बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
शूर्पणखा ने पुनः अपनी आंखें मूंद लीं। क्या अधिक आकर्षक है, राम का शरीर अथवा मुखमंडल? शरीर की दृढ़ता अथवा मुखमंडल की मुस्कान? शूर्पणखा का लोलुप मन राम के शरीर की ओर लपक रहा था, और उसकी ममता मुग्ध हो राम की मुस्कान को निहार रही थी; अंगरक्षकों का दल यदि राम को बंदी कर उठा लाया तो उसका शरीर तो आ जाएगा, किंतु वह मुस्कान? अपहृत युवक के मुखमंडल पर वैसी मुस्कान नहीं हो सकती। अंगरक्षक राम की भुजाओं को जीत भी जाएं तो उस मुस्कान को नहीं जीत पाएंगे। उसे जीतने के लिए तो स्वयं शूर्पणखा को ही जाना होगा। शूर्पणखा चौंकी। मन स्वयं ही बदल रहा था। राम को जीतने के लिये शूर्पणखा को ही जाना होगा। वह आदेश से राम को प्राप्त नहीं कर सकती। राम को अपने सौन्दर्य पर मुग्ध करना होगा, उसे राम को ही रिझाना होगा।
वह पलंग से उठ बैठी। वह स्वयं चकित थी कि काम से तपते हुए उसके शरीर में उसका मन कैसा अवश और निरीह हुआ बैठा था। इससे पहले एक ही बार उसका मन ऐसा हुआ था-विद्युज्जिह के सम्मुख। किंतु तब शूर्पणखा मुग्धा किशोरी थी। तब उसे न प्रेम का अनुभव था, न काम का, न स्त्री-पुरुष-संबंध का। उसने तब तक किसी अन्य पुरुष को जाना ही नहीं था।... किंतु अब स्थिति कितनी भिन्न थी! स्त्री-पुरुष-संबंधों को उससे अधिक कोई और क्या जानेगा। किंतु इन संबंधों में उसने प्रेम का शब्द तक कभी नहीं आने दिया। उसे न स्वयं कोई भ्रांति थी, न उसने किसी को यह भ्रांति होने दी-नारी-पुरुष-सबंध उसके लिए निर्भ्रांत रूप से काम-संबंध थे...पर क्या राम से भी वह केवल काम-संबंध ही चाहती है?...शूर्पणखा का मन उसे निश्चित उत्तर नहीं दे रहा था।
वह उठकर दर्पण के सम्मुख आ बैठी। दीपक के धुंधले प्रकाश में वह अपने प्रतिबिंब को निहारती रही।...राम उसे तब मिला जब उसके चेहरे पर काल-रथ अपने चिन्ह अंकित कर चुका था...नयनों के नीचे
काले अर्धवृत्त घिर आए थे, उभरे हुए कोमल और चिकने कपोल, ढलककर रुक्ष हो चुके थे।... क्या नहीं था शूर्पणखा के पास? रूप-रंग, यौवन-मादकता, धन-संपत्ति, दास-दासियां, रथ-घोड़े, सत्ता-अधिकार, सेना-शक्ति...वह सम्राट् रावण की बहन थी-शूर्पणखा। किंतु, उसका पहला प्रेम उसके अपने भाई के ही द्वारा वध्य घोषित किया गया। क्षति-पूर्ति के रूप में भाई ने उसे अपार वैभव तथा सत्ता दी। शूर्पणखा राक्षस-साम्राज्य की राजकुमारी भी थी और जनस्थान की स्वामिनी भी...किंतु कैसी लुटी बैठी है वह! कितनी अकेली, खंडहरों पर मंडराने वाली किसी प्रेतात्मा के समान!...स्वामिनी शूर्पणखा के पास एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं, जिसके सम्मुख वह अपना मन खोलकर रख सके। न दास, न दासी, न मित्र, न बंधु, न प्रेमी, न पति...शूर्पणखा से अधिक निर्धन और असहाय और कौन होगा? किंतु आज उसने उस व्यक्ति को देखा, जिसको पाकर वह सचमुच महारानी हो जाएगी। किंतु अब क्या है उसके पास, राम जैसे पुरुष को रिझाने के लिए? यह शरीर, जो खंडहर हो चुका है?...धन-संपत्ति, मणि-माणिक्य-जिन्हें त्यागकर वह तपस्वी बना बैठा है...।
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