लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार

राम कथा - साक्षात्कार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 533
आईएसबीएन :81-216-0765-5

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

37 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान

दासियां घबराकर उठ खड़ी हुई। आतंक, घबराहट और असहायता में बंधी वे यह भी पूछ नहीं सकती थी कि उनका अपराध क्या है। शूर्पणखा के लिए यह बताना आवश्यक भी नहीं था।...वह धड़ाधड़ उनको पीटती रही। पूरे बल से उन पर प्रहार करती रही। ताक-ताककर उनके कोमल अंगों सर आघात करती रही।...और थोड़ी ही देर में उसे लगा कि उसका क्रोध एक उत्तेजक मद में परिणत हो गया है। उसे अपने सम्मुख खड़ी युवा, सुंदर और कोमल दासियों को पीड़ा पहुंचाने में सुख मिल रहा था। वह क्रोध की यातना में नहीं, एक मादक सुख में निमग्न उन पर आघात करती जा रही थी। प्रत्येक आघात और परिणामस्वरूप आहत दासी के सीत्कार से उसके रक्त में जैसे मधु घुल जाता, तो उसका मन आंखें बंद कर अपने भीतर सुख में झूमने को आतुर हो उठता।

मारते-मारते हाथ थक गया और सुख में बाधा पड़ने लगी तो उसने हाश रोककर आदेश दिया, ''कक्ष से बाहर चली जाओ! तुममें से किसी का चेहरा दिखाई न पड़े।''

दासियों को मुक्ति मिली। वे एक-दूसरी पर गिरती-पड़ती बाहर निकल गयीं। शूर्पणखा पलंग पर औंधी जा पडी और हांफती रही...जब और कुछ नहीं सूझा तो उसने मदिरा का भांड उठा लिया।

प्रातः आंखें खुलते ही उसे फिर एक बार मणि की आद आयी। किंतु उसका पता पाना भी कठिन था, और शूर्पणखा का प्रसाधन होना ही चाहिए था। रक्षिका को पुकारकर, शूर्पणखा ने वज्रा को बुलाने के लिए कहा। वज्रा आयी तो उसे आदेश दिया कि वह अपनी सहायिकाओं को भी बुला ले। आज शूर्पणखा का असाधारण श्रृंगार होना चाहिए-सर्वश्रेष्ठ वस्त्र, सर्वश्रेष्ठ प्रसाधन और सर्वश्रेष्ठ सुगंध। शूर्पणखा विश्वसुन्दरियो की महारानी दिखाई पड़नी चाहिए...।

दिनभर शूर्पणखा का श्रृंगार होता रहा। उसने आज मदिरा का सेवन नहीं किया। बीच-बीच में जब शरीर तथा मन ने बहुत परेशान किया तो फलों का मद्य ले लिया। वह भी बहुत अधिक नहीं...उसकी सारी चेतना, दर्पण में दीखते अपने प्रतिबिंब को निहार रही थी। उसमें क्या और कैसा परिवर्तन किया जाए कि जो दृष्टि उस पर पड़े, वह हट न सके...अपराह में वह अपने अंगरक्षकों को लेकर चल पड़ी। रथ और अंगरक्षकों को गोदावरी के इस पार छोड़, अकेले ही नदी पार कर, उस पार राम के आश्रम के सामने के वन में जा पहुंची।

दूर से ही कुछ स्वर सुनाई पड़े। वह वृक्षों में छिप गयी। ध्यान से सुना-वृक्षों पर कुल्हाडियां चल रही थी। कदाचित् कुछ लोग लकड़ियां काट रहे थे। शूर्पणखा ने उनका वार्तालाप सुनने का प्रयत्न किया। उनके शब्द बहुत स्पष्ट नहीं थे। या तो वे लोग बोल ही बहुत धीरे-धीरे रहे थे, या फिर शूर्पणखा से उनकी दूरी अधिक थी। फिर वे कितने व्यक्ति थे, और कौन थे-यह भी मालूम नहीं हो रहा था। किंतु शूर्पणखा उतनी ही निकट जा सकती थी, जहां से उसके देखे जाने की आशंका न हो। अपने अंगरक्षकों के साथ होने पर, वन में इस प्रकार लकड़ियां काटते हुए वनवासियों को दास बनाकर साथ ले आना; शूर्पणखा का प्रिय मनोविनोद था। किंतु इस समय वह न तो उस मनस्थिति में थी और न ही उसके अंगरक्षक उसके साथ थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book