भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का गौरवशाली इतिहास हिन्दी साहित्य का गौरवशाली इतिहासफरहाना ताज
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हिन्दी साहित्य का इतिहास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह एक बड़ी ही आश्चर्यपूर्ण बात है कि सूरदास से पूर्व किसी भी हिन्दी कवि
ने वात्सल्य रस का चित्रण नहीं किया, पर सूरदास ने पहली बार रस क्षेत्र
में इतना सुन्दर कहा है कि इस सम्बन्ध में औरों के लिए कुछ कहने को नहीं
रहा। सूर के वात्सल्य वर्णन के बाद सब उनकी जूठन है। उन्होंने बाल्य जीवन
की साधारण से साधारण घटनाओं और चेष्टाओं का अत्यंत मनोवैज्ञानिक तथा
कलात्मक वर्णन किया है।
एक तरफ जहाँ बालहठ का चित्रण ‘‘मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लेहों’’ बड़ा सजीव बन पड़ा है। वहीं दूसरी तरफ बालक में सहज ईर्ष्या का चित्र कितना हृदयहारी बन पड़ा है-‘‘मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ’’ गोपियों के उलाहना देने पर कृष्ण का चातुर्यपूर्ण उत्तर ‘‘मैया मैं नाहि माखन खायों’’ सूर की बाल मनोविज्ञान की गहरी पहचान का परिचायक है। और अन्तोगत्वा माता के कृष्ण की खरी तीखी बात ‘‘मैया मैं न चरैहों गैया’’ कितना मार्मिक व रसपूर्ण बन पड़ी है। कहने का तात्पर्य यह है कि सूरदास ने बाल सुलभ हृदय की किसी वृत्ति या भाव को छोड़ा नहीं है, इसलिए सूरदास को बालकों के चरित्र चित्रण के क्षेत्र का सम्राट् कहा गया है।
एक तरफ जहाँ बालहठ का चित्रण ‘‘मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लेहों’’ बड़ा सजीव बन पड़ा है। वहीं दूसरी तरफ बालक में सहज ईर्ष्या का चित्र कितना हृदयहारी बन पड़ा है-‘‘मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ’’ गोपियों के उलाहना देने पर कृष्ण का चातुर्यपूर्ण उत्तर ‘‘मैया मैं नाहि माखन खायों’’ सूर की बाल मनोविज्ञान की गहरी पहचान का परिचायक है। और अन्तोगत्वा माता के कृष्ण की खरी तीखी बात ‘‘मैया मैं न चरैहों गैया’’ कितना मार्मिक व रसपूर्ण बन पड़ी है। कहने का तात्पर्य यह है कि सूरदास ने बाल सुलभ हृदय की किसी वृत्ति या भाव को छोड़ा नहीं है, इसलिए सूरदास को बालकों के चरित्र चित्रण के क्षेत्र का सम्राट् कहा गया है।
समर्पण
हदयवासी पूज्य सौहर श्री ताजुद्दीन शेख व आंचल की मोती सुपुत्री कुमारी
निधा बेगम को बस यही मेरा घर संसार है।
भूमिका
जिस तरह सात सुरों के बिना संगीत की कल्पना नहीं की जा सकती, ठीक उसी
प्रकार हिन्दी के बिना हिन्दुस्तान की कल्पना करना असंभव है और यदि
हिन्दुस्तान की कल्पना करना ही असंभव हो जाए, तो उस समय ब्रह्माण्ड में यह
पृथ्वी ही नहीं होगी। हिन्दुओं के एकधर्म ग्रंथ विष्णु पुराण के अनुसार
हिन्दुस्तान का अस्तित्व सृष्टि के प्रलय काल तक बना रहेगा। हिन्दुस्तान
के बिना यह पवित्र भूमि निश्चय ही मनुष्यों के रहने लायक नहीं हो सकती,
क्योंकि धरती पर यदि कहीं जन्नत है, तो वह केवल भारतवर्ष भी है।
हिंदी भाषा हमारे देश की पहचान है तथा हम अपनी संस्कृति इतिहास और दर्शन के बारे में हिन्दी के अलावा किसी अन्य माध्यम से नहीं जान सकते। यह सही है कि अंग्रेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, लेकिन अपने देश में अपनी ही भाषा की उपेक्षा करना कहाँ तक उचित है ? जिस तरह किसी के सिर पर पैर रखकर ग्रह एवं नक्षत्रों पर नहीं पहुंचा जा सकता, उसी प्रकार हिन्दी की उपेक्षा करके अंग्रेजी को भारत की आवाज (भाषा) नहीं माना जा सकता। सच्चाई तो यही है कि भारत को हिन्दी भाषा उद्भव काल से मिली है, इसलिए इसकी तुलना अंग्रेजी से करना असंभव है, क्योंकि अंग्रेजी तो भारतीयों के लिए पराई या रखेल भाषा है। अंग्रेजी जहां मात्र मनोरंजन की भाषा है, वहीं हिन्दी दिल और दिमाग को जोड़ने वाली भाषा है।
हिंदी भाषा हमारे देश की पहचान है तथा हम अपनी संस्कृति इतिहास और दर्शन के बारे में हिन्दी के अलावा किसी अन्य माध्यम से नहीं जान सकते। यह सही है कि अंग्रेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, लेकिन अपने देश में अपनी ही भाषा की उपेक्षा करना कहाँ तक उचित है ? जिस तरह किसी के सिर पर पैर रखकर ग्रह एवं नक्षत्रों पर नहीं पहुंचा जा सकता, उसी प्रकार हिन्दी की उपेक्षा करके अंग्रेजी को भारत की आवाज (भाषा) नहीं माना जा सकता। सच्चाई तो यही है कि भारत को हिन्दी भाषा उद्भव काल से मिली है, इसलिए इसकी तुलना अंग्रेजी से करना असंभव है, क्योंकि अंग्रेजी तो भारतीयों के लिए पराई या रखेल भाषा है। अंग्रेजी जहां मात्र मनोरंजन की भाषा है, वहीं हिन्दी दिल और दिमाग को जोड़ने वाली भाषा है।
हिन्दी भारत की आत्मा है और आत्मा अजर-अमर होती है, फिर भला हिन्दी का
अस्तित्व कौन मिटा सकता है।
तेजपाल सिंह धामा
यूनेस्को द्वारा नवीनतम गणना के अनुसार, विश्व में सर्वाधिक बोली जाने
वाली भाषाओं में हिन्दी का स्थान चीनी, अंग्रेजी और रूसी के बाद चौथा माना
गया है। इस महत्त्वपूर्ण और व्यापक जनभाषा के विकास की कहानी आर्य भाषा
संस्कृति और इतिहास का अटूट अंग है।
ताराचंद कमेटी की सिफारिशों के अनुसार हर पाँच वर्षों के अनन्तर हिन्दी की राष्ट्रव्यापी प्रगति व प्रचार- प्रसार की समीक्षा के बाद 15 वर्षों के पश्चात् हिन्दी को राष्ट्रभाषा के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कर देना चाहिए था, किंतु 1965 में संविधान में संशोधन कर इसे अंग्रेजी के साथ सहभाषा का दर्जा दे दिया गया और साथ-साथ यह भी पारित कर दिया गया कि जब तक हिन्दी के राष्ट्रभाषा के बारे में सारे देश अर्थात् समस्त राज्यों की सहमति नहीं बनती, तब तक हिन्दी को किसी पर थोपा नहीं जाएगा। लेकिन हमारे विचार से जब तक शिक्षा न्यायालय और विज्ञान की भाषा हिन्दी में नहीं होगी, तब तक हिन्दी को उसका गौरवाशाली स्थान नहीं मिलेगा।
प्रस्तुत पुस्तक की लेखिका की मातृभाषा हिन्दी नहीं है, फिर भी विद्यार्थी अवस्था से ही हिन्दी साहित्य भाषा व भारतीय संस्कृति के प्रति इसकी विशेष अनुराग व रुचि रही है। इसलिए लेखिका ने भारतवर्ष के अनेक स्थलों का भ्रमण कर हिन्दी भाषा व संस्कृति को करीब से देखा है। लेखिका विभिन्न विद्यालयों,
ताराचंद कमेटी की सिफारिशों के अनुसार हर पाँच वर्षों के अनन्तर हिन्दी की राष्ट्रव्यापी प्रगति व प्रचार- प्रसार की समीक्षा के बाद 15 वर्षों के पश्चात् हिन्दी को राष्ट्रभाषा के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कर देना चाहिए था, किंतु 1965 में संविधान में संशोधन कर इसे अंग्रेजी के साथ सहभाषा का दर्जा दे दिया गया और साथ-साथ यह भी पारित कर दिया गया कि जब तक हिन्दी के राष्ट्रभाषा के बारे में सारे देश अर्थात् समस्त राज्यों की सहमति नहीं बनती, तब तक हिन्दी को किसी पर थोपा नहीं जाएगा। लेकिन हमारे विचार से जब तक शिक्षा न्यायालय और विज्ञान की भाषा हिन्दी में नहीं होगी, तब तक हिन्दी को उसका गौरवाशाली स्थान नहीं मिलेगा।
प्रस्तुत पुस्तक की लेखिका की मातृभाषा हिन्दी नहीं है, फिर भी विद्यार्थी अवस्था से ही हिन्दी साहित्य भाषा व भारतीय संस्कृति के प्रति इसकी विशेष अनुराग व रुचि रही है। इसलिए लेखिका ने भारतवर्ष के अनेक स्थलों का भ्रमण कर हिन्दी भाषा व संस्कृति को करीब से देखा है। लेखिका विभिन्न विद्यालयों,
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हिन्दी की उन्नति से ही भारतीयों को सुख संपत्ति की प्राप्ति संभव हो सकती है।
हिन्दी की उन्नति से ही भारतीयों को सुख संपत्ति की प्राप्ति संभव हो सकती है।
स्वामी विवेकानंद
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पुस्तकालयों व पुस्तक मेलों में अनेकों हिन्दी पाठकों से रू-ब-रू हुई, तो उन्हें ज्ञात हुआ है कि आधुनिक युग में भी कई लेखक ऐसे हैं, जिन्हे केवल इसीलिए पढ़ा जाता है कि उन्होंने मनोरंजन या धन की लालसा में हिन्दी साहित्य का स्तर नहीं गिराया, क्योंकि वे मानते हैं कि भ्रष्टाचार व कुसंस्कृति के फैलने में साहित्य भी सहायक होता है। लेकिन भाषा व संस्कृति के संहारक तत्वों से ओत-प्रोत साहित्य कभी स्थायी महत्व प्राप्त नहीं करता।
लेखिका ने अपनी संपूर्ण यात्रा के दौरान कई स्थलों पर यह भी देखा कि जिन सामान्य में कई प्राचीन व अर्वाचीन साहित्यकारों को विशेष आदर प्राप्त है, उनकी रचनाएं हर वर्ग के लोग पढ़ते है, लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि हिन्दी साहित्य के इतिहास से संबद्ध पुस्तकों में उनका नाम ढूंढ़े से भी नहीं मिलता। उदाहरण के तौर पर कबीरदास की भी बात लें, उनका नाम भारत का बच्चा-बच्चा भी जानता है, लेकिन क्या आपने संत घीसा के बारे में सुना है ? दोनों की विचारधाराएं एक, लेखक शैली एक, दोनों अनपढ़ और दोनों ही जुलाहा जाति से संबद्ध। लेकिन कबीर का साहित्य जहां केवल छात्र पाठ्यक्रमों के अंतर्गत पढ़ते हैं, वहीं घीसा का साहित्य जनसाधारण पढ़ता है। हरिद्वार, ऋषिकेष, खेकड़ा, सुन्हैड़ा डोला, सोनीपत आदि स्थलों पर स्थापित उनके मठों में घीसा संत के साहित्य की लाखों प्रतियां प्रतिवर्ष बिकती हैं।
इसी प्रकार आज कई साहित्यकार जो इतिहास में दर्ज हैं। लेकिन उनकी पुस्तकों की 500 से अधिक प्रतियां नहीं प्रकाशित होती, इसके विपरीत गुरुदत्त के साहित्य की प्रतिवर्ष लाखों प्रतियां बिकती हैं, लेकिन भारतीय पाठ्यक्रमों में
पुस्तकालयों व पुस्तक मेलों में अनेकों हिन्दी पाठकों से रू-ब-रू हुई, तो उन्हें ज्ञात हुआ है कि आधुनिक युग में भी कई लेखक ऐसे हैं, जिन्हे केवल इसीलिए पढ़ा जाता है कि उन्होंने मनोरंजन या धन की लालसा में हिन्दी साहित्य का स्तर नहीं गिराया, क्योंकि वे मानते हैं कि भ्रष्टाचार व कुसंस्कृति के फैलने में साहित्य भी सहायक होता है। लेकिन भाषा व संस्कृति के संहारक तत्वों से ओत-प्रोत साहित्य कभी स्थायी महत्व प्राप्त नहीं करता।
लेखिका ने अपनी संपूर्ण यात्रा के दौरान कई स्थलों पर यह भी देखा कि जिन सामान्य में कई प्राचीन व अर्वाचीन साहित्यकारों को विशेष आदर प्राप्त है, उनकी रचनाएं हर वर्ग के लोग पढ़ते है, लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि हिन्दी साहित्य के इतिहास से संबद्ध पुस्तकों में उनका नाम ढूंढ़े से भी नहीं मिलता। उदाहरण के तौर पर कबीरदास की भी बात लें, उनका नाम भारत का बच्चा-बच्चा भी जानता है, लेकिन क्या आपने संत घीसा के बारे में सुना है ? दोनों की विचारधाराएं एक, लेखक शैली एक, दोनों अनपढ़ और दोनों ही जुलाहा जाति से संबद्ध। लेकिन कबीर का साहित्य जहां केवल छात्र पाठ्यक्रमों के अंतर्गत पढ़ते हैं, वहीं घीसा का साहित्य जनसाधारण पढ़ता है। हरिद्वार, ऋषिकेष, खेकड़ा, सुन्हैड़ा डोला, सोनीपत आदि स्थलों पर स्थापित उनके मठों में घीसा संत के साहित्य की लाखों प्रतियां प्रतिवर्ष बिकती हैं।
इसी प्रकार आज कई साहित्यकार जो इतिहास में दर्ज हैं। लेकिन उनकी पुस्तकों की 500 से अधिक प्रतियां नहीं प्रकाशित होती, इसके विपरीत गुरुदत्त के साहित्य की प्रतिवर्ष लाखों प्रतियां बिकती हैं, लेकिन भारतीय पाठ्यक्रमों में
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हिन्दी जैसी वैज्ञानिक भाषा का उद्भव इस संसार में न तो हुआ है और ना ही होगा।
हिन्दी जैसी वैज्ञानिक भाषा का उद्भव इस संसार में न तो हुआ है और ना ही होगा।
रविन्द्रनाथ टैगोर
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उन्हें आज तक स्थान नहीं मिला। यह कटु सत्य है कि गुरुदत्त से बढ़कर शायद ही कोई राष्ट्रवादी लेखक व महान गोभत्ता होगा, जिन्होंने भारतीय सभ्यता- संस्कृति पर वैज्ञानिक तरीके से लिखा हो।
कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि इस पुस्तक में दर्ज सरफरोशवाद या हालावाद उर्दू या फारसी की विचारधारा है। लेकिन मुझसे पूर्व ही कई विद्वानों ने सरफरोशवाद को हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उर्दू और हिन्दी दोनों सगी बहनें हैं, कोई सौतेली तो नहीं। हिन्दी बड़ी बहन है, इसलिए उसे राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर बैठाया गया, लेकिन सगी बहन होने से उर्दू को राजकुमारी की पदवी से नहीं हटाया जा सकता। मेरी मातृभाषा हिंदी नहीं है और हिन्दी भाषा लिखी गयी यह रचना आलोचनात्मक नहीं बल्कि निबंधात्मक है। शुरू से अरबी व उर्दू के सान्निध्य में पली बड़ी हुई हूँ। इसलिए भाषा संबंधी कोई गलती हो तो इसके लिए क्षमा प्रार्थिनी हूँ। श्री विष्णु प्रभाकर, श्री भवानीलाल भारतीय आदि वरिष्ठ साहित्यकारों की मैं हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे इस पुस्तक के लेखन के लिए अति महत्त्वपूर्ण सामग्री सुलभ कराई। मैं श्री जी. नरहरी. श्रीग्राफिक्स का भी हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने पुस्तक के शब्द संयोजन व साज-सज्जा के अपने कर्तव्य को बखूबी निभाया।
उन्हें आज तक स्थान नहीं मिला। यह कटु सत्य है कि गुरुदत्त से बढ़कर शायद ही कोई राष्ट्रवादी लेखक व महान गोभत्ता होगा, जिन्होंने भारतीय सभ्यता- संस्कृति पर वैज्ञानिक तरीके से लिखा हो।
कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि इस पुस्तक में दर्ज सरफरोशवाद या हालावाद उर्दू या फारसी की विचारधारा है। लेकिन मुझसे पूर्व ही कई विद्वानों ने सरफरोशवाद को हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उर्दू और हिन्दी दोनों सगी बहनें हैं, कोई सौतेली तो नहीं। हिन्दी बड़ी बहन है, इसलिए उसे राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर बैठाया गया, लेकिन सगी बहन होने से उर्दू को राजकुमारी की पदवी से नहीं हटाया जा सकता। मेरी मातृभाषा हिंदी नहीं है और हिन्दी भाषा लिखी गयी यह रचना आलोचनात्मक नहीं बल्कि निबंधात्मक है। शुरू से अरबी व उर्दू के सान्निध्य में पली बड़ी हुई हूँ। इसलिए भाषा संबंधी कोई गलती हो तो इसके लिए क्षमा प्रार्थिनी हूँ। श्री विष्णु प्रभाकर, श्री भवानीलाल भारतीय आदि वरिष्ठ साहित्यकारों की मैं हृदय से आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे इस पुस्तक के लेखन के लिए अति महत्त्वपूर्ण सामग्री सुलभ कराई। मैं श्री जी. नरहरी. श्रीग्राफिक्स का भी हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने पुस्तक के शब्द संयोजन व साज-सज्जा के अपने कर्तव्य को बखूबी निभाया।
स्थान अलीगढ़
तिथि 15 अगस्त 2005
तिथि 15 अगस्त 2005
फ़रहाना ताज
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क्षेत्रीय भाषाएं भारत माता के रंग-बिरंगे वस्त्र हैं, लेकिन इस वस्त्र को जिस धागे से सिला गया है, वह हिन्दी है।
क्षेत्रीय भाषाएं भारत माता के रंग-बिरंगे वस्त्र हैं, लेकिन इस वस्त्र को जिस धागे से सिला गया है, वह हिन्दी है।
सरदार पटेल
अध्याय-1
हिन्दी का उद्भव और विकास
हिन्दी को आमतौर पर हिन्दुओं की मातृ एंव पितृभाषा माना जाता है, इसलिए
हिन्दी शब्द की व्याख्या, उद्भव और विकास पर चर्चा करने से पहले जरूरी है
‘हिन्दू’ शब्द का अभिप्रायः जानना। अनुश्रुति है कि
मुस्लिम
विजेता आर्यों को अपमानित करने के लिए उन्हें हिन्दू कहते थे, क्योंकि
फारसी में हिन्दू का अर्थ चोर माना गया है। इसी कारण महर्षि दयानंद ने
हिन्दी को आर्य भाषा के नाम से पुकारा। लेकिन गहन अध्ययन करने के पश्चात्
जीवन के अंतिम दिनों में स्वामी दयानंद को विश्वास हो गया था कि हिन्दू
शब्द का चारों वेदों से निकट का संबंध है। जब दयानंद ने हिन्दू शब्द को
ऋग्वेद के सिंधु शब्द का अपभ्रंश पाया, तो तब उन्होंने हिन्दूधर्म की मूल
भावना का समर्थन करना प्रारंभ कर दिया था, जो उसकी पं. लेखराम द्वारा
लिखित जीवनी से सुस्पष्ट है। उदाहरणार्थ-
‘4 फरवरी 1877’ को सहारनपुर में मुंशी चंडी प्रसाद के प्रश्न के उत्तर में स्वामी दयानंद ने कहा-‘उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमें सामना करने का सामर्थ्य न था। जुलाई 1877 में अमृतसर के कमिश्नर एसपार्किस के एक सवाल के जवाब में दयानंद ने कहा-हिन्दू धर्म समुद्र सिन्धु के गुण रखता है, जिस प्रकार समुद्र में असंख्य लहरें उठती हैं, उसी प्रकार इस मत में देखिये।’’2
‘4 फरवरी 1877’ को सहारनपुर में मुंशी चंडी प्रसाद के प्रश्न के उत्तर में स्वामी दयानंद ने कहा-‘उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमें सामना करने का सामर्थ्य न था। जुलाई 1877 में अमृतसर के कमिश्नर एसपार्किस के एक सवाल के जवाब में दयानंद ने कहा-हिन्दू धर्म समुद्र सिन्धु के गुण रखता है, जिस प्रकार समुद्र में असंख्य लहरें उठती हैं, उसी प्रकार इस मत में देखिये।’’2
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लोगों की राय
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