लोगों की राय

सामाजिक >> आखिरी पड़ाव

आखिरी पड़ाव

श्याम लाल

प्रकाशक : हिन्दी बुक सेन्टर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5349
आईएसबीएन :81-85244-12-x

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

106 पाठक हैं

एक सामाजिक उपन्यास...

Aakhiri Padaav a hindi book by Shyam Lal - आखिरी पड़ाव - श्याम लाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

प्रस्तुत उपन्यास में ऐसे लोगों की जीवन कथा है, जिन्होंने अपने जीवन को ईमानदारी से जीने का प्रयास किया और वे प्रयास करते भी रहे परन्तु फिर जैसा और जिस प्रकार का जीवन वे जीना चाहते थे, नहीं जी सके। इसमें हालात का दोष रहा, समाज का दोष रहा अथवा उनका, यह एक गंभीर और अनुत्तर प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर न तो उनके पास था और न ही वे इस उत्तर को परिवेश से पा सके और न ही समाज से। एक ही बात जीवन भर उन्हें कचोटती रही, हम क्या थे और क्या हो गये।

यह समस्या केवल ऐसे लोगों की ही नहीं है, अपितु पूरे समाज की है। समाज का जो प्रारुप होगा, वैसे ही उसमें व्यक्ति होंगे। त्याग भावना, बलिदान, की भावना, परोपकार की भावना व्यक्ति में तभी उत्पन्न होती है जब उसको तदानुसार संस्कार मिले हों।

अच्छे संस्कार मनुष्य में स्वयं उत्पन्न नहीं होते, वरन् वे बाल्य-काल में माता-पिता द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं।
परन्तु कभी-कभी संस्कारवान पुरुषों का जीवन भी उथल-पुथल हो जाता है। वह टूट जाता है, उसमें बिखराव आ जाता है। आखिर क्यों ?

इस ‘क्यों’ का उत्तर तलाशने का प्रयास किया गया है इस उपन्यास में। शेष पाठक इस ‘क्यों’ का उत्तर तलाश करें।
योल बाज़ार योल कैण्ट (काँगड़ा)
20 जनवरी, 2004 ई.
श्याम लाल वत्स

(1)


नसें तो प्रत्येक जीव में हैं। उनमें एक जैसा ही रक्त प्रवाहित होता होगा, यह ज्ञात नहीं। मनुष्य की नसों में जो खून है, वह लाल और नीला होता है। विचारों का प्रवाह खून पर पड़ता है। उनकी उत्तेजना, हताशा निराशा और पीड़ा का प्रभाव खून के संचालन पर पड़ता है। बहुत ही मानसिक तनाव से खिंचाव उत्पन्न करता है। खून कुछ इस बेतरतीब और अनियमित रूप से प्रवाहित होता है कि वह अपना वेग भूल जाता है। इसकी रिद्म समाप्त हो जाती है। उसका असंतुलित प्रवाह मस्तिष्क में पीड़ा उत्पन्न कर देता है और कभी-कभी तो इतनी पीड़ा होती है कि वह अपने आप से बरबस कह उठता है-कोई ब्लेड लेकर मेरी नस को चीर दे और इसमें से गंदा खून निकल जाए तो मझे चैन आए।

उसकी नस इसी प्रकार भड़क रही थी। आखिर उसके शरीर में इतना तेज दर्द क्यों ? उसकी नसों में क्या हो गया। ब्लेड से चीरने पर कैसी भी अनभूति क्यों न हो। वह पीड़ा इससे भी अधिक हो, इस प्रकार की पीड़ा सहने को तैयार है। क्या पता उस पीड़ा को इतनी देर भी सहन न कर सके जितनी देर से वह सिर की पीड़ा को सहन कर रहा है ? फिर क्या होगा ? उस पीड़ा के निदान के लिए क्या चाहोगे ? मृत्यु ! यदि सत्य पाने की स्थिति तक के लिए तैयार हो तो सब पीड़ा बुरी ? वह उठा और बाथरूम में घुसा और ठंडा पानी अपने सिर पर डालना शुरु कर दिया। पानी डालता रहा, जब तक दर्द तेज रहा। एक मिनट पानी डालते रहने के बाद दर्द में कुछ कमी आई। मजे की बात यह है कि वह नवम्बर का ठंडा दिन था। ठंडा पानी बर्फ की तरह लगा परन्तु न जाने क्यों दर्द में आराम आता दिखाई दिया। सिर दर्द के विषय में उसने फिराक साहब की दो पंक्तियां पढ़ी थीं-चन्दन का घिसना और सिर पे लगाना, दवा दर्द सिर है ! पर चन्दन का घिसना और लगाना भी तो दर्दे सिर है।

मन हुआ, ठंडे पानी से नहा लिया जाए। पूरा शरीर तपता होता तो, नहाने से बीमार भी हो सकता था। तौलिये से सिर पोंछकर फिर चारपाई पर आकर बैठ गया। किसी ने दरवाजा खटखटाया, ‘मैं आ सकता हूँ।’’
‘‘आ जाइए।’’
बराबर के कमरे वाले वृद्ध पुरुष ! संकेत किया, ‘‘बैठिये।’’
‘‘आपसे परिचय करने चला आया। अगर थके हों तो कल बातचीत करेंगे।’’
‘‘नहीं मैं थका नहीं, मुझे शर्मा कहते हैं, एस. शर्मा। अध्यापक था किसी स्थान पर। परिवार से पलायन करके आया हूं, इस वृद्धाश्रम में, बस इतना सा परिचय है, अधिक परिचय की अपेक्षा आपको भी नहीं होगी ?’’

‘‘वृद्ध कुछ क्षणों को लज्जित हुआ, फिर बोला, ‘‘शर्मा जी, मैं तो केवल आपके नाम का परिचय जानना चाहता हूँ, शेष कौन है, क्या करता है अथवा यहाँ किस कारण से आया है ये सब बातें जानने का किसी को भी चाव नहीं। यहाँ आए हुए लगभग चालीस वृद्ध और वृद्धाओं के जीवन एक जैसे होंगे, केवल मात्र घटनाओं का ही अंतर होगा। अच्छा मैं चलता हूँ, आप आराम करें।’’
‘‘आपका शुभ नाम’’ उसने कुछ सहम कर पूछा !
‘‘मुझे गिरीश सक्सेना कहते हैं’’, अच्छा मैं चलता हूँ, प्रातः प्रार्थना के समय भेंट होगी।

‘‘यहाँ प्रार्थना भी होती है ?’’ ‘‘हाँ और प्रातः आठ बजे से पहले सबको नहा-धोकर तैयार होना पड़ता है। साढ़े आठ बजे हॉल में प्रार्थना होती है। ‘‘सिर में कुछ दर्द अब भी था। वह लिहाफ ओढ़कर सो गया। कितनी देर सोया, इसका ज्ञान नहीं। नींद कब आती है, इसका अनुभव तो किसी को भी नहीं होता। आँखें बंद करके लेटने के बाद उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए। वह कब आएगी, इसका ज्ञान आज तक किसी को नहीं हो पाया।
प्रार्थना के बाद वह स्वामी से मिला। स्वामी जी ने उसे अपने पास बिठाया। काफी देर तक दोनों चुप बैठे रहे। स्वामी जी ने पूछा, परिवार में कौन-कौन है बेटा ?’’

‘‘पत्नी एक लड़की और दो लड़के। लड़की की शादी हो गई। बड़ा आई.ए.एस. अफसर है और तीसरा नौकरी की तलाश में है, उसने बी.ए. कर लिया है।
स्वामी जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल हूँ करके रह गए। कुछ क्षणों के बाद बोले, ‘‘तीन दिन मेहमान के रूप में रहो-आश्रम के भूगोल को समझो तथा अन्य जानकारी लो। तीन दिन के बाद तुम्हें अपना कार्य-क्षेत्र चुनना है। कार्य के बिना तो बेटा गति नहीं और भगवान ने मनुष्य को कर्म करने में पूरी स्वतंत्रता दी है, तदनुसानर फल भी उसका।’’
‘‘ठीक है स्वामी जी, आप यहाँ कितने वर्षों से हैं ?’’

‘‘लगभग दस वर्षों से, यहाँ टिकने का भी संयोग ही कह सकते हैं। घुमक्कड़ जीवन से ही यथा शक्ति सबकी सेवा करने का व्रत लिया था, परन्तु अचानक लगा कि इससे भी ज्यादा किया जा सकता है, और यह प्रेरणा मुझे एक महापुरुष लाला जगत नारायण से मिली। वे एक महान पत्रकार, राजनेता और देशभक्त थे। अपने देश की सुख-शांति और समृद्धि के लिए जीवन भर यत्न करते रहे, अपनी लेखनी द्वारा, राजनीति द्वारा और भाषणों के द्वारा।’’
मैं जानता हूँ स्वामी जी, उनके लेख और संपादकीय मैं पढ़ता रहा हूँ और उनके विचारों से सहमत रहा हूँ। पंजाब में आतंकवाद आया परन्तु उनके प्रयत्नों से पंजाब में भाईचारा समाप्त नहीं हुआ। वे सदैव आतंकवाद के खिलाफ रहे और आतंकवादियों से राष्ट्र की मुख्यधारा में आने के लिए अपील करते रहे और एक दिन आतंकवादियों के हाथों शहीद हो गए।’’

‘‘बाकी बातें फिर, अब बेटे आराम करो’’ कहकर स्वामी जी गायों के सैड की ओर चले गए और वह अपने कमरे में।
आश्रम का भूगोल लगभग एक एकड़ से अधिक भूमि, गोलाई में लगभग पचास कमरे, लगभग बारह फुट ऊँचे-आगे आठ फुट चौड़ा बरामदा पत्थर के गोल खम्भे, कमरों के लगभग मध्य में काफी बड़ा हॉल, आगे गोलाई में बरामदा और बड़े-बड़े गोल खम्भे, हॉल के ऊपर दो कमरे एक में स्वामी जी और दूसरा कमरा ऑफिस।

आश्रम द्वारा अति भव्य, तीन फीट चौड़ा, दो फीट मोटा और लगभग पन्द्रह फुट ऊँचा, द्वार के ऊपर पत्थर की बेजोड़ शिल्प कला, ऊपर का पत्थर का चित्र भी व्यक्ति को सोचने पर विवश करने वाला, द्वारा का मुख पश्चिम की ओर, दायीं दिशा में शेर का चित्र, उसके ऊपर एक व्यक्ति सवार, बायीं ओर व्यक्ति शेर के नीचे और शेर के मुँह में व्यक्ति का चित्र, शिल्पकार की कल्पना अथवा निर्मित कराने वाले की ? लेकिन कल्पना क्या ? वह काफी देर खड़ा होकर यही सोचता रहा, जब उसने प्रवेश द्वार को पार किया था।

अचानक बात समझ में आ गई। एक बात नहीं, अनेक भाव, जो उस चित्र से सम्बद्ध थे। एक तो यही कि चित्रकार ने शेर को मन की वृत्तियों का प्रतीक माना है। भाव यही कि यदि मनुष्य अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण रखे, उन पर सवार रहे तो उसका जीवन सफल है। यदि वह वृत्तियों पर अपना नियंत्रण रखना छोड़ दे, तो वे उसे खा जाएँगी, नष्ट कर देंगी। और भी अनेक भाव हो सकते हैं परन्तु जाकी रही भावना जैसी, ताहि प्रभु विलोकी तैसी।

आश्रम छह फुट की दीवारों से चारों ओर से घिरा हुआ, बाउंड्री वाल के अंदर तीन फुट के स्थान में सफेदे और दूसरे प्रकार के वृक्ष हॉल के पिछली ओर सब्जी उगाने का स्थान, कमरे के आगे दो फुट स्थान फूलों से भरा हुआ, विभिन्न प्रकार के फूल गमले में भूमि में गेट से थोड़ा आगे बायीं ओर बैड मिन्टन का कोर्ट दायीं ओर वॉली वॉल का कोर्ट।

हॉल के सामने फव्वारा, उसके चारों ओर गोलाई में ढाई फुट ऊंची बाउंड्री, उसके अंदर फूलों की क्यारियाँ, फव्वारे के चारों ओर बारह फुट के व्यास में छोटी बाउंड्री पानी से भरी हुई, फव्वारे का पानी उसमें पड़ता हुआ, फिर साईफन सिस्टम से उसी में जाता हुआ, हॉल के बरामदे पर ऊपर तक बेलें ! चढ़ी हुईं।

कमरों के बरामदों पर भी कहीं-कहीं ऊपर चढ़ी हुई बेलें हॉल से लगते हुए पीछे की ओर तीन बड़े कमरे और उनके साधारण बरामदे, एक कमरे में प्लास्टिक के लिफाफे बनाने का काम, दूसरे में साबुन और तीसरे में गत्ते के विभिन्न प्रकार के डिब्बे बनाने का कार्य।

गेट के दोनों ओर चार-चार दुकानें, जिनको चलाने वाले आश्रय के वृद्ध ! एक दुकान में धार्मिक पुस्तकें, दूसरी में खिलौने, तीसरी में चाय-मिठाई और चौथी जनरल स्टोर।

सामने सौ फुट के फासले पर बहती हुई गंगा और आश्रम के पीछे ऊँची हिमालय की हरियाली, वृक्षों से लदी पहाड़ियाँ, बायीं ओर लक्ष्मण झूला और उसके ऊपर भी पहाड़ियाँ दायीं ओर मैदानी भाग स्वामी जी ने तीन दिन तक आराम करने और चिन्तन मनन करने की सलाह दी थी। पता चला प्रत्येक वृद्ध को इस आश्रम में रहने की अनुमति नहीं थी। उपयुक्त वृद्ध ही उसमें रहने के पात्र थे। आगंतुक वृद्ध को एक प्रश्नावली और फार्म भरने को दिया जाता, जब वह प्रश्नावली को भर देता और उस आश्रम के स्तर-अनुकूल समझा जाता। अनुकूलता का मापदंड उन प्रश्नों के उत्तर थे। प्रश्न कुछ इस प्रकार-क्या आप सरकारी कर्मचारी थे ? यदि हाँ तो कितनी पेन्शन मिलती है ? क्या आप व्यापारी थे ? यदि हाँ, तो आश्रम में रहने की इच्छा का कारण ? आपके परिवार का ब्यौरा, आप आश्रम में रहने के लिए उसके नियमों का पालन करने को तैयार हैं ?

निराश्रय एवं असक्त वृद्धों के रहने की अनुमति स्वामी जी की इच्छा पर थी। अब तक उस आश्रम में चार-पाँच वृद्ध ही ऐसे थे, जो असहाय एवं आंशिक अपंग थे।
पहले दिन वह आश्रम और उसके चारों ओर के दृश्यों को देखता रहा। दोपहर को भी वह भोजन करने के लिए आश्रम में नहीं गया। जेब में छह सौ रुपए से ऊपर था, ऋषिकेश में एक भोजनालय में उसने भोजन कर लिया, सिगरेट और चाय भी वह यथा समय पीता रहा।

दोपहर बाद उसका मन हर की पौड़ी पर जाने को हुआ। बस में बैठा और हरिद्वार हर की पौड़ी पर काफी देर बैठा रहा, फिर वापस आश्रम में।
शाम को उसने बाहर जाकर ही खाना खाया। यूं आश्रम का भी भोजनालय था, परन्तु वहाँ जाने का उसका मन नहीं किया।
रात को वह प्रार्थना में सम्मिलित हुआ। पिछली रात की तरह उसने भजन नहीं गाया। सक्सेना साहब ने कहा भी, परन्तु उसने गर्दन हिला दी।

कमरे में आकर वह अपने पलंग पर बैठ गया और पैरों पर लिहाफ ले लिया। तभी सक्सेना साहब आ गए। ‘‘चाय पिओगे शर्मा जी !’’
‘‘पी लेंगे। कैंटीन में जाना पड़ेगा या ?’’
‘‘नहीं यहीं मंगवायी है। मैंने पहले ही दो कप के लिए कह दिया है’’ कहकर वह पलंग के पास वाली कुर्सी पर बैठ गए। उन्होंने ठंड से बचने के लिए गर्म शॉल लपेट रखा था।
चाय आ गई। चाय पीते हुए सक्सेना साहब बोले, ‘‘आज दिन में कहाँ चले गए थे ?’’
‘‘बस ऐसे ही घूमता रहा इधर-उधर। थोड़ी देर के लिए हरिद्वार भी गया था। ’’

‘‘मुझे भी कहते, तो साथ चल पड़ता। परसों रात को प्रार्थना सभा में गीत गाया, उसने मेरा मन भारी कर दिया था बल्कि आँखों में आँसू आ गए थे।’’
वह कुछ नहीं बोला। कहता भी क्या ? उसने प्रशंसा की और उसने सुन ली। गीत उसने गाकर अपने मन की स्थिति को प्रकट किया था परन्तु वह इस बात को जानता था कि यही मनोभाव और स्थिति अन्य सामने बैठे हुए वृद्ध लोगों की भी है। अचानक वह सक्सेना साहब से पूछ बैठा, ‘‘सक्सेना साहब, एक बात बताएँगे ?’’
‘‘हाँ ! हाँ, पूछिए।’’
‘‘आदमी बूढ़ा कब होता है ?’’

‘‘आयु के हिसाब से बूढ़ा साठ वर्ष के बाद समझा जाता है और जहाँ तक मन का सम्बन्ध है, वह पचास से कम आयु का भी बूढ़ा हो जाता है, भले ही उसका शरीर जवान क्यों न हो’’ थोड़ा मुस्कराकर बोले, ‘‘बाई दी वे आपकी आयु क्या है ?’’
‘‘सत्तावन वर्ष।’’
‘‘आप शरीर से तो बूढ़े नहीं हुए परन्तु लगता है मन से अपने आपको बूढ़ा समझने लगे हैं।’’
उसने एक लम्बी सांस लेकर कहा, ‘‘आपने ठीक ही कहा। मैं मन से बूढ़ा हो चुका हूँ और इसका भी एक कारण है।’’
‘‘जान सकता हूँ।’’

‘‘मेरी शादी सोलह वर्ष की उम्र में हो गई थी। अट्ठारह वर्ष की उम्र में पहला बच्चा, इक्कीस वर्ष की उम्र में दूसरा और चौबीस वर्ष की उम्र में तीसरा। इस समय पहली लड़की की आयु उनतालीस वर्ष, जिसकी शादी हो चुकी है, दूसरा लड़का आई.ऐ.एस. है और तीसरा भी तीस वर्ष का होने जा रहा है। शादी किसी भी लड़के की नहीं हुई, और सचमुच ही आयु से न सही, मन से बूढ़ा हो चुका हूँ।’’
‘‘अच्छा, अब आप आराम करें, मैं चलता हूँ।’’
दूसरे दिन भी वह इधर-उधर घूमता रहा, शाम को प्रार्थना के पश्चात् स्वामी जी ने अपने पास बिठाकर पूछा, ‘‘बेटा अब, मुझे पूरी बात बताओ, और यह भी कि इस आश्रम में आकर रहने के पीछे कौन सा कारण है ? यह तो संयोग था कि मैं तुम्हें मिल गया हूँ। मेरे होने की कल्पना तो तुमने की भी नहीं होगी।’’

‘‘आप ठीक कहते हैं, स्वामी जी’’ उसने स्पष्ट कहा, ‘‘मैंने तो केवल सुना भर था कि यहाँ वृद्धाश्रम है और चला आया।’’
वह कुछ गंभीर हो गया, बात, कहाँ से शुरू करें और किस प्रकार। अपने जिस दृष्टिकोण को लेकर उसने अपना परिवार छोड़ा, क्या उस दृष्टिकोण से स्वामी जी सहमत होंगे ? स्वामी जी से, वह लगभग तीस सालों बाद मिल रहा था। उसका मिलना भी एक संयोग मात्र रहा। उसने धीरे-धीरे उत्तर दिया, ‘‘स्वामी जी।’’

‘‘ठहरो बेटा’’, स्वामी जी उसकी बात सुनने से पहले ही बोल पड़े, ‘‘अपने अतीत के विषय में जो भी बताना है, लिखकर बताओ, और हाँ, तुमने यहाँ रहने के लिए अपना मन बना लिया है ?’’
‘‘अभी तो स्वामी जी...’’
‘‘तीन दिन और सोच लो फिर बता देना’’, कहकर वे अपने कमरे की ओर चल दिए और वह अपने कमरे में चला गया।
उसने जब घर छोड़ा या रात को घर से भागा तो उसके पास पूरी बाजू का स्वेटर, कमीज और वर्सटिड की काली पैंट थी। उन्हीं कपड़ों में वह बिना पैसे के निकला। धर्मशाला में आकर हाथ की अंगूठी बेचकर एक हजार रुपए मिले, पठानकोट में कम्बल खरीदा और सहारनपुर आकर तौलिया-साबुन, सेविंग सामान, बनियान और कच्छा खरीदा, टूथ ब्रुश और पेस्ट हरिद्वार आकर लिया। इच्छा थी कि एक कमीज पैंट और बनवा लूँ परन्तु नहीं बनवा सका, हाँ, एक पायजामा बनवा लिया था।

पैंट उतारकर उसने पायजामा पहना और पलंग पर बैठ गया। जिस कमरे में स्वमी जी ने उसे ठहराया, उसे लगा कि वह गैस्ट रूम है। उसमें पहले से बिस्तरा बिछा हुआ था। तकिया, लिहाफ, बाथरूम में तौलिया, साबुन, बाल्टी और मग आदि सब कुछ था। इसी प्रकार कमरे में पर्दे लगे थे और मेज-कुर्सी के साथ-साथ टेबल लैम्प, एक राड का हीटर भी था। कमरे में आकर उसे लगा कि जैसे वह अपने घर में है। आज उसका मन कर रहा था कि कुछ लिखे पर क्या। उसने रास्ते में एक डायरी ली थी, उसी में वह कुछ लिखने का इच्छुक था। उसने मेज से डायरी उठाई और पलंग पर ही बैठकर लिखने की सोचने लगा। जवानी के दिनों में उसने छावनी बोर्ड में अध्यापन का कार्य करते वक्त मानवीय सम्बन्धों पर आधारित कविताएँ लिखी थीं, कुछ और भी अन्य प्रकार की कविताएँ। उसके सहयोगी अक्सर उसके लिखे की तारीफ करते, चाहे वह तारीफ को मज़ाक के लहजे में करते थे फिर भी वह सहयोगियों की प्रशंसा से उत्साहित होकर और कुछ लिख डालता था। उसके पास छावनी बोर्ड में कविताओं की एक पूरी फाइल थी। उसने कुछ कहानियाँ भी लिखीं, एक दो का प्रकाशन भी हुआ। उसने एक दो टीचर की विदाई पर कविताएँ लिखीं। उस दिन उसका मन फिर कुछ लिखने को कर रहा था। अचानक उसके मन में कुछ अजीब सी कुलबुलाहट सी होने लगी। लिखने का विचार छू-मंतर हो गया। डायरी और पैन सिरहाने के पास रखकर वह उस दिन का अखबार पढ़ने लगा, जो आश्रम के दफ्तर से पहले ही लाकर रख दिया था।

लगभग साढ़े नौ बजे के आसपास सक्सेना साहब ने दरवाजा खटखटाया...
‘‘आ जाइए।’’
सक्सेना साहब कुर्सी पर बैठकर बोले, ‘‘चाय मंगवाते हैं।’’
‘‘बिल्कुल ! लेकिन आज पेमेंट मैं करुँगा।’’
‘‘लेकिन अब तो मैं पेमेंट कर आया, चाय आती होगी।’’
‘‘फिर कल मैं कर दूँगा।’’

चाय पीने के बाद सक्सेना साहब बोले, ‘‘अखबार में कोई खास बात ?’’
‘‘खास बात क्या, वही आतंकवाद की खबरें। पाकिस्तान आतंकवादियों को शह दे रहा है और श्रीनगर में रोज ही वारदात होती है। किश्तवाड़ और अनंतनाग बहुत ही नाजुक क्षेत्र बने हुए हैं। सक्सेना साहब, हम दो टूक पाकिस्तान से फैसला क्यों नहीं कर लेते, आर या पार।’’

‘‘यही तो हमारी सरकार की विवशता है। प्रश्न तो विश्व बिरादरी का है। खासतौर से अमरीका का रुख देखना पड़ता है। सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् अमरीका पूरे संसार पर थानेदारी कर रहा है। ईराक में उसने खाड़ी युद्ध में तबाही मचाई, वह जग जाहिर है। अब अमरीका नहीं चाहता कि हम पाकिस्तान के साथ जंग में उलझें। वह चाहता है कि शिमला समझौते के अंदर बातचीत हो और दबी जबान से कूटनीति की भाषा में यह भी कहता है कि कश्मीर के लोग भी उसमें तीसरा पक्ष हों। यह बात भारत को मान्य नहीं। अमरीका की नीति तो यह है कि किसी तरह कश्मीर भारत और पाकिस्तान से अलग होकर अलग देश बन जाए और वह चीन पर नजर रखने के लिए, कश्मीर में अपने सैनिक अड्डे कायम कर ले।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai