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पंजाब समस्या तथा समाधान

बलराज मधोक

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5416
आईएसबीएन :0000

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पंजाब समस्या पर आधारित पुस्तक...

Panjab Samasya Tatha Samadhan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

1985 में मैंने पंजाब समस्या पर अंग्रेजी में एक पुस्तक ‘पंजाब प्राब्लम : दी मुस्लिम कनेक्शन’-लिखी थी। उसमें मैंने पंजाब के इतिहास का सिंहावलोकन करते हुए गुरुनानक देव द्वारा पंजाब के हिन्दुओं में नई चेतना और आत्मविश्वास पैदा करने वृत्त और गुरु गोविन्दसिंह द्वारा पंजाब के हिन्दुओं को मुसलमानों के अत्याचारों से बचाने के लिए गुरु शिष्यों-सिक्खों में से कुछ लोगों को खालसा बनाने और खालसा पन्थ के निर्माण के परिप्रेक्ष्य में केशधारी खालसा सिक्खों को हिन्दू समाज से काटने तथा उनमें अलगाववाद की भावना जगाने में ब्रिटिश सरकार की भूमिका एवं सिख समस्या के विकास पर विस्तार से प्रकाश डाला था।

1947 के भारत और पंजाब विभाजन के बाद खंडित पंजाब में सिक्खों में अलगाववाद ने नया रूप लिया। उसे बढ़ावा देने में स्वतंत्र भारत की केन्द्रीय सरकार की भूमिका ब्रिटिश सरकार की भूमिका से भी अधिक घृणित रही।
पाकिस्तान के निर्माण के बाद खंडित हिन्दुस्तान में मुसलमानों के प्रति भारत सरकार की तुष्टिकारण की नीति का भी अकाली सिक्खों के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा। सिक्ख अलगाववाद ने पहले पंजाबी सूबा के नाम पर अपनी जड़ें जमाईं। पंजाबी सूबा बनने के बाद और विशेष रूप में 1971 में बँगला देश के पाकिस्तान से कट जाने के बाद सिख अलगाववाद में पाकिस्तान ने विशेष रुचि लेनी शुरू की। वर्तमान सिक्ख समस्या जिसके कारण पंजाब गत 10 वर्षों से जल रहा है, उसी का परिणाम है।

बहुत से लोगों का सुझाव था कि मैं उस अंग्रेजी में लिखित पुस्तक को हिन्दी में भी लिखूँ। गत 5-6 वर्षों के घटनाचक्र से उसकी आवश्यकता और बढ़ गई है अतः मैंने यह पुस्तक लिखने का फ़ैसला किया।
यह पुस्तक अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद मात्र नहीं है। यह मौलिक रचना है जिसमें मैंने समस्या के सम्बन्ध में तथ्यों को बिना लाग लपेट के पेश किया है और उसके समाधान के व्यावहारिक उपाय भी सुझाए हैं। मेरा उद्देश्य जन साधारण को इस दुर्भाग्यपूर्ण समस्या के सम्बन्ध में शिक्षित करना और नीति निर्धारकों को दिशा दिखाना है। पाठक ही इस बात का निर्णय करेंगे कि मेरा यह प्रयास कितना सार्थक रहा है।

बलराज मधोक


1
हिन्दू, सिक्ख और खालसा



पंजाब अर्थात् पाँच पानी या पाँच नदियाँ। आब (पानी) फ़ारसी शब्द है, पंज (पाँच) पंजाबी शब्द। यह नाम मिश्रित संस्कृतियों की देन है। हिन्दुस्तान के संस्कृत-साहित्य और गुरु ग्रन्थ साहिब में भी इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। यह अब उस क्षेत्र का प्रचलित नाम है जो वेदों के ‘ब्रह्मावर्त्त’ और सप्त सिन्धवा और जेंदावस्ता के हफ्त़ हिन्दवा का मुख्य भाग था। पश्चिम में सिन्धु नदी और पूर्व में परम्परागत सरस्वती नदी से घिरे इस क्षेत्र में सतलुज (शतद्रु) व्यास (विपाशा), रावी (इरावती), चिनाब (चन्द्रभागा अथवा असकिनी) और जेहलम (वितस्ता) नाम की पाँच नदियाँ बहती हैं। इन्हीं के कारण बाद में यह पंचनद प्रदेश कहलाया। तदनन्तर फ़ारसी आक्रान्ताओं के प्रभाव से फ़ारसी बोली का चलन हुआ और लोगों ने इसे पंजाब कहना शुरू किया।

पंजाब का एक लम्बा और उथल-पुथल भरा इतिहास है। वैदिक काल में इसमें अनेक छोटे-छोटे राज्य थे। महाभारत के युद्ध में पंजाब और इसके परे सिन्धु नदी के पश्चिम के गान्धार क्षेत्र के राजाओं ने भी भाग लिया था। इस क्षेत्र का प्रमुख नगर लाहौर है जो परम्परा के अनुसार भगवान् राम के पुत्र लव ने बसाया था। ईसा से चौथी शताब्दी पूर्व जब यूनानी सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया, तब इस क्षेत्र में अनेक राज्य और गणराज्य थे। उन्होंने आक्रान्ता का डटकर मुकाबला किया। महाराजा पोरस जेहलम और चिनाब नदी के बीच के अभिसार क्षेत्र का शासक था। उसने जेहलम नदी के तट पर सिकन्दर के साथ एक महान् युद्ध लड़ा जिसमें वह हारकर भी विजयी हुआ। सिकन्दर की सेनाओं के हौसले तभी पस्त होने लगे और उन्होंने व्यास नदी से आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। सिकन्दर को निराश लौटना पड़ा और रास्ते ही में बाबुल में उसका निधन हो गया।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने आचार्य चाणक्य की सहायता से पहले इसी क्षेत्र में अपने पाँव जमाए और बाद में मगध पर अधिकार किया। इस प्रकार यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का महत्त्पूर्ण पश्चिमी प्रान्त बन गया। इसकी राजधानी तक्षशिला टैक्सला थी। रावलपिण्डी और पंजा साहब के पास इसके भग्नावशेष आज भी  पंजाब के प्राचीन वैभव की याद दिलाते हैं।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद इस क्षेत्र पर यवन, कुशान, शक और हूण इत्यादि अनेक विदेश आक्रान्ताओं ने अपना अधिकार कुछ काल तक जमाया। यवन (यूनानी) राजा मेनेंडर ने साकल (स्यालकोट) को और कुशान सम्राट् कनिष्क ने पुरुषपुर पेशावर को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। शकलोग जो ईरान की ओर से आए थे, इसके देहाती क्षेत्रों में फैल गए। परन्तु कालान्तर में इन सबका हिन्दूकरण हो गया। हिन्दू समाज ने उन्हें आत्मसात् कर लिया और वे भारतीय हिन्दू समाज के अभिन्न अंग बन गए।

सातवीं शताब्दी में जब अरब में इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ, तब पंजाब का बहुत-सा भाग महाराज हर्ष के साम्राज्य का अंग था।
आठवीं शताब्दी के शुरू में अरब आक्रान्ताओं ने सिन्ध पर अधिकार कर लिया, परन्तु वे मुलतान से आगे नहीं बढ़ पाए।
अरबों ने ईरान को विजय करने के बाद गान्धार (अफगानिस्तान) की ओर भी बढ़ने का प्रयत्न किया, परन्तु इस क्षेत्र के जाबुल और काबुल नाम के हिन्दू राज्यों ने इनका कड़ा मुकाबला किया और उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया। गान्धार अथवा पख्तूनिस्तान के इन हिन्दू राज्यों को छोड़कर सारा पश्चिम एशिया और मध्य एशिया तुर्क मुसलमानों के अधिकार में आ गया।

दसवीं शताब्दी में पंजाब के हिन्दू शाहीवंश के राजाओं ने काबुल को भी अपने साम्राज्य का अंग बना लिया। तीन सौ वर्षों के सतत प्रयत्न के बाद तुर्क मुसलमान पहले गजनी पर और फिर दसवीं शताब्दी के अन्त में काबुल पर अधिकार करने में सफल हुए। उसके बाद महमूद गजनवी ने 1008 ईसवी में पेशावर पर अधिकार करके खैबर दर्रे का रास्ता मुस्लिम आक्रान्ताओं के लिए खोल दिया।

1020 ईसवी में लाहौर भी तुर्कों के अधिकार में चला गया। इस प्रकार भारत का जो क्षेत्र अब पाकिस्तान कहलाता है वह सन् 1020 में मुस्लिम आक्रान्ताओं के हाथ में आ गया। दिल्ली तक पहुँचने में उन्हें लगभग दो सौ वर्ष और लगे। इस प्रकार जो इस्लाम मोहम्मद के निधन के पचास वर्षों के अन्दर सारे उत्तर अफ्रीका के कुछ भाग और पश्चिम तथा मध्य एशिया में फैल गया था, उसे हिन्दू गान्धार और पंजाब लेने में तीन सौ वर्ष लगे और दिल्ली तक पहुँचने में दो सौ वर्ष और लगे। इस्लामी साम्राज्यवाद का जितना कड़ा प्रतिरोध हिन्दुस्तान और हिन्दुओं ने किया, उतना और किसी देश या लोगों ने नहीं किया।

1020 से लेकर अठारहवीं शताब्दी के शुरू तक पंजाब मुसलमानों के अधिकार में रहा। उन्होंने वहाँ के सारे पुराने मन्दिर और विहार नष्ट कर डाले और पंजाब के लोगों को बलात् मुलसमान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, परन्तु उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली। बहुत से पंजाबी और पठान हिन्दू अपने धर्म और जान की रक्षा के लिए पश्चिम में यूरोप की ओर चले गए जहाँ उनकी सन्तानें जिप्सी अथवा रोमा के नाम से आज भी विद्यमान हैं। उनकी भाषा और संस्कृति का भारत और विशेष रूप में पंजाब से सम्बन्ध अब सर्वविदित है। कुछ पूर्व और दक्षिण में भारत के अन्य भागों में चले गए और कुछ उत्तर में हिमालय की घाटियों में जा बसे। हिमालय क्षेत्र में उनकी सन्तानें अब गद्दी के नाम से जानी जाती हैं। परन्तु बहुत से पंजाब में रहते हुए ही संघर्ष करते रहे।

इस लम्बे संघर्ष में अनेक पंजाबी हताहत हुए। परतन्त्रता और निराशा के इस लम्बे काल में 1479 में पंजाब में गुरु नानकदेव के रूप में आशा की एक किरण उगी। लाहौर के पश्चिम में तलवंडी (ननकाना साहिब) गाँव में एक बेदी क्षत्रिय-परिवार में जन्म नानकदेव ने सन्त परम्परा अपनाई और पंजाब को एक नई दिशा दी। पंजाब में हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म और संस्कृति को बनाए रखने में गुरु नानक और उनके उत्तराधिकारियों और शिष्यों सिक्खों ने वही भूमिका निभाई जो महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास और तुकाराम ने, उत्तर प्रदेश में सन्त कबीर, तुलसी और सूरदास ने और बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने निभाई थी। उनके संवेदनाशील हृदयों को आततायी मुगल आक्रान्ता बाबर, जिसने अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर को ध्वस्त करके उसके स्थान पर मस्जिद बनाने का कुकृत्य भी किया, के अत्याचारों ने बहुत उद्धिग्न किया। बाबर द्वारा हज़ारों हिन्दुओं के काटे गए मुंडों के टीलों और सिकन्दर लोधी द्वारा किये गए अत्याचारों से उनकी आत्मा पूरी तरह आहत हुई और उन्होंने कहा कि संसार से अच्छाई उड़ गई है और शासक कसाई बन गए हैं। उन्होंने आयु पर्यन्त इस अनर्थ के विरुद्ध आवाज उठाई और वेदों के ज्ञान और भक्ति रस को उस समय की जनभाषा में प्रचारित करके लोगों को ढारस दी और उनमें नई आशा का संचार किया।
भाई गुरुदास ने उस भयानक परिस्थिति में गुरु नानक के उदय को इस विख्यात छन्द में व्यक्त किया है-


सत गुरु नानक प्रकट्या
मिटी धुंध जग चानन (प्रकाश) होआ,
ज्ञान का सूरज निकल्या,
तारे छिपे अँधेरे पलोआ (विलीन हुआ)

दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने गुरु नानक के कुल परिवार का वर्णन इस प्रकार किया है-


जिन वेद पढ़्या वेदी कहलाया,
जिन्हाँ ही धर्म के काम कमाए,
इन वेदियों के कुल विच,
प्रकटे नानक राय


इससे स्पष्ट है कि नानक वेदपाठी परिवार में जन्मे थे और वेदों के ज्ञान का प्रचार उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। गुरु ग्रन्थ साहिब की निम्न उक्तियाँ-


"हरि सिमरण का भक्त प्रगटाय,
हरि सिमरण लग वेद उपाय,
चचा चार वेद जिन साजे,
चारी खाने चार जुगा
चारे  वेद होय सचियारे,
पढ़े गुने तिन चार विचार।"

गुरु नानक और अन्य गुरुओं के वेदों के प्रति जिस भाव को व्यक्त करती हैं; वह उस वाणी के वेदमूलक होने का स्पष्ट प्रमाण है।
गुरु नानक के बाद गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरगोविन्द, गुरु हरराय, गुरु रामराय, गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्दराय गुरु-गद्दी पर बैठे। उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले लोग उनके शिष्य, जिसका पंजाबी उच्चारण सिक्ख है, कहे जाने लगे।
गुरु नानक के अनुयायियों के बढ़ते प्रभाव से मुल्ला और मुस्लिम शासक विचलित हो गए। उन्होंने उनके प्रति दमन की नीति अपनानी शुरू की। जहाँगीर के काल में पाँचवें गुरु श्री अर्जुनदेव को लाहौर में जलाकर मार डाला गया। इसकी सभी हिन्दुओं, विशेष रूप से सिक्खों में गहरी प्रति क्रिया हुई थी।

छठे गुरु श्री हरगोविन्द पहले गुरु थे जिन्होंने महसूस किया कि मुगल शासकों और मुल्लाओं के आतंक का मुकाबला करने के लिए उनके शिष्यों को तलवार का सहारा भी लेना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने अमृतसर के पास लोहगढ़ का किला बनवाया और अमृतसर में गुरु रामदास जी द्वारा बनवाये गए हरमन्दिर के पास अकालबुंगा अर्थात् अकालपुरुष के निवास का निर्माण भी किया। यही अकालबुंगा अब अकाल तख्त कहलाता है। गुरु गोविन्दसिंह ने इस अकालबुंगा में कभी निवास नहीं किया और न ही कभी इसमें अस्त्र-शस्त्र इकट्ठे किए; उसके लिए लोहगढ़ किला था।
गुरु तेगबहादुर ने भाई मतिदास-समेत अपने प्रमुख साथियों के साथ हिन्दू धर्म और विशेष रूप में काश्मीर के हिन्दुओं की रक्षार्थ दिल्ली के चाँदनी चौक में उस स्थान पर जहाँ अब गुरुद्वारा शीशगंज बना हुआ है, अपना बलिदान दिया। उस स्थान पर तब दिल्ली की कोतवाली थी और औरंगजेब दिल्ली का शासक था। उसके निकट ही भाई मतिदास के धड़ को आरे से काटा गया।

गुरु तेगबहादुर का काश्मीर के हिन्दुओं की रक्षा के लिए अपना बलिदान देने का सुझाव उनके छः वर्षीय पुत्र गोविन्दराय ने दिया था। गोविन्दराय का जन्म पटना में हुआ था।

अपने पिता और उनके साथियों के प्रति औरंगेजेब के व्यवहार ने गोविन्दराय को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध  विद्रोह का झण्डा खड़ा करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने महसूस किया कि बिना सैनिक शक्ति के मुगल सेना का मुकाबला नहीं हो सकता। इसलिए 1799 में उन्होंने आनन्दपुर के स्थान पर देश भर के अपने शिष्यों अथवा सिक्खों का एक समागम किया और वहाँ देश धर्म के लिए बलिदान देने के लिए उनका आह्वान किया। उनके आह्वान पर जो पाँच शिष्य आगे आए उन्हें उन्होंने पंजप्यारे की संज्ञा दी और वे उनके द्वारा खड़ी की गई खालसा सेना अथवा खालसा पन्थ के पहले घटक बने। उनमें से पहले लाहौर के दयाराम खत्री थे, दूसरे हस्तिनापुर (उत्तर प्रदेश) के धर्मदास जाट थे, तीसरे द्वारिकापुरी (गुजरात) के मोहकमचन्द धोबी थे, चौथे पुरी (उड़ीसा) के हिम्मत झीवर थे और पाँचवें बीदर (कर्नाटक) के साहिबचन्द नाई थे। इस प्रकार इस खालसा सेना का स्वरूप जन्म से ही अखिल भारतीय और जात-पाँत से ऊपर था। गुरु गोविन्दराय ने सतलज नदी के पानी में मिश्री घोलकर और उसमें तलवार घुमाकर उसे अमृत का नाम दिया और वह उन पाँचों को पिलाया और फिर उनके हाथ से स्वयं उसका पान किया।

इस खालसा सेना के सैनिकों को गुरु गोविन्दराय ने हर समय कृपाण, कड़ा, कच्छा केश और कंघा रखने का आदेश दिया। कृपाण रखने का उद्देश्य हर समय युद्ध के लिए तैयार रहना था। दाईं कलाई पर लोहे का चौड़ा कड़ा पहनने का महत्त्व कलाई पर किये जाने वाले आघात की पेशबन्दी करना था। क्योंकि धोती या तहमद पहनकर तेज भागना सम्भव नहीं, इसलिए कच्छा पहनना सैनिक के लिए आवश्यक था। केश सिर पर ‘हेलमेट’ का काम करते हैं और सिर पर किये जाने वाले आघात से बचाते हैं और लम्बे बालों की सफाई के लिए कंघी रखना आवश्यक होता ही है। ‘क’ से शुरू होने के कारण ‘पाँच’ कक्के कही जाने वाली इन चीजों में किसी का भी कोई धार्मिक या पंथिक महत्त्व और आधार नहीं है। इनका सिक्खी और खालसा पंथ से भी कोई सम्बन्ध नहीं है। इनका महत्त्व केवल व्यावहारिक है। यह खालसा सैनिकों की वर्दी का अंग और जो कोई खालसा सैनिक बनता, उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह इन्हें धारण करे।
खालसा सैनिक बनने वालों के नाम के साथ राजपूतों के नामों की तरह सिंह जोड़ने की परम्परा का महत्त्व भी व्यावहारिक था। नाम का प्रभाव मानव के मानस पर हर समय पड़ता है। इसलिए सैनिकों के नाम उनके काम के अनुरूप होने चाहिए। इसीलिए गुरु गोविन्दराय ने अपना नाम गोविन्दसिंह कर लिया और अन्य खालसा सैनिकों के नाम के साथ ‘सिंह’  जोड़ने की परम्परा शुरू की।

उस समय गुरु के सभी शिष्यों अथवा सिक्खों से यह अपेक्षा की गई कि वे अपने अपने परिवारों में से कम से कम एक व्यक्ति को खालसा सैनिक बनाएँ। क्योंकि सभी गुरु क्षत्रिय अथवा खत्री परिवारों में से थे, इसलिए पंजाब के खत्री परिवारों में गुरुओं के प्रति आत्मीयता अधिक थी। इसी कारण पंजाबी खत्रियों में यह परम्परा शुरू हुई कि हर परिवार का बड़ा लड़का खालसा बनाया जाए और वह देश और धर्म की सेवा का संकल्प ले। हिन्दू सिक्ख परिवारों में जो जो लड़के इस प्रकार खालसा बनते थे उन्हें विशेष सम्मान दिया जाने लगा और सरदार कहकर सम्बोधित किया जाने लगा। उससे पहले सिक्ख एक दूसरे को भाई कहकर पुकारते थे। अब खालसा बने सिक्खों को सरदार कहा जाने लगा। इसप्रकार एक ही सिक्ख परिवार के केश रखकर खालसा बने भाई सरदार कहे जाने लगे और अन्य भाइयों को भाई या लाला कहकर सम्बोधित किया जाने लगा।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सभी ‘खालसा’ सिक्खों में से ही बने जैसे सभी सिक्ख हिन्दुओं में से बने। हर केशधारी खालसा पहने सिक्ख था और है, परन्तु हर सिक्ख खालसा नहीं। जो सिक्ख सैनिक नहीं बने और जिन्होंने उपर्युक्त सैनिक परिधान ग्रहण नहीं किया, वे सिक्ख तो रहे पर खालसा नहीं बने। उसी प्रकार सभी सिक्ख हिन्दू हैं जिस प्रकार सभी गुरु हिन्दू थे। पंजाब और सिन्ध के लगभग सभी हिन्दुओं ने गुरुओं को और उनकी शिक्षा को अपना लिया। इनमें से अधिकांश आज भी उनके शिष्य अथवा सिक्ख हैं परन्तु सभी हिन्दू सिक्ख नहीं हैं। हिन्दू, सिक्ख और खालसा के इस परस्पर सम्बन्ध को भली भाँति समझना अकालियों द्वारा बाद में फैलाई गई बहुत सी भ्रान्तियों से बचने के लिए आवश्यक है।
खालसा सैनिकों की संख्या मुगाल सेना के मुकाबले में बहुत कम थी। इसलिए उनमें आत्मविश्वास पैदा करने और उनका मनोबल ऊँचा करने के लिए गुरु गोविन्दसिंह ने-


"सवा लाख से एक लड़ाऊ
तब गोविन्दसिंह नाम कमाऊँ।"

का सिंहनादकिया। ‘‘राज करेगा खालसा आकी रहे न कोय" के पीछे भी यही भाव था। परन्तु यह घोष गुरुगोविन्दसिंह का दिया हुआ नहीं। इसे बन्दा बहादुर ने प्रचलित किया था। उसके कुशल नेतृत्व में खालसा सैनिकों ने पहली बार पंजाब में अपना शासन कायम किया।
खालसा पंथ के निर्माता गुरु गोविन्दसिंह इसके बाद केवल नौ वर्ष और जिये। 1808 में नान्देड़ में एक मुसलमान के धोखे से किये गए घात से उनकी जीवनलीला समाप्त हो गई। इन वर्षों में उन्होंने अपनी समिति शक्ति और खालसा सेना के बल पर पंजाब में एक मानसिक और वैचारिक क्रान्ति का श्रीगणेश किया जो उनके मरने के बाद बन्दा बहादुर और महाराजा रणजीतसिंह के नेतृत्व में मूर्तरूप ले पाई।
गुरु गोविन्दसिंह सच्चे और आदर्श हिन्दू थे। उन्होंने खालसा का निर्माण हिन्दू धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए किया था। उनका विख्यात जयघोष-


"सकल जगत में खालसा पन्थ गाजे,
जगे धर्म हिन्दू सकल भंड भाजे।।

इसी बात को स्पष्ट करता है। उनके ये वचन-


"यही आसपूरण करो तुम हमारी
मिटे कष्ट गौवन, छुटे खेद भारी
यही विनती खास सुनिए हमारी,
असुर मार रक्षा यौवन की कीजे
न छोड़ू कहीं दुष्ट असुरन निशानीं,
चले सब जगत में धरम की कहानी।
धरम वेद मर्यादा जग में, चलाऊँ
गऊ घात का दोष जग से मिटाऊँ।


खालसा पंथ के निर्माण के पीछे उनके वास्तविक मनोभाव को दर्शाते हैं।


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