लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुलजी-गाथा

गुलजी-गाथा

यादवेन्द्र शर्मा

प्रकाशक : पराग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5326
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

57 पाठक हैं

हिंदी व राजस्थानी के विख्यात कथाकार-यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का ताज़ा कहानी-संग्रह

Gulgi-Gatha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी व राजस्थानी के विख्यात कथाकार-यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का ताज़ा कहानी-संग्रह ‘गुलजी-गाथा’ अपनी मौलिक विशेषताओं, विसंगतियों, टूटन, उत्साह, विद्रोह और मार्मिक शैली से सृजन-यात्रा का एक पड़ाव बताता है। इस संग्रह की कहानियाँ अपने परिवेशगत यथार्थ को वहाँ की मानसिकता के साथ प्रस्तुत करती हैं। भले ही ये कहानियाँ चौंकानेवाली न हों पर आपके जीवन व जगत की कहीं न कहीं हिस्सेदार अवश्य ही हैं।

मैं इतना ही कहूँगा

अपना नया कहानी-संग्रह आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसमें विभिन्न परिवेश की कहानियाँ हैं। जो गाँव, कस्बा, नगर और महानगर के जीवन की विसंगतियाँ, विडंबनाएँ, सच, हताशा और परिवर्तन का चित्रण करती हैं। आज हमारा जीवन एक साथ कई स्थितियों को उकेर रहा है—कहीं अब भी अत्यंत सामान्यता, अशिक्षा और रूढ़ियों का वर्चस्व है तो कहीं अत्यंत आधुनिकता से बदलती विचारधाराएँ तथा नैतिक मूल्य,। संक्रमण काल की ये स्थितियाँ हमारे समक्ष स्पष्ट रूप नहीं रखतीं तब लेखन से जुड़े रचनाकर्मियों के लिए उन सभी स्थितियों के प्रति तटस्थ दृष्टि रखना दुष्कर है। मैंने प्रयास किया है कि परिवेशगत यथार्थ को सही ढंग से प्रस्तुत करूँ। कहाँ तक सफल हूँ आप ही बताएँगे।

यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’

खाली जेब का दर्द

‘‘तुम मुझसे रोज-रोज क्यों मिलती हो ?’’
‘‘हम रोज-रोज खाना क्यों खाते हैं ?’’
‘‘खाने और मिलने में कोई सामंजस्य नहीं। दोनों अलग-अलग हैं।’’
‘‘शायद बोर होने के लिए या फिर ताजा होने के लिए।’’
‘‘बिल्कुल नहीं, हम रोज-रोज इसलिए मिलते हैं कि हम एक-दूसरे को आंतरिक गहराई से जानें-समझें।’’
‘‘और फिर हम परिणय सूत्र में बँध जाएँ और जीवन-भर एक-दूसरे को कोसते रहें।’’
‘‘शायद।’’

‘‘कतई नहीं।’’ देवेश की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखकर दिव्या ने कहा, ‘‘हम मिलते हैं सिर्फ इसलिए कि हम एक-दूसरे की वास्तविकता को जानें। एक-दूसरे के चेहरे को गौर से देखें कि उस पर कोई मुखौटा तो नहीं है।’’
देवेश ने हँसकर कहा—‘‘वह दिव्य-दृष्टि इस समय किसी के पास भी नहीं है कि कोई चेहरे पर लगे चेहरे को देख सके।’’
‘‘यह बात तुम्हारी सही है। इस भागमभागी युग में आदमी में इतना धैर्य कहाँ जो अपलक एक-दूसरे के चेहरे को लंबी देर तक देख सकें। हम तो क्षणों के साथ भागते हैं।’’
‘‘भागते हैं और नहीं भी भागते हैं।’’
‘‘यह असमंजस की स्थिति ज्यादा खराब है।’’

‘‘अब हमें अपने-अपने रास्ते अपना लेने चाहिए। हमारे दरवाजे हमारा इंतजार कर रहे होंगे ?’’
‘‘पुराने घरों के दरवाजे छोटे क्यों हुआ करते हैं ? यह रहस्य-सा लगता है मुझे ?’’
‘‘यह सामंती परंपरा के प्रतीक हैं कि जो भी घर में घुसे वह सिर झुकाकर घुसे। हुई न दंभ की रक्षा !’’
‘‘अजीब थे ये सनकी लोग।’’
चौराहा आ गया था। इसी चौराहे पर दिव्या और देवेश अपने-अपने घरों के रास्ते पकड़ लेते थे।
वे हर रोज मिलते थे और आपस में ऐसे संवाद बोलते थे जैसे वे कोई व्यवस्थित जीवन नहीं जी रहे हैं। अस्त-व्यस्त है उनका सबकुछ। मानसिक स्थितियाँ भी। ऊटपटाँग। बदरंग !
वे दोनों उच्च शिक्षाप्राप्त थे। दिव्या ने होम साइंस से एम.ए. किया था और देवेश ने हिंदी में एम.ए.। उसने विश्वविद्यालय में टॉप किया था। फिर लॉ किया।

दोनों एक ही कॉ़लेज में पढ़ते थे। विषय अलग-अलग थे पर कैंटीन तो एक ही था।
वह दिव्या को सदा कैंटीन में देखता था। महसूस करता था कि इस अपरिचित लड़की में कुछ ऐसा अवश्य है, जो उसे आकर्षित करता है। हृदय के अंतिम छोर तक स्पर्श करता है। लेकिन यह सब एकतरफा सोच थी। उस लड़की में भी तो कुछ प्रतिक्रिया होनी चाहिए।
आखिर एक दिन उसे अवसर मिला। बिल्कुल फिल्मी अंदाज का। दिव्या की साइकिल पंचर हो गई थी और वह भयानक गर्मी की तपिश को झेलती हुई धीरे-धीरे जा रही थी। सड़क सूनी थी। वह इधर-उधर देख रही थी जैसे अपनी दृष्टि से किसी से मदद की गुहार कर रही हो।
अचानक देवेश ने पीछे से आकर उसको डरा-सा दिया। बोला, ‘‘मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ।’’

दिव्या ने एक पल उस पर दृष्टि डाली और उसे अपनी साइकिल थमाते हुए कहा, ‘‘आप मेरी इस खटारा साइकिल को चौराहे वाली पंचर की दूकान तक घसीटकर ले जाइए और इसका पंचर निकलवाने का प्रबंध कीजिए। मैं बस से वहाँ पहुँच जाऊँगी।’’
दिव्या ने अत्यन्त खुलेपन से कहा।
भयानक धूप। सूर्य जैसे आग बरसा रहा था। सड़क का कोलतार भी जगह-जगह पिघल रहा था।
देवेश स्वयं साइकिल पर था। दाएँ हाथ से साइकिल पकड़े हुए वह अपनी साइकिल चला रहा था। चौराहे तक पहुँचते-पहुँचते वह पसीने से तर-ब-तर हो गया। उसे लगा कि उसे चक्कर आने वाला है। पंचर वाले की दुकान पर साइकिल रखकर उसने ठंडा पिया। उसे लगा कि भीतर ठंडेपन के अहसास से उसे सुख मिला है।

उसने साइकिल वाले मिस्त्री को पंचर निकालने को दे दिया और वह उसके टीन के छप्पर के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा। उसे सिगरेट पीने की इच्छा हुई पर इस विचार मात्र से उसे अपने फासिस्ट पिता याद हो आए जो नहीं चाहते थे कि उनकी संतान सिगरेट पिए। देवेश के दो छोटे भाई और बहनें थीं। देवेश सबसे बड़ा और अत्यन्त मेधावी...उसके पिता पुरुषोत्तमजी की हार्दिक इच्छा थी कि वह कोई आला अफसर बने। आई.ए.एस. या आई.पी.एस.। लेकिन वे आई.पी.एस. को ज्यादा तहजीह दिया करते थे। कहते थे, ‘‘पुलिस अफसर का रुआब कुछ और ही होता है। वह अपनी वर्दी में जब निकलता है तो एक विचित्र-सा आतंक फैलाता है। सलाम करने वालों की तो कतार लग जाती है। ऊपरी आमदनी भी खूब होती है।’’
देवेश चूँकि भावुक था। फिर दिव्या के प्रेम ने उसमें कवि हृदय पैदा कर दिया था। इसलिए वह गंभीर स्वर में बोला, ‘‘पापा ! मैं पुलिस-वुलिस की नौकरी नहीं करूँगा। जिस पेशे में क्रूरता, आतंक और अमानवीयता होती है, वह मुझे रास नहीं आएगा।’’

उसके पापा चिढ़ गए। कड़ककर बोले, ‘‘तुम समय की अनिवार्यता को नहीं समझते ? हर समय का अपना अलग सच होता है। उस सच को ग्रहण किए बिना आदमी उन्नति-प्रगति नहीं कर सकता।’’
वह अध्ययनशील भी था। अपने पिता की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखकर कहा, ‘‘पापा ! एक बात तो बताइए। क्या कोई सोने-चाँदी की रोटी खा सकता है ? क्या कोई हीरे-मोती चबा सकता है ? खाना तो अन्न ही है। उस दो रोटी के लिए आप अपने नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दें, यह बात समझ में नहीं आती।’’
‘‘तुम्हारी नैतिकता यह नहीं कहती कि अपने जन्मदाता की बात मानो ? बेटे। हर बाप अपने बेटे को लेकर कई सपने देखता है। उसके बारे में वह एक कल्पना करता है।’’

देवेश चुप रहा। उसने दीवार पर लगे कैक्टस के चित्र को देखा। 12 तरह के कैक्टस थे—उस कलेंडर में। फिर उसने कहा, ‘‘पापा ! सारे संबंध स्वार्थों के कैक्टसों से घिरते जा रहे हैं। हम सब सौदाई होते जा रहे हैं। पापा ! जीवन यह तो नहीं कि हम उसे व्यर्थ की वस्तुओं व समृद्धियों से लादते रहें। फिर एक दिन बात इतनी बढ़ जाए कि हम स्वयं भी उसके तले दब जाएँ। मैं तो एम.ए. हिंदी में करके पी.एच.डी. करूँगा और प्रोफेसर बनूँगा।’’
उसके पापा पुरुषोत्तम जी ऐसे चौंके जैसे किसी चीटी ने अचानक काट लिया हो। वे भृकुटियाँ तानकर बोले, ‘‘तुम्हारी बुद्धि घास चरने चली गई है क्या ? एम.ए. भी करोगे और वह भी हिंदी में ! कोई नहीं पूछता हिंदी-विंदी को। एम.ए. ही करना है तो इंगलिश में करो।’’
‘‘यह नहीं होगा; मैं एम.ए. हिंदी में करूँगा और लेखन के प्रति अपनी प्रतिभा का विकास करूँगा।’’

और देवेश और उसके पिता के बीच कोई बिंदुओं को लेकर तनाव बढ़ते गए। आखिर उसके बाप ने उससे अपना रिश्ता ही लगभग तोड़-सा लिया। वे दोनों एक छत और एक घर में रहकर भी अजनबी बन गए।
दिव्या और देवेश में गहरा प्रेम हो गया। दिव्या चाहती थी कि वे दोनों जीवन में सैटल होकर अपना घर बसा लें ! दोनों ने यह भी निश्चय किया कि अपने संबंधों के बीच वे किसी की भी दखलंदाजी सहन नहीं करेंगे। न जाति, न धर्म और न समाज-परिवार। ‘‘हम अपने निर्णय स्वयं करेंगे।...उन्होंने यह भी निश्चय किया कि वे माँ-बाप के लिए बलिदान नहीं होंगे। इस बार उन्हें ही अपना बलिदान करना होगा। उनके इस संवाद को अर्थहीन करना होगा—‘‘तुम लोगों ने ऐसा-वैसा किया तो हमारी लाशों पर से गुजरना होगा।’’ यदि ऐसा हुआ तो वे उनकी लाशों पर से गुजर जाएँगे।...उन्होंने अनेक निर्णय लिए और धीरे-धीरे उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी कर ली।

अब दोनों काम की तलाश में निकले। काम तो उनसे कोसों दूर था। नो वैकेंसी के बोर्ड देखते-देखते वे ऊब गए। रोजगार समाचार के अंकों से कमरे का एक-कोना आधा भर गया। उसने उनकी ओर नजर करके कहा, ‘‘तुम्हारे पृष्ठों पर कितने पद खाली हैं पर हमारे लिए एक भी नहीं।’’
टूटन के साथ देवेश और दिव्या में ग्रंथियाँ जन्मने लगीं। हताशा की ग्रंथियाँ। वह सिगरेट पीने लगा। उसके जीवन में व्यर्थता का बोध चारों ओर से दस्तक देने लगा। दिव्या की मनःस्थिति तो और भी बुरी थी। उसके पिता की जूतों की दुकान थी। बहुत कम आय। यह अच्छी बात अवश्य थी कि वे दो भाई एक बहन थे।....भाई कोई बुद्धिमान् नहीं था इसलिए पिता ने दिव्या पर सारी आशाएँ टिका रखी थीं लेकिन नौकरी तो आकाश-कुसुम बनती जा रही थी।
जिंदगी के हर मोड़ पर हारते गए वे दोनों। हारों से उनमें बेतरतीबपन आने लगा।
उस दिन दिव्या ने पूछा, ‘‘देवेश ! हमें अपना मन-चाहा जीवन तो सरलता से नहीं मिल सकता ? फिर सरलता से क्या मिल सकता है ?’’

‘‘मृत्यु मिल सकती है ?’’
‘‘जो चीज सरलता से मिलती है उसे पाने में मजा नहीं।’’ दिव्या ने सिर हिलाया।
‘‘कठिनता से सिर्फ मिलती है तो केवल नौकरी।’’
‘‘नौकरी पाने के लिए लड़ेंगे।’’
देवेश ने ज़रा मुस्कराकर कहा, ‘‘मान लो हमें नौकरी नहीं मिली। फिर भी हमनें शादी कर ली। कोई हमारा मददगार नहीं, भूखों मरने की नौबत आ गई तब हम क्या करेंगे ?’’
दिव्या ने उसका चुंबन लेते हुए कहा, ‘‘देवेश, नंगे होकर नाच करेंगे !’’
‘‘पुलिस अंदर कर देगी। सार्वजनिक स्थानों पर...।’’

दिव्या ने उसके कंधों पर अपने दो हाथ रख दिए। उसकी आँखों में आँखें डालकर वह बोली, ‘‘मेरे पास दो ठोस विचार हैं। उनसे हम बखूबी पेट भर सकते हैं।...पहला, मैं किसी होटल में कैबरे डांसर बन जाऊँ। देखो, मेरा बदन माँसल है और अंग उभरे-उभरे।....दूसरा, मैंने एक भिखारिन को गमछा पहने और छातियों पर वस्त्र लपेटे सड़क पर देखा था। लोग उसे कपड़े-पर कपड़े दे रहे थे, उनमें अधिकांश स्त्रियाँ थीं। वे स्त्रियाँ दयार्द्र थीं। उनकी आँखों में संकोच था। वे कतई नहीं चाहती थीं कि यह स्त्री अपने शील-सौंदर्य को नंगा करे पर उसे घूर-घूर कर देखने वाले मर्द कुछ और ही सोच रहे थे।....दो मर्द धीरे-धीरे फुसफुसा रहे थे। यदि इसका गमछा खुल जाए तो...।’’
देवेश ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘अपनी बकवास बंद करो। जो हम नहीं कर सकते उसके बारे में सोचकर समय की हत्या न करो।’’

‘‘हम हत्याओं के सिवा क्या कर रहे हैं।’’ दिव्या ने तल्ख स्वर में कहा, ‘‘सुबह शाम तक हम करते ही क्या हैं—अपने जीवन के एक-एक पल की हत्या ही तो ?’’ वह भड़क उठी। अपने बालों को जोर से खींचकर पुनः बोली, ‘‘हमें अपनी शिक्षा, जन्म, संघर्ष की क्या कोई वापसी मिली ? हम दोनों बार-बार असामान्य होकर अलाप करते हैं। क्यों....क्यों.....क्यों !’’
उसकी गोद में अपना मुँह छुपाकर रो पड़ी, ‘‘नहीं सहा जाता अब ! थक गई हूँ। मुझसे कोई संतुष्ट नहीं। जिन्होंने हमारे लिए बहुत कुछ किया, हमने उन्हें क्या दिया ? अपने को क्या दिया ?’’
‘‘दिव्या !’’ देवेश ने उसके बालों में अपनी उँगलियाँ उलझाते हुए कहा, ‘‘मैं जानता हूँ कि हम परास्त हो गए हैं। यह टूटन, यह व्यर्थता का बोध, यह हताशा एक दिन हमें जरूर लील जाएगी। यह असमान्यता का दौर हमारा मानसिक संतुलन बिगाड़ सकता है। मैं कुछ-न-कुछ जरूर करूँगा। इस व्यवस्था में संवेदनशीलता का कोई अर्थ नहीं। अर्थ है तो केवल एक बात का अर्थ है। वह अर्थ है...पैसा....धन।’’
वे दोनों खड़े हो गए।

सूर्य पश्चिम में डूब रहा था। वे शहर के जिस स्थल पर खड़े थे, वहाँ अस्त होते हुए सूर्य का दृश्य बड़ा मनमोहक लग रहा था।
‘‘चलो, हम आज आत्महत्या करेंगे और नया जन्म लेंगे।’’
‘‘यही अच्छा रहेगा।’’
वे दोनों आत्महत्या करके नया जन्म लेने चल पड़े।

दिव्या को मेरी एंड मेरी में सहसा अच्छी नौकरी मिल गई और देवेश ने शहर के बदनाम वकील आर.सी.दत्ता. के साथ वकालत करनी शुरू कर दी।
उसने दिव्या से पूछा, ‘‘पूरे दो साल तक धक्के खाकर तुम्हें यह नौकरी नहीं मिली और नया जन्म लेते ही मिल गई, मेरा आइडिया ठोस था न ?’’
बिल्कुल।’’
‘‘खुश हो न ?’’
‘‘केवल मैं नहीं, मेरा सारा परिवार। वे कहते हैं कि दिव्या ने अब सही रास्ता अपनाया है, कहो तुम्हारा धंधा कैसा चल रहा है ?’’

‘‘खूब अच्छा।’’ देवेश ने प्रसन्नता से कहा, ‘‘दत्ता साहब मुझ पर बड़े मेहरबान हैं।’’ उसने कंधे उचकाकर कहा, ‘‘उनका काम भी तो बड़ा जोरदार है। वे हत्यारों की जमानत करवातें हैं। एक-एक केस में हजारों से लाखों रुपये लेते हैं।....कुछ आप और कुछ....। तुम समझ गई न ?’’
‘‘मैं सब समझती हूँ। चलो, किसी शानदार रेस्त्राँ में चाय पीएँ।’’
वे दोनों शहर के अच्छे रेस्त्राँ कम बार में घुसे। चाय पीने लगे।
‘‘रेस्त्राँ अच्छा है न !’’ दिव्या ने पूछा।
‘‘ठीक...ठीक है। अब तो हम फाइव स्टार के अलावा चाय-नाश्ता करते ही नहीं।’’
‘‘यही हाल मेरा है। बॉस हैं न सप्ताह में दो बार डिनर फाइव स्टार होटल में करता है। तुम ड्रिंक करते हो ?’’
‘‘हाँ, करता हूँ और तुम....?’’

‘‘मैं भी करती हूँ। हायर सोसायटी का यह फैशन है। इसके बिना उस खनखनाते सिक्कों वाली सोसायटी में मूव नहीं कर सकते।....बहुत कुछ ऐसा करना पड़ता है, जिसे मन नहीं स्वीकारता। नशे में तो कुछ विशेष मालूम नहीं होता।...मैं तो सोचती हूँ कि ऐसी नींद की गोली इज़ाद कर दे जिसे जब बॉस के साथ कमरे में जाना हो तो ले लें, फिर गहरी नींद में बेखबर हो जाएँ। वह सड़ा हुआ आदमी क्या करता है, इसका अहसास भी न हो।’’
‘‘दिव्या। मैंने तो अच्छे-बुरे से तौबा कर ली है। अब देखो न, मेरे बॉस दत्ता साहब अपनी काली दुबली-पतली लड़की को मेरे गले में बाँधना चाहते हैं। मैंने खुशी-खुशी हाँ भर ली, दिव्या। वह उनकी इकलौती बेटी है और मेरा पूरा प्रयास रहेगा कि मैं उनके प्रति वफादार कुत्ते की तरह पूँछ हिलाता जाऊँ। वे मुझे अपना उत्तराधिकारी बना देंगे फिर मौज-ही-मौज। आप पैसे से इस समय क्या नहीं खरीद सकते।’’

‘‘देवेश !’ दिव्या ने प्रेमिल-दृष्टि से उसे देखकर बुझे स्वर में कहा, ‘‘सबकुछ नष्ट हो गया हमारा। जीवन, लड़ाइयाँ और प्रेम !’’ उसने पलकें झुका लीं। हताशा, ऊटपटाँग, खाली जेब का दर्द, भावुकता। ‘देवेश ! सबकुछ व्यापार हो गया है। विराट शब्द संबंध के नीचे रेंगते हुए साँपों के स्वार्थों की दंश पीढ़ा असह्य होती जा रही है।’’
‘‘दिव्या ! भावुक मत बनो। जो आत्महत्याएँ कर लेते हैं, उन्हें पिछले जन्म से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए। नए जन्म को उसकी वास्तविकता से जीना चाहिए। अतीत से मोह और भविष्य की चिंता ये दोनों वर्तमान को पीड़ित करते हैं। हमने पिछले जन्म में कम लड़ाइयाँ नहीं लडीं। टूट-टूटकर बिखर गए थे। खाली जेब का दर्द बड़ा पैना होता है, समझ लेंगे हमने लैला-मजनूँ की तरह प्यार का रस और दीवानेपन का कुछ अहसास तो कर लिया।’’ उसने सचेत होकर कहा, ‘‘कहाँ उलझ गए....बैरा....बैरा....।’’
बैरा आया। बोला, ‘‘जी सर....।’’

‘‘चाय को ले जाओ और दो पैग जॉ़नीवाकर व्हिस्की ले के आओ।’’
और उसने अपने दोनों हाथ दिव्या के हाथों पर रख दिए। क्षण-भर के लिए उसे अलौकिक सुकून का अहसास हुआ। वह उसे और दिव्या उसे अपलक निहारते रहे।
बैरे ने आकर व्हिस्की के पैग रखे। उन दोनों ने एक ही साँस में पी लिया जैसे अतीत को पी रहे हैं।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai