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नारी विमर्श >> पिघलता सीसा

पिघलता सीसा

निर्मला सिंह

प्रकाशक : सहयोग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5327
आईएसबीएन :81-8070-051-8

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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास...

Pighalta Seesa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पिघलता सीसा

कानपुर के उर्सला हास्पिटल का वह प्राइवेट वार्ड था। शायद न.90 । काफी अच्छा खुला हुआ कमरा था, पीछे एक छोटी-सी रसोई और उसी की बगल में बाथरूम। कमरे के आगे वाले भाग में बरामदे की ही ओर खिड़की खुलती थी और उसी के सन्निकट ही दरवाजा था। दरवाजे के पास ही बरामदे में वह लड़की उसे व्हीलचेयर पर बैठी मिलती। जब भी वह अखबार डालने आता उसे किसी ने किसी पुस्तक में मशगूल पाता। गोल-गोल गुलाबी चेहरा, बड़ी-बड़ी मछली-सी आँखें और एकदम छरहरा बदन उस लड़की की सुन्दरता में चार चाँद लगाते थे।

पता नहीं क्यों इतने दिनों से अस्पताल में रह रही है वह लड़की। यही जिज्ञासा उस समाचार पत्र-वाहक लड़के के सीने में शूल की भाँति उगी। चुभन हुई। वह तड़पा। कुलबुलाया।
पहले तो वह चुपचाप अखबार डाल जाता था, लेकिन धीरे-धीरे उसके हृदय में एक अजीब-सी सहानुभूति जन्मी, जिसके फलस्वरूप वह अखबार डालते समय उस लड़की को पल दो पल निहारने लगा। कभी-कभी लड़की की झील सी गहरी आँखों से उस लड़के की आँखों का टकराव हो जाता।

यह टकराव भी अद्भुत रोमांचकारी चीज है एक भयंकर गुदगुदाने वाला अहसास। उथल-पुथल कर देता है मूडौल की भाँति अन्तर्मनों में। उसकी साईकिल की टन्-टन् सुनकर सचेत सी हो जाती वह लड़की। चेहरे के हाव-भाव ऐसे बदल जाते जैसे सूखी टहनियों पर पत्तियाँ उग आती हों। कभी-कभी तो वह उनमेख सी मुस्कुराने लगती और फिर लजाकर किताब में आँखें गाढ़ लेती, पुनरपि कनखियों से उसकी ओर देखती। उस लड़के के हृदय का उद्वेग एक तुख़्म से एक अंकुर का रूप ले बैठा, जो धरती का सीना चीरकर अपना कोमल-सा चेहरा बाहर निकालता है—
और वह सोचने को विवश हो गया—‘‘पता नहीं क्यों इतने दिनों से बाप बेटी इस अस्पताल में एडमिट हैं। लगता है चल-फिर नहीं सकती है यह लड़की, तभी तो हमेशा व्हीलचेयर पर ही बैठी रहती है। हो सकता है किसी दुर्घटना में टाँगें खो चुकी हो या फिर लकवा मार गया हो, लेकिन कोई न कोई गड़बड़ तो है जरूर। भगवान भी कितना निर्दयी है ? कितनी भोली, शबनम सी कोमल और कुंदन से दमकते रूप वाली है यह लड़की; परन्तु है दुःखी, कितनी धनाढ्य है, गाड़ी है, हो सकता है बंगला भी हो, लेकिन है अभागिन सी’’।

हाँ, वह दिसम्बर का महीना ही था जब ऐसे ही विचार आकाश के हृदय में लहरों की तरह उठते रहते। उसका मन मस्तिष्क उद्वेलित-सा हो जाता और वह अनजाने ही सारा दिन मानसिक रूप से उसके साथ जुड़ा रहता।
जिस समय वह अस्पताल में अखबार डालने आता था। उसे बड़ा अच्छा लगता था, क्योंकि प्रातः का स्वर्णिम समय, सर्दियों की गुनगुनी रेशमी धूप जब आकाश की देह से स्पर्श करती थी तो उसे अपरलोकीय सुख अनुभूति होती थी। उसका तन-मन गुद्गुदा उठता था। यही कारण था जब वह अखबार डालने आता, गुनगुनाता रहता। उसके सम्पर्क में आने वाले सभी लोग आनन्दित और प्रफुल्लित हो जाते, क्योंकि पाठक जो कोई भी मैंगजीन मांगते, वह मुस्कुराता हुआ देता और चला जाता। उसकी मुस्कुराहट में एक अजीब सी शान्ति-तृप्ति और सुख की झलक दिखलाई पड़ती।
पाँच फिट दस इंच लंबा कद, सांवला रंग, दरमियानी सी मूंछें और घुंघराले बालों वाला आकाश सुन्दर तो नहीं स्मार्ट अवश्य था। धुली हुई प्रेस की हुई पूरी बाँह की कमीज और पैन्ट, उस पर पूरी बाँह का स्वेटर पहने रहता था वह। वैसे तो वह निर्धन था, लेकिन आचार-विचार और रहन-सहन के ढंग से पूर्ण रूप से एक मध्यवर्गीय स्तर का लगता था।
कालेज में आकाश पर पता नहीं कितनी लड़कियाँ मरती थीं। वैसे थोड़ी-थोड़ी अचेतन मन से उसकी ओर वह लड़की भी खिंच सी गई थी। कभी-कभी ऐसा होता था है कि इन्सान को कोई अजनबी धीरे-धीरे दिल की उस गहराई से भाने लगता है, जहाँ पर वह स्वयं तक नहीं पहुँच पाता है।

और हुआ भी यही उस लड़की के मन पटल पर आकाश की तस्वीर खिंचने लगी।
किसी-किसी दिन वह दोनों हवा में हिलते पत्तों की तरह से संलाप कर लिया करते थे, लेकिन बहुत थोड़ा, औपचारिक।
उस दिन भी यही हुआ। उस लड़की ने झिझकते हुए पूछा—
‘सुनिये, कादम्बनी है।’’
‘‘जी, नहीं।’’
‘‘कल आप ला देंगे।’’
‘‘जी, पूरी कोशिश करूंगा।’’
लड़की तुनकी।
‘‘इसमें कोशिश की क्या बात है ? यह तो मासिक पत्रिका है। आम बाजार में मिलती है।’’
‘‘जी, नहीं। कादम्बनी बहुत कम लोग पढ़ते हैं। वास्तव में जिनको साहित्य में शौक होता है, वही पढ़ते हैं। क्या आप भी साहित्य में रुचि रखती हैं। मैं आपको हमेशा पढ़ते हुए देखता हूँ। कभी प्रेमचन्द, कभी राजेन्द्र यादव, कभी राजेन्द्र अवस्थी और विष्णु प्रभाकर आदि बड़े-बड़े साहित्यकारों की लिखी हुई पुस्तकें ही आप पढ़ती हुई मिलती हैं।’’
‘‘अरे, आपको इतना सब कुछ कैसे पता चला ?’’ आश्चर्य से उस लड़की ने पूछा।’’
वह मुस्कुराते हुए बोला—‘जी, मैं जब भी कहीं से गुजरता हूँ, वहाँ की सब गतिविधियाँ तत्क्षण ही जान लेता हूँ। वास्तव में मेरी निरीक्षण शक्ति बहुत तेज है।’’ वह साईकिल पकड़े हुए ही बोला।

‘हाँ, लगता तो है कि आपकी स्मरणशक्ति विलक्षण है।’’
फिर रुककर वह लड़की बोली—‘‘क्या आपको साहित्य में अभिरुचि है। मुझे तो लेखन और अध्ययन दोनों से छोह है।’’
‘‘अरे, मैडम आप इतनी कठिन हिन्दी मत बोला करिये। यह छोह माने क्या होता है ?’’
‘‘छोह माने होता है प्रेम। ओह, वेरी....वेरी सॉरी...अब इतनी कठिन हिन्दी नहीं बोलूँगी, लेकिन आपसे भी एक बात कहनी है कि आप मेरा नाम मैडम नहीं इला है और आपका क्या नाम है ?
‘जी, मेरा नाम आकाश है।’
‘‘बड़ा ही सुन्दर नाम है।’’ कहते हुए इला के कपोलों पर गुलाबी आभा छिटक गयी। वह और भी अधिक सान्द्र लगने लगी।
‘‘अरे...अरे....आप बैठिए न...अब तक खड़े हैं।’’
घड़ी देखते हुए आकाश ने कहा—‘‘नहीं...नहीं मैं बहुत लेट हो गया।’’
‘लेट क्यों ? क्या मतलब ?’’
‘‘दरअसल मैं कानपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ता हूँ। एम.ए. फाईनल की परीक्षा इस वर्ष दूँगा। बी.ए. में फर्स्ट डिवीजन थी और एम.ए. प्रीवियस भी फर्स्ट’’ झेंपता हुआ आकाश बोला और फर्राटे से साईकिल को घोड़े की तरह दौड़ाता हुआ चला गया। जाते-जाते कह गया—
‘‘कल कादम्बनी जरूर ले आऊँगा।’’
‘‘थैंक यू’’। इला मुस्कुराती हुई बोली।

आकाश चला तो गया, लेकिन उसकी बातें सितारों की भाँति उसके दिल में चमकने सी लगीं। वह अखबार पढ़ते-पढ़ते ही विचारों के जंगल में घूमने लगी।
‘देखो, विपन्न होकर भी कितना शिक्षित है आकाश ? कितना स्मार्ट ? कितना अच्छा है ? पता नहीं क्यों बड़ी अजीब सी दिल में बेचैनी सी हो रही है ? क्या इसका झुकाव मेरी ओर है यदि है तो गलत। एक तो मेरा और उसकी आर्थिक स्तर बहुत भिन्न है, दूसरे मेरी टाँग कट जाएगी तो मैं विकलांग हो जाऊँगी। नहीं...नहीं मैंने किसी की सहानुभूति के टुकड़ों से भूख नहीं मिटानी। मैं एम.ए.पी.एचडी करूँगी और फिर सर्विस करूँगी। मैं स्वयं सिद्धा-आत्मनिर्भर नारी बनूँगी।’’
एकाएक इला का स्वप्न उसके पापा की आवाज से टूटा।
‘‘इला बेटी...ओ इला बेटी क्यों क्या बात है ? आज आठ बज गए, तुमने चाय भी नहीं माँगी। कहाँ खो गई तुम ?
फिर रुक कर बोले—

‘‘अरे, हाँ ! आज तुम इस अखबार वाले से बहुत देर तक बातें करती रहीं। बेटी एक बात बताऊँ ये नीच जाति के लोग गंवार होते हैं। इन्हें ज्यादा मुँह नहीं लगाना चाहिए। हाँ, इनका ख्याल रखो, लेकिन इनसे दूरी रखो।’’
इला से आकाश की अस्तुति सहन नहीं हुई। वह थोड़ा खरतल होकर बोली—
‘‘पापा, आप तो हर एक को एक तराजू से तोलते हैं। वह गरीब है तो क्या है तो हमारी ही तरह इन्सान ही। आपको पता उसने बी.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया है और एम.ए. प्रीवियस में भी फर्स्ट डिवीजन में। अब वह एम.ए. करके आई.ए.एस. में बैठेगा।’’
‘‘वह तो सब ठीक है, लेकिन बेटी हमारे और उसके स्टैन्डर्ड आफ लिविंग में बहुत अन्तर है। बेटी, दोस्ती या रिश्तेदारी सदा बराबर वालों से की जाती है। मेरी बात का अर्थ गलत मत लेना। मैं यह नहीं कह रहा कि तुम्हें उससे बात नहीं करनी चाहिए थी। तुम इन लोगों से बातें करो, लेकिन एक नपा-तुला फासला रखो ताकि रैस्पैक्ट भी बनी रहे और तुम्हारे स्वभाव में हल्कापन भी न आए।’’

खीझते हुए इला बोली—
‘‘वह तो ठीक है पापा, लेकिन मुझे आपकी यही आदत अच्छी नहीं लगती कि बात-बात पर आप भाषण देने लगते हैं।’’
फिर रुक कर बोली—
‘‘वह तो देंगे ही, क्योंकि नेता जो हैं।’’
‘‘खैर ! बेटी, छोड़ो इन बातों को आगे ध्यान रखना। लो, गरमागरम चाय पियो। आज राजेश ने चाय बहुत ही टेस्टी बनाई है। एकदम कड़क तुम्हारे स्वाद की।
चाय के घूँट भरते हुए इला को ध्यान आया कि कल रात को डाक्टर साहेब उसके पापा से एकान्त में कुछ बातें कर रहे थे, जो वह सुन नहीं सकी थी।
प्रसंग परिवर्तित करती हुए इला ने पूछा—‘‘अच्छा, पापा वह कल रात डाक्टर अंकल मेरे बारे में क्या कह रहे थे।’’
‘‘कुछ नहीं....कुछ नहीं....वह यों ही....’’ इला के पापा छिपाते हुए बोले।
पापा को झंकझोरते हुए इला ने कहा—‘‘वह यों ही नहीं पापा। कुछ खास बात तो जरूर थी। मेरी जिन्दगी मुझसे ही छिपाई जाए तो मैं उसे अपने हिसाब से कैसे बनाऊँगी पापा ?’’
इला के पापा की आँखें गीली सी हो गयीं। आवाज हल्की सी पड़ गयी। वह बड़ी मुश्किल से गले से बाहर आवाज निकालते हुए बोले—

‘‘वो...वो.... बेटी...’’
‘‘क्या पापा आप वो....वो लगा रहे हैं। बताईए न। ’’
‘‘बेटी, डाक्टर साहेब कह रहे थे कि तुम्हारी एक टाँग तो कटवानी पड़ेगी और दूसरी में फ्रैक्चर हो गया है प्लास्टर चढ़ेगा।’’
‘‘बस....इतनी सी बात है। आप क्यों दुःखी होते हैं पापा ? अरे, मैं कृत्रिम टाँग लगवा लूँगी और यह अगर टेढ़ी भी रहेगी तो क्या चल-फिर तो सकूँगी ? पापा...मेरे प्यारे पापा आप चिन्ता न करें जो कुछ भी डाक्टर अंकल कह रहे हैं, वैसा ही करिए। मैं तैयार हूँ।
मैं जीना चाहती हूँ, मरना नहीं चाहती। अब यह जिन्दगी की मेहरबानी है कि वह मुझे किस रूप में मिले ? ओह ! पापा आप फिर रोने लगे। नहीं....नहीं मेरे अच्छे पापा आपको मेरी कसम छिः छिः मर्द होकर रोते हैं।’’ इला अपने पापा के टप...टप गिरते आँसू पोंछने लगी और बोली—
‘‘पापा मैं अनित् में सम्पूर्णता खोजती हूँ। पता है पापा आपको स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे कि शून्य में भी सम्पूर्ण सृष्टि समाहृत है और मैं अनित् में सम्पूर्णता खोजती हूँ। सच है पापा शून्य ही सर्वस्व है और सर्वस्व ही शून्य है। यह सब कुछ इन्साफ की सोच पर निर्भर करता है।’’

कहते-कहते इला की आँखें एक बार रेगिस्तान सी शुष्क मुरमुटी सी हो गयी फिर दलदल सी चिपचिपी गीली नम जैसे सारी दुनिया का दर्द उसकी आँखों ने बटोर लिया हो।
इला के पापा यानि कि अशोक जी मौसम की भाँति बदलते इला के अन्तर्मन को देखकर स्तंभित से हो गए।
‘‘क्या यह वही लड़की है, जो एक्सीडेन्ट के बाद रोती थी, कहती थी ‘‘मैं नहीं जीना चाहती हूँ, पापा प्लीज मुझे मार दीजिए। पापा अब अपने-पराये सब मुझ पर दया करेंगे और बिचारी...बिचारी कहेंगे और मैं दया की बूँदें चाट-चाट कर प्यास नहीं बुझा सकती। प्लीज पापा मुझे मत बचाइए, मर जाने दीजिए। और आज यह कितनी ऊँची आसमानी ऊँचाइयों की बातें कर रही है ? यह आकस्मिक परिवर्तन इसमें क्यों और कैसे हो गया ? कहाँ से चट्टानों का सीना चीरकर उम्मीद का फूल खिल आया ? खैर ! जो भी हुआ अच्छा ही हुआ। अब फूल खिला है तो जीवन सुन्दर बनेगा और महकेगा भी। अब मेरी बच्ची नार्मल है। जीना चाहती है। मैं करोड़ों लाखों रुपये खर्च करूँगा इसका अच्छे से अच्छा इलाज करवाऊँगा और इसको इच्छानुसार जीवन जीने दूँगा।’’

अशोक उठ कर इला को प्यार करने लगे। उनके हृदय में प्यार का दरिया खूब जोरों से बहने लगा। लगता था कि इला की बातों के ताप से दिल के कोने में जमा हिम एकाएक पिघल गया हो।
एक्सीडेन्ट के उपरान्त इला अनुद्यमी और दिलगीर सी पड़ी रहती थी। चारपाई पर या मरियल चूहे की कुर्सी पर मुँह लटकाए बैठी रहती थी।

वह अब कोयल सी मृदुल गिरा से गुनगुना रही थी। बचपन से ही इसका मधुर संगीत लहरों की भाँति बरबस हृदय को आकर्षित और उद्वेलित कर लेता था। बसन्त ऋतु में जब वह गाती थी दूर-दूर तक मृदुल बसन्ती पवन उसकी स्वर लहरियों को झनन-झनन करके वातावरण गुंजित कर देता था। अपनी कोठी में लम्बे-लम्बे लगे अशोक और यूक्लिप्टस के वृक्षों पर बैठे पक्षियों की चहचहाट के साथ इली की किलकारियाँ, मस्त खिलखिलाहट दसो दिशाओं में व्याप्त हो जाती थी। इसकी चपलता, इसकी मस्ती और बाल क्रीड़ाओं ने पूरे परिवार तो क्या पूरे स्कूल को मुदित मग्न किया था। जो भी इसके सम्पर्क में आता जुड़ सा जाता। एक मनभावन, लुभावना और आकर्षमय व्यक्तित्व रहा है इस बच्ची का। इसकी नेह की डोर इतनी सुदृढ़ थी कि पूरी सिविल लाईन्स तो क्या सड़क तक भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। सबकी आँखें गीली थीं और हाय....हाय कर रहे थे। कोई ईश्वर की उपासना कर रहा था, कोई गुरुद्वारे में गुरुग्रन्थ साहेब का पाठ कर रहा था, कोई मस्जिद में अजान कर रहा था तो कोई चर्च में बाइबिल पढ़ रहा था। बच्ची क्या थी सबकी आँखों का रंगीन सपना थी। उपवन का महकता फूल थी, जिसकी सुकाम पिंजरबद्ध की जा सकती। हर कोई इस पर जी-जान लुटाने को तैयार रहता।
क्योंकि यह सबके आँसूं पोंछती, असहाय और गिरों को कंठ से लगाती, सहायता करती, नंगों को कपड़ा पहनाती, भूखों को क्षुब्ध तृप्त करती। न जाने कितनों को सिर के ऊपर छत नसीब हुई इस बच्ची के कारण।

हर कोई यह अवसर खोजता कि कब यह बच्ची हमसे दो-एक मीठे बोल बोले, हमारे उपकण्ठ आए।
ओह ! कितना दर्दनाक दृश्य था इसके एक्सीडेन्ट का। लगता था धरती फट जाएगी और आसमान टूट कर नीचे आ जाएगा। न जाने कितनी जोड़ी आँखों को रातों-रात नींद ही नहीं आई थी, इस बच्ची के एक्सीडेन्ट के बाद।
और आज मेरी वही बिटिया इतनी आदर्शवादी बातें कर रही है। अब इसमें जीने की ललक....एक चाहत...एक कोमल इच्छा ने जन्म लिया है। कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूँ। बार-बार अपनी आँखें मलकर इला के पापा स्वयं को यह अहसास दिलाते कि कहीं वह स्पन्दनहीन और संज्ञाशून्य तो नहीं हैं।
और फिर न जाने कितने दिनों बाद गुनगुनाते हुए खाना खाकर सोई हुई इला के मुख को ईक्ष्ण करके उसके पापा ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे।

ऐसे ही समय का पहिया घूमता रहा। इला की साँसों से रजनीगंधा के फूलों की महक बहने लगी। वह जीवन को तंग-सँकरी, कंकरीली, पथरीली गली नहीं, हरियाला उपवन महसूसने लगी। आपरेशन का दिन ज्यों-ज्यों समीप आता गया, जीने की तमन्ना की मायूस हिरनी जो कहीं दुबकी-सहमी बैठी थी बार-बार छलांगें लगाने लगी। इला को देखकर लगता कि वह निर्बाध...निरन्तर....निश्छल बहती निम्नगा हो, जो बाधाओं और दुःखों की बड़ी से बड़ी शिलाओं को तोड़कर, आँधी-तूफानों से लड़कर आगे बढ़ने के लिए पूर्णतया तत्पर है।
कहते हैं दृढ़ इच्छाशक्ति मृत्यु को भी रोक देती है। ललकार देती है। हुआ भी यही। इला की एक टाँग काट दी गयी और दूसरी टाँग पर प्लास्टर चढ़ गया।
‘‘मिस्टर गुप्ता यू. आर. लकी कि आपकी बच्ची की एक टाँग बच गयी। भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसको नहीं काटना पड़ा, क्योंकि एक ही टाँग में गैंगरीन हो गया था।’’

आँखों से लाख-लाख दुआए डाक्टर को देते हुए अशोक जी बोले—
‘‘थैंक यू डाक्टर। मेनी-मेनी थैंक्स कि मेरी बच्ची अब चल-फिर तो सकेगी चाहे एक ही टाँग से सही।
‘‘ओ. के. अशोक जी,’’ कहकर डाक्टर जाने लगा तो अशोक जी आँसू पोंछते हुए बोले—
‘‘सुनिए, डाक्टर साहेब क्या मैं बिटिया को देख सकता हूँ।’’
‘‘हाँ....हाँ क्यों नहीं आप अभी जाकर उसे देख सकते हैं, लेकिन उसको डिस्टर्व मत करिएगा। बोलिएगा बिल्कुल नहीं।’
‘‘ओ.के. थैंक यू डाक्टर साहेब।’’
अशोक जी इला को देखने अन्दर गए तब वह बेहोश लेटी थी, फिर भी उसके चेहरे के हाव-भाव उच्छव और जिन्दगी जीने की ललक दिखा रहे थे। कुछ पल रुककर गुप्ता जी ज्यों ही बाहर आए तो देखते क्या हैं ? कि आकाश अनगिनत सुलगते प्रश्नों को अधरों पर उगाए, बेचैन आँखों से उनकी ओर देख रहा था। दौड़कर नहीं धीरे-धीरे डरते-डरते उनके पास आया और कँपकँपाते स्वर उसके अधरों से फूट पड़े—

‘‘अंकल...अंकल इला जी का क्या हाल है ?’’ वह आगे भी बोलना चाह रहा था, परन्तु चुप हो गया।
आकाश के प्रश्न का उत्तर अशोक ने सहजता से दिया—‘‘हाँ, अब इला ठीक है। आपरेशन हो गया।’’
गंभीर आँखों से देखते हुए आकाश ने कहा—‘‘क्या इला जी की दोनों टाँगें...’’
शान्ति से अशोक जी बोले—
‘‘नहीं एक टाँग काट दी गयी है और दूसरी पर प्लास्टर चढ़ाया गया है ? पर कोई खतरे की बात नहीं है।’’
विनीत स्वर में आकाश बोला—‘‘क्या अंकल मैं इला जी से मिल सकता हूँ।’’
मानो गहरे समुद्र से दर्द को हृदय में समेटे अशोक जी ने कहा—‘‘नहीं। अभी उनसे कोई भी नहीं मिल सकता, क्योंकि वह अभी बेहोश है।’’
‘‘जी.....अच्छा !’’कहता हुआ डाली पर सूखे फूल सा मुर्झाया चेहरा लिए आकाश चला गया।
अगले दिन साईकिल पर उसके पाँव नहीं पड़ रहे थे। सोच कुछ और रहा था शरीर कहीं और जा रहा था। दोनों में तालमेल नहीं बैठा पा रहा था। अतः एक बार वह साईकिल से गिरते-गिरते बचा और एक बार स्कूटर से हल्की सी टक्कर खाकर गिर पड़ा। आखिर स्कूटर वाले ने टोक ही दिया—

‘‘भैय्या, होश में रहकर चलो, वर्ना हाथ-पाँव टूट जाएंगे।’’
सुनते ही आकाश लहरों की तरह काँप गया। कहीं मैं भी न इला जी की तरह अपंग हो जाऊँ। वह अमीर हैं। सब कुछ सह लेती हैं। अब देखो न कितना ढेर रुपया लगा है उनके आपरेशन में। खैर ! अमीर हैं तो क्या तिल भर भी अमीरी का गर्व नहीं है, वर्ना अमीरों में तो मैंने हीरे-मोती, सोने-चाँदी का हमेशा अहंकार और दर्द ही भरा देखा है। इन सब अमीरों से भिन्न हैं इला जी जैसे मणि से एक दिव्य ज्योति चारों ओर निकलती है अजब साफ अलौकिक उजाला बिखरा देती है वैसे ही सदा इनके चेहरे से दया, प्रेम और त्याग की ज्योति प्रस्फुटित होती है, जिसकी आभा से सब लोग इनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। अब देखो न मैं एक अजनबी होकर भी कितना घुल-मिल गया हूँ। मैं ही क्या इनका हाल पूछने के लिए अस्पताल की सड़क तक लोगों का तांता लगा हुआ था। यह तो अपना-अपना स्वभाव है। इला जी हैं ही इतनी सहृदय, निश्छल और सरल कि उनको देख कर लगता है जैसे प्रेम के सरोवर में उगा कोई कमल का पुष्प हो।

ऐसे ही सोचते-विचारते आकाश ने सारे अखबार बाँट दिए। उसे कालेज जाने में देर हो गयी थी, अतः उसने रास्ते में ही नगर-महापालिका की टंकी से मुँह-हाथ धोकर, एक खोखे से गरमागरम एक गिलास चाय और एक बंद लेकर खाया। बस, समझ लो यही उसका नाश्ता था।
चाय पीकर आकाश कालेज की ओर चल दिया। कालेज की भीड़भाड़ और चहल-पहल में रत्ती भर भी उसका मन नहीं लगा। निर्वाक...निःशब्द क्लासेस ऐटेन्ड करने के बाद वह कालेज की लाइब्रेरी में जा रहा था कि पीछे से उसके दोस्त ने कंधे पर हाथ रखकर कहा—
‘अबे, यार चुपचाप गुमसुम चला जा रहा है। न नमस्ते न दुआ सलाम। और वैसे भी आज तू बहुत उदास है। क्यों क्या बात है ? कहीं इश्क-विश्क का चक्कर तो नहीं चल रहा।’’ मजाक करते हुए दोस्त ने कहा।



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