बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
शूर्पणखा ने वज्रा के कपोल पर उभरी हुई नीली धारी को आंख भरकर देखा। उसके मन ने गहरी संतुष्टि का अनुभव किया।...उसने विश्वासघाती यौवन से प्रतिशोध ले लिया था। उसके मन में एक तीव्र इच्छा जागी कि वह संसार के प्रत्येक मसृण कपोल पर ऐसी ही नीली धारियां उभार दे। ऐसे कपोल शूर्पणखा को बहुत परेशान करते हैं...।
जब तक लंका के महामहालय प्रासाद में मात्र मंदोदरी भाभी ही थी, शूर्पणखा को वहां जाना भला ही लगता था, किंतु जब से मेघनाद की पत्नी सुलोचना तथा अन्य युवती रानियां वहां आ गयी थीं, शूर्पणखा का लंका जाना बहुत कम हो गया था। शूर्पणखा के बाल आज भी घने और लंबे थे। उनकी कालिमा ने अभी बहुत अधिक धोखा नहीं दिया था। उसकी परिचारिकाएं अपने काले लेपों से केशों पर अंकित होते समय के चिन्हों को बंदी बना लेती थीं। नयनों को काजल तथा अन्य शोभा-लेपों से अब भी आकर्षक बना लिया जाता था, किंतु कपोलों का कोई उपचार नहीं। इस ढीलते हुए मांस को अपने स्थान पर बनाए रखने के लिए उसने विभिन्न देशों के वैद्यों को पुष्कल धन दिया था, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। एक बार सुलोचना के चेहरे के साथ अपना चेहरा दर्पण में देखने पर उसे अपने चेहरे पर चले हुए काल-रथ के चक्र-चिन्ह स्पष्ट दीखने लगे थे। केवल काल-रथ के चिह्न ही नहीं, अतिशय भोग के प्रमाण भी...।
वज्रा चेहरे का शृंगार कर चुकी थी। वस्त्र बदलने के लिए उसने कंचुक खोला, तो शूर्पणखा की दृष्टि दर्पण में अपने शरीर के प्रतिबिंब पर पड़ी। आकार अब भी आकर्षक था, किंतु गठन क्षीण होता जा रहा था। मंदोदरी भाभी का शरीर स्थूल हो गया था, किंतु चेहरे पर स्वाभाविक आभा थी-संतुष्टि की। और शूर्पणखा ने शरीर की स्थूलता को दूर भगाने के लिए, स्वयं को सुखा डाला था। चेहरे पर आभा लाने के लिए लंका ही नहीं, उरपुर के भी विशेष लेपों और चूर्णों का प्रयोग करना पड़ता था, किंतु मंदोदरी भाभी के मुखमण्डल की आभा और आंखों की संतुष्टि शूर्पणखा को कभी नहीं मिली। वज्रा ने सुगंधित द्रव छिड़ककर प्रसाधन की संपन्नता की घोषणा कर दी। शूर्पणखा ने दर्पण में भली प्रकार अपना निरीक्षण किया। श्रृंगार और वस्त्र उसके मनोनुकूल थे, किंतु केश-विन्यास उसे नहीं रचा। वज्रा मणि जैसा केश-विन्यास नहीं कर सकती।
"केश-सज्जा का अभ्यास कर ले, तेरी नियुक्ति मणि के स्थान पर कर दूंगी।" शूर्पणखा जाते-जाते मुड़ी, "किंतु तेरा भी कोई ऐसा बालक तो नहीं है, जिसके मरने पर तू मुझे छोड़ जाए?"
वज्रा का मन कांप गया। कैसे अशुभ वचन थे! क्या स्वामिनी के मन में ममता का कण भी नहीं है?
शूर्पणखा भोजन-कक्ष में आयी। परिचारिकाओं ने तत्काल भोजन परोस दिया। किंतु उसे जैसे कुछ खाने की इच्छा ही नहीं थी। आधी घड़ी तक बैठी मधुपान करती रही। भोजन के प्रति अनिच्छा जब मधु मे डूब गयी तो उसने पशु-मांस की ओर हाथ बढ़ाया। कदाचित् मृग का मांस था। उसने एक बडा-सा खंड उठाया और उसमें दांत गड़ा दिए। तभी रक्षिका ने आकर अभिवादन किया। शूर्पणखा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
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