बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
अपने भय को नकली आवेश में छिपाता हुआ मारीच प्रायः भागता हुआ आश्रम के मुख्य द्वार की ओर चला। राम ने मुस्कराकर लक्ष्मण, सीता तथा मुखर की ओर देखा और वेगपूर्वक मारीच के पीछे चले गए। भयभीत मारीच शीघ्रातिशीघ्र आश्रम से दूर हो जाने के उद्देश्य से भागता चला जा रहा था। उसे दृष्टि में बनाए रखने के लिए राम को काफी प्रयत्न करना पड़ रहा था। उस संन्यासी की आरंभिक बातचीत से ही उसके सत्य पर उन्हें संदेह हो गया था। संभव है कि वह मूलतः संन्यासी ही न हो। इस वन में इस प्रकार का छल-प्रपंच, षड्यंत्र अथवा माया कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी...आश्रम में सबके आक्रोश के कारण, बातचीत ने जो दिशा पकड़ी थी-वह राम की अभीप्सित दिशा नहीं थी। उनके मन में आरंभ से ही स्पष्ट था कि यदि शांति से; प्रश्नोत्तर चलते रहते तो संन्यासी अपना भेद अधिक देर तक छिपा नहीं सकता। किंतु अब तो एक ही मार्ग शेष था कि संन्यासी के सम्मुख उसका झूठ प्रमाणित किया जाए।...किंतु वह तो भागा चला जा रहा था। कहीं ऐसा न हो कि घने वन में खो जाए और राम उसे खोजते रह जाएं। ऐसी स्थिति में उसका भेद कभी नहीं खुल पाएगा। संन्यासी ने स्वर्ण-मृग की प्रशंसा अवश्य की थी, किंतु यह नहीं कहा था कि स्वयं भी स्वर्ण-मृग के समान भागता है...
वन सघन होता गया। संन्यासी को दृष्टि में बनाए रखने के लिए राम को अधिक प्रयत्न करना पड़ रहा था। उनके मन में अनेक विचार आ-जा रहे थे। इस गहन वन में इस वेग से भागने वाला संन्यासी सामान्य नहीं हो सकता। पेड़ों की बाधा जैसे उसके लिए कोई बाधा ही नहीं थी। वृक्ष उसके लिए पारदर्शी हो गए थे। वह इस प्रकार भागता जा रहा था, जैसे उसका मार्ग पहले से ही निश्चित था। इस प्रदेश के लिए अपरिचित संन्यासी क्या इस प्रकार भाग सकता है? निश्चय ही यह व्यक्ति वह नहीं है, जो उसने बताया है। उसकी वास्तविकता और ही है। कौन है वह? छद्म वेश में वह आश्रम में क्या करने आया था? क्या वह सफल हुआ?, सहसा राम चौंके...कहीं उन्हें आश्रम से दूर हटा ले जाने के प्रयत्न में ही तो उसने यह सब नहीं किया? कितु यदि उसका उद्देश्य राम को आश्रम से हटाना मात्र ही था तो वह मूर्ख था। आश्रम में अभी लक्ष्मण थे, सीता थी, मुखर था-और सब ही सशस्त्र तथा द्वन्द्व-युद्ध में सक्षम थे...फिर आश्रम की सीमा के साथ ही आर्य जटायु की कुटिया थी। राम के विचारों की शृंखला टूट गयी। संन्यासी वृक्षों के पीछे कहीं ओझल हो गया था। सचमुच राम उतने वेगवान धावक सिद्ध नहीं हुए थे, जितना वह संन्यासी रूपी स्वर्ण-मृग था।
तभी राम का हृदय धक् रह गया। उन वृक्षों के पीछे से, जहां वह संन्यासी ओझल हुआ था, कोई करुण स्वर में चीत्कार कर रहा था, "हा लक्ष्मण!" राम स्तम्भित रह गए। "हा लक्ष्मण!"
तत्काल सारी गुत्थी सुलझ गयी। पुकारने वाले का स्वर, स्वयं उनके अपने स्वर से इतना मिलता-जुलता था कि आश्रम में सौमित्र तथा
सीता को यही लगेगा कि स्वयं राम उन्हें पुकार रहे हैं। निश्चित रूप से यह सारा षड्यंत्र राम को आश्रम से दूर हटाने के लिए ही था, और अब लक्ष्मण को भी पुकारा जा रहा था। अवश्य ही किसी दुष्ट की दृष्टि आश्रम में रखे शस्त्रास्त्रों अथवा स्वयं वैदेही पर लगी हुई है...मणि ने कहा था-शूर्पणखा सीता का अपहरण करवाना चाहती थी...
स्वर राम से बहुत दूर नहीं था। राम ने अपना धनुष उठा लिया। इस बार पत्ता भी हिला तो छद्म संन्यासी अपने प्राण गंवा बैठेगा...किंतु संन्यासी के वध से क्या होगा? इस षड्यंत्र का रहस्य तो नहीं खुल पाएगा...जीवित संन्यासी को पकड़ा जा सके तो उसके मन का भेद मालूम हो...
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