लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार

राम कथा - साक्षात्कार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 533
आईएसबीएन :81-216-0765-5

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

37 पाठक हैं

राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान

सीता ने एक-एक कर राम के घाव धोए और उन पर औषधि लगा दी। प्रायः घाव सूख चले थे, किंतु माथे पर लगे त्रिशिरा के बाण तथा कवच को काटते समय खर द्वारा बायें कंधे पर मारे गए नाराच का घाव अभी भी पीड़ा दे रहा था। उन्हें सूखने के लिए समय चाहिए था,  "कितने घाव खाए हैं आपने!" सीता बोलीं, "यह शूर्पणखा का प्रतिशोध है। आपने उसे कामाहत किया, उसने आपको बाणाहत करवा दिया।"

राम हंसे, "मैंनें तो समझा था कि हम सबने मिलकर कोई बड़ा काम किया है, तुमने उसे काम-बाण और लौह-बाण के आदान-प्रदान तक सीमित कर दिया।"

"बड़ा काम तो आप सबने किया ही है।" सीता गंभीर हो गयी। वे राम के कंधे और माथे के घावों के आस-पास अपना स्नेह-भरा हाथ निरंतर फिरा रही थी, "सारा जनपद राक्षसों से शून्य हो गया है। अब यहां आश्रमों तथा ग्रामों का जीवन कैसा है-आप जानते भी हैं?"

"कैसा है?"

"उन्मुक्त। सुखद।" सीता बोलीं, "दिन-मर में कितनी ही स्त्रियां मेरे पास आती हैं। निरंतर आपकी प्रशंसा करती रहती हैं। अपने पिछले कष्टों का स्मरण करती हैं; टूट गए बंधनों की चर्चा करती हैं, भविष्य के सपनों की कथा कहती है।...और मैं मन में एक ही खेद पालती रहती हूं कि उस युद्ध में मैंने स्वयं तो भाग ही नहीं लिया, मेरे कारण बेचारे सौमित्र तथा सिंहनाद भी बंध गए।"

"दुमने भाग लिया तो।" राम स्नेहासिक्त स्वर से बोले, "जितने घायल जन-सैनिकों को तुमने अपनी औषधि से प्राण-दान दिया है, उतने लोगों के प्राण तो मैंने भी शस्त्रों से नहीं बचाये।" राम ने सीता को उनके कंधों से थाम लिया और उनकी आंखों में झांका, "मन में ऐसी भावना मत पालो। स्वयं को निरर्थक मत समझो। तुमने एक ऐसा मोर्चा संभाला है जिस पर लड़ने के लिए हमारे पास कोई सैनिक नहीं था।" राम धीमे से आश्वस्त स्वर में हंसे, "निकट भविष्य में ही निर्णायक युद्ध की संभावना है-सौमित्र को भी युद्ध का पूर्ण अवसर मिलेगा।"

"और मुझे?"

"अभी से क्या कहूं सीते! जाने तुम्हें कितना बड़ा और कैसा मोर्चा संभालना पड़ें-युद्ध का अथवा उपचार का।" राम, हंसे, "अच्छा, यह बताओ जो स्त्रियां तुम्हारें पास आती है, वे इन राक्षसों के विषय में क्या बताती हैं?"

"ओह, प्रिय!" सीता बोलीं, "उनके पास सुनाने के लिए अत्याचार और यातना की इतनी कथाएं हैं कि उनका अंत नहीं। उन्हें सुनकर यही इच्छा होती है कि इन राक्षसों को पुनः जीवित किया जार, और पुनः उनका वध किया जाए। एक बार की मृत्यु तो कोई बात ही नहीं है, उन्हें तो सैकड़ों बार मृत्यु-दंड मिलना चाहिए। और साधारण मृत्यु नहीं-यातनापूर्ण मृत्यु।...मणि ने अपनी कथा मुझे विस्तारपूर्वक सुनाई..." 

"क्या बताया मणि ने?"

"कह रही थी कि साधारणतः तो शूर्पणखा कामुक, विलासिनी, स्वार्थी तथा क्रूर स्त्री थी हीः किसी अन्य का सुखी गार्हस्थ तथा दाम्पत्य जीवन भी नहीं देख सकती थी। जहां किसी ने अपने पति अथवा संतान के अस्वस्थ होने अथवा उनकी किसी असुविधा की बात की, कि शूर्पणखा के भीतर की चुड़ैल जाग उठती थी। उसका वश चलता तो वह संसार में किसी स्त्री का न पति जीवित रहने देती, न कोई संतान!...अपनी इसी वृत्ति के कारण यह चुड़ैल उसका एक बालक खा गयी।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book