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इतिहास और राजनीति >> हमारी विरासत

हमारी विरासत

तेजपाल सिंह धामा

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5413
आईएसबीएन :8188388300

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दिव्य भारत का गौरवशाली इतिहास...

Hamari Virasat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हे आर्य भारत मां !

असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे,
सुरतरूवर शाखा लेखनी पत्रमुर्वी
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम्।
तदपि तव गुणानामीश ! पारम् न याति।


अर्थात् कज्जलगिरि की स्याही समुद्र के पात्र में घोली गयी हो, कल्पवृक्ष की शाखा की लेखनी हो, कागज पृथ्वी हो और मां सरस्वती स्वयं लिखने वाली हो, तथापि हे आर्य मां। तुम्हारे गुणों का वर्णन कर पाना अशक्य एवं असंभव है।

 

भूमिका

 

इतिहास का शाब्दिक अर्थ होता है ऐसा ही हुआ है। सच्चा इतिहास बतलाता है कि ईश्वर कभी किसी मनुष्य किसी देश अथवा किसी मनुष्य समूह की अधोगति तब तक नहीं करता जब तक कि मनुष्य, देश व जाति अज्ञानी तथा कुकर्मी स्वयं न बन जाए। शुभकर्म का फल आत्मीय तथा सामाजिक आरोग्यता, बल, बुद्धि, सुख, अभ्युदय व देश स्वतंत्रता और दुष्ट कर्मो का फल आत्मीय (निज की) तथा सामाजिक रोग, दुर्बलता, दुःख या दरिद्रता व देश की पराधीनता है। इतिहास गवाह है कि जब तक किसी मनुष्य विशेष या साधारण ने तथा जनमानस ने पूर्वकाल में कोई भी राजनीति, धर्म संबंधित आदि भूल की, तो उसको या उनको फल भोगना पड़ा।

हम भारतवर्ष की संतान हैं। हमारे पूर्वजों के कार्यकलापों के कारण ही हमारे इतिहास का निर्माण हुआ है। जब इतिहास को हमारे पूर्वजों ने निर्मित किया है तो अपना इतिहास लिखने का अधिकार हमको ही है, न किस विदेशी विद्वानों को। राम-रावण की ऐतिहासिक लड़ाई को विदेशी जन कवि की कल्पना मानते हैं और हमारे पूर्वज आर्यों को कहते हैं कि वे भारत में बाहर से आये हैं। जब हमारी स्मृति में पृथु हैं, जिसने पृथ्वी को गौरवान्वित किया, हम मनु को जानते हैं, जिन्होंने मानव को सुसंस्कृत बनाया, हम सृष्टि संवत को भी जानते हैं, लेकिन हमारी स्मृति में यह क्यों, नहीं कि हम भारतीय नहीं हैं ? हमारे पूर्वज आर्य कहीं बाहर से आये हैं। हे आर्यों की सन्तान। मेरे देश के इन मासूम बच्चों का क्या होगा ? जिन्हें पढ़ाया जाता है कि आपके पूर्वज आर्य घुमक्कड़ थे, ग्वाले थे, बाहर से आये, अतः यह देश आपका नहीं है, तो इस बारे में आपकी राय क्या होगी


नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्


जिस देश की सभ्यता एवं संस्कृति को मिटाना हो तो उस देश का इतिहास मिटा दो। स्मारक, साहित्य तथा वास्तविक संपत्ति चरित्र को मिटा दो। संसार के नक्शे से फिर वह देश स्वतः ही मिट जाएगा।

अश्लील साहित्य की सार्वजनिक स्थानों पर बिक्री की खुली छूट, चित्रहार, गंदी फिल्में, गान्धर्व, पैशाच, राक्षस आदि म्लेच्छ विवाह की जिस राष्ट्र में खुली छूट हो, उस देश की सभ्यता व संस्कृति स्वतः नष्ट हो जाएगी। इसी तरह विदेशी जनों पाश्चात्यता के गुलाम भारतीयों ने भारतवर्ष का नाश करने के लिए, भारत के स्वाभिमान व सभ्यता संस्कृति को नष्ट करने के लिए निम्न उपाय निकाल डाले।

आर्यों का आदि देश मध्य एशिया मानकर, भारत को अनेक देशों का उपमहाद्वीप मानकर, वास्को-डि-गामा के आगमन से भारत के इतिहास का श्रीगणेश करके, जैसे कि उसके पहले भारत कहीं खो गया था, जो उसे खोज निकाला ? मिथ्या वेद भाष्य करके जैसे राष्ट्रीय अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद् की प्राचीन भारत नामक पुस्तक में है :-

1. आर्यों का जीवन स्थायी नहीं था।
2. ऋग्वेद के दस्यु संभवतः इस देश के मूल निवासी थे।
3. हड़प्पा संस्कृति का विध्वंस आर्यों ने किया।
4. अथर्ववेद में भूत प्रेतों के लिए ताबीज।
5. पशुबलि के कारण बैल उपलब्ध नहीं।

भला इन षड्यंत्रों से भारत को कब तब बचा पायेंगे ? राष्ट्रीय स्वदेशाभिमान, स्वाभिमान, भारतीय सभ्यता-संस्कृति को कैसे सुरक्षित रखा जा सकेगा ? इस पुस्तक का लेखक कृषि विज्ञान में स्नातकोत्तर तो है लेकिन किसी भी विश्वविद्यालय से इतिहास विषय का स्नातक नहीं है, न ही इसने इतिहास विषय में विशेष योग्यता ही प्राप्त की है, किन्तु विद्यार्थी अवस्था से ही भारतीय सभ्यता संस्कृति के प्रति इसकी विशेष रुचि व अनुराग रहा है और इसकी यह इच्छा तब से ही थी कि इतिहास जैसे महत्त्वपूर्ण विषय के पठन-पाठन के क्रम में शोधपूर्ण प्रामाणिक परिवर्तन अवश्य किये जायें। इसके अलावा लेखक ने प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए इतिहास विषय का गहन अध्ययन किया। वह प्रशासनिक अधिकारी तो न बन सका, क्योंकि भ्रांतिपूर्ण इतिहास, इसकी शुष्कता अंधकार युग को दूर कर इसे ऐसे रूप में जनता के सामने उपस्थित करने में लग गया, जिससे कि लोग पुरातनकाल के इतिहास के पठन-पाठन में परिस्थितियों से तुलना कर लाभान्वित हों, इसी उद्देश्य को सामने रख दिव्य भारत के प्राचीन गौरवशाली इतिहास की एक झलक शोधपूर्ण तरीके से संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की गयी है।

यहां यह भी बता देना आवश्यक है कि लेखक यह दावा कदापि नहीं करता कि इस पुस्तक में जो घटनाएं लिखी गयी हैं वे सब निर्भ्रान्त और ठीक ही हैं, कारण इतिहास एक ऐसा अगाध और अपार विषय है कि किसी भी ऐतिहासिक सिद्धांत के विषय में यह कह देना कि बस, यही परम सत्य है, बड़े दुस्साहस का काम है, क्योंकि इतिहास के अन्वेषण का कार्य जारी है और आगे भी जारी रहेगा। कारण सहित कार्य को दिखाने वाला ही पूर्ण इतिहास होता है। इतिहास को बुद्धि से भी परखकर पढ़ना चाहिए, क्योंकि इतिहास में झूठी कथाएं भी हो सकती हैं तथा इतिहास में कई सच्चे वाक्य आश्चर्यजनक भी होते हैं। जैसे प्राचीनकाल में आज से अधिक विज्ञान था।

विदेशियों ने हमारे इतिहास को मोम का पुतला बना दिया है। जिधर चाहते हैं खींच ले जाते हैं। पश्चिमी इतिहासविदों और विद्वानों यथा म्योर, एलफिंस्टन, मनसियर डेल्बो, पोकाक, विलियम कार्नेट डा. जार्ज पोलेस, डेल्स एवं एलिजाबेथ राल्स आदि ने भी यह रहस्योद्धाटन किया है कि मार्टिन व्हीलर, स्टुअर्ट पिगट और जान मार्शल जैसे विद्वानों ने भी तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा है। अतः शोधर्पूर्ण गंभीरता से तर्कपूर्वक अपने इतिहास पर विचार करना हम सभी भारतवासियों का श्रेष्ठ कर्त्तव्य है, ताकि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति इस तामसी विचारों वाले संसार में, जो कीचड़ से भी बद्तर है, में कमल की भांति खिल उठे।

 

धियो यो न प्रचोदयात्।

 

तेजपाल सिंह धामा



दिव्य भारत की कीर्ति कथा

 

 

अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्ष भारत भारतम्।
प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोवैवस्वतय च।।
पृथोस्तु राजन्वैन्यस्य तथेक्ष्वाकार्महानत्मन।
ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य
तथैव मुचुकुन्दस्य शिषैरौशनिरस्य।
ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा।
कुशिकस्य च दुर्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः।
सोमकस्य च दुर्धर्ष दिलीपस्य तथैव च।।
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीय साम्।
सर्वेषामेव राजेन्द्रप्रियं भारत भारतम्।।

 

महाभारत, भीष्म पर्व अ. 9 श्लोक 5-9


भावार्थ: आओ हे भारत अब मैं तुम्हें भारतदेश का कीर्तिमान सुनाता हूं। वह भारत जो इन्द्रदेव को प्रिय हैं, जो मन वैवस्वत, आदिराज पृथुवैन्य और महात्मा अक्ष्वाकु को प्यारा था, जो भारत ययाति, अम्बरीष, मान्धाता, नहुष मुचुकुन्द और औशीनर शिवि को प्रिय था; ऋषभ ऐल और नृग जिस भारत को प्यार करते थे; और जो भारत कुशिक गाधि, सोमक, दिलीप और अनेकानेक शक्तिशाली सम्राटों को प्यारा था; हे नरेन्द्र ! उस दिव्य देश की कीर्तिकथा मैं तुम्हें सुनाऊंगा।

 

अध्याय 1

सृष्टि रचना

 

 

रचना सृष्टि की उत्पत्ति से ही प्रारंभ होता है, लेकिन उत्पत्ति का जिक्र आते ही सर्वप्रथम प्रश्न उठता है कि सृष्टि का रचनाकार है कौन ? सृष्टि की रचना का विचार जिसके मन में आया वह शक्ति क्या है ? अकेली है ? या अनेक हैं ? आज का व्यक्ति आंख मूंदकर कोई बात मान लेने को तैयार नहीं। वह हर बात को विज्ञान की कसौटी पर कसना चाहता है। अभी तक बड़े छोटे, खरे खोटे की पहचान का सर्वोत्कृष्ट आधार विज्ञान ही माना जाता है।

विज्ञान अभी तक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। भौतिकवादियों का कहना है कि सृष्टि की अंतिम सत्ता न आत्मा है न परमात्मा। यह सत्ता विद्युत की तीन तंरगों इलेक्ट्रान प्रोटान तथा न्यूट्रान का अविरल प्रवाह है। सृष्टि ह्रास की बात विज्ञान स्वीकार करता है और यदि सृष्टि बनती-बिगड़ती है तो विद्युत तंरगों का प्रवाह विच्छेद हो जाता है और फिर प्रवाहित हो जाता है। भौतिकी के अनुसार कोई गति बिना गति देने वाले के नहीं हो सकती और यदि गति देने वाला न हो तो शुरू में ही तरंगों का प्रवाह कैसे प्रवाहित होगा ? और विच्छेद हो जाने पर पुनः किसी अन्य शक्ति के बिना गतिमान कैसे होगा ? वह अन्य शक्ति ईश्वर के अलावा और क्या हो सकती है ?


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