच ले कि वह कितना तेज चल सकता है ? हालांकि ‘बस स्टॉप’ तक उसने पीछे मुड़कर देखा भी नहीं, फिर भी वह कल्पना में साहसी पुरुषों की भाँति ऐसा विचार रहा था कि वरदा उसे खिड़की की राह देख रही है। इसलिए वह बस में सबसे पहले लपककर चढ़ा। इससे अनाम की आत्मा को बड़ा संतोष हुआ।
बस में भीड़ थी। सींटें तो खचाखच भरी थीं। अपनी बैसाखी को बगल में दबाता हुआ वह एक सीट को पकड़कर खड़ा हो गया। अचानक सीट पर बैठे हुए महाशय की दृष्टि अनाम पर पड़ी। वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ। उसने अनाम को कहा, ‘बैठिए।’
‘नहीं-नहीं, आप बैठिए न ?’ अनाम ने उन्हें रोका।
‘नहीं साहब, मैं खड़ा हो जाऊँगा। आपको तकलीफ होगी।’ उसके मुख पर करुणा के भाव थे।
अनाम विवश होकर बैठ गया। उस समय उसका चेहरा संकोच से झुक गया था।
दो
प्रसिद्ध ‘नीरोज’ रेस्त्राँ में अभी पूर्ण शान्ति थी। संध्या-वेला में जो हल्का कोलाहल और सिगरेट के धुएँ की घुटन उत्पन्न हो जाती है वह अभी तक नहीं हुई थी। वहाँ की उपस्थिति सहजता से गिनी जा सकती थी। एक, दो, तीन, चार....अनाम-ने-मन-ही मन उसे गिना भी और फिर उसने मैनेजर से समय पूछा। उत्तर सुनकर उसने मन-ही-मन सोचा, अभी अभिजात वर्ग की युगल जोड़ियों की भीड़ लग जाएगी और मैं इन्दु से जमकर बातचीत नहीं कर सकूँगा।...अब इन्दु को आ जाना चाहिए। हर पल उसके लिए युग-सा बन गया। उसके हृदय की प्रतिक्षाजनित आकुलता नेत्रों में चमक उठी। वह बैठा-बैठा चाय पीने लगा।
इन्दु आई। उसके मुख पर उल्लास नाच उठा। होंठों पर मुस्कान लाता हुआ वह बोला, ‘तुमने बड़ी देर कर दी, मैंने तुम्हारे आने की आशा ही छोड़ दी थी।’
‘मैं वायदे की पक्की हूँ और तुम्हें एक खुशखबरी सुनाना चाहती हूँ। सुनोगे तो बहुत खुश होओगे।’
‘क्या ?’
‘वह कहानी छप गई है।’
‘कौन-सी ?’
‘द्रोपदी का करुण विलाप !’
अनाम ने प्यार-भरी दृष्टि से इन्दु के मुख पर खेलती उत्साह की रेखाओं को देखा। इन्दु को हार्दिक प्रसन्नता है। ‘धर्मयुग’ में कहानी का छपना उसके जीवन की बहुत बड़ी सफलता है।
‘ऐसे क्यों देख रहे हो ?’
‘देख रहा हूँ कि तुम्हें कहानी के छपने की कितनी खुशी है ?...
‘दो-तीन सहेलियाँ इस बीच आ गई थीं, उन्होंने खूब पसन्द किया। लेकिन मुझे तुमसे थोड़ी-सी शिकायत है।’ उसके स्वर में अन्दाज भर आया। अनाम ने जान-बूझकर अपनी मुद्रा को गम्भीर बनाने की चेष्टा की। उसने चाय बनाकर इन्दु के आगे रख दी।
चाय का घूँट लेकर इन्दु प्याले पर अपनी दृष्टि जमाकर बोली, ‘मैंने अपनी लिखी कहानी पढ़ी, पढ़कर आश्चर्य हुआ, तुमने उसे इतना क्यों बदल दिया ? उस कहानी पर तुम्हारी चित्रकारी का प्रभाव स्पष्टतः बोलता है। तुम्हारे मित्र तुरन्त जान जाएंगे कि यह कहानी इन्दु की नहीं, अनाम की लिखी हुई है और फिर वे मुझे और तुम्हें लेकर जाने क्या-क्या सोचेंगे।’
‘क्या-क्या सोचेंगे ?’ अनाम के सूखे हृदय में प्यार का झरना-सा फूट पड़ा। दृष्टि में चुहलबाजी उतर आई।
‘बस !’ उसने कृत्रिम रोष से बात खत्म करने की आज्ञा दी। दोनों कुछ देर तक शांत रहे जैसे दोनों पत्थर या मिट्टी के बने खिलौने हों जो सजावट के तौर पर लगा दिए गए हों। दोनों ने चाय तक पीनी बन्द कर रखी थी। अचानक इन्दु बोली, ‘‘तुम्हारे मित्र वकील साहब नहीं आये?’
‘बस आते ही होंगे।’
‘उनका स्वभाव कैसा है ?’
‘वैसे वे बहुत अच्छे आदमी हैं किन्तु कंजूस हैं। हृदय के पत्थर और एकदम नीरस। एक चरित्र कहानी के लिए।’
‘फिर ऐसे आदमी से मिलने से क्या लाभ ?’
‘उनकी यहाँ के बड़े-बड़े सेठों में पहुँच हैं। यदि उन्हें हम राजी करने में सफल हो गए, तो तुम्हारा पहला कहानी-संग्रह छपा ही समझो।’
इन्दु ने भावावेश में अनाम का हाथ दबा लिया। अपने चेहरे को चमकते ऐशट्रे में देखती हुई कोमल स्वर में बोली, ‘तुमने मेरे जीवन को बदल दिया। क्या थी, क्या बना दिया ? मैं प्रायः सोचा करती थी कि मैं एक ऐसी स्त्री बनूं जिसका इस समाज व इस समाज के बाहर प्रतिष्ठित नागरिकों और बुद्धि जीवियों में सम्मान हो। लोग मुझे आदर की दृष्टि से देखें और अब मुझे विश्वास हो रहा है कि मेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी।’
अनाम ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया, ‘मैं अपनी ओर से तुम्हें सब तरह की मदद दूँगा।’
‘तुम्हारा ही यह प्रताप है कि मैं आज कुछ बन रही हूँ।’
वकील दयाल आ गये। अनाम ने उसे देखते ही उठने का प्रयास किया। दयाल ने तुरन्त उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा, ‘बैठिए-बैठिए, तकल्लुफ की ज़रूरत नहीं, आपको उठने में कष्ट होगा।’
अनाम का मुँह उतर गया। वस्तुतः अपने प्रदर्शित किए गए दया के भाव उसे अच्छे नहीं लगते थे। दूसरों की दया उसके लिए असह्य हो उठती थी। उसने गहरी चुप्पी साध ली।
दयाल निर्विकार भाव से मुस्करा रहा था। अनाम की गहरी मूकता का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह उसके कन्धे पर जोर की थापी देकर बोला, ‘अनाम, आपसे परिचय नहीं कराओगे।’
‘आप हैं इन्दु जी, यहाँ प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं और हिन्दी की नवोदित तरुण लेखिका भी हैं। आपने इनकी कहानियाँ पढ़ी होंगी।
’कुछ देर तक वह बहुत जिम्मेदार राजनीतिक नेता की तरह गम्भीर मुद्रा बनाकार सामने पड़े कागज पर आधुनिक प्रयोगवादी चित्रकारी का नमूना बनाता रहा...उसका शीर्षक दिया उसने-आलिंगन ! फिर उसके होंठो पर सूखी मुस्कान थिरक उठी, मानो वह अपने-आपसे कह रहा हो, ‘वह भी कैसा आदमी है ? एकदम अजीब !’
फिर उसने अपने सिर को हथेली के सहारे टिका दिया और लिखने लगा, जीवन = शून्य। आगे उसने लिखा नहीं। वस्तुतः उससे लिखा नहीं गया।
वह कुछ देर तक विचारमग्न बैठा रहा। फिर उसकी कलम स्वतः ही चली।
जीवन + पैसा = आनंद।
जीवन ÷ पैसा = समझदारी से जीवनयापन।
जीवन × पैसा = विलासमय जीवन।
जीवन - पैसा = दुःख, चरम दुःख और नीरसता।
और फिर उसने उन सबको काटकर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा, ‘इन्दु !’
इन्दु के साथ उसके मानस-पटल पर एक युवती का चित्र उभर आया जो किसी प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका थी और जो आजकल उसके आकर्षण का बिन्दु थी। उसने खिड़की की राह अनंत नीलिमा को देखा और फिर मन-ही-मन कुछ बड़बड़ाता हुआ अपनी बैसाखी लेकर उठ खड़ा हुआ। लाल सीमेंट के फर्श पर उसकी बैसाखी की ‘खट्-कट्’ उसके मन की व्यथा को साकार करती हुई उस सूने कमरे में गूंज उठी। ‘खट्-खट्’ उस भाग्यहीन मनुष्य के जीवन की वह दुखभरी ध्वनि थी जो उसके अन्तराल में प्रतिध्वनियों की भाँति टकरा-टकराकर उसे पीड़ा पहुँचा रही थी। वह उदास-सा खिड़की का सम्बल लेकर खड़ा हो गया। क्षण-भर के लिए वह इतना गम्भीर हो गया कि उसकी भृकुटियाँ स्पष्ट तनी हुई जान पड़ी, फिर उसके चेहरे पर व्यथा के गहरे काले बादल छा गए। उसका मुख क्षण-भर में एकदम पीला-पीला सा जान पड़ा। उसने खिड़की के झूमते हैंडलूम के बने आकर्षक पीले पर्दों को अपने दोनों हाथों से पकड़ा और बड़बड़ाया, ‘तैमूरलंग !’
आज नीरोज रेस्त्राँ में नवोदित लेखक ने अनाम को तैमूरलंग कह दिया था। अनाम ने उस लेखक की जिसका नाम ‘निर्वाण’ था, एक कहानी की कटु आलोचना किसी पत्र में छद्म नाम से लिख दी थी। वह आलोचना इतनी द्वेषभरी और पक्षपातपूर्ण थी कि ‘निर्वाण’ बात की बात में बहुत नीचे स्तर पर उतर आया और उसने अनाम को एक वाहियात चित्रकार का घटिया कहानीकार बताते हुए ‘तैमूरलंग’ कह दिया। उस समय अनाम हँसता रहा ताकि रेस्त्राँ के बुद्धिजीवियों की उपस्थिति यह अनुभव न करे कि उसने इसे बुरा माना है लेकिन बाद में इस शब्द ने उसको मर्मांतक पीड़ा पहुँचाई और वह अब तक उसी तरह परेशान है।
‘अनाम बाबू !’ किसी लड़की का मृदु स्वर सुनाई पड़ा।
अनाम ने देखा—वरदा हाथ में चाय की प्याली लिए खड़ी है। अनाम कृत्रिम मुस्कान होंठों पर लाता हुआ बोला, ‘चली आओ, वहाँ क्यों खड़ी हो ?’
‘आज आपका मूड अच्छा नहीं है न, इसलिए मैंने सोचा कि आपसे आज्ञा ले लूँ। देखो न, खिड़की का पर्दा कितना खराब हो गया है।’ और सचमुच अनाम ने देखा कि मुट्ठी में पर्दें के छोर के आ जाने से उसमें काफी सलवर्टें पड़ गई हैं। वह पर्दा भीगे कपड़े को फूहड़ता से निचोड़ा हुआ सा जान पड़ता है। उसने वरदा के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। वह बैसाखी के सहारे मेज के पास बिछे पलंग पर आकर बैठ गया और चाय की चुस्कियाँ लेने लगा।
वरदा उसकी ओर बिना देखे हुए उसकी पुस्तकों को उठाकर अलमारी में रखने लगी। एकाएक वरदा ने पूछा, ‘अनाम बाबू, मनुष्य उदास क्यों हो जाता है ?’
‘जब तुम उदास हो, तब उत्तर ढूँढ़ लेना।’
वरदा ने मौन धारण कर लिया और अनाम पलंग पर लेटकर सुप्रसिद्ध चित्रकार विन्सेण्ट वानगाग के जीवन पर आधिरत उपन्यास ‘लस्ट फॉर लाइफ’ पढ़ने लगा। कुछ देर तक दोनों एक दूसरे से नहीं बोले। फिर वरदा प्याला लेकर चली गई। उसके जाते ही अनाम ने करवट लेते हुए कहा, ‘बेचारी !’
वरदा एक निम्न मध्य वर्ग की कुंवारी बंगालिन कन्या ! काली पर जरा माँसल। छोटे-छोटे पाँव, चीनियों की तरह, जैसे वरदा के माँ-बाप ने भी उसे जन्मते ही लोहे के जूते पहना दिए हों। आँखें बड़ी-बड़ी गहरी और काली। बाल श्याम घटाओं की तरह घने और काले और उसकी कमर के नीचे तक फैले हुए। आठवीं में पढ़ती थी। उम्र चौदह-पन्द्रह, पर शरीर का फैलाव पूर्ण युवती का-सा। विवाह के योग्य। अनाम के नीचे के दो कमरों के प्लैट में रहती थी। बाप सरकारी ऑफिस, में हेड क्लर्क ! तीन छोटी बहनें और एक छोटा भाई। घर गृहस्थी का संचालन माँ के हाथ में।
अनाम इस परिवार का एक अभिन्न सदस्य-सा हो गया। वरदा का बाप चित्रकारों का सम्मान करता है और उनसे मित्रता बनाए रखने में गौरव का अनुभव करता है। कॉलेज में वह भी चित्रकारी का शौक रखता था।
अनाम को वरदा चाहती थी, इसे अनाम भी जानता था। कभी-कभी वह वरदा के बारे में सोचा भी करता था। सोचता-सोचता वह इतना क्रूर हो जाता था कि वरदा के हृदय को निर्दयी आवारा प्रेमी की तरह छलकर तोड़ देना चाहता था। ऐसा विचार उसे मन में यदाकदा आया करता था। ऐसा विचार उसके मन में तब आता था जब या तो वह अधिक उद्विग्न होता था या अधिक प्रसन्न-रोमांटिक मूड में।
अनाम अभी तक पलंग पर वैसे ही सोया हुआ था। उसकी आँखें पुस्तक पर जमी हुई थीं कि वरदा ने उसके कमरे में पुनः प्रवेश किया। इस बार वरदा ने शांति-निकेतन की साड़ी पहन रखी थी और चेहरे पर पाउडर मल कर उसने अपने हाथों और चेहरे के रंग में काफी फर्क डाल लिया था।
‘अनाम बाबू !’
‘क्या है ?’ अनाम ने उसकी और बिना देखे ही कहा।
‘सिनेमा नहीं चलेंगे ?’
‘नहीं।’
‘क्यों ?’
‘मुझे किसी काम से कहीं और जाना है।’
‘क्या आप उस काम को आज के लिए टाल नहीं सकते ?’
‘नहीं।’
‘क्यों ?’
‘बहुत आवश्यक है।’
अभी तक अनाम ने वरदा की ओर नहीं देखा था। वह उपेक्षा वरदा को बुरी लग रही थी। यह व्यवहार अशिष्टता का भी सूचक है, ऐसा वरदा ने मन-ही-मन सोचा और वह कुछ अवश-सी बोली, ‘फिर आपने चलने का वचन क्यों दिया था ?’
‘पर वचन को तोड़ा भी जा सकता है।’
अभिजात वर्ग की सजी-सजाई महिला की प्रदर्शन-भावना लिए वरदा चाहती थी कि अनाम उसे देखे पल-भर के लिए देखे ताकि वह गर्व करे अपने मन को तुष्ट करे, पर अनाम द्वारा निरन्तर उपेक्षा पाकर उसका अहंकार तड़प उठा। वह तनिक रोष में बोली, ‘तुम्हारे वचनों का क्या मोल ? तुम दूसरों की इच्छा को इच्छा नहीं समझते, इतना दम्भ अच्छा नहीं...।’
अनाम तुरन्त पलंग पर बैठ गया। उसने वरदा की ओर देखा। नजरें चार हुईं। दोनों ने अनिमेष दृष्टि से कुछ क्षण के लिए एक दूसरे को देखा। वरदा अपनी धोती का पल्लू अपनी उँगुली के चारों ओर लिपटाने लगी और अनाम के चेहरे पर समझौता सूचक हँसी नाच उठी। वह शांत स्वर में बोला, ‘मुझे मेरे एक मित्र के घर जाना है, उसकी पत्नी अस्वस्थ है। वरदा ! वहाँ नहीं जाऊँगा तो उन्हें कितना बुरा लगेगा।’
वरदा की आँखें भर आयीं वह आँखों को पोंछती हुई कोमल स्वर में बोली, ‘अनाम बाबू, आप अपने मित्र के पास अवश्य जाइए लेकिन इन्दु दीदी के यहाँ नहीं। यह इन्दु दीदी मुझे अच्छी नहीं लगती।’
और वह हवा की तरह बाहर चली गई।
उसके जाने के बाद अनाम नारी की स्वाभाविक ईर्ष्या को देखकर गंभीर हो गया। फिर वह वरदा के अधिकारपूर्ण वाक्य को लेकर कई बार सोचता-विचारता रहा और बाद में उसने निर्णय निकाला कि वरदा उसे प्रेम करती है, वह उस पर अपना कुछ अधिकार समझती है तभी वह उसे ऐसी आज्ञा दे सकती है। तभी वह उससे ऐसा हठ कर सकती है।
पाँच बजे चुके थे।
मई की उष्णता और जयपुर की भीषण गर्मी। न चाहते हुए भी उसने नई पोशाक पहनी। कुर्ता और पायजामा। पाँवों में जोधपुर की हल्की जूती। जेब में कैलिको मिल का रंगीन रूमाल।
मेज की दराज में से उसने एक बटुआ निकाला। बटुए का रंग काला था और वह किसी फर्म की भेंट थी और तभी सेठ रणछोड़ की हवेली का नक्शा उसके मस्तिष्क में घूम गया। उसने तुरन्त अपने कमरे की खिड़कियाँ बन्द की; पंखे का स्विच ऑफ किया और चल पड़ा।
सीढ़ियों के बीच वरदा मिल गई। उसकी आँखों में करुणा और शिकायत दोनों थीं। अनाम ने अर्थभरी दृष्टि से उसे देखा। उसके भावों को समझती हुई वरदा बोली, ‘आपकी विवशता मैं जानती हूँ अनाम बाबू, लेकिन यदि आप साथ होते तो हमें बड़ा आनंद आता। माँ भी यही चाहती थी। सम्भव हो सके, तो आने का कष्ट करिएगा, हम प्रेम प्रकाश में जा रहे हैं हिन्दी फिल्म देखने।’
अनाम कुछ कहे, इसके पहले वह पुनः बोली, ‘आप बस में जाएंगे या तांगे में।’
‘जो मिल जाएगा, उसी में जाऊँगा।
‘बस जब रुक जाए, तब उसमें बैठिएगा।’ वरदा की करुणा-भरी दृष्टि अनाम के झूलते हुए पाँव पर जम गई।
अनाम उस दृष्टि को नहीं सह सका। उसके मन में हजारों बिच्छुओं के डंक की पीड़ा का संचरण हो उठा। उसने आवेश में तुरन्त सोचा कि क्या वह यह कहना चाहती थी कि आप लंगड़े हैं, उतावली में गिर जाएंगे।....ओह ! दया कर रही है। उसके प्रशस्त ललाट पर श्वेत कण उभर आए। उसका निचला होंठ ऊपर के दो दाँतों से दब गया। भंगिमा में कुछ कठोरता और भयानक प्रतीत हुई। वरदा स्थिरता से सहम गई और कुछ उसकी आन्तरिक भावना को समझती हुई वह शीघ्रता से चली गई।
उसके जाते ही अनाम ने अपने आपको संभाला। अपने आवेश और रोष पर काबू किया। रुमाल से चेहरा पोंछा और चल पड़ा। बैसाखी की ‘खट्-खट्’ उसे अपने हृदय पर पड़ रही हथौड़े की चोटों-सी प्रतीत हुईं।
घर के बाहर निकलकर उसने साधारण व्यक्ति की चाल से अधिक तेजी से चलना शुरु किया जैसे वह सोच रहा हो कि खिड़की में खड़ी वह काली-कलूटी वरदा उसके बारे में सोच ले कि वह कितना तेज चल सकता है ? हालांकि ‘बस स्टॉप’ तक उसने पीछे मुड़कर देखा भी नहीं, फिर भी वह कल्पना में साहसी पुरुषों की भाँति ऐसा विचार रहा था कि वरदा उसे खिड़की की राह देख रही है। इसलिए वह बस में सबसे पहले लपककर चढ़ा। इससे अनाम की आत्मा को बड़ा संतोष हुआ।
बस में भीड़ थी। सींटें तो खचाखच भरी थीं। अपनी बैसाखी को बगल में दबाता हुआ वह एक सीट को पकड़कर खड़ा हो गया। अचानक सीट पर बैठे हुए महाशय की दृष्टि अनाम पर पड़ी। वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ। उसने अनाम को कहा, ‘बैठिए।’
‘नहीं-नहीं, आप बैठिए न ?’ अनाम ने उन्हें रोका।
‘नहीं साहब, मैं खड़ा हो जाऊँगा। आपको तकलीफ होगी।’ उसके मुख पर करुणा के भाव थे।
अनाम विवश होकर बैठ गया। उस समय उसका चेहरा संकोच से झुक गया था।
दो
प्रसिद्ध ‘नीरोज’ रेस्त्राँ में अभी पूर्ण शान्ति थी। संध्या-वेला में जो हल्का कोलाहल और सिगरेट के धुएँ की घुटन उत्पन्न हो जाती है वह अभी तक नहीं हुई थी। वहाँ की उपस्थिति सहजता से गिनी जा सकती थी। एक, दो, तीन, चार....अनाम-ने-मन-ही मन उसे गिना भी और फिर उसने मैनेजर से समय पूछा। उत्तर सुनकर उसने मन-ही-मन सोचा, अभी अभिजात वर्ग की युगल जोड़ियों की भीड़ लग जाएगी और मैं इन्दु से जमकर बातचीत नहीं कर सकूँगा।...अब इन्दु को आ जाना चाहिए। हर पल उसके लिए युग-सा बन गया। उसके हृदय की प्रतिक्षाजनित आकुलता नेत्रों में चमक उठी। वह बैठा-बैठा चाय पीने लगा।
इन्दु आई। उसके मुख पर उल्लास नाच उठा। होंठों पर मुस्कान लाता हुआ वह बोला, ‘तुमने बड़ी देर कर दी, मैंने तुम्हारे आने की आशा ही छोड़ दी थी।’
‘मैं वायदे की पक्की हूँ और तुम्हें एक खुशखबरी सुनाना चाहती हूँ। सुनोगे तो बहुत खुश होओगे।’
‘क्या ?’
‘वह कहानी छप गई है।’
‘कौन-सी ?’
‘द्रोपदी का करुण विलाप !’
अनाम ने प्यार-भरी दृष्टि से इन्दु के मुख पर खेलती उत्साह की रेखाओं को देखा। इन्दु को हार्दिक प्रसन्नता है। ‘धर्मयुग’ में कहानी का छपना उसके जीवन की बहुत बड़ी सफलता है।
‘ऐसे क्यों देख रहे हो ?’
‘देख रहा हूँ कि तुम्हें कहानी के छपने की कितनी खुशी है ?...
‘दो-तीन सहेलियाँ इस बीच आ गई थीं, उन्होंने खूब पसन्द किया। लेकिन मुझे तुमसे थोड़ी-सी शिकायत है।’ उसके स्वर में अन्दाज भर आया। अनाम ने जान-बूझकर अपनी मुद्रा को गम्भीर बनाने की चेष्टा की। उसने चाय बनाकर इन्दु के आगे रख दी।
चाय का घूँट लेकर इन्दु प्याले पर अपनी दृष्टि जमाकर बोली, ‘मैंने अपनी लिखी कहानी पढ़ी, पढ़कर आश्चर्य हुआ, तुमने उसे इतना क्यों बदल दिया ? उस कहानी पर तुम्हारी चित्रकारी का प्रभाव स्पष्टतः बोलता है। तुम्हारे मित्र तुरन्त जान जाएंगे कि यह कहानी इन्दु की नहीं, अनाम की लिखी हुई है और फिर वे मुझे और तुम्हें लेकर जाने क्या-क्या सोचेंगे।’
‘क्या-क्या सोचेंगे ?’ अनाम के सूखे हृदय में प्यार का झरना-सा फूट पड़ा। दृष्टि में चुहलबाजी उतर आई।
‘बस !’ उसने कृत्रिम रोष से बात खत्म करने की आज्ञा दी। दोनों कुछ देर तक शांत रहे जैसे दोनों पत्थर या मिट्टी के बने खिलौने हों जो सजावट के तौर पर लगा दिए गए हों। दोनों ने चाय तक पीनी बन्द कर रखी थी। अचानक इन्दु बोली, ‘‘तुम्हारे मित्र वकील साहब नहीं आये?’
‘बस आते ही होंगे।’
‘उनका स्वभाव कैसा है ?’
‘वैसे वे बहुत अच्छे आदमी हैं किन्तु कंजूस हैं। हृदय के पत्थर और एकदम नीरस। एक चरित्र कहानी के लिए।’
‘फिर ऐसे आदमी से मिलने से क्या लाभ ?’
‘उनकी यहाँ के बड़े-बड़े सेठों में पहुँच हैं। यदि उन्हें हम राजी करने में सफल हो गए, तो तुम्हारा पहला कहानी-संग्रह छपा ही समझो।’
इन्दु ने भावावेश में अनाम का हाथ दबा लिया। अपने चेहरे को चमकते ऐशट्रे में देखती हुई कोमल स्वर में बोली, ‘तुमने मेरे जीवन को बदल दिया। क्या थी, क्या बना दिया ? मैं प्रायः सोचा करती थी कि मैं एक ऐसी स्त्री बनूं जिसका इस समाज व इस समाज के बाहर प्रतिष्ठित नागरिकों और बुद्धि जीवियों में सम्मान हो। लोग मुझे आदर की दृष्टि से देखें और अब मुझे विश्वास हो रहा है कि मेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी।’
अनाम ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया, ‘मैं अपनी ओर से तुम्हें सब तरह की मदद दूँगा।’
‘तुम्हारा ही यह प्रताप है कि मैं आज कुछ बन रही हूँ।’
वकील दयाल आ गये। अनाम ने उसे देखते ही उठने का प्रयास किया। दयाल ने तुरन्त उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा, ‘बैठिए-बैठिए, तकल्लुफ की ज़रूरत नहीं, आपको उठने में कष्ट होगा।’
अनाम का मुँह उतर गया। वस्तुतः अपने प्रदर्शित किए गए दया के भाव उसे अच्छे नहीं लगते थे। दूसरों की दया उसके लिए असह्य हो उठती थी। उसने गहरी चुप्पी साध ली।
दयाल निर्विकार भाव से मुस्करा रहा था। अनाम की गहरी मूकता का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह उसके कन्धे पर जोर की थापी देकर बोला, ‘अनाम, आपसे परिचय नहीं कराओगे।’
‘आप हैं इन्दु जी, यहाँ प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं और हिन्दी की नवोदित तरुण लेखिका भी हैं। आपने इनकी कहानियाँ पढ़ी होंगी।
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