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निशान्त के सहयात्री

कुर्रतुल ऐन हैदर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :355
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 543
आईएसबीएन :82-263-0754-4

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यह उपन्यास एक छोटी-सी अवधि में ही हमारी ऐतिहासिक और सामाजिक परम्पराओं की विशालता को एक पैने दृष्टिकोण से अपने में समोता है।

Nishant ke Sahyatri - A hindi Book by - Qurtul Ain Haider निशान्त के सहयात्री - कुर्रतुलऐन हैदर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1998 के ज्ञानपीठ से सम्मानित देश की प्रख्यात कथाकार कुर्रतुलऐन हैदर का उपन्यास आखिर-ए-शब के हमसफर एक उर्दू क्लासिक माना जाता है, निशान्त के सहयात्री उसका हिन्दी रूपान्तर है। आग का दरिया और कारे जहाँ दराज जैसे उपन्यासों की लेखिका की कृतियों में ऐतिहासिक अहसास व सामाजिक चेतना के विकास का अनूठा सम्मिश्रण है। निशान्त के सहयात्री में यही अहसास और चेतना बहुत गाढ़ी हो गयी है यद्यपि यह उपन्यास केवल 33 वर्षों ( 1939-72) की छोटी सी अवधि में ही हमारी ऐतिहासिक और सामाजिक परम्पराओं की विशालता को एक पैने दृष्टिकोण से अपने में समोता है। कहानी 1939 में पूर्वी भारत के एक प्रसिद्ध नगर से आरम्भ होती है। पर वास्तव में यह पाँच परिवारों-दो हिन्दू,एक मुसलमान, एक भारतीय ईसाई और एक अँग्रेज-का इतिहास है जो आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस समय के क्रांतिकारी परिवर्तन ने जन-सामान्य की मानसिकता, उसके नैतिक,मूल्य आदर्श और उद्देश्य के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित किया। इस सबका बड़ा वास्तविक चित्रण इस उपन्यास में है पर मानवीय संवेदना के साथ। उपन्यास के शिल्प ने कहानी की वास्तविकता और जीवनन्तता के सम्मिश्रण को और भी प्रखर करके जो रस का संचार किया है वही इस कृति की विशेष उपलब्धि है। प्रस्तुत है इस महत्वपूर्ण उपन्यास का एक और नया संस्करण।

चन्द्रकुंज

ढाका शहर की एक औसत दर्जे की बस्ती में आम और केले के पेड़ों में छिपी यह एक पुराने ढंग की सफ़ेद कोठी है। इसकी दीवारें काई से हरी हो चुकी हैं और रोशनदानों और खिड़कियो में कई जगहों पर शीशों की जगह टीन के कनस्तर के टुकड़े और दफ्तियाँ लगी हैं। सामने के बरामदे में एक कोने पर बाशा की मज़बूत चटाइयाँ खड़ी करके एक कमरा बना दिया गया है। कमरे के दरवाज़े पर नीले रंग की आधी साड़ी का परदा टँगा है। अन्दर एक बेंच, एक मेज़ और डॉक्टरी जाँच वाला ऊंचा-सा पलंग बिछा है, जिसके गद्दे का नीला चमड़ा जगह-जगह से उधड़ गया है। दवाओं की अलमारियाँ और तामचीनी की चमची का स्टैण्ड एक दीवार के बराबर लगा हुआ है। मेज़ के पीछे बड़ा-सा कैलेण्डर टँगा है।

बरामदे और खुले हुए हवादार कमरों के लाल फ़र्श पानी से बहुत अधिक धोये जाने की वजह से साफ़-सुथरे और चमकीले हैं। बरामदे में एक बेंच और दो-तीन मोढ़े पड़े हैं। दो साइकिलें भी खड़ी हैं। बरामदे में से अन्दर ‘बैठक’ साफ़ दिखाई देती है। इसमें बेंत का एक सोफा और कुछ बेजोड़ कुर्सियाँ रखी हैं। कोने में एक मेज़ पर गिलाफ से ढका हारमोनियम और दीवार के सहारे एक इसराज भी मौजूद हैं। बैठक की दीवारों पर आमने-सामने एक मर्द और एक औरत की दो बड़ी तस्वीरें लगी हैं। इस पर ऐसा धुँधला-धुँधला-सा प्रभाव है जो किसी रहस्यमय और अज्ञात रसायन के माध्यम से उन लोगों की तस्वीरों पर अपने-आप पड़ जाता है, जो मर चुके हैं। औरत जवान और ख़ूबसूरत, रेशमी साड़ी से सिर ढाँपे और एक उँगली अपनी ठोड़ी पर रखे ख़्वाब में डूबी-सी आँखों से कैमरे को देख रही है। दूसरी तस्वीर में सफ़ेद शाल लपेटे एक अच्छी शक्ल का नौजवान सिर झुकाये ध्यान से एक मोटी-सी किताब पढ़ रहा है। कुछ मोटी-मोटी किताबें मख़मल के मेज़पोश पर टिकी उसकी एक क़ोहनी के क़रीब रखी हैं। दोनों तस्वीरों पर गोटे के हार पड़े हैं, जिनका झूठा गोटा क़रीब-क़रीब काला पड़ चुका है।

बैठक के दरवाज़े बराबर के दो कमरों में खुलते हैं। दायीं तरफ़ वाले कमरे में खाने की मेज़ और नेमतख़ाने के क़रीब बराबर-बराबर तीन चारपाइयाँ, कोने में बेंत की तीन मेज़ों पर स्कूल की किताबों के ढेर, खूँटी पर निकरें और कमीजें हैं, कैनवस के नये और पुराने जूतों का ढेर एक कोने में पड़ा है। अधखुले टीन के बक्स चारपाइयों के नीचे ठुसे हैं। खाने की मेज़ खिड़की के पास बिछी है। खिड़की बराबर के हरे-भरे अहाते में खुलती है। इस कमरे के बराबर एक और छोटा कमरा है जिसकी एक दीवार पर लकड़ी के तख़्ते लगाकर कार्निस-सी बना दी गयी है। इस पर दवाओं की शीशियाँ, पुराने ख़त, क़लम-दवात, महिलाओं की कुछ बांग्ला पत्रिकाएँ और सिलाई की टोकरी रखी हैं। कार्निस के नीचे पतले से तख़्त पर साफ़ बिस्तर लगा है। एक कोने में छोटा-सा मन्दिर है। सन्दल की चौकी पर रखी हुई मूर्तियों पर गेंदें के ताज़ा हार पड़े हैं। मूर्तियों के सामने अँजुली रखी है। एक तरफ़ एक छोटी तस्वीर है जिसमें एक वकील साहब गाउन पहने बैठें हैं। इस तस्वीर पर भी ताज़ा हार पड़ा हुआ है। चौकी के सामने शीतलपाटी बिछी है जिसके एक किनारे पर खड़ाऊँ की जोड़ी रखी है। कमरे के दूसरे कोने में सुतली की अलगनी पर बिना कन्नी की कुछ सफ़ेद साड़ियाँ पड़ी हुई हैं। इस कमरे का दरवाज़ा पिछले बरामदे में रसोईघर के ठीक सामने खुलता है।

बैठक के बायीं तरफ़ वाले कमरे में, जो दवाख़ाने से मिला हुआ है, सिर्फ़ एक पलंग और एक आरामकुर्सी पड़ी है। कोने में दो ट्रंक रखे हैं। साफ़ लगता है कि इस कमरे का रहनेवाला सांसारिक आवश्यकताओं से अच्छा खासा उदासीन और बेपरवाह है।
इस कमरे के पीछे एक और कमरा है। इसमें सलाखों वाली खिड़की के नीचे खादी की चादर से ढका पलंग बिछा है। सिरहाने एक अलमारी, एक मेज....पॉयतों की दीवार के साथ एक बड़ा ट्रंक और उसके ऊपर एक चमड़े का सूटकेस। खूँटी पर कुछ सूती साड़ियाँ। अलमारी के एक खाने में आईना, कंघी, नारियल के तेल की कटोरी। फ़र्श पर एक कोने में बिछी सुन्दर दरी पर किताबों और कापियों का ढेर।

पिछले बरामदे के एक कोने पर रसोईघर और दूसरे पर गोदाम है, जिसके दरवाज़े पर भारी ताला पड़ा है। ग़ुसलख़ाने के बराबर से बाहर आँगन में एक लाइन से बने हैं जिन तक पहुँचने के लिए लकड़ी के एक तख़्ते पर से गुज़रना पड़ता है। ग़ुसलख़ानों के बराबर से सीढ़ियाँ कोठे की छत पर बने कमरे और टीन के सायबान की तरफ़ जाती हैं। हरे-भरे आँगन के बीच में तालाब, जिसमें रोहू मछलियाँ पली हैं। तालाब के सामने तुलसी का नक़्क़ाशीदार गमला और दूर एक कोने में आम के घने पेड़ के नीचे झिलमिलियों वाली बन्द गाड़ी खड़ी है जिसकी खिड़कियों में चिड़ियों ने घोंसले बना लिये हैं। आँगन के तीन तरफ़ लाल ईंटों की दीवार है। ड्योढी के चौड़े दरवाज़े के बाहर ऊँची-ऊँची घास में से गुज़रती एक पगडण्डी आगे जाकर पिछवाडे की सुनसान सड़क से जा मिलती है। आँगन में कपड़ों की ख़ाली अलगनी पर कौवे आ बैठते हैं।
महावट अभी बरसकर खुली है। कोठी में बड़ा सन्नाटा है। खाली कमरों में भीगी हुई हवा खुले दरवाजों में से गुजरती मँडराती फिर रही है। एक गुसलखाने से पानी गिरने की आवाज आ रही है और फाटक के बाहर एक कहार उकडूँ बैठा चिलम पी रहा है। फुटपुटे के धुँधलके में उसकी चिलम की रोशनी कभी-कभी तेजी से चमक उठती है। फाटक के एक खम्भे पर जो बरसों से बरसातों की बौछार से तिरछा होकर एक तरफ को धँस गया है डॉक्टर विनयचन्द्र सरकार एम.बी.बी.एस.का बोर्ड लगा है। दूसरे खम्भे पर संगमरमर के टुकड़े पर बांग्ला में ‘चन्द्रकुज’ अंकित है।

अन्दर दवाखाने की दीवार पर चर्खा कातते गाँधी जी और मुस्कराते युवा नेहरू की भद्दी रंगीन तस्वीरोंवाले कैलेण्डर के पन्ने बूढ़ी गंगा पर से आती हुई इस भीगी हवा में आहिस्ता-आहिस्ता फड़फड़ा रहे हैं।
इस रोज दिसम्बर 1939 की इस अँधेरी शाम, जब सारा घर सुनसान पड़ा था, चन्द्रकुंज के पिछले बरामदेवाले गोदाम में चोरी हो गयी। सेंध लगानेवाली, इस घर की उन्नीस वर्षीया बेटी दीपाली थी। डॉक्टर विनोयचन्द्र सरकार दवाखाना बन्द करके आदत के अनुसार घूमने के लिए बाहर जा चुके थे, उनके तीनों लड़के खोखू, शोनू, टोनू अभी फुटबाल के मैदान से नहीं लौटे थे और गुसलखाने में पानी गिरने की आवाज से मालूम होता था कि डॉक्टर सरकार की विधवा बहन भवतारणी देवी स्नान के कुछ मिनट बाद पूजा में व्यस्त होने वाली हैं।

इस वक्त डॉक्टर सरकार की इकलौती लड़की दीपाली लालटेन हाथ में लिये सीढ़ियों से नीचे बाग में आयी, उसके दूसरे हाथ में एक किताब थी और वह अँधेरा होने तक कोठेवाले कमरे में जहाँ बिजली की रोशनी नहीं थी ‘होमवर्क’ करती रही थी। नीचे आकर उसने लालटेन तुलसी के गमले के पीछे छिपा दी और दबे पाँव बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरे में आ गयी जो बैठक के बायीं तरफ था, दरवाजे की आड़ से उसने देखा कि उसकी बुआ भवतारणी देवी गुसलखाने से निकलकर खड़ाऊँ पहने खट-खट करती लकड़ी के पुल पर से गुजर कर अपने कमरे की तरफ जा रही है।

दीपाली दम साधे किवाड़ के पीछे खड़ी रही और चन्द्र मिनट बाद पंजों के बल चलती भवतारणी देवी के कमरे में आ गयी जो शीतलपाटी पर आल्थीपाल्थी बैठकर लोबान सुलगाने के बाद आँखें बन्द करके सांसारिक चिन्ताओं से बेखबर हो चुकी थीं। उनकी पीठ दरवाजे की तरफ थी। दीपाली ने कुछ पलों की हिचकिचाहट के बाद आगे बढ़कर चाबियों का मोटा गुच्छा पीठ पर पड़े पल्लू से खोला और बाहर आ गयी। तुलसी के पीछे से लालटेन निकालकर गोदाम तक पहुँची और डरते-डरते ताला खोला। अन्दर जाकर लालटेन एक टूटी हुई कुर्सी पर रख दी और चारों तरफ देखा। गोदाम में बड़ी घुटन और सीलन थी। आँगन के तरफ वाली, तालाबन्द खिडकी के शीशों पर अमृत बाजार पत्रिका के पीले कागज चिपके हुए थे। विभिन्न प्रकार के फालतू सामान के अलावा कोठरी में एक बहुत बडा एक लकड़ी की सन्दूक ईंटों के ऊपर रखा था। इस सन्दूक में बनारसी और बालूचर बूटेदार साडि़याँ और दूसरा कीमती सामान ताले में बन्द रखा था। हर साल जाड़ों में भवतारणी देवी सन्दूक खोलकर बहुत सलीके से बालूचर साड़ियाँ बाहर निकालतीं और आँगन में चारपाइयों पर फैलाकर उन्हें धूप में सुखातीं। उसके बाद बालूचर साड़ियाँ फिर नीम के पत्तों की तह देकर उसी तरह सँभालकर सन्दूक में वापस रख दी जातीं।
दीपाली ने साँस रोककर सन्दूक का ताला खोला। उसके कपड़ो पर बिछी कश्मीरी शाल हटाकर नीचे से साड़ियाँ निकालीं और उनको जल्दी-जल्दी फर्श पर रखती गयी। बनारसी और जायदानी की साड़ियाँ एक तरफ करके उसने ‘वालूचर बूटेदार’ साड़ियाँ अलग कीं जो तादाद में तीन थीं। बाहर की आवाज पर कान लगाते हुए उसने लालटेन की लौ ऊँची करके साड़ियों पर हाथ फेरा। साड़ियाँ बेहद पुरानी होने के बावजूद नयी मालूम हो रही थीं। जैसे अभी-अभी नवाबी के मुर्शिदाबाद के करघों से उतरी हों। मौके की नजाकत के बावजूद वह इनके आँचलों पर बने बेलबूटे देखने में खो गयी। कासनी, नारंगी फीरोजी-कासनी साड़ी सबसे महँगी थी। उसके आँचल पर एक लाइन में मुर्शिदाबाद के नवाब हुक्का पी रहे थे। नारंगी साड़ी के पल्लू पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अँग्रेज नाव में बैठे थे। फीरोजी साड़ी के आँचल पर मुगल बेगमें हाथी के हौदे पर बैठीं गुलाब के फूल सूँघ रही थीं। वक्त रेशम के इस ताने-बाने में उलझकर ठहर चुका था।

अचानक बरामदे में आहट हुई। दीपाली ने तीनों साड़ियाँ सफेद मलमल के टुकड़े में लपेटीं। बाकी सामान सन्दूक में वापस रखा और डरकर दरवाजे के पास जाकर खड़ी हो गयी। मगर अब फिर खामोशी छा चुकी थी। आँगन में केले और सीताफल की डालियाँ सरसरा रही थीं। बहुत दूर सड़क पर एक घोड़ागाड़ी खड़खड़ाती हुई चली जा रही थी। इस घुप्प अँधेरे में न जाने कहाँ जा रही थी !

दीपाली ने लम्बा साँस लिया और सा़ड़ियों का बण्डल बरामदे की सीढ़ियों पर डाल दिया और भवतारणी देवी के कमरे में जाकर बहुत सफाई से चाबियाँ उनके पल्लू में बाँध दीं। भवतारणी देवी चिड़चिड़ी और बात-बात पर डाँटने के अलावा चाबियों के मामले में हद से ज्यादा कड़ी और चौकन्नी रहती थीं. वे डोली तक का ताला अपने हाथ से खोलती थीं। चाबियाँ उनके पल्लू से बाँधने के बाद दीपाली ने पूरी तरह आँखें खोलकर भगवती की मूर्ति को देखा और दरवाजे से निकली। सीढ़ियों पर से बण्डल उठाकर आँगन में से भागती ड्योढ़ी से तीर की तरह निकलकर पिछली सड़क पर पहुँच गयी। सड़क की पुलिया के करीब एक नौजवान साइकिल सँभाले खड़ा लापरवाही से आसमान की तरफ देख रहा था। दीपाली को देखकर उसने हाथ का हल्का-सा इशारा किया।

दीपाली दौड़कर उसके पास पहुँची और उचककर साइकिल के पीछे कैरियर पर बैठ गयी।
नवाबपुरे की गली के छोर पर एक पुराने मकान की बैठक में कुछ नौजवान फ़र्श पर बैठे धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। इतने में उनमें से एक ने नज़रें उठाकर देखा दीपाली सरकार सामने खड़ी थी। उसने झुककर बण्डल नौजवान के सामने रख दिया। एक नौजवान ने बण्डल खोला।
‘‘दादा, इससे ज़्यादा क़ीमती चीज़ मेरे घर में नहीं है।’’
उस नौजवान ने जिसने दीपाली को सम्बोधिक किया था, साड़ियाँ उल्टी-पल्टीं। ‘‘बालूचर साड़ियाँ !’’ उसके मुँह से निकला। उस नौजवान ने अपने कन्धों पर लम्बे बाल फैला रखे थे।
‘‘बालूचर-!’’ दूसरे नौजवान ने आश्चर्य और जिज्ञासा से साड़ियों पर हाथ फेरा।
‘‘पर भाई इनको खरीदेगा कौन ? हमें तो तुरन्त छः सौ रुपये चाहिए।’’
‘‘चार सौ तक में नहीं बिक जाएँगी ?’’ दीपाली ने चिन्तित होकर पूछा।
‘‘बालूचर साड़ियाँ, दीपाली आजकल अपर क्लास लेडीज़ अंग्रेज़ी जार्जेट पहनती हैं।’’
‘‘पर यह तो अद्वितीय और दुर्लभ चीज़ है।’’ दूसरे नौजवान ने कहा।
‘‘हिन्दुस्तान की अधिकतर पुरानी कला दुर्लभ और अद्वितीय है।’’ पहले ने चिढ़कर जवाब दिया, ‘‘उससे क्या अन्तर पड़ता है।’’ फिर वह दीपाली से बोला, ‘‘तुम्हारे पास और कुछ नहीं है ?’’
दीपाली ने अफ़सोस से सिर हिलाया। अचानक उसकी आँखें गीली हो गयीं। ‘‘इनको बेचने या गिरवी रखने की कोशिश तो कीजिए, अक्षय दादा।’’
लम्बे बालों वाला नौजवान गहरी साँस लेकर उठा।

‘‘अच्छा, थैंक यू दीपाली। अब तुम वापस भाग जाओ, तुरन्त।’’ और अचानक वे तीनों नौजवान, जिनमें से तीसरा बिलकुल चुप रहा था, बण्डल लेकर कोठरी के पिछले दरवाज़े से निकलकर बाहर अँधेरे में ग़ायब हो गये।
अब रात के नौ बज रहे थे और मेज़ पर खाना लगाया जा चुका था। भवतारिणी देवी आदत के अनुसार बड़बड़ाती हुई रसोई और खाने के कमरे के चक्कर लगा रही थीं। खोखू, शोनू और टोनू मैच से वापस आकर बड़ी गर्मा-गर्मी से खेल पर बहस कर रहे थे। डॉक्टर सरकार टहलकर वापस लौट आये थे और अपने कमरे में आरामकुर्सी पर बैठे अपनी आदत के अनुसार एक पैर हिलाते सोच-विचार में डूबे हुए थे।
‘‘दीपाली !’’ उन्होंने आवाज दी।

दीपाली अपने कमरे से निकली। डॉक्टर सरकार कुर्सी से उठकर बैठक से होते हुए खाने के कमरे में पहँच गये। वे एक भारी शरीर, गम्भीर चेहरे और सोचती हुई आँखों वाले आदमी थे। उनका शान्त चेहरा देखकर स्पष्ट लगता था कि ख़ामोशी और संतोष के सत्संग में जीवित रहना उन्होंने सीख लिया है।
खाने की मेज पर जाकर अपनी कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने दीपाली को खोजते हुए इधर-उधर देखा। वह उसी समय अन्दर आ रही थी। डॉक्टर सरकार ने थोड़ा आश्चर्य से उसे ऊपर से नीचे तक देखा।
‘‘क्या बात है ? तबीयत ख़राब है ? इतनी घबरायी हुई क्यों हो ?’’
‘‘जी नहीं, बाबा—मैं रोज़ी—रोज़ी के घर गयी थी। वापस आ रही थी तो पुलिया के पास एक भैंसा मिल गया—उसके डर से मैं दौड़ती-दौड़ती आ रही हूँ।’’ उसने गले पर हाथ रखकर हँसने की कोशिश की।
‘‘इतनी रात गये रोज़ी के घर से अकेली आ रही हो ?’’ डाक्टर सरकार ने ज़रा सख्ती से उसे डाँटने की कोशिश की।
‘‘जी—जी नहीं, जोज़फ साथ था।’’ वह धम्म से कुर्सी पर बैठ गयी। उसके तीनों भाई शोर मचाते हुए खाना खाने में जुट गये थे।

‘‘तुम्हारे लिए एक अच्छी ख़बर है ’’ खाने के बाद डॉक्टर सरकार ने दीपाली से कहा।
वह धक्क से रह गयी ‘कैसी अच्छी ख़बर बाबा ?’’
‘‘अशीत बाबू-’’डाक्टर सरकार ने कुर्सी पीछे खिसकाकर उत्तर दिया, ‘मैं अभी अशीत बाबू के यहाँ गया था। वहाँ उनके जीजा आये हुए हैं।’’
‘‘कलकत्ते वाले ? ज्योति बाबू ?’’
‘‘ज्योति बाबू, वे तुम्हारे रिकार्ड भरना चाहते हैं। एच.एम.वी. रिकार्ड।’’
‘‘मेरे रिकार्ड ! सच बाबा—सच बताइए ?’’
तीनों लड़कों ने खाना छोड़कर शोर मचाना शुरू किया।
‘‘दीदी के रिकार्ड बजेंगे। घर-घर दीदी के रिकार्ड बजेंगे।’’खोखू ने गम्भीरता से घोषणा की।
‘‘दीदी के पास बहुत पैसा हो जाएगा।’’ मँझला शोनू ज़ोर से चिल्लाया।
‘‘दीदी हमको पैसे देगी।’’ टोनू ने सिर झुकाकर नरमी से कहा।
‘‘हमारे साइंस मास्टर सुनील बाबू की बड़ी दीदी के रिकार्ड सारे इण्डिया में बजते हैं। वह इतनी पैसेवाली हो गई हैं कि उनके पास तो मोटर भी है।’’ शोनू बोला।

‘‘दीदी को रेडियो से जितने पैसे मिलते हैं लाकर तुम लोगों पर खर्च कर देती है।’’ खोखू ने डाँट पिलायी।
‘‘दीदी इतने पैसों का क्या करेगी ?’’सबसे छोटे टोनू ने जो सबसे लाडला था, सवाल किया।
‘‘अपना दहेज बनाएगी, और क्या तुम्हारा सिर करेगी !’’ भवतारिणी देवी ने, जो अब तक त्यौरियों पर बल डाले चुपचाप खाना खा रही थीं, गरजकर बोलीं।

दीपाली थोड़ा लजा गयी और खिड़की के बाहर देखने लगी। इस हुल्लड़ में वह शाम को जोख़िम भरी घटना क़रीब-क़रीब भूल चुकी थी। वह मेज़ पर से उठने लगी तो डॉक्टर सरकार ने उससे कहा, ‘‘ज्योति बाबू—उन्होंने तुमसे कल रेडियो स्टेशन पर मिलने को कहा है। तुमको रिकार्डिंग के लिए कलकत्ता जाना होगा। तुम रेडियो स्टेशन कल किस वक़्त जाओगी ?’
‘‘सुहब को बाबा—दस बजे।’’
‘‘फिर कॉलेज नहीं जाओगी ?’’
‘‘बाबा, अब छुट्टियाँ शुरू होनेवाली हैं। और (लड़के अब हुल्लड़ मचाते हाथ धोने के लिए बाहर जा चुके थे। भवतारणी देवी चुपचाप बर्तन समेटने में लगी थीं) बाबा, प्रोग्राम के पैसे जमा करके बच्चों के कपड़े बना दिये थे।’’ वह ठिठक गयी। ‘‘बाबा, मेरी साड़ियाँ बिलकुल फटनेवाली हो रही हैं।’’ उसने झेंपकर बात खत्म कर दी।
डॉक्टर सरकार ने सिर झुका लिया। वे धीरे से उठकर बाहर चले गये और गोदाम के पास वाले नल के पास खड़े होकर कुल्ला करने लगे। दीपाली चुपके-चुपके पीछे आयी और गोदाम के बन्द किवाड़ों को ध्यान से देखा जिनमें लगा लोहे का भारी ताला, स्तब्ध और रहस्यमय मालूम हो रहा था।

तूफ़ान से पहले

‘‘अबानी गंगोपाध्याय !’’
‘प्रेज़ेण्ट।’’
‘‘मोलीना घोषाल !’’
‘‘प्रेज़ेण्ट।’’
‘‘रोज़ी बनर्जी !’’
‘‘प्रेज़ेण्ट।’’
‘‘जहाँआरा चौधरी !’’
‘‘प्रेज़ेण्ट।’’
‘‘दीपाली सरकार !
‘‘...एब्सेण्ट।’’
सिविक्स की लेक्चरर मिसेज़ बोस ने सेकेण्ड इयर की हाज़री लेते हुए रोज़ी बनर्जी और जहाँआरा चौधरी के बराबर वाली तीसरी ख़ाली कुर्सी की तरफ़ देखा।
‘‘दीपाली फिर नहीं आयी ?’’
‘‘देखिए करुणा दी--’’ जहाँआरा ने पल्लू मुँह पर रखकर खी-खी करते हुए हँसी छिपाने की कोशिश की--‘‘दीपाली बीमार है।’’
‘‘तुम्हें कैसे मालूम ? तुम तो उसके घर से इतनी दूर रहती हो--?’’
‘‘वह कल—मेरा मतलब है, कल मुझे मालूम हुआ था कि बीमार पड़ गयी है बेचारी।’’
‘‘लड़कियों--’’ मिसेज़ बोस ने दुःखी होकर क्लास को सम्बोधित किया।
‘‘फ़ाइनल परीक्षा सिर पर हैं और तुम सब की सब होगी फ़ेल—और रोज़ी !’’
‘‘यस करुणा दी।’’

‘‘तुम दोनों—तुम और दीपाली हर वक़्त ड्रामे करने में जुटी रहती हो, एक्ट्रेस बनोगी ?’’
‘‘खी-खी-खी’’ रोज़ी और जहाँआरा ने हँसी रोकी।
‘‘कह दूँ ?’’ रोज़ी के चुपके से जहाँआरा से पूछा।
‘‘कह दो।’’
‘‘करुणा दी—देखिए करुणा दी ! असल में दीपाली कलकत्ते जा रही है। एच.एम.वी. रिकार्ड भरवाने।’’
‘‘एच.एम.वी. रिकार्ड।’’ सारी क्लास ने नारा लगाया।
‘‘आज वह ग्रामोफ़ोन कम्पनी के डायरेक्टर से मिलने जा रही थी तो रास्ते में मेरे घर पर छुट्टी की दरख़्वास्त छोड़ गयी।’’ रोज़ी ने कहा।
‘‘कहाँ है दरख़्वास्त ?’’
‘‘भूल आयी करुणा दी—खी-खी-खी--’’

मिसेज़ बोस एक नेकदिल और शरीफ़ औरत थीं। उन्होंने ज़रा झल्लाकर रोज़ी को घूरा और बाक़ी बची क्लास की हाज़री लगाने के बाद तुरन्त अपने क्लास-रूम वाले बेरंग स्वर में सामने देखती हुई बोलीं, ‘‘पेज 218 खोलो। गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया एक्ट 1935 ।’’
‘‘ओह-हो-हो-ओह—दीपाली की ख़ुशी में आज जल्दी छुट्टी कर दो न दीदी, प्लीज़, प्लीज़, प्लीज़ !’’
‘‘जाओ, भागो मुँहजली चुड़ैलें।’’ आधा घण्टा पढ़ाने के बाद मिसेज़ बोस ने बनावटी गुस्से के साथ किताब जो़र से बन्द की। लड़कियाँ भद-भद करतीं कमरे से निकलकर बाहर घास पर बिखर गयीं।

रोज़ी और जहाँआरा ने एक टिकशाप पर जाकर चाट ख़रीदी। अबानी ने क़रीब आकर चुपके से रोज़ी से कहा, ‘‘फाटक पर कोई लड़का दीपाली को पूछ रहा है।’’
‘‘वही ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मैं जाती हूँ।’’
रोज़ी भागती हुई दूर फाटक पर पहुँची। वही लड़का जो कल शाम दीपाली को साइकिल पर बिठाकर नवाबपुरे ले गया था, आराम से पेड़ की आड़ में खड़ा पान चबा रहा था। पास में ही एक गाय घास पर बिखरे चाट के ख़ाली दौने पर मुँह मार रही थी।
‘‘दीपाली नहीं आयी है। कोई सन्देश-?’’
‘‘हाँ’’, लड़के ने कहा, ‘‘उससे कह देना उन्नीस तारीख़ की शाम को रेडियो स्टेशन से बरसाती में ठीक सात बजे ज़रूर पहुँच जाए। और दूसरी बात यह है कि वह जिस काम के लिए कल गयी थी वह उम्मीद है एक दो-दिन में हो जाएगा।’’
‘‘और कुछ ?’’
‘‘बस—नोमश्कार--’’ लड़का साइकिल के पैडल पर पाँव मारता हुआ हवा हो गया।

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