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अखण्ड आर्यवर्त

तेजपाल सिंह धामा

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5403
आईएसबीएन :8188388556

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अखण्ड आर्यवर्त...

Akhand Aaryavert a hindi book by Tejpal Singh Dhama - अखण्ड आर्यवर्त - तेजपाल सिंह धामा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

यदि किसी देश का ब्राह्मण अर्थात् विद्वान शिक्षक धन लोलुप या पद लोलुप है, यदि देश का राजा अर्थात् शासक पक्षपाती है, भ्रष्ट है या स्वयं व्यापारी है, यदि देश का व्यापारी काला बाजारी है, यदि देश की नारी पतिता है, तो उस देश का पतन निश्चित है।

आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी भारत इन्हीं कारणों के कारण पतन के गर्त में गिरा था। उस समय उदय हुआ था चाणक्य का, जिसने सैकड़ों टुकड़ों में विभक्त भारत को एक पिता की तरह संगठित किया।
चाणक्य, कौटल्य, कौटिल्य, विष्णुगुप्त, वात्स्यायन, खण्डदंत इत्यादि कितने ही नामों से प्रातः स्मरण किये जाने वाले उस राष्ट्रपिता को शत्-शत् प्रणाम, जिसने हमें चाणक्य नीति, कौटिल्य सूत्र, अर्थशास्त्र जैसे अमू्ल्य ग्रंथों के साथ अखण्ड भारत दिया।

 

-पद्मेश दत्त

 

भूमिका

 

नत्वेवार्यस्य दासभावः अर्थात् आर्य जाति को कभी पराधीन नहीं किया जा सकता, का उद्घोष करने वाले विष्णु गुप्त को भला कौन नहीं जानता ? चणक वंश में जन्म लेने के कारण उन्हें चाणक्य कहा गया। साथ ही साथ उनके वंश में कुटल वृत्ति होने के कारण उन्हें कौटल्य भी कहा गया। जो ब्राह्मण वर्ष भर के लिए अनाज भर कर संचित रखते हैं, उन्हें कुटल अथवा कुम्भीधान्य (अवधि में कोठिल) कहा जाता है। कुटल वृत्ति त्याग व तपस्या का प्रतीक है और आच्छादन अर्थात् संस्कारों का कवच भी होने से इनकार नहीं किया जा सकता। कौटल्य को कौटिल्य उन लोगों ने लिखना शुरू किया, जिन्होंने चाणक्य व उनके अर्थशास्त्र की दुन्दुभी बजाई थी। उसी नाम को दुर्भाग्यवश परवर्तीकाल के ग्रंथ निर्माता अपनाते चले गये। चाणक्य प्राचीन वैदिक धर्म का अनुयायी था, इसलिए उन्होंने कुछ तत्कालीन नवीन मत-मतान्तरों का खण्डन किया, जिस कारण वे कुछ विशेष संप्रदाय के लोगों की आँखों की किरकिरी बन गये। ढाई गज की धोती धारण करनेवाले उस ब्राह्मण की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसने जो भी किया, वह सब राष्ट्र कल्याण के लिए किया। अपने स्वार्थ साधन के लिए कुछ भी नहीं किया। कौटल्य की सुदक्षता के कारण ही सम्राट चन्द्रगुप्त ने अत्यल्प काल में ही सिकन्दर के उत्तराधिकारी सेल्यूकस को परास्त किया। पराजित सेल्यूकस को काबुल, किरात, कांधार, बलूचिस्तान देने के साथ-साथ अपनी पुत्री हेलना का विवाह भी चन्द्रगुप्त के साथ करना पड़ा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त संपूर्ण जम्बूद्वीप अर्थात् अखण्ड भारत का एक छत्र शासक बन गया। अखण्ड भारत का निर्माण कौटल्य की ही नीति का परिणाम था और जब उसने देखा कि अखण्ड भारत चारों ओर से सुरक्षित है, वे आचार्य संन्यासी बन वन में चले गये।

कितना उच्चादर्श था हिमालय से समुद्र पर्यन्त् ! सहस्र यौजन विस्तीर्ण विशाल आर्यभूमि को एक सूत्र में संगठित करनेवाले, वात्स्यायन बन भारत की शास्त्र शक्ति और चाणक्य बन शस्त्र बल का पुनरुद्धार करनेवाले उस महान आचार्य कौटल्य का।
हारे हुए देश को संगठन सूत्र में पिरोकर उन्नति की चोटी पर पहुँचानेवाले सच्चे अर्थों में चाणक्य भारत के प्रथम राष्ट्रपिता कहने के अधिकारी हैं। उनका महान ग्रंथ अर्थशास्त्र आज भी नीति निर्माताओं, नेतृत्वकर्ताओं और जन सामान्य के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करता है।

उस महान आचार्य के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, स्वयं इस पुस्तक के लेखक ने शांति मठ के नाम से एक उपन्यास में गौरवशाली परिचय 15-16 वर्ष की आयु में ही लिखकर प्रकाशित कराया था। फिर भी आज के युग में उन पर पुनः लिखा जाना और ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।

आजकल राष्ट्र के कर्णधार या भारतीय सांसद जिस प्रकार संसद में सवाल पूछने के लिए भी घूस लेने व रुपयों या वोट के लालच में देश की अस्मिता को दाँव पर रखने का दुष्कर्म करने लगे हैं, ऐसे समय में किसी भी राष्ट्रभक्त भारतीय को चाणक्य का ध्यान आना स्वाभाविक ही है कि काश ! आज भी कोई कौटल्य होता ! जो अपने पुरुषार्थ से आज के पर्वतेश्वर या धनानंद अर्थात् देश के दुष्ट कर्णधारों का या तो सर्वनाश कर देता या फिर उन्हें राक्षस की तरह सही मार्ग पर चला कर भारत का खोया हुआ गौरव पुनः स्थापित कर देता।

मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि इस ग्रंथ में परकाया प्रवेश का उद्धरण जहाँ चाणक्य से संबद्ध प्राचीन ग्रंथों यथा मुद्राराक्षस, वंश चरितावली आदि से लिया गया है, वहीं सिकन्दर का सैन्य अभियान, उसकी भारत में पराजय, विभिन्न राजाओं के सैन्य तथा आदि इतिहास की पुस्तकों के आधार पर लिखे गये हैं, फिर भी यह मात्र उपन्यास ही है।
कहते हैं कि इतिहास अपने आपको को दोहराता है, लेकिन भारतीय होने के नाते पराधीनता का इतिहास तो हम नहीं दोहराना चाहते, परन्तु स्वतंत्रता की रक्षा के लिए चाणक्य जैसे आचार्यों का पुनर्जन्म हो यह हम अवश्य चाहते हैं। और साथ ही साथ यह भी चाहते हैं कि भारत की भावी पीढ़ी देश के इतिहास से शिक्षा लेकर या प्रेरणा प्राप्त कर राष्ट्र की परम् उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। इसी आशा और विश्वास के साथ मैं यह उपन्यास आपके हाथों में सौंप रहा हूँ।
खेकड़ा (बागपत) अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वरर्येषु
26 जनवरी 2006

 

तेजपाल सिंह धामा

 

पाँच वर्ष तक पुत्र को प्यार करना चाहिए, दस वर्ष तक कठोर अनुशासन में रखो और जब सोलह वर्ष का हो जाए तो उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करो, इस तरह तुम भावी राष्ट्र निर्माताओं का निर्माण कर सकोगे, क्योंकि जो आज बच्चे हैं, कल उन्हें ही अपने कन्धों पर राष्ट्र का भार उठाना होगा।’’-चाणक्य
‘‘मुस्कान ! एक दासी की इतनी हिम्मत कि महाराजा नंद के समक्ष मुस्कुराये ?’’
‘‘क्षमा करें महाराज ! मेरे मुस्कुराने का कारण आप नहीं हैं।’’
‘‘क्यों नहीं ? आपसे पहले तो हम ही मुस्कुरा रहे थे सुमंगला, क्या तुमने हमारी नकल नहीं की ?’’
‘‘राम...राम...नकल और वह भी महाराज की ? क्या यह तुच्छ दासी इतनी हिम्मत कर सकती है ?’’
‘‘तो फिर मेरे साथ-साथ तुम्हारे मुस्कुराने का कारण क्या है ?’’
‘‘पीपल के बीजों को चींटियाँ मुँह में लिये जा रही हैं, मैं तो इन्हें देख मुस्कुराई हूँ।’’

‘‘चींटियों को देखकर तो हम भी मुस्कुराये थे, लेकिन हमारे मन में कुछ दार्शनिक भाव पैदा हुआ था, निस्संदेह आपके मन में भी हुआ होगा।’’
‘‘दार्शनिक भाव...नहीं...नहीं..नहीं..महाराज ! मैं तो यूँ ही....।’’
हम तुम्हारे उत्तर से संतुष्ट नहीं दासी ! चींटियों को देखकर मेरे व आपके मन में क्या दार्शनिक भाव उत्पन्न हुआ था ? वह तो तुम्हें बताना ही होगा। हम तुम्हें एक सप्ताह का समय देते हैं, यदि तुमने दार्शनिक भाव के कारण उत्पन्न हुई मुस्कुराहट की व्याख्या नहीं की, तो तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।’’
‘‘नंद...नंद..महाराज नंद, लोगों की आँखों की किरकिरी बन गया है यह नाम। हमारी उन्नति को देखकर विश्वभर के राजा-महाराजा जलन महसूस कर रहे हैं और राजधानी कुसुमपुर को देखकर लोगों का दम ही घुटा जा रहा है। हमने किसी का क्या बिगाड़ा है महारानी रत्नावली ?’’
‘‘क्या बात है स्वामी ! आप इतने क्रोधित क्यों हैं ?’’

‘‘आपके बेजोड़ रूप गुण, हमारे धन-वैभव और पराक्रम से इस युग के सभी राजा हमें ईर्ष्या की दृष्टि से देखते हैं। हमारे सामने सिर ऊँचा उठाने का किसी में साहस तो नहीं, फिर भी हमें किसी न किसी प्रकार नीचा दिखाने की चिन्ता इन्हें क्यों सताती है महारानी ?’’
‘‘जो दूसरों के लिए कूप का निर्माण करते हैं, वे उसमें खुद जा गिरते हैं।’’ फिर महारानी रत्नावली ने थोड़ा गंभीर होकर कहा—‘‘हृदयेश्वर आपकी बुद्धि को चक्कर में डालकर लज्जित करने का नया षड़यंत्र क्या रचा है इन राजा-महाराजाओं व इनके मंत्रियों ने ? क्या वे नहीं जानते कि छोटी-मोटी पहेलियाँ तो महाराजा नंद की दासियाँ भी सुलझा देती हैं।’’

‘‘दासी !’’ अचानक ही महाराज नंद चौंके ! फिर कहा,— ‘‘दासी नाम से हमें याद आया प्रिये ! हमारे लिए सिरदर्द बनी नई पहेली का हल हमारी दासी सुमंगला अवश्य कर देगी। दासी हुई तो क्या हुआ, उन्होंने तो कई बार पहले भी हमारी पहेलियाँ सुलझाई हैं। महाराजा नंद विद्वानों व विदूषियों का आदर करना जानते हैं, यदि ज्ञान शूद्र के पास भी है तो ब्राह्मण को भी उसका शिष्य बनने में संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि दुनिया में ज्ञान यज्ञ ही सर्वोत्तम है।’’
और फिर ! महाराजा नंद सुमंगला के समक्ष स्वयं ही उपस्थित हुए।
‘‘क्षमा करें महाराज ! दासी से क्या गलती हो गयी, जो आप यहाँ तक आ पहुँचे ?’’
‘‘क्षमा की कोई बात नहीं सुमंगला ! प्यासा ही कूप के पास आता है, कूप कभी प्यासे के पास नहीं जाता। हमें फिर आपके मार्गदर्शन की जरूरत आन पड़ी है। आपकी बुद्धि की विलक्षणता की प्रशंसा तो हम भरे दरबार में करने से नहीं हिचकिचाते हैं।’’

‘‘आज्ञा करें महाराज ! मगध के लिए दासी का सिर भी उपस्थित है।’’
‘‘हमें आपका सिर नहीं, एक पहेली का उत्तर चाहिए ?’’
‘‘क्या पहेली है महाराज ?’’
‘‘राजा-महाराजाओं ने हमें लज्जित करने के लिए देवदारु की एक खूब साफ और चौकोर लकड़ी लेकर एक तख्ती बनवाई है। उस तख्ती को सोने के डिब्बे में रखकर उस पर एक मोहर लगाकर बहुत सी बहुमूल्य वस्तुओं के उपहारों के साथ उसको हमारे पास भेज दिया है। तख्ती को देखकर हमें यह निर्णय करना है कि उसका कौन सा भाग जड़ की ओर का है और कौन सा चोटी की ओर का। हमने भी तख्ती को खूब ध्यान से देखा और सभी मंत्रियों, कर्मचारियों व राज दरबारियों ने भी एक-एक करके उस तख्ती को देखा, पर जो समस्या हल करनी है उस पर विचार करने में कोई भी हमारी सहायता न कर सका।’’

‘‘जिस पहेली को बड़े-बड़े बुद्धिमान हल नहीं कर सके भला एक तुच्छ दासी कैसे उसका समाधान कर सकती है ?’’
‘‘तुम कर सकती हो सुमंगला !’’
‘‘क्या महाराज को दासी के अल्पज्ञान पर इतना विश्वास है ?’’
‘‘विश्वास क्यों नहीं होगा ? कुछ दिन पहले जब हमने पीपल के बीजों को चींटियों के मुँह में देखकर तुमसे अपने मुस्कुराने का कारण पूछा था, तो क्या आपने नहीं बताया था ?’’
‘‘मैंने ?’’
‘‘हाँ तुमने ही ! तुमने ही तो बताया था कि आज पीपल के बीज को छोटी-छोटी चीटियाँ मुँह में लिये जा रही हैं, लेकिन समय पाकर जब वही बीज विशाल वृक्ष बन जाता है, तो मदोन्मत्त हाथी भी उसे हिला नहीं सकता। परमात्मा की लीला का रहस्य बड़ा ही अद्भुत है।’’
‘‘क्षमा करें महाराज ! आपसे कुछ कहना चाहती हूँ ?’’
‘‘कहो सुमंगले !’’
‘‘महाराज ! आपने उस दिन मुस्कुराहट का कारण न बताने पर जान से हाथ धोनी की बात कही थी, इस भय से....।’’
‘‘भय ! एक विदुषी दासी को भय ?’’

‘‘महाराज विदुषी मैं नहीं, बल्कि वह तो कोई विद्वान है।’’
‘‘कोई और ?’’
‘‘महाराज ! मेरे ऊपर दया कर एक विद्वान ब्राह्मण ने उस पहेली का हल बताया था।’’ और फिर आश्वासन के स्वर में कहा—‘‘वे ही ब्राह्मण देवता आपकी इस समस्या का भी समाधान कर देंगे।’’
‘‘ब्राह्मण देव ? कौन हैं वे ?’’
‘‘महाराज ! उन ब्राह्मण देवो का नाम सुबुद्धि शर्मा है, वह कुसुमपुर में ही प्रसिद्ध जौहरी चंदनदास के पड़ोस में रहते हैं।’’
‘‘उन्हें शीघ्र हमारे सामने उपस्थित करो।’’
और तत्पश्चात घंटेभर बाद ही सुबुद्धि शर्मा महाराजा नंद के सामने उपस्थित थे।
‘‘प्रणाम महाराज !’’
‘‘प्रणाम।’’
‘‘महाराज ! विप्र को किसलिए याद किया, आज्ञा करें।’’
‘‘हम ब्राह्रणों को आज्ञा कैसे दे सकते हैं देव ! भारतवर्ष में उनसे केवल निवेदन करने की परंपरा है।’’
‘‘तो फिर निवेदन ही करें महाराज !’’
एक तख्ती दिखाते हुए महाराज ने निवेदन किया—‘‘आपको निर्णय करना है कि इस तख्ती का कौन सा भाग जड़ है और कौन सा चोटी की ओर का, यह तख्ती देवदारू की लकड़ी से बनी हुई है विप्रवर !’’

और फिर महाराजा नंद ने वह तख्ती सुबुद्धि शर्मा के हाथ पर रख दी। हाथ में तख्ती लेते ही ब्राह्मण ने महाराज की समस्या का समाधान किया—‘‘यह कौन सी बड़ी समस्या है महाराज ? इस लकड़ी को जल में डाल दें, जिधर से डूब जाएगी, वह भाग जड़ की ओर होगा, क्योंकि जड़ का भाग भारी होता है।’’
‘‘बहुत खूब ! आपके ज्ञान-विज्ञान पर हमें गर्व है ब्राह्मणदेव ! दिखने में तो बलिष्ठ लगते हो, क्या आपके बाहुबल पर भी हम नाज कर सकते हैं ?’’

‘‘बिल्कुल कर सकते हैं महाराज ! आपकी राजसभा में जो सबसे ज्यादा वीर हो, हम उससे मल्ल या गदा युद्ध करने के लिए तैयार हैं।’’
और फिर कुछ ही देर बाद राजकीय अखाड़े में राष्ट्रकेसरी पहलवान के साथ सुबुद्धि शर्मा का मल्ल युद्ध शुरू हुआ। मल्ल युद्ध शुरू होने के कुछ ही क्षण बाद सुबुद्धि शर्मा ने राष्ट्रकेसरी पहलवान को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाकर हवा में घुमाकर इतने जोर से फेंका कि एक कोस दूर राष्ट्रकेसरी पहलवान की सारी हड्डी-पसली टूटी हुई पायी गयीं। इस घटना के बाद सुबुद्धि शर्मा का नाम ‘राक्षस’ प्रसिद्ध हो गया।

‘‘प्रणाम महाराज ! विप्र को किसलिए स्मरण किया ?’’
‘‘प्रणाम विप्रवर ! आपने उस दिन लकड़ी वाली पहेली का हल बताया था, वह सही निकला, उसके कारण देश-विदेश में हमारी प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गये हैं।’’
‘‘यह ज्ञान इसी पवित्र आर्य भूमि की देन है महाराज !’’
‘‘विप्रवर ! तो फिर इस पवित्र भूमि को दक्षिणा नहीं दोगे ?’’
‘‘दक्षिणा तो क्या वस्तु है महाराज ! यह तन मन धन इस मातृभूमि के चरणों में अर्पित है।’’
‘‘मगध को आपकी जरूरत है विप्रवर, इसलिए आज से आप महामात्य नियुक्त किये जाते हैं।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज !’’
और फिर काफी देर तक विचार-विमर्श के बाद राक्षस गृह मंत्रालय के कार्यालय में पद्भार संभालने चले गये।

‘‘सुविद्य हमने तुम्हें वह विद्या प्रदान की है, जिसकी सहायता से तुम दूसरे के शरीर में अपनी आत्मा का प्रवेश करा सकते हो। हमने तुम्हें वेद शास्त्रों में भी इतना पारंगत बना दिया है कि तुम्हारे साथी सुशील और बहुश्रुत भी हम पर द्रोण-अर्जुन की उपमा देकर पक्षपात का आरोप लगाने लगे हैं। जबकि यह आरोप सही नहीं है। गुरु के लिए तो सभी शिष्य बराबर होते हैं। चाहे राजा हो या रंक। हमने तो अपनी विद्या का अमृतपान बराबर ही पिलाया है, यह तो शिष्यों पर निर्भर है कि किसकी कितनी ज्ञान पिपासा शान्त हुई है। अब मैं चाहता हूँ कि तुम लोग गुरु दक्षिणा देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करो।’’ नेपाल के एक सघन वन में स्थित ब्रह्मचर्य आश्रम में नीलकंठ उपाध्याय ने अपने शिष्यों से कहा।
सुविद्य ने पूछा, ‘‘आज्ञा करें गुरुदेव ! गुरु दक्षिणा में क्या उपस्थित किया जाए ?’’
‘‘जो आपकी इच्छा हो।’’
‘‘नहीं गुरुदेव, इच्छा तो आपकी ही चलेगी आप जो माँगोगे वही मिलेगा।’’
‘‘अच्छे बच्चे जिद नहीं करते।’’
‘‘गुरुदेव ! हम बालहठ से पीछे नहीं हटेंगे।’’
‘‘अच्छा यह बात है। जो मैं माँगूगा क्या गुरु दक्षिणा में वह दोगे ?’’ गुरुदेव का क्रोध स्पष्ट झलकने लगा।
‘‘जी !’’ तीनों ने एक स्वर में कहा।

‘‘एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ।’’
‘‘एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ !’’ विन्ध्य प्रदेश का निवासी सुविद्य चौंका, फिर कहा—‘‘जो आज्ञा गुरुदेव !’’
सुशील व बहुश्रुत नामक अपने सहपाठियों के साथ सुविद्य गुरु दक्षिणा के निमित्त दान लेने के लिए कुसुमपुर आए।
लेकिन !
सुशील यहाँ कुसुमपुर में इतना शोकपूर्ण वातावरण क्यों है ?’’
‘‘पता नहीं सुविद्य, मैं भी तो आपके साथ ही आया हूँ।’’
‘‘चलो उस नागरिक से चलकर पूछते हैं।’’
‘‘चलो।’’
और फिर !
‘‘क्यों भाई ! यहाँ इतना शोकपूर्ण वातावरण क्यों है ?’’
‘‘आपको नहीं पता ब्रह्मचारीगण।’’
‘‘नहीं तो।’’ तीनों एक स्वर में बोले, फिर सुविद्य ने उस नागरिक से पुनः पूछा—‘‘यहाँ इतना शोक क्यों है ?’’
‘‘महाराजा नंद का कुछ ही देर पहले निधन हो गया है।’’
नागरिक की बात सुनकर सुविद्य बहुत चिंतित हुआ, फिर उसने मन ही मन में विचारा—‘‘केवल नंद ही ऐसे महादानी थे, जो एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दे सकते थे।’’
‘‘क्या सोच रहे हो सुविद्य।’’—सुशील ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं, चलो जंगल में किसी तालाब के किनारे, जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसका उपयोग करने का समय आ गया है।’’
और फिर तीनों जंगल की ओर प्रस्थान कर गये।

राम नाम सत् है, जो बोले सो गत् है।
महराजा नंद अमर रहें...अमर रहें।।
शोकपूर्ण नारों के साथ महाराजा नंद का शरीर चंदन की लकड़ियों से बनी चिता पर रखा गया। ब्राह्मण वेदपाठ करने लगे। लेकिन तभी अचानक !
‘‘यह क्या ?’’ सभी चौंक पड़े—‘‘महाराज जिंदा हैं, महाराज नंद जीवित हैं ?’’
और फिर !
चिता से इस तरह खड़े हो गये महाराज, जैसे वे अभी तक सो रहे थे। और फिर कहा—‘‘हम मरे नहीं जीवित हैं प्रजाजनों।’’
महाराजा नंद की जय से सारा श्मशान गूँज उठा और सभी के चेहरे खुशी से खिल उठे, लेकिन राक्षस बहुत गंभीर लग रहे थे, वे प्रकट भाव से बड़बड़ाए—‘‘मगर महाराज ! राजवैद्य आपकी मृत्यु का प्रमाण पत्र दे चुके हैं।’’
‘‘मृत्यु का प्रमाण पत्र ? तो क्या मृत्यु का प्रमाण जारी होने के कारण मैं जीवित जल जाऊँ, देखते नहीं कि हम सबल व स्वस्थ हैं। आज ही पुरावासियों को बुलाकर हमारे नये जीवन के उपलक्ष्य में महान उत्सव किया जाए। हम अपने स्वर्ण सिंहासन तक पैदल ही चलेंगे और हमारे दीर्घ जीवन के राज्यभर में मांगलिक अनुष्ठान किये जाएँ।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज ।’’ राक्षस ने सिर झुका लिया।

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