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हिन्दी की बिन्दी

शीतांशु भारद्वाज

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :199
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5330
आईएसबीएन :81-8073-041-7

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समसामयिक, राजनीति, समाज व परिवार के विविध सरोकारों का दर्पण...

Hindi Ki Bindi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आत्म रूप

सुबह कोई भी हो, सुबह ही हुआ करती है। उस समय चोर-साह भी के अंतर में पवित्रता भरी हुई होती है। सुबह हर किसी को चिंतक और तत्वज्ञानी बनाने लगती है।
मुंबई की एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी। गोविंदा गेट वे ऑफ इंडिया पर अकेला ही टहल रहा था। यों ही टहलता हुआ वह बहुत आगे निकल गया था। समीप के मंदिर में किसी महात्माजी के प्रवचन चल रहे थे। उनके उपदेश हवा में लहरा रहे थे।

सज्जनों ! जिस प्रकार देव दानव समुद्र को मंदराचल पर्वत की मथनी से मथते रहे, उसी प्रकार मानव- जाति को भी अपने भाई विचारों का मंथन करना चाहिए। उनसे प्राप्त सार तत्त्व को उन्हें ग्रहण करना चाहिए।
सुन कर गोविंदा के अंतर में यादों की घंटियाँ बजने लगीं। अपनी इन यादों से आदमी छुटकारा भी तो नहीं पा सकता ! यादें, जिन्हें याद कर वह आगे ही आगे बढ़ता जाता है। वर्षों पहले वह किशोरावस्था का हुआ करता था, सुबह सवेरे ही गाँव के मंदिर में जा कर वहाँ माथा नवाया करता था।

ठाकुराणी ! एक दिन गाँव के ज्योतिषी धर्मानंद ने उसकी माँ से कहा था, तेरा यह बालक कुछ न कुछ बन कर ही रहेगा। कहते हैं न कि पूत के पाँव पालने में ही देखे जाते हैं।
छोड़ो भी, पांडे जी ! माँ ने उनकी बात का वहीं खंडन कर दिया था, अभी से क्या कहा जा सकता है ! यहाँ तो कंगाली में आटा गीला है। मेरा गोविंद तो बिना बाप का छोरा है।
खैर ! धर्मानंद ने उसकी जन्मपत्री की तह कर माँ को थमा दी थी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

आने वाला समय सचमुच में कुछ दूसरे ही जलवे दिखलाने लगा था। गोविंदा का पिता रामसिंह वर्षों पहले ही गाँव से फरार हो चला था। वह किशोर गाँव के आवारा बच्चों की संगति में पड़ चुका था। हाई स्कूल पास करने के बाद वह घर से जेवर चुरा कर मुंबई भाग आया था। गाँव के ज्योतिषी की भविष्यवाणी समय शिला पर एकदम खरी उतरने लगी थी।
मुंबई में भी वह मवालियों की ही संगति में रहा करता था। कुछ ही वर्षों में इसे गलत कामों में महारत ही हासिल होने लगी थी। उसने अपना अलग ही गैंग बना लिया था। रात के अंधेरे में वे लोग समुद्र के रास्ते विदेशी सामान की तस्करी किया करते। उससे वह दिन-प्रति-दिन मालामाल ही होता गया। गाँव से माँ को भी वह यहीं बुलवा लाया था। आज वह सरदारों का सरदार हो आया है।

हाँ तो सज्जनों ! स्वामीजी के प्रवचन हवा में उसी प्रकार तैर रहे थे, मनुष्य एक सामाजिक और चिंतनशील प्राणी है। उसे सदा ही शुभाशुभ पर सोचते रहना चाहिए। इसी से उसका कल्याण संभव है। इसी में जगत का भी भला है। गोविंदा अपने गरेबाँ में झाँकनें लगा। अब तक वह अशुभ का ही दामन पकड़ता रहा है। उसका मन हुआ कि वह भी सत्संग में बैठ कर उससे आध्यात्मिक लाभ उठाए, किंतु तभी उसके पास सुरजा चला आया। उसने हाँफते हुए कहा, बॉस पुलिस को हमारी भनक लग गई है।

क्या बकता है ? गोविंदा उस पर लाल-पीला होने लगा, तू जा। सारी नावें खोल दे। मैं आ रहा हूँ।
गोविंदा के चिंतन में गहरी दरार पड़ चुकी थी। शुभाशुभ का विचार नहीं बिला गया। वह तेजी से गेट वे ऑफ इंडिया की ओर जाने लगा। नीचे उसकी नाव खड़ी थी। गोविंदा के बैठते ही वह नाव वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गई। आधे घंटे बाद वह साथियों के पास जा पहुँचा। जाते ही वह उन पर बरस पड़ा, पुलिस को हमारी भनक कैसे लगी ? जरूर तुम लोगों में से ही कोई न कोई ऐसा है जो-।

इस पर सभी चुप हो आए। सुरजा आग में घी डालने लगा, बॉस, ये साले सभी चुप हराम हैं।
मैं एक-एक हरामी को देख लूँगा। गोविंदा ने मूँछों पर ताव देकर उन्हें धमकी दी, मैंने तुम लोगों के बीच अपने गुप्तचर छोड़े हुए हैं। गोविंदा से पंगा लेने वाला बच नहीं सकता।
गैंग के लोग सहमे हुए थे। तभी गोविंदा ने उन्हें आदेश दिया, अब ऐसा करो कि हमारे पास जो भी माल-असवाब है, उसे समुद्र में डुबो दो। किसी भी प्रकार मेरे नाम पर बट्टा नहीं लगना चाहिए। अपने काम में हर समय पूरी चौकसी बरता करो। इसी में हम सब का कल्याण है।

गोविंदा का मन खराब हो चला था। उसी मनोदशा में वह वहाँ से सीधे घर चला आया। वह माँ के पाँवों पर गिर पड़ा, माँ। मैं गलत कामों से तंग आ गया हूँ। दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर मैंने जो कुछ भी कमाया है, वो सब मिट्टी में मिलने वाला है। बगुला भगत होने पर भी मैं पुलिस की आँखों की किरकिरी बना हुआ हूँ। अब मैं धंधों से अपना हाथ खींच रहा हूँ।
ठीक तो है रे ! शरबती उसका सिर सहलाने लगी, कभी गाँव के ज्योतिषी जी ने कहा था न कि तू गुमनामी में नहीं रहेगा। अब बहुत हो चुका है। अब इन धंधों से बाज आ जा !

ठीक है, माँ ! उसने गर्दन झुका ली, अब मैं शरीफों का जीवन जिया करूँगा।
अगले दिन चेम्बूर की झोंपड़पट्टी से निकल कर गोविंदा सीधे ही उसी मंदिर में जा पहुँचा। वहाँ नित्य की भाँति सत्संग चल रहा था। चुपचाप वह श्रोताओं के बीच बैठ गया। उसने इधर-उधर देखा। वहाँ चोर और साह सभी तो सत्संग का लाभ उठा रहे थे। स्वामी जी के प्रवचन जारी थे, सज्जनों, आज मैं आत्मरूप पर कुछ कहूँगा। हम अपने अंतर में झाँक कर देखें। अपने मन को टटोलें हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं। मध्यकाल में किसी कवि ने भी तो यही कहा था न :


भले बुरे सब एक सौं, जौं लौं बोलत नाहिं।
जानि परत है, काक पिक, ऋतु बसंत के माँहि।


स्पष्ट है कि हमारा लोक व्यवहार ही समाज में हमारी पहचान बनाता है। हमारे कर्म निरंतर हमारा पीछा करते रहते हैं। इसलिए आत्म शुद्धि के लिए हमें बराबर आत्म मंथन करते रहना चाहिए। उसी से मानव जाति का कल्याण होगा।
सत्यंग समाप्त हो चला था। श्रोतागण अपने घरों को चल दिए। गोविंदा वहीं रुक गया। वह स्वामीजी से अपनी शंकाओं का समाधान चाहता था। किंतु तभी स्वामीजी ध्यानस्थ हो आए। वह मंदिर के सभागार को देखने लगा। उसकी दीवारों पर अनेक देवी देवताओं के चित्र टंगे हुए थे। ऐसे में उसका कैशोर्य मन जाग उठा। दोनों हाथ जोड़ कर वह उन देवी देवताओं को नमन करने लगा।
कहो वत्स ! स्वामीजी के स्वर से उसकी तंद्रा भंग हुई।
भगवन् ! मैं बहुत कष्ट में हूँ। गोविंदा अपने मन की पीड़ा स्वामीजी के आगे उंडेलने लगा, मैं अब तक गलत कामों में ही डूबता रहा हूँ।

और स्वामीजी भी तो अपने अतीत का पुनर्भोग करने लगे। उनके स्मृति पटल पर गाँव के खेत खलिहान स्पष्ट होने लगे। गोविंदा का स्वर भी तो उन्हें पहचाना सा ही लगने लगा। उस मतिभ्रम की स्थिति में वे स्वयं ही गुमसुम हो आए। तभी गोविंदा ने कहा, आप किधर खो गए, महात्मन ?
मैं तुममें आत्मरूप देख रहा हूँ, बच्चा ! स्वामीजी ने गहरा उच्छवास भरा, आज न जाने।
मुझमें ? गोविंदा ने चौंक कर पूछा।
हाँ, बच्चे ! स्वामीजी बोले, सिक्के के दो पहलू होते हैं न !
मैं समझा नहीं, भगवन्।

इस समय मैं यहाँ प्रतिष्ठित पद पर आसीन हूँ। स्वामीजी उसके सामने अपने इतिहास के पृष्ठ खोलने लगे, आज सभी तो मुझे स्वामी रामगिरि के नाम से जानते हैं। किंतु मेरे इतिहास को कोई भी तो नहीं जानता।
इतिहास ? गोविंदा उस पहेली को नहीं समझ पा रहा था।
हाँ, वत्स। स्वामी रामगिरि गंभीर हो आए, कभी मैं भी तो माफिया सरदार हुआ करता था। तब मैं थोक के भाव पर गलत काम करता था। यही नहीं, मैं तो...।
तो आप पहले अवांछित व्यक्ति थे ? गोविंदा ने पूछा।
धीरे बोल, बच्चा। रामगिरि ने अपने होंठों पर अंगुली रख दी, जानता नहीं कि दीवारों के भी कान हुआ करते हैं। मेरे इतिहास के पन्ने खुलते ही मैं अलफ नंगा हो जाऊँगा।
गोविंदा को अपने कहे का मन ही मन मलाल होने लगा। तभी स्वामीजी ने उससे पूछा, तो तुम भी स्मगलर हो न ?
गोविंदा हत्प्रभ ही रह गया। तो क्या स्वामीजी त्रिकालदर्शी हैं ? उसका दिमाग चकराने लगा। स्वामीजी उसके मनोभाव ताड़ गए, यह दुनिया दोरंगी है, वत्स !

अच्छा महात्मन् ! उन्हें प्रमाण कर गोविंदा उठ गया, अब मैं भी अपने घर का रास्ता नापता हूँ।
ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे ! रामगिरि का हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठ गया।

सातवें दशक में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव में ठाकुर परिवार में रामसिंह गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे। वे मुंसिफी में मुंशी की नौकरी क्या करते थे। गाँव से ही वे ऑफिस आया-जाया करते थे। उन्हीं दिनों विकास प्राधिकरण ने उनके कुछ खेतों को अधिगृहीत कर लिया था। उनका उन्हें सरकार की ओर से भारी भरकम मुआवजा मिला था। उससे उन्होंने कस्बे के समीप की कई बीघा जमीन ली थी। बाद में उसके प्लॉट काट कर वे उन्हें बेचने लगे थे। जल्द ही वे कॉलोनाइजर हो आए थे। नौकरी से त्याग पत्र दे कर वे स्वतंत्र रूप से अपना ही धंधा करने लगे थे। उस धंधे से उनके यहाँ चांदी ही बरसने लगी थी। धन-दौलत के नशे में वे दारू भी पीने लगे थे। उनमें एक-से-एक ऐब घर करने लगे थे।

उसी वर्ष क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। दो संप्रदायों के बीच मार-काट ही मचने लगी थी। तब रामसिंह ने जातीय जोश में आकर गांव के तीन-चार आदमियों को मौत के घाट उतार दिया था। एक रात वे घर से भागने की तैयारी कर रहे थे। शरबती उन्हें प्रश्नसूचक नजरों से देखने लगी थी।


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