विविध >> कश्मीर जीत में हार कश्मीर जीत में हारबलराज मधोक
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रोचक पुस्तक...
Kashmir Jeet Main Haar
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री पंडित प्रेमनाथ डोगरा जिन्होंने अपना सारा जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, प्रजा परिषद् और भारतीय जनसंघ के माध्यम से जम्मू-कश्मीर के लोगों की सेवा और इस राज्य को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए लगाया, को सादर समर्पित
प्रवेश
‘जीत में हार’ विशेषतः जम्मू और सामान्यतः कश्मीर तथा विराट् राष्ट्र पर पाकिस्तानी आकमणों का प्रौढ़, गम्भीर किन्तु अतीव रोचक वृत्त प्रस्तुत करने वाला ऐसा उत्कृष्ट ग्रन्थ है, जिसे एक ऐसे लेखक ने लिखा है जो विशेषतः जम्मू-कश्मीर और सामान्यतः विराट् राष्ट्र के अधिकांश घटनाचक्रों से सम्बद्ध रहे हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत वृत्त यत्र-तत्र सर्वत्र वैयक्तिक स्पर्शों और अनुभूतियों से संपृक्त है। भाषा स्तरीय होते हुए भी प्रसाद-गुण से सम्पन्न है। आपातस्थिति के मध्य कारागार में लिखा गया यह ग्रन्थ भारत की विदेश-नीति की अनेकानेक असफलताओं पर प्रभावी और मौलिक प्रकाश डालता है। प्रोफ़ेसर बलराज मधोक इतिहास के विद्वान प्राध्यापक और सुविख्यात राजनीतिक हैं। हिन्दी और अंग्रेज़ी में उनके द्वारा लिखित अनेक ग्रन्थ सक्रिय और सक्षम व्यक्तित्व के कारण और अधिक प्रभावी और महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक नेता, जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद के संस्थापक और मन्त्री, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक, भारतीय जनसंघ के एक संस्थापक और अध्यक्ष तथा संसद (लोकसभा) के दो बार सदस्य रह चुकने वाले प्रोफ़ेसर बलराज मधोक देश के इतिहास में एक निश्चित स्थान बना चुके हैं। वे हृदय से देश-भक्त मस्तिष्क से राजनीतिज्ञ और आत्मा से आर्य हैं। स्पष्टवादिता और साहस के कारण वे अनेक बार कारागार की यातनाएँ झेल चुके हैं। जब वे युवक थे, तभी शेख अब्दुल्ला, ने उन्हें और उनके कारण उनके परिवार के सदस्यों को भी जम्मू-कश्मीर से निष्कासित कर दिया था। अतएव, संघर्ष उनकी प्रकृति का अंग बन गया है। जो उनके निश्छल, सरल और वीरतापूर्ण व्यक्तित्व से गहराई के साथ परिचित नही हैं, वे चाहे जो कहें, किन्तु उनका त्याग, उत्सर्ग और देश-प्रेम आज भी जानने वालों के मस्तक झुकवा देता है और कल भी झुकवाएगा, इसमें सन्देह नहीं।
‘जीत में हार’ का अभिप्राय 1947, 1965 और 1971 के पाक-आक्रमणों में भारतीय सेना की बलिदानमयी जीतों और, अनवरत रूप से, भारतीय शासकों की राजनैतिक मोर्चों पर हारों से सम्बद्ध है। सैनिक दृष्टि से प्रत्येक बार सफलता पाने पर भी राजनैतिक दृष्टि से हम प्रत्येक बार हारते रहे। 1947 के आक्रमण में पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर राज्य (उसके भारत में विलय के कारण तत्त्वतः और वस्तुतः भारत) का तीस हज़ार वर्गमील से अधिक क्षेत्र हड़प ले गया, हजारों हिन्दू मारे गए, हजारों स्त्रियों ने जौहर किये, लाखों हिन्दू अपने वतन से खदेड़ दिए जाने के कारण शरणार्थी बने, उनकी करोड़ों की सम्पत्ति लुट गई और बड़ी संख्या में सैनिकों ने बलिदान दिये, राष्ट्र की अपार वैत्तिक क्षति हुई। इस पर भी, संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत अभियुक्त ही बना रहा ! 1965 के दो आक्रमणों में पहले के कारण पाकिस्तान कच्छ के रण का एक भाग पा गया और बाद में भी उसको लाभ ही रहा।
1971 के युद्ध में बाँगलादेश तो बना पर उसमें हुए घटनाचक्र के कारण भारत को कोई लाभ नहीं हुआ और पाकिस्तान शिमला-समझौते में लाभ भी उठा गया। इन मुख्यतः तीन और सामान्यतः चार युद्धों का जो गम्भीर लेखा-जोखा प्रोफ़ेसर बलराज मधोक ने प्रस्तुत किया है। वह आँखें खोलने वाला है। सामान्य व्यक्ति तो दूर, अनेक अच्छे-अच्छे विद्वानों नेताओं और पत्रकारों तक को इन युद्धों में हुई राष्ट्रीय क्षति का सम्यक् बोध नहीं है। अतएव, इन पर एक गम्भीर ग्रन्थ लिखकर प्रो. मधोक ने राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण सेवा की है। हिन्दी में इस प्रकार की मौलिक पुस्तकें नहीं के बराबर हैं, क्योंकि सांस्कृतिक पराधीनता के अब भी विद्यमान होने के कारण अधिकारी विद्वान, नेता और पत्रकार इत्यादि अंग्रेज़ी में ही लिखने में गौरव का अनुभव करते हैं।
जम्मू-क्षेत्र के अनेक नगरों, उपनगरों और ग्रामों के पतन के समय प्रो. मधोक जम्मू नगर में विद्यमान थे। कालान्तर में एक ख्यातिप्राप्त राष्ट्रीय नेता होने के कारण वे सारे ऐतिहासिक घटनाचक्रों का निकट से अध्ययन करते रहे। इन कारणों से ‘जीत में हार’ एक अतीव प्रामाणिक और प्रशस्त ग्रन्थ बन गया है। यह कहा जा सकता है कि सैनिक और आर्थिक दृष्टियों में कमज़ोर होने कारण भारतीय नेतृत्व के समक्ष अनेक विवशताएँ भी थीं। एक सीमा तक अब भी हैं। प्रो. मधोक का भारत की विदेश-नीति की असफलताओं का विवेचन काफ़ी दूरी तक तथ्यपूर्ण है। उन्होंने वस्तुपरक दृष्टिपरक दृष्टिकोण की उपेक्षा नहीं की, भले ही एक प्रखर राष्ट्रवादी होने के कारण वे यत्र-तत्र उग्र हो गए हों।
प्रो. मधोक अपने ‘खण्डित कश्मीर’, जीत या हार’, ‘डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी-एक जीवनी’ तथा कश्मीर सेंटर ऑफ़ न्यू अलाइन्मेंट्स’ जैसे ग्रन्थों के लेखक होने के कारण कश्मीर-विषयक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेखक कहे जा सकते हैं। ‘जीत में हार’ इसी श्रृंखला की एक सशक्त कड़ी है। जब कभी ‘हिन्दी में कश्मीर सम्बन्धी साहित्य’ तथा ‘हिन्दी में विभाजन-सम्बन्धी साहित्य’ जैसे विषयों पर शोध-ग्रन्थ लिखे जाएँगे, प्रो. मधोक का स्मरण गौरव से किया जाएगा।
मातृभाषा पंजाबी होने पर भी, अंग्रेज़ी पर पूर्ण अधिकार रखते हुए भी, उन्होंने राष्ट्रभाषा में अनेक ग्रन्थ रचकर उसके भण्डार की श्री वृद्धि की है। उनकी हिन्दी में पंजाबी के शब्द, मुहावरे और उसकी कहावतें प्रशस्य रूप से पिरोई गयी हैं, जिससे राष्टभाषा के आयाम व्यापक हुए हैं, पंजाबी की प्राणवत्ता से उसका परिचय हुआ है। पंजाब के अनेक सपूतों ने हिन्दी की सेवा की है। सुदर्शन यशपाल अज्ञेय अश्क मोहन राकेश इत्यादि की संख्या काफी बड़ी है। राजनैतिक और ऐतिहासिक विषयों पर अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखने के कारण, इस दिशा में प्रो. मधोक का भी एक निश्चित स्थान जाना चाहिए। ‘पंजाब से सम्बद्ध हिन्दी-लेखक’ जैसे किसी भी शोध-ग्रन्थ में उनका उल्लेख अवश्य किया जाएगा। मैं आशा और अनुरोध करता हूँ कि प्रो. मधोक हिन्दी में अधिकाधिक ग्रन्थ रचें।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक नेता, जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद के संस्थापक और मन्त्री, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक, भारतीय जनसंघ के एक संस्थापक और अध्यक्ष तथा संसद (लोकसभा) के दो बार सदस्य रह चुकने वाले प्रोफ़ेसर बलराज मधोक देश के इतिहास में एक निश्चित स्थान बना चुके हैं। वे हृदय से देश-भक्त मस्तिष्क से राजनीतिज्ञ और आत्मा से आर्य हैं। स्पष्टवादिता और साहस के कारण वे अनेक बार कारागार की यातनाएँ झेल चुके हैं। जब वे युवक थे, तभी शेख अब्दुल्ला, ने उन्हें और उनके कारण उनके परिवार के सदस्यों को भी जम्मू-कश्मीर से निष्कासित कर दिया था। अतएव, संघर्ष उनकी प्रकृति का अंग बन गया है। जो उनके निश्छल, सरल और वीरतापूर्ण व्यक्तित्व से गहराई के साथ परिचित नही हैं, वे चाहे जो कहें, किन्तु उनका त्याग, उत्सर्ग और देश-प्रेम आज भी जानने वालों के मस्तक झुकवा देता है और कल भी झुकवाएगा, इसमें सन्देह नहीं।
‘जीत में हार’ का अभिप्राय 1947, 1965 और 1971 के पाक-आक्रमणों में भारतीय सेना की बलिदानमयी जीतों और, अनवरत रूप से, भारतीय शासकों की राजनैतिक मोर्चों पर हारों से सम्बद्ध है। सैनिक दृष्टि से प्रत्येक बार सफलता पाने पर भी राजनैतिक दृष्टि से हम प्रत्येक बार हारते रहे। 1947 के आक्रमण में पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर राज्य (उसके भारत में विलय के कारण तत्त्वतः और वस्तुतः भारत) का तीस हज़ार वर्गमील से अधिक क्षेत्र हड़प ले गया, हजारों हिन्दू मारे गए, हजारों स्त्रियों ने जौहर किये, लाखों हिन्दू अपने वतन से खदेड़ दिए जाने के कारण शरणार्थी बने, उनकी करोड़ों की सम्पत्ति लुट गई और बड़ी संख्या में सैनिकों ने बलिदान दिये, राष्ट्र की अपार वैत्तिक क्षति हुई। इस पर भी, संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत अभियुक्त ही बना रहा ! 1965 के दो आक्रमणों में पहले के कारण पाकिस्तान कच्छ के रण का एक भाग पा गया और बाद में भी उसको लाभ ही रहा।
1971 के युद्ध में बाँगलादेश तो बना पर उसमें हुए घटनाचक्र के कारण भारत को कोई लाभ नहीं हुआ और पाकिस्तान शिमला-समझौते में लाभ भी उठा गया। इन मुख्यतः तीन और सामान्यतः चार युद्धों का जो गम्भीर लेखा-जोखा प्रोफ़ेसर बलराज मधोक ने प्रस्तुत किया है। वह आँखें खोलने वाला है। सामान्य व्यक्ति तो दूर, अनेक अच्छे-अच्छे विद्वानों नेताओं और पत्रकारों तक को इन युद्धों में हुई राष्ट्रीय क्षति का सम्यक् बोध नहीं है। अतएव, इन पर एक गम्भीर ग्रन्थ लिखकर प्रो. मधोक ने राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण सेवा की है। हिन्दी में इस प्रकार की मौलिक पुस्तकें नहीं के बराबर हैं, क्योंकि सांस्कृतिक पराधीनता के अब भी विद्यमान होने के कारण अधिकारी विद्वान, नेता और पत्रकार इत्यादि अंग्रेज़ी में ही लिखने में गौरव का अनुभव करते हैं।
जम्मू-क्षेत्र के अनेक नगरों, उपनगरों और ग्रामों के पतन के समय प्रो. मधोक जम्मू नगर में विद्यमान थे। कालान्तर में एक ख्यातिप्राप्त राष्ट्रीय नेता होने के कारण वे सारे ऐतिहासिक घटनाचक्रों का निकट से अध्ययन करते रहे। इन कारणों से ‘जीत में हार’ एक अतीव प्रामाणिक और प्रशस्त ग्रन्थ बन गया है। यह कहा जा सकता है कि सैनिक और आर्थिक दृष्टियों में कमज़ोर होने कारण भारतीय नेतृत्व के समक्ष अनेक विवशताएँ भी थीं। एक सीमा तक अब भी हैं। प्रो. मधोक का भारत की विदेश-नीति की असफलताओं का विवेचन काफ़ी दूरी तक तथ्यपूर्ण है। उन्होंने वस्तुपरक दृष्टिपरक दृष्टिकोण की उपेक्षा नहीं की, भले ही एक प्रखर राष्ट्रवादी होने के कारण वे यत्र-तत्र उग्र हो गए हों।
प्रो. मधोक अपने ‘खण्डित कश्मीर’, जीत या हार’, ‘डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी-एक जीवनी’ तथा कश्मीर सेंटर ऑफ़ न्यू अलाइन्मेंट्स’ जैसे ग्रन्थों के लेखक होने के कारण कश्मीर-विषयक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लेखक कहे जा सकते हैं। ‘जीत में हार’ इसी श्रृंखला की एक सशक्त कड़ी है। जब कभी ‘हिन्दी में कश्मीर सम्बन्धी साहित्य’ तथा ‘हिन्दी में विभाजन-सम्बन्धी साहित्य’ जैसे विषयों पर शोध-ग्रन्थ लिखे जाएँगे, प्रो. मधोक का स्मरण गौरव से किया जाएगा।
मातृभाषा पंजाबी होने पर भी, अंग्रेज़ी पर पूर्ण अधिकार रखते हुए भी, उन्होंने राष्ट्रभाषा में अनेक ग्रन्थ रचकर उसके भण्डार की श्री वृद्धि की है। उनकी हिन्दी में पंजाबी के शब्द, मुहावरे और उसकी कहावतें प्रशस्य रूप से पिरोई गयी हैं, जिससे राष्टभाषा के आयाम व्यापक हुए हैं, पंजाबी की प्राणवत्ता से उसका परिचय हुआ है। पंजाब के अनेक सपूतों ने हिन्दी की सेवा की है। सुदर्शन यशपाल अज्ञेय अश्क मोहन राकेश इत्यादि की संख्या काफी बड़ी है। राजनैतिक और ऐतिहासिक विषयों पर अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखने के कारण, इस दिशा में प्रो. मधोक का भी एक निश्चित स्थान जाना चाहिए। ‘पंजाब से सम्बद्ध हिन्दी-लेखक’ जैसे किसी भी शोध-ग्रन्थ में उनका उल्लेख अवश्य किया जाएगा। मैं आशा और अनुरोध करता हूँ कि प्रो. मधोक हिन्दी में अधिकाधिक ग्रन्थ रचें।
डॉ. रामप्रसाद मिश्र
पृष्ठभूमि
1953 में कश्मीर को भारत के साथ मिलाने के पक्ष में जन्मू-कश्मीर प्रजा परिषद् द्वारा चलाए जाने वाले सत्याग्रह के समर्थन में भारतीय जनसंघ ने भी डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में आन्दोलन चलाया था। उसी सिलसिले में भारत सरकार ने मुझे नज़रबन्दी कानून के अन्तर्गत बन्दी-बनाकर सेन्ट्रल जेल, अम्बाला में डाल दिया था। मेरे साथ विख्यात समाजसेवी, चिकित्सक, लेखक और उपन्यासकार वैद्य गुरुदत्त भी थे। उन्होंने अम्बाला जेल में अपना लेखन-कार्य जारी रखा। उन्हीं से प्रेरणा पाकर मैंने भी कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण के दिनों (8 अक्तूबर, 1947 से लेकर 7 नवम्बर, 1947 तक) की अपनी डायरी को थोड़ी-सी कल्पना का पुट लेकर सत्य पर आधारित एक उपन्यास के रूप में लिखने का प्रयास किया था। बाद में वह ‘जीत या हार’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसके कई संस्करण निकल चुके हैं। गुरुजी के रूप में मैं स्वयं ही उसका प्रमुख पात्र हूँ। उसी के अन्तिम अध्याय के अन्तिम अनुच्छेद में मैंने 7 नवम्बर, 1947 के बाद के घटनाचक्र को भी लिपिबद्ध करने की बात कही थी।
गत अनेक वर्षों में ‘जीत या हार’ के अनेक पाठक मुझसे पूछते रहे कि मैं वह वृत्त कब लिखूँगा। समयाभाव के कारण इच्छा होते भी मैं उसे लिपिबद्ध न कर सका।
जून, 1975 में आपात्काल की घोषणा के समय मैं दिल्ली में नहीं था। इसीलिए जून 25 की रात को मैं पकड़ा न जा सका। जुलाई मास में मुझे मीसा कानून के अन्तर्गत पकड़कर फिर अम्बाला जेल में नज़रबन्द कर दिया गया। उस बलात् लादे गए विश्रामकाल में मुझे पढ़ने-लिखने का पर्याप्त समय मिला।
इस प्रकार अम्बाला जेल में ही मुझे पाकिस्तान के जम्मू पर आक्रमण की कहानी, उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रजा परिषद, की भूमिका और बाद के घटनाचक्र जिसने जम्मू-कश्मीर में भारत की सैनिक जीत को राजनैतिक हार में बदल दिया, का वृत्त लिखने का अवसर मिल गया।
मैं जम्मू में 8 नवम्बर, 1947 से 29 जनवरी, 1948 तक ही रह पाया। 19 जनवरी को मैं जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थिति और शेख अब्दुल्ला की भारत-विरोधी नीतियों और गतविधियों से सरदार पटेल और पं. नेहरु को अवगत कराने के उद्देश्य से जम्मू से निकला। 30 जनवरी को महात्मा गांधी की नई दिल्ली में हत्या कर दी गई। उस दुर्घटना का लाभ उठाकर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरदार पटेल के विरुद्ध चलाए गए अभियान के कारण साम्यवादियों, सम्प्रदायवादियों और अन्य राष्ट्र-विरोधी तत्त्वों को प्रोत्साहन मिला। शेख अब्दुल्ला ने उस स्थिति का लाभ उठाकर न केवल मुझे अपितु मेरे माता-पिता को भी जम्मू से निष्कासित कर दिया। इस प्रकार 19 जनवरी के बाद मैं जम्मू वापस न जा सका।
परन्तु जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में सैनिक, राजनैतिक और कूटनीतिक स्तर पर नई दिल्ली, श्रीनगर, रावलपिंडी तथा राष्ट्रसंघ में चलने वाली गतिविधियों का मैं गहराई से अध्ययन करता रहा। 1949 में ‘कश्मीर डिवाइडेड’- खण्डित कश्मीर-पुस्तक लिखकर जम्मू कश्मीर की वस्तु-स्थिति के सम्बन्ध में भारत और संसार की जनता के सामने कश्मीर समस्या का वस्तुपरक अध्ययन और हल भी प्रस्तुत किया। परन्तु सरदार पटेल की मृत्यु के बाद भारत सरकार ने कश्मीर के सम्बन्ध में जो नीति अपनाई वह न राष्ट्रहित के अनुरूप थी और न ही यथार्थवादी थी। फलस्वरूप भारतीय सेना के बलिदानों से प्राप्त 1947, 1965 और 1971 के युद्ध में लगातार मिली सैनिक जीत हर बार राजनैतिक नेतृत्व की भूलों और अविवेक के कारण राजनैतिक और कूटनीतिक हार में बदलती गई। 1971 के युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान के प्रधानमन्त्रियों द्वारा 1972 में की गई शिमला-सन्धि तो जीत को हार में बदलने की भारतीय शासकों की दुनीति की पराकाष्ठा थी। उसके बाद के घटनाचक्र और 1989 से कश्मीर घाटी को भारत से अलग करने के लिए पाकिस्तान के प्रच्छन्न युद्ध-War by proxy ने स्थिति को और कठिन बना दिया है। इसी कारण मैंने इस पुस्तक का शीर्षक ‘जीत में हार’ रखा है।
‘जीत में हार’ केवल तीस दिनों की मेरी डायरी पर आधारित है, परन्तु इस पुस्तक में जम्मू के मेरे अपने अस्सी दिनों के अनुभव और प्रत्यक्ष जानकारी के अतिरिक्त गत चवालीस वर्षों के कश्मीर-सम्बन्धी घटनाचक्र का एक विहंगम चित्र भी प्रस्तुत किया गया है।
‘जीत या हार’ की तरह इसमें कल्पना का पुट नहीं है, इसलिए इसका रूप उपन्यास का न होकर राजनैतिक और ऐतिहासिक वृत्त का है। मैंने केवल तथ्यों को अपनी प्रतिक्रिया और टिप्पणी के साथ प्रस्तुत किया है। ये तथ्य बहुतों के लिए बिल्कुल नए होंगे परन्तु मैंने प्रयत्न किया है कि वे जैसे हैं वैसे ही पाठकों के सामने रखे जाएँ।
31 दिसम्बर, 1976 को मुझे अन्य मीसाबन्दियों के साथ रिहा कर दिया गया। इसलिए जेल में लिखे भाग में 1947 से 1976 तक का ही वृत्त दिया जा सका। 1977 के बाद घटनाचक्र और तेजी से चला। भारत की राजनीति में अनेक परिवर्तन आए और भारत सरकार की कश्मीर-नीति पर भी उनका प्रभाव पड़ा। 1975 में शेख अब्दुला को दुबारा कश्मीर की राजसत्ता सौंप दिये जाने के कारण कश्मीर की आन्तरिक स्थिति में भी भारत के हितों के प्रतिकूल बदल आने लगा।
1982 में शेख अब्दुल्ला के निधन और 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद रियासत के अन्दर और बाहर स्थिति और तेजी से बदलने लगी। सोवियत रूस के अफ़गानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप और इसकी अमरीका में प्रतिक्रिया तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अड़े इसके प्रभाव का असर कश्मीर पर भी पड़ा।
पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल जिया-उल-हक द्वारा कश्मीर को हथियाने के लिए बनाई गई बेनामी युद्ध- War by proxy-की योजना जिसे ‘डोपाक’ योजना का नाम दिया गया, का कार्यान्वयन कश्मीर में 1988 में शुरू हुआ। कांग्रेस पार्टी और राजीव गांधी द्वारा पोषित और समर्थित कश्मीर का मुख्यमन्त्री फ़ारूक अब्दुल्ला इस योजना का एक मोहरा बन गया।
1989 में नई दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन से कश्मीर की राजनीति में भी एक बड़ा बदलाव आया। मुफ्ती मोहम्मद सईद के केन्द्र में गृहमन्त्री बन जाने और जगमोहन के कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त होने तथा फ़ारुक अब्दुल्ला के त्यागपत्र के बाद कश्मीर का शासन केन्द्र के हाथ में आ जाने से नई दिल्ली और श्रीनगर में एक-दूसरे के विपरीत और प्रतिकूल नीतियाँ चलने लगीं। इस अन्तर्द्वन्द्व का अन्त 1990 के मध्य में जगमोहन को राज्यपाल पद से हटाने और दिल्ली लौट आने से हुआ।
अक्टूबर, 1990 में नई दिल्ली में फिर सत्ता-परिवर्तन हुआ। कांग्रेस की सहायता से चन्द्रशेखर प्रधानमन्त्री बना। राजीव गांधी-फ़ारुक अब्दुल्ला फिर कश्मीर-सम्बन्धी नीति और कश्मीर प्रशासन की गतिविधियों को प्रभावित करने लगे। पाकिस्तान और उसके एजेण्टों को इसका लाभ मिलने लगा।
मार्च, 1991 में दिल्ली में फिर सत्ता-परिवर्तन हुआ। लोकसभा भंग कर दी गई और मई मास में नए चुनाव हुए। इसी बीच 21 मई को राजीव गांधी की हत्या हो गई और दिल्ली के सिंहासन पर नेहरु राजवंश के आधिपत्य का अन्त हो गया। इस बीच अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में भी महत्त्वपूर्ण बदल आया। सोवियत रूस ने साम्यवाद का परित्याग करके नई दिशा अपनाई और शीतयुद्ध का अन्त हो गया। इस बीच पाकिस्तान में भी राजनैतिक बदलाव आया। इन सबका प्रभाव जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर भी पड़ा।
मैंने इस सारे घटनाचक्र के परिप्रेक्ष्य में जम्मू कश्मीर की स्थिति और कश्मीर समस्या का तथ्यात्मक विवेचन और मूल्यांकन इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है।
मैंने प्रयत्न किया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य से सम्बन्धित घटनाचक्र और कश्मीर समस्या के बदलते रूप पर अद्यतन सामग्री का अध्ययन करके उसे सार रूप में हिन्दी के पाठकों के सामने पेश करूँ। कश्मीर पर पिछले दिनों अंग्रेज़ी में अनेक पुस्तकें छपी हैं। उनमें से अधिकांश घटनाचक्र का संकलन मात्र हैं। हिन्दी में इस विषय पर प्रत्यक्ष अनुभव और अद्यतन उपलब्ध स्रोतों के आधार पर लिखी गई सम्भवतः यह प्रथम पुस्तक है। मैंने शेख अब्दुल्ला की उर्दू में लिखी आत्मकथा ‘आतशे-चिनार’ में दी गई सामग्री का भी शेख अब्दुल्ला का दृष्टिकोण पेश करने के लिए उपयोग किया है। मुझे आशा है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी के पाठकोंको इससे न केवल कश्मीर समस्या को समझने में सहायता मिलेगी अपितु वे इसके यथार्थवादी और राष्ट्रवादी हल की दिशा में भी सोच सकेंगे। नीति-निर्धारकों को भी इस पुस्तक से कश्मीर-नीति पर पुनर्विचार करने के लिए सामग्री भी मिलेगी और दिशा भी।
इस पुस्तक के रचने में मुझे मेरी पत्नी कमला से बहुमूल्य सहयोग मिला है। हिन्दी और इतिहास के प्रख्यात लेखक और आलोचक डॉ. रामप्रसाद मिश्र ने पाण्डुलिपि को पढ़कर कुछ बहुमूल्य सुझाव दिये। और पुस्तक का समालोचनात्मक ‘प्रवेश’ लिखा। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
1947 के पाकिस्तानी आक्रमण के समय डोगरा सेना, संघ के स्वयं सेवकों और भारतीय सेना द्वारा सफल प्रतिरोध और जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला और पं. नेहरु की गलत नीतियों के कारण कश्मीर में सेना द्वारा प्राप्त विजय पर प्रश्नचिह्न लग गया था। इसलिए मैंने इस घटनाचक्र की सत्यकथा पर आधारित उपन्यास का नाम ‘जीत या हार’ रखा था। यह पुस्तक 1947 से 1991 के इस घटनाचक्र और नीतियों का वृत्त है जिनके कारण भारतीय सेना की 1947, 1965 और 1971 की महान् विजय को राजनैतिक और कूटनीतिक पराजय में बदल दिया गया। कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीर से निकालने और खत्म करने का जो काम विदेशी औरंगज़ेब नहीं कर सका था, वह स्वतन्त्र भारत के स्वदेशी शासनकाल में सम्पन्न हुआ। इसलिए मैंने इस पुस्तक का शीर्षक ‘जीत में हार’ रखा है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद इस नाम की सार्थकता स्वयं सिद्ध हो जाएगी।
गत अनेक वर्षों में ‘जीत या हार’ के अनेक पाठक मुझसे पूछते रहे कि मैं वह वृत्त कब लिखूँगा। समयाभाव के कारण इच्छा होते भी मैं उसे लिपिबद्ध न कर सका।
जून, 1975 में आपात्काल की घोषणा के समय मैं दिल्ली में नहीं था। इसीलिए जून 25 की रात को मैं पकड़ा न जा सका। जुलाई मास में मुझे मीसा कानून के अन्तर्गत पकड़कर फिर अम्बाला जेल में नज़रबन्द कर दिया गया। उस बलात् लादे गए विश्रामकाल में मुझे पढ़ने-लिखने का पर्याप्त समय मिला।
इस प्रकार अम्बाला जेल में ही मुझे पाकिस्तान के जम्मू पर आक्रमण की कहानी, उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रजा परिषद, की भूमिका और बाद के घटनाचक्र जिसने जम्मू-कश्मीर में भारत की सैनिक जीत को राजनैतिक हार में बदल दिया, का वृत्त लिखने का अवसर मिल गया।
मैं जम्मू में 8 नवम्बर, 1947 से 29 जनवरी, 1948 तक ही रह पाया। 19 जनवरी को मैं जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थिति और शेख अब्दुल्ला की भारत-विरोधी नीतियों और गतविधियों से सरदार पटेल और पं. नेहरु को अवगत कराने के उद्देश्य से जम्मू से निकला। 30 जनवरी को महात्मा गांधी की नई दिल्ली में हत्या कर दी गई। उस दुर्घटना का लाभ उठाकर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरदार पटेल के विरुद्ध चलाए गए अभियान के कारण साम्यवादियों, सम्प्रदायवादियों और अन्य राष्ट्र-विरोधी तत्त्वों को प्रोत्साहन मिला। शेख अब्दुल्ला ने उस स्थिति का लाभ उठाकर न केवल मुझे अपितु मेरे माता-पिता को भी जम्मू से निष्कासित कर दिया। इस प्रकार 19 जनवरी के बाद मैं जम्मू वापस न जा सका।
परन्तु जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में सैनिक, राजनैतिक और कूटनीतिक स्तर पर नई दिल्ली, श्रीनगर, रावलपिंडी तथा राष्ट्रसंघ में चलने वाली गतिविधियों का मैं गहराई से अध्ययन करता रहा। 1949 में ‘कश्मीर डिवाइडेड’- खण्डित कश्मीर-पुस्तक लिखकर जम्मू कश्मीर की वस्तु-स्थिति के सम्बन्ध में भारत और संसार की जनता के सामने कश्मीर समस्या का वस्तुपरक अध्ययन और हल भी प्रस्तुत किया। परन्तु सरदार पटेल की मृत्यु के बाद भारत सरकार ने कश्मीर के सम्बन्ध में जो नीति अपनाई वह न राष्ट्रहित के अनुरूप थी और न ही यथार्थवादी थी। फलस्वरूप भारतीय सेना के बलिदानों से प्राप्त 1947, 1965 और 1971 के युद्ध में लगातार मिली सैनिक जीत हर बार राजनैतिक नेतृत्व की भूलों और अविवेक के कारण राजनैतिक और कूटनीतिक हार में बदलती गई। 1971 के युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान के प्रधानमन्त्रियों द्वारा 1972 में की गई शिमला-सन्धि तो जीत को हार में बदलने की भारतीय शासकों की दुनीति की पराकाष्ठा थी। उसके बाद के घटनाचक्र और 1989 से कश्मीर घाटी को भारत से अलग करने के लिए पाकिस्तान के प्रच्छन्न युद्ध-War by proxy ने स्थिति को और कठिन बना दिया है। इसी कारण मैंने इस पुस्तक का शीर्षक ‘जीत में हार’ रखा है।
‘जीत में हार’ केवल तीस दिनों की मेरी डायरी पर आधारित है, परन्तु इस पुस्तक में जम्मू के मेरे अपने अस्सी दिनों के अनुभव और प्रत्यक्ष जानकारी के अतिरिक्त गत चवालीस वर्षों के कश्मीर-सम्बन्धी घटनाचक्र का एक विहंगम चित्र भी प्रस्तुत किया गया है।
‘जीत या हार’ की तरह इसमें कल्पना का पुट नहीं है, इसलिए इसका रूप उपन्यास का न होकर राजनैतिक और ऐतिहासिक वृत्त का है। मैंने केवल तथ्यों को अपनी प्रतिक्रिया और टिप्पणी के साथ प्रस्तुत किया है। ये तथ्य बहुतों के लिए बिल्कुल नए होंगे परन्तु मैंने प्रयत्न किया है कि वे जैसे हैं वैसे ही पाठकों के सामने रखे जाएँ।
31 दिसम्बर, 1976 को मुझे अन्य मीसाबन्दियों के साथ रिहा कर दिया गया। इसलिए जेल में लिखे भाग में 1947 से 1976 तक का ही वृत्त दिया जा सका। 1977 के बाद घटनाचक्र और तेजी से चला। भारत की राजनीति में अनेक परिवर्तन आए और भारत सरकार की कश्मीर-नीति पर भी उनका प्रभाव पड़ा। 1975 में शेख अब्दुला को दुबारा कश्मीर की राजसत्ता सौंप दिये जाने के कारण कश्मीर की आन्तरिक स्थिति में भी भारत के हितों के प्रतिकूल बदल आने लगा।
1982 में शेख अब्दुल्ला के निधन और 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद रियासत के अन्दर और बाहर स्थिति और तेजी से बदलने लगी। सोवियत रूस के अफ़गानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप और इसकी अमरीका में प्रतिक्रिया तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर अड़े इसके प्रभाव का असर कश्मीर पर भी पड़ा।
पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल जिया-उल-हक द्वारा कश्मीर को हथियाने के लिए बनाई गई बेनामी युद्ध- War by proxy-की योजना जिसे ‘डोपाक’ योजना का नाम दिया गया, का कार्यान्वयन कश्मीर में 1988 में शुरू हुआ। कांग्रेस पार्टी और राजीव गांधी द्वारा पोषित और समर्थित कश्मीर का मुख्यमन्त्री फ़ारूक अब्दुल्ला इस योजना का एक मोहरा बन गया।
1989 में नई दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन से कश्मीर की राजनीति में भी एक बड़ा बदलाव आया। मुफ्ती मोहम्मद सईद के केन्द्र में गृहमन्त्री बन जाने और जगमोहन के कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त होने तथा फ़ारुक अब्दुल्ला के त्यागपत्र के बाद कश्मीर का शासन केन्द्र के हाथ में आ जाने से नई दिल्ली और श्रीनगर में एक-दूसरे के विपरीत और प्रतिकूल नीतियाँ चलने लगीं। इस अन्तर्द्वन्द्व का अन्त 1990 के मध्य में जगमोहन को राज्यपाल पद से हटाने और दिल्ली लौट आने से हुआ।
अक्टूबर, 1990 में नई दिल्ली में फिर सत्ता-परिवर्तन हुआ। कांग्रेस की सहायता से चन्द्रशेखर प्रधानमन्त्री बना। राजीव गांधी-फ़ारुक अब्दुल्ला फिर कश्मीर-सम्बन्धी नीति और कश्मीर प्रशासन की गतिविधियों को प्रभावित करने लगे। पाकिस्तान और उसके एजेण्टों को इसका लाभ मिलने लगा।
मार्च, 1991 में दिल्ली में फिर सत्ता-परिवर्तन हुआ। लोकसभा भंग कर दी गई और मई मास में नए चुनाव हुए। इसी बीच 21 मई को राजीव गांधी की हत्या हो गई और दिल्ली के सिंहासन पर नेहरु राजवंश के आधिपत्य का अन्त हो गया। इस बीच अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में भी महत्त्वपूर्ण बदल आया। सोवियत रूस ने साम्यवाद का परित्याग करके नई दिशा अपनाई और शीतयुद्ध का अन्त हो गया। इस बीच पाकिस्तान में भी राजनैतिक बदलाव आया। इन सबका प्रभाव जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर भी पड़ा।
मैंने इस सारे घटनाचक्र के परिप्रेक्ष्य में जम्मू कश्मीर की स्थिति और कश्मीर समस्या का तथ्यात्मक विवेचन और मूल्यांकन इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है।
मैंने प्रयत्न किया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य से सम्बन्धित घटनाचक्र और कश्मीर समस्या के बदलते रूप पर अद्यतन सामग्री का अध्ययन करके उसे सार रूप में हिन्दी के पाठकों के सामने पेश करूँ। कश्मीर पर पिछले दिनों अंग्रेज़ी में अनेक पुस्तकें छपी हैं। उनमें से अधिकांश घटनाचक्र का संकलन मात्र हैं। हिन्दी में इस विषय पर प्रत्यक्ष अनुभव और अद्यतन उपलब्ध स्रोतों के आधार पर लिखी गई सम्भवतः यह प्रथम पुस्तक है। मैंने शेख अब्दुल्ला की उर्दू में लिखी आत्मकथा ‘आतशे-चिनार’ में दी गई सामग्री का भी शेख अब्दुल्ला का दृष्टिकोण पेश करने के लिए उपयोग किया है। मुझे आशा है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी के पाठकोंको इससे न केवल कश्मीर समस्या को समझने में सहायता मिलेगी अपितु वे इसके यथार्थवादी और राष्ट्रवादी हल की दिशा में भी सोच सकेंगे। नीति-निर्धारकों को भी इस पुस्तक से कश्मीर-नीति पर पुनर्विचार करने के लिए सामग्री भी मिलेगी और दिशा भी।
इस पुस्तक के रचने में मुझे मेरी पत्नी कमला से बहुमूल्य सहयोग मिला है। हिन्दी और इतिहास के प्रख्यात लेखक और आलोचक डॉ. रामप्रसाद मिश्र ने पाण्डुलिपि को पढ़कर कुछ बहुमूल्य सुझाव दिये। और पुस्तक का समालोचनात्मक ‘प्रवेश’ लिखा। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
1947 के पाकिस्तानी आक्रमण के समय डोगरा सेना, संघ के स्वयं सेवकों और भारतीय सेना द्वारा सफल प्रतिरोध और जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के बाद शेख अब्दुल्ला और पं. नेहरु की गलत नीतियों के कारण कश्मीर में सेना द्वारा प्राप्त विजय पर प्रश्नचिह्न लग गया था। इसलिए मैंने इस घटनाचक्र की सत्यकथा पर आधारित उपन्यास का नाम ‘जीत या हार’ रखा था। यह पुस्तक 1947 से 1991 के इस घटनाचक्र और नीतियों का वृत्त है जिनके कारण भारतीय सेना की 1947, 1965 और 1971 की महान् विजय को राजनैतिक और कूटनीतिक पराजय में बदल दिया गया। कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीर से निकालने और खत्म करने का जो काम विदेशी औरंगज़ेब नहीं कर सका था, वह स्वतन्त्र भारत के स्वदेशी शासनकाल में सम्पन्न हुआ। इसलिए मैंने इस पुस्तक का शीर्षक ‘जीत में हार’ रखा है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद इस नाम की सार्थकता स्वयं सिद्ध हो जाएगी।
बलराज मधोक
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