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राम कथा - साक्षात्कार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 533
आईएसबीएन :81-216-0765-5

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान

''तुम लोगों ने राम को देखा है?''

''हां स्वामिनी!''

''वह दढ़ियल संन्यासी है?''

''नहीं, स्वामिनी! वेश चाहे तापसों का-सा ही है किंतु दाढ़ी नहीं है, और वह बहुत सुदर्शन पुरुष है?''

''देखने में कैसा है?''

''स्वामिनी! प्रायःं चालीस वर्षो के वय का लंबा तथा हृष्ट-पुष्ट पुरुष है। वर्ण श्यामल, ऊंचा ललाट, बड़ी-बड़ी सुंदर आंखें, नुकीली-ऊंची नासिका, होंठों पर मोहक मुस्कान है।''

''तुम लोगा जाओ।...रथ में मेरी प्रतीक्षा करना।'' वह बोली, ''मैं उसे पहचान लूंगी।''

''स्वामिनी! आप अकेली...''

''जाओ।'' शूर्पणखा का स्वर कुछ कठोर हो गया, ''मत भूलो कि मैं शूर्पणखा हूं, रावण की बहन।'' अंगरक्षक चले गए और शूर्पणखा पेड़ों के झुरमुट में छिपकर खड़ी हो गयी।

आश्रम एक ऊंचे टीले पर बनाया गया था। सामरिक दृष्टि से ही इस स्थान को चुना गया था। आस-पास अनेक ऊंचे-नीचे टीले थे। उनके पीछे सैनिक छिपाए जा सकते थे, जो आश्रम से दिखाई पड़ सकते थे, किंतु सामने से आने वाले आक्रमणकारियों को उनमें से एक भी दिखाई नहीं पड़ता। शूर्पणखा का मन कुछ चंचल हो उठा। इस तथ्य की ओर खर का ध्यान जाना चाहिए। यदि वह इस तथ्य को नहीं देख पाता, तो उसे दिखाया जाना चाहिए। यदि यह आश्रम सामरिक दृष्टि से ही इस स्थान पर बनाया गया है और इसका यहां बनाया जाना संयोग मात्र

नहीं है, तो इसको बनाने वाला व्यक्ति युद्ध के भूगोल का होना चाहिए।...और उसने इस स्थान पर आश्रम बनाकर अपने साहस का भी परिचय दिया है। सारे दंडक वन में ऋषियों-मुनियों के आश्रम फैले हुए हैं, किंतु किसी ने भी जनस्थान के राक्षस-स्कंधावार के इतने निकट आने का साहस नहीं किया। अगस्त्य इतने पराक्रमी ऋषि माने जाते हैं, किंतु वे भी इधर आने की कल्पना नहीं कर सके, यद्यपि उन्होंने अशिमपुरी के कालकेयों का नाश कर दिया था।

शूर्पणखा के मन में जैसे किसी ने पुराना घाव छीलकर हरा कर दिया...कालकेय! शूर्पणखा के प्रिय और रावण के शत्रु कालकेय। रावण को कालकेय विद्युज्जिह कभी एक आख नहीं भाया और शूर्पणखा ने उसी का वरण किया। शूर्पणखा के विद्रोह और विद्युज्जिह के साहस को रावण कभी क्षमा नहीं कर सका। परिणामतः रावण ने अशिमपुरी पर आक्रमण कर विद्युज्जिह का वध किया और उसके शव के साथ सती होने के लिए चिता पर आरूद शूर्पणखा को भाई के प्रेम की सौगंध देकर उठा लाया।...किंतु शूर्पणखा जानती है कि रावण के मन ने न कभी विद्युज्जिह को क्षमा किया, न कालकेयों को।...यही कारण था कि जब अगस्त्य कालकेयों का नाश कर रहा था, तब शूर्पणखा के बार-बार कहने पर भी रावण किसी-न-किसी व्याज से उसे टालता रहा। कालकेयों की सहायता के लिए न तो वह स्वयं गया और न अपनी सेना ही भेजी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ

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