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श्रीमद्भगवतगीता

महर्षि वेदव्यास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 539
आईएसबीएन :000000000

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मनुष्य के उत्कर्ष की घोषणा करती भगवद्गीता समूची मानव जाति के उत्थान की पथ प्रदर्शिका है।(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)

Bhagwadgita - A hindi book by Maharishi Vedvyas

श्रीपरमात्मने नमः

श्रीमद्भगवतगीता

अथ प्रथमोध्यायः

 

श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्घ है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात् जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है। उसी प्रकार अर्जुन जो कि महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और कर्मक्षेत्र से निराश हो गया है। अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो जाते हैं। भारत वर्ष के ऋषियों नें गहन विचार के पश्चात् जिस ज्ञान को आत्मसात् किया उसे उन्होंने वेदों का नाम दिया। इन्हीं वेदों का अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। मानव जीवन की विशेषता मानव को प्राप्त बौद्धिक शक्ति है और उपनिषदों में निहित ज्ञान मानव की बौद्धिकता की उच्चतम अवस्था तो है ही, अपितु बुद्धि की सीमाओं के परे मनुष्य क्या अनुभव कर सकता है यह हमारे उपनिषद् एक झलक दिखा देते हैं। उसी औपनिषदीय ज्ञान को महर्षि वेदव्यास ने सामान्य जनों के लिए गीता में संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है। वेदव्यास की महानता ही है, जो कि 11 उपनिषदों के ज्ञान को एक पुस्तक में बाँध सके और मानवता को एक आसान युक्ति से परमात्म ज्ञान का दर्शन करा सके।

 

धृतराष्ट्र उवाच

 

धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाच्चैव किमकुर्वत संजय।।

 

धृतराष्ट्र बोले- हे संजय ! धर्मभूमि कुरूक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डुके पुत्रों ने क्या किया ? ।। 1।।

 

संजय उवाच

 

दृष्ट्रा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसडग्म्य राजा वचनमब्रवीत्।।

 

संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा ।। 2।।

 

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूस्।
व्यूढ़ां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।

 

हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्रद्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।। 3।।

 

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटच्श्र द्रुपदच्श्र महारथः।।

 

धृष्टकेतुच्श्रेकितानः काशिराजच्श्र वीर्यवान्।
पुरूजित्कुन्तिभोजच्श्र शैब्यच्श्र नरपुग्ङवः।।

 

युधामन्युच्श्र विक्रान्त उत्तमौजाच्श्र वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाच्श्र सर्व एव महारथाः।।

 

इस सेना में बड़े-बड़े धनुषोंवाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यिक औप विराट तथा महारथी राजा दुपद्र, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरूजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी हैं।। 4-6।।

 

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सज्ज्ञार्थ तान् ब्रवीमि ते।।

 

हे ब्राह्माण श्रेष्ठ ! अपने पक्ष में जो भी प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ।। 7।।

 

भवान् भीष्मच्श्र कर्णच्श्र कृपच्श्र समितिज्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णच्श्र सौमदत्तिस्तथैव च।।

 

आप- द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा।। 8।।

 

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यत्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।

 

और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं।। 9।।

 

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
प्रर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाबिरक्षितम्।।

 

भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।। 10।।

 

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।

 

इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निःसन्देह भीष्मपितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।। 11।।

 

तस्य सज्जनयन् हर्ष कुरूवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख्ङ दध्मौ प्रतापवान्।।

 

कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़के समान गरजकर शंख बजाया।। 12।।

 

ततः शंखाच्श्र भेर्यच्श्र पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।

 

इसके पश्चात् शंख और नगारे तथा ढोल, मृदग्ङ और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।। 13।।

 

ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवच्श्रैव दिव्यौ शन्खौं प्रदध्मतुः।।

 

इसके अन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये।। 14।।

 

पाच्ञजन्यं ह्वषीकेसो देवदत्तं धनज्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख्ङौ भीमकर्मा वृकोदरः।।

 

श्रीकृष्ण महाराज ने पाच्ञजन्य-नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र-नामक महाशंख्ङ बजाया।। 15।।

 

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्र्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।

 

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय-नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक-नामक शंख्ङ बजाये।। 16।।

 

काश्यश्र्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्रो विराटश्र्च सात्यकिच्श्रापराजितः।।

 

द्रुपदो द्रौपदेयाश्र्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्र्च महाबाहुः शंखन्दध्मुः पृथक्पृथक्।।

 

श्रेष्ट धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम् तथा राजा विराट और अजेय सात्यिक, राजा द्रुपद एवं द्रुपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु- इन सभी ने, हे राजन् ! सब ओर से अलग-अलग शंख्ङ बजाये।। 17-18।।

 

स घोषो धार्तराष्ट्राणां ह्रदयानि व्यदारयत्।
नभश्र्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।

 

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात् आपके पक्षवालों के ह्रदय विदीर्ण कर दिये।। 19।।

 

अथ व्यस्थितान्दृष्ट्रा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्रसम्पाते धनुरूद्यम्य पाण्डवः।। ह्रषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

 

अर्जुन उवाच

 

सेनयोरूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।

 

हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ह्रषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीचमें खड़ा कीजिये।। 20-21।।

 

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्दाकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे।।

 

और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्धरूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये।। 22।।

 

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।

 

दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहनेवाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये है, इन युद्ध करनेवालों को देखूँगा।। 23।।

 

संजय उवाच

 

एवमुक्तो ह्रषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरूभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।

 

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति।।

 

संजय बोले- हे धृतराष्ट्र ! अर्जुनद्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख।। 24-25।।

 

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।
श्र्वशुरान् सुह्रदश्र्चैव सेनयोरूभयोरपि।

 

इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचाको, दादों-परदादोंको, गुरूओंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुह्रदोंको भी देखा।। 26।। और 27 वें का पूर्वार्ध।।

 

तान् समीक्ष्य स कौन्तेयःसर्वान् बन्धूनवस्थितान्।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

 

उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करूणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।। 27वेंका उत्तरार्ध और 28वेंका पूर्वार्ध।।

 

अर्जुन उवाच

 

दृष्टेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्र्च शरीरे में रोमहर्षश्र्च जायते।।

 

अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अग्ङ शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमान्च हो रहा है।. 28 वेंका उत्तरार्ध और 29।।

 

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्मते।
न च शक्रोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च में मनः।।

 

हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिए मै खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ।। 30।।

 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।

 

हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता।। 31।।

 

न काङक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।

 

हे कृष्ण ! मै न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखोंको ही। हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? ।। 32।।

 

येषामर्थे काङिक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।

 

हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट है, वे ही ये सब धन और जीवनकी आशाको त्यागकर युद्धमें खड़े हैं।। 33।।

 

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्र्चशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।

 

गुरूजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग है।। 34।।

 

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्रतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।

 

हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है ? ।। 35।।

 

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः।।

 

हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।। 36।।

 

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।

 

अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं, क्योकिं अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ।। 37।।

 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।

 

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्धिर्जनार्दन।।

 

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोषको और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाशसे उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए ? ।। 38-39।।

 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्रमधर्मोऽभिभवत्यतु।।

 

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।। 40।।

 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यति कुलस्रियः।
स्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंक्ङरः।।

 

हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंक्ङर उत्पन्न होता है।। 41।

 

संक्ङरो नरकायैव कुलघ्रानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्वोषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।

 

वर्णसंक्ङर कुलघातियों को कुल को नरक में ले जाने के लिए हीहोता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित इनके पितरलोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।। 42।।

 

दोषैरेतैः कुलघ्रानां वर्णसंक्ङरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्र्च शाश्र्वताः।।

 

इन वर्णसंक्ङरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं।। 43।।

 

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्यणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।

 

हे जनार्दन ! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित कालतक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।। 44।।

 

अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।

 

हा ! शोक ! हमलोग बुद्धिमान होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गया हैं, जो राज्य और सुख के भोग से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गये हैं।। 45।।

 

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्टा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।

 

यदि मुझ शस्त्ररहति एवं सामना न करने वाले को हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा।। 46।।

 

संजय उवाच

 

एवमुक्त्वार्जुनः सड़्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्रमानसः।।

 

संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्र मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।। 47।।

 

ૐ तत्सदिति श्रीमद्भगवतगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोअध्यायः।। 1।।



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