जीवनी/आत्मकथा >> अमर सेनानी सावरकर अमर सेनानी सावरकरशिव कुमार गोयल
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सावरकर के जीवन पर आधारित पुस्तक....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रथम प्रात: स्मरणीय
वीर सावरकर आधुनिक भारत के निर्माताओं की अग्रणी पंक्ति के नक्षत्र हैं।
‘वीर सावरकर’ भारत के प्रथम छात्र थे, जिन्हें
देशभक्ति के आरोप में कालेज से निष्कासित किया गया। वे प्रथम युवक थे,
जिन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का साहस दिखाया। वे प्रथम
बैरिस्टर थे, जिन्हें परीक्षा पास करने पर भी प्रमाण पत्र नहीं दिया गया।
वे पहले भारतीय थे जिन्होंने लंदन में 1857 के तथाकथित गदर को भारतीय
स्वातंत्र्य संग्राम का नाम दिया। वे विश्व के प्रथम लेखक हैं जिनकी
पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ प्रकाशन के पूर्व
ही जब्त कर ली गयी। वे प्रथम भारतीय हैं जिनका अभियोग हेग के
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चला। संसार के इतिहास में वे प्रथम महापुरुष
हैं, जिनके बंदी विवाद के कारण फ्रांस के प्रधानमंत्री एम बायन को
त्याग-पत्र देना पड़ा। वे पहले कैदी थे, जिन्होंने अण्डमान में जेल की
दीवारों पर कील की लेखनी से साहित्य सृजन किया। वे प्रथम मेधावी हैं,
जिन्होंने काले पानी की सजा काटते हुए (कोल्हू में बैल की जगह जुतना, चूने
की चक्की चलाना, रामबांस कूटना, कोड़ों की मार सहना) भी दश-सहस्र
पंक्तियों को कठस्थ करके यह सिद्ध किया कि सृष्टि के आदि काल में आर्यों
ने वाणी (कण्ठ) द्वारा वेदों को किस प्रकार जीवित रखा। वे प्रथम राजनीतिक
नेता थे, जिन्होंने समस्त संसार के समक्ष भारत देश को हिन्दू राष्ट्र
सिद्ध करके गांधी जी को चुनौती दी थी। वे प्रथम क्रान्तिकारी थे, जिन पर
स्वतंत्र भारत की सरकार ने झूठा मुकदमा चलाया और बाद में निर्दोष साबित
होने पर माफी मांगी।
पद्मेश दत्त
दो शब्द
‘वीर सावरकर’ यह शब्द साहस, वीरता, देशभक्ति का
पर्यायवाची बन गया है। ‘वीर सावरकर’ शब्द का स्मरण
आते ही अनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान वीरता एवं उत्कट देशभक्ति से
ओतप्रोत इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हमारे सामने साकार होकर खुल जाते हैं।
वीर सावरकर का व्यक्तित्व साधारण नहीं असाधारण था। बचपन से लेकर मृत्युपर्यंत उनके जीवन का एक-एक क्षण राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रसेवा, साहित्य-सेवा, समाज सेवा और हिन्दू समाज के पुनरुत्थान के लिए संघर्ष में व्यतीत हुआ। वह हिन्दुस्तान को ‘अखण्ड राष्ट्र’ के रूप में प्रतिष्ठित कराने का महान् स्वप्न देखते-देखते ही इस भूतल से विदा हो गये।
वीर सावरकर के असाधारण व्यक्तित्व और महान कृतित्व पर यदि लेखक जीवनभर भी लिखता रहे तो वीरता, शूरता, देशभक्ति एवं साहित्य-सेवा का वह इतिहास कभी पूर्ण नहीं होगा। उनके जीवन के केवल एक पक्ष का सिंहावलोकन करने मात्र के लिए हजारों पृष्ठों का ग्रंथ लिखा जा सकता है।
इस पर भी उस महान सेनानी वीर सावरकर के पावन जीवन पर अति संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालने के लिए मैंने लेखनी उठाने का दु:साहस किया है। यह स्वातन्त्र्यवीर के पावन व असाधारण जीवन की केवल एक झांकी मात्र है।
स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के भतीजे एवं महान् देशभक्त श्री डॉ. नारायण दामोदर सावरकर के सुपुत्र आदरणीय भाई विक्रमनारायण सावरकर एवं वीर सावरकर जी के निजी सचिव श्री बाल सावरकर दोनों ही मेरे सम्माननीय मित्र हैं। दोनों महानुभावों ने सावरकर जी को अत्यंत निकट से देखा एवं उनके कार्यों का गहन अध्ययन किया है। मुझे उनसे सावरकर जी के संबंध में काफी प्रामाणिक जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं। मैं इसके लिए भाई विक्रम जी एवं श्री बाल सावरकर जी दोनों का ही हार्दिक आभारी हूँ। आदरणीय बंधु स्व. श्री योगेन्द्रदत्त जी की प्रेरणा पर मैंने यह पुस्तक तैयार की। उनके प्रति भी मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
आशा है कि महान राष्ट्रपुरुष स्वातन्त्र्यवीर की यह जीवन झांकी पाठकों को उनके पावन जीवन का सिंहावलोकन कराने में सहायक सिद्ध होगी।
वीर सावरकर का व्यक्तित्व साधारण नहीं असाधारण था। बचपन से लेकर मृत्युपर्यंत उनके जीवन का एक-एक क्षण राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रसेवा, साहित्य-सेवा, समाज सेवा और हिन्दू समाज के पुनरुत्थान के लिए संघर्ष में व्यतीत हुआ। वह हिन्दुस्तान को ‘अखण्ड राष्ट्र’ के रूप में प्रतिष्ठित कराने का महान् स्वप्न देखते-देखते ही इस भूतल से विदा हो गये।
वीर सावरकर के असाधारण व्यक्तित्व और महान कृतित्व पर यदि लेखक जीवनभर भी लिखता रहे तो वीरता, शूरता, देशभक्ति एवं साहित्य-सेवा का वह इतिहास कभी पूर्ण नहीं होगा। उनके जीवन के केवल एक पक्ष का सिंहावलोकन करने मात्र के लिए हजारों पृष्ठों का ग्रंथ लिखा जा सकता है।
इस पर भी उस महान सेनानी वीर सावरकर के पावन जीवन पर अति संक्षिप्त रूप से प्रकाश डालने के लिए मैंने लेखनी उठाने का दु:साहस किया है। यह स्वातन्त्र्यवीर के पावन व असाधारण जीवन की केवल एक झांकी मात्र है।
स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के भतीजे एवं महान् देशभक्त श्री डॉ. नारायण दामोदर सावरकर के सुपुत्र आदरणीय भाई विक्रमनारायण सावरकर एवं वीर सावरकर जी के निजी सचिव श्री बाल सावरकर दोनों ही मेरे सम्माननीय मित्र हैं। दोनों महानुभावों ने सावरकर जी को अत्यंत निकट से देखा एवं उनके कार्यों का गहन अध्ययन किया है। मुझे उनसे सावरकर जी के संबंध में काफी प्रामाणिक जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं। मैं इसके लिए भाई विक्रम जी एवं श्री बाल सावरकर जी दोनों का ही हार्दिक आभारी हूँ। आदरणीय बंधु स्व. श्री योगेन्द्रदत्त जी की प्रेरणा पर मैंने यह पुस्तक तैयार की। उनके प्रति भी मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
आशा है कि महान राष्ट्रपुरुष स्वातन्त्र्यवीर की यह जीवन झांकी पाठकों को उनके पावन जीवन का सिंहावलोकन कराने में सहायक सिद्ध होगी।
शिवकुमार गोयल
प्रथम परिच्छेद
उन दिनों भारत-अंग्रेज साम्राज्यवादियों की गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा
हुआ था। गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई भारत माता स्वाधीन होने के लिए
तड़फड़ा रही थी। पराधीन माँ भारती देश के यौवन की ओर आशा भरी टकटकी लगाये
निहार रही थी।
वीर भूमि महाराष्ट्र के नासिक जिले में एक छोटा-सा ग्राम है भगूर। इसी पवित्र ग्राम में चितपावन वंशीय ब्राह्मण श्री दामोदर पंत सावरकर के घर 28 मई सन् 1883 ई. को एक बालक ने जन्म लिया और यह बालक ही आगे चलकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम का जन्मजात योद्धा, हिन्दू हृदय सम्राट स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के नाम से इतिहास में अमर हो गया।
बालक विनायक के पिता श्री दामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही श्रीराम कृष्ण के परम भक्त एवं दृढ़ हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों वाले थे। बालक विनायक को माता-पिता रामायण, महाभारत की कथा सुनाते हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी तथा गुरु गोविन्दसिंह जी की शौर्यगाथाएं सुनाते ही विनायक का हृदय हिन्दू जाति के गौरवमय इतिहास को सुनकर प्रफुल्लित हो उठता। वह हृदय में कल्पना करता कि मैं छत्रपति शिवाजी और महाराणाप्रताप की तरह वीर बनकर हिन्दू-पदपादशाही की स्थापना करूँगा, विदेशी शासकों की सत्ता को चकनाचूर करके स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र का नव निर्माण करूंगा। बड़ी तेजी के साथ बालक विनायक के हृदय में राष्ट्रीयता के अंकुर बढ़ते गये। विनायक की माँ राधाबाई विनायक को नौ वर्ष का छोड़कर स्वर्गवासी हो गयीं। पिताश्री दामोदर पंत ने दूसरा विवाह नहीं किया। राधाबाई के घरेलू कामों में रसोई तो उन्होंने स्वयं संभाली और शेष कार्य तीन पुत्रों में वितरित कर दिये। तात्या (विनायक) के जिम्मे कुलदेवी सिंहवाहिनी दुर्गा की उपासना, सेवा का काम आया। तात्याराव बड़ी श्रद्धा भक्ति से कुल देवी माँ की पूजा आराधना करने लगा। वह देवी की स्तुति में मराठी पद रचता और देवी की प्रतिमा के सम्मुख श्रद्धानत होकर माँ भारती को विदेशी साम्राज्य के जुए से मुक्त करा कर ‘स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र’ की स्थापना कराने का वर मांगता।
बालक तात्याराव को गांव के एक विद्यालय में दाखिल करा दिया गया। तात्या ने छोटे-छोटे बालकों का समूह बनाकर धनुषबाण चलाना, तलवार चलाना सीखना प्रारम्भ कर दिया। बालक एकत्रित होकर दो पार्टियां बना लेते और फिर नकली युद्ध करते। नकली दुर्ग बनाकर उन पर आक्रमण प्रत्याक्रमण करते। धनुष बनाकर पेडो़ के फल-फूलों पर निशाना साधते। लिखने की कलमों को भाला बनाकर युद्ध करते। तात्या सभी बालकों का नेता बन गया। पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई गाँव में कर लेने पर तात्या को अंग्रेजी पढ़ने के लिए नासिक भेज दिया गया। नासिक में तात्या ने अपनी आयु के छात्रों की एक मित्र-मण्डली बनाकर उनमें राष्ट्रीय भावनाएं भरनी प्रारम्भ कर दीं। उसने मराठी में देशभक्तिपूर्ण कविताएं लिखीं, जो मराठी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।
तात्या ने अपने सहपाठियों के साथ मिलकर राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। ‘केसरी’ आदि राष्ट्रीय विचारों के समाचार-पत्रों को मंगाकर देश की स्थिति का अध्ययन किया जाने लगा। हृदय में राष्ट्रभक्ति के अंकुर शनै: शनै: बढ़ने लगे।
इन दिनों महाराष्ट्र में अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध एक लहर दौड़ रही थी। युवकों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक रोष फैला हुआ था। ऐसे वातावरण में सन् 1897 में पूना में भयंकर प्लेग की बीमारी फैल गयी। लोगों में चिन्ता की लहर दौड़ गयी। बाल-वृद्ध नर-नारी काल के ग्रास बनने लगे।
अंग्रेज अधिकारियों ने प्लेग की रोकथाम के लिए विशेष पग न उठाये तो जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध और भी क्षोभ की लहर दौड़ गयी। चाफेकर बंधुओं ने सिर हथेली पर रखकर अंग्रेज प्लेग कमिश्नर व एक अन्य अधिकारी को गोली का निशाना बना डाला। अंग्रेज अधिकारियों की हत्या से समस्त देश में तहलका मच गया। दोनों चाफेकर बंधुओं को फाँसी पर लटका दिया गया। चाफेकर बंधुओं को फाँसी दिये जाने के समाचार से समस्त देश में रोष की लहर दौड़ गयी।
तात्याराव सावरकर ने समाचार-पत्र में चाफेकर बंधुओं को फांसी दिये जाने के समाचार पढ़ा तो उनका देशभक्त बाल हृदय क्रोध से कांप उठा। इस घटना ने बालक तात्याराव के हृदय में अंग्रेजी साम्राज्य के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह के बीज पैदा कर दिये। तात्या ने कुलदेवी दुर्गा की प्रतिमा के सम्मुख जाकर कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञा की-‘देश की स्वाधीनता के लिए जीवन के अन्तिम क्षणों तक सशक्त क्रांति का झंडा लेकर जूझता रहूंगा।’’
तात्याराव सावरकर ने अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये योजनाएं बनानी आरम्भ कर दीं। उन्होंने छात्रों को एकत्रित करके ‘मित्र मेला’ नामक संस्था बनायी। ‘मित्र मेला’ के तत्वावधान में सावरकर ने ‘गणेशोत्सव’, ‘शिवजी महोत्सव’ आदि के कार्यक्रम आयोजित करके युवकों में राष्ट्रभक्ति की भावनाएं भरनी प्रारम्भ कर दीं। सावरकर ने ओजस्वी भाषणों द्वारा युवकों को प्रभावित करके अपने दल का सदस्य बना लिया।
22 जनवरी, 1901 को महारानी विक्टोरिया का देहान्त हुआ तो समस्त देश में शोक सभाएं होने लगीं। ‘मित्र मेला’ की बैठक में सावरकर ने शोकसभाओं का विरोध करते हुए कहा-‘‘इंग्लैड की महारानी हमारे दुश्मन देश की रानी है, अत: हम शोक क्यों मनाएं?
वीर भूमि महाराष्ट्र के नासिक जिले में एक छोटा-सा ग्राम है भगूर। इसी पवित्र ग्राम में चितपावन वंशीय ब्राह्मण श्री दामोदर पंत सावरकर के घर 28 मई सन् 1883 ई. को एक बालक ने जन्म लिया और यह बालक ही आगे चलकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम का जन्मजात योद्धा, हिन्दू हृदय सम्राट स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के नाम से इतिहास में अमर हो गया।
बालक विनायक के पिता श्री दामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही श्रीराम कृष्ण के परम भक्त एवं दृढ़ हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों वाले थे। बालक विनायक को माता-पिता रामायण, महाभारत की कथा सुनाते हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी तथा गुरु गोविन्दसिंह जी की शौर्यगाथाएं सुनाते ही विनायक का हृदय हिन्दू जाति के गौरवमय इतिहास को सुनकर प्रफुल्लित हो उठता। वह हृदय में कल्पना करता कि मैं छत्रपति शिवाजी और महाराणाप्रताप की तरह वीर बनकर हिन्दू-पदपादशाही की स्थापना करूँगा, विदेशी शासकों की सत्ता को चकनाचूर करके स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र का नव निर्माण करूंगा। बड़ी तेजी के साथ बालक विनायक के हृदय में राष्ट्रीयता के अंकुर बढ़ते गये। विनायक की माँ राधाबाई विनायक को नौ वर्ष का छोड़कर स्वर्गवासी हो गयीं। पिताश्री दामोदर पंत ने दूसरा विवाह नहीं किया। राधाबाई के घरेलू कामों में रसोई तो उन्होंने स्वयं संभाली और शेष कार्य तीन पुत्रों में वितरित कर दिये। तात्या (विनायक) के जिम्मे कुलदेवी सिंहवाहिनी दुर्गा की उपासना, सेवा का काम आया। तात्याराव बड़ी श्रद्धा भक्ति से कुल देवी माँ की पूजा आराधना करने लगा। वह देवी की स्तुति में मराठी पद रचता और देवी की प्रतिमा के सम्मुख श्रद्धानत होकर माँ भारती को विदेशी साम्राज्य के जुए से मुक्त करा कर ‘स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र’ की स्थापना कराने का वर मांगता।
बालक तात्याराव को गांव के एक विद्यालय में दाखिल करा दिया गया। तात्या ने छोटे-छोटे बालकों का समूह बनाकर धनुषबाण चलाना, तलवार चलाना सीखना प्रारम्भ कर दिया। बालक एकत्रित होकर दो पार्टियां बना लेते और फिर नकली युद्ध करते। नकली दुर्ग बनाकर उन पर आक्रमण प्रत्याक्रमण करते। धनुष बनाकर पेडो़ के फल-फूलों पर निशाना साधते। लिखने की कलमों को भाला बनाकर युद्ध करते। तात्या सभी बालकों का नेता बन गया। पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई गाँव में कर लेने पर तात्या को अंग्रेजी पढ़ने के लिए नासिक भेज दिया गया। नासिक में तात्या ने अपनी आयु के छात्रों की एक मित्र-मण्डली बनाकर उनमें राष्ट्रीय भावनाएं भरनी प्रारम्भ कर दीं। उसने मराठी में देशभक्तिपूर्ण कविताएं लिखीं, जो मराठी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।
तात्या ने अपने सहपाठियों के साथ मिलकर राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। ‘केसरी’ आदि राष्ट्रीय विचारों के समाचार-पत्रों को मंगाकर देश की स्थिति का अध्ययन किया जाने लगा। हृदय में राष्ट्रभक्ति के अंकुर शनै: शनै: बढ़ने लगे।
इन दिनों महाराष्ट्र में अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध एक लहर दौड़ रही थी। युवकों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक रोष फैला हुआ था। ऐसे वातावरण में सन् 1897 में पूना में भयंकर प्लेग की बीमारी फैल गयी। लोगों में चिन्ता की लहर दौड़ गयी। बाल-वृद्ध नर-नारी काल के ग्रास बनने लगे।
अंग्रेज अधिकारियों ने प्लेग की रोकथाम के लिए विशेष पग न उठाये तो जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध और भी क्षोभ की लहर दौड़ गयी। चाफेकर बंधुओं ने सिर हथेली पर रखकर अंग्रेज प्लेग कमिश्नर व एक अन्य अधिकारी को गोली का निशाना बना डाला। अंग्रेज अधिकारियों की हत्या से समस्त देश में तहलका मच गया। दोनों चाफेकर बंधुओं को फाँसी पर लटका दिया गया। चाफेकर बंधुओं को फाँसी दिये जाने के समाचार से समस्त देश में रोष की लहर दौड़ गयी।
तात्याराव सावरकर ने समाचार-पत्र में चाफेकर बंधुओं को फांसी दिये जाने के समाचार पढ़ा तो उनका देशभक्त बाल हृदय क्रोध से कांप उठा। इस घटना ने बालक तात्याराव के हृदय में अंग्रेजी साम्राज्य के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह के बीज पैदा कर दिये। तात्या ने कुलदेवी दुर्गा की प्रतिमा के सम्मुख जाकर कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञा की-‘देश की स्वाधीनता के लिए जीवन के अन्तिम क्षणों तक सशक्त क्रांति का झंडा लेकर जूझता रहूंगा।’’
तात्याराव सावरकर ने अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिये योजनाएं बनानी आरम्भ कर दीं। उन्होंने छात्रों को एकत्रित करके ‘मित्र मेला’ नामक संस्था बनायी। ‘मित्र मेला’ के तत्वावधान में सावरकर ने ‘गणेशोत्सव’, ‘शिवजी महोत्सव’ आदि के कार्यक्रम आयोजित करके युवकों में राष्ट्रभक्ति की भावनाएं भरनी प्रारम्भ कर दीं। सावरकर ने ओजस्वी भाषणों द्वारा युवकों को प्रभावित करके अपने दल का सदस्य बना लिया।
22 जनवरी, 1901 को महारानी विक्टोरिया का देहान्त हुआ तो समस्त देश में शोक सभाएं होने लगीं। ‘मित्र मेला’ की बैठक में सावरकर ने शोकसभाओं का विरोध करते हुए कहा-‘‘इंग्लैड की महारानी हमारे दुश्मन देश की रानी है, अत: हम शोक क्यों मनाएं?
विदेशी वस्त्रों की होली
सन् 1901 में सावरकर ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पश्चात्
उन्हें पूना के फर्ग्युसन कालेज में दाखिल करा दिया गया।
फर्ग्युसन कालेज में सावरकर ने राष्ट्रभक्त छात्रों का एक दल बनाया। उन्होंने कविताएं एवं लेख लिखकर युवकों में राष्ट्रीय भावनाएं भरनी प्रारम्भ कर दीं। उनकी रनचाएं अनेक मराठी पत्रों में प्रकाशित हुई एवं अनेक कविताओं पर पुरस्कार भी मिले। ‘काल’ के सम्पादक श्री परांजपे सावरकर की रनचाओं से अत्यधिक प्रभावित हुए उन्होंने सावरकर जी का परिचय राष्ट्रभक्त श्री बाल गंगाधर तिलक जी से करा दिया। लोकमान्य तिलक सावरकर की रचनाओं से भी अधिक उनके आकर्षक व तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप सावरकर श्री तिलक एवं श्री परांजपे के निकट संपर्क में आने लगे। उनकी मानसभूमि में राष्ट्रभक्ति के बीज तो पहले से विद्यमान थे ही, अब वे इन व्यक्तियों की तेजस्वी वाणी से अपने अनुकूल जलवायु पाकर अंकुरित एवं पुष्पित हो उठे। उनकी रचनाओं में युवकों के लिए देश पर मर-मिटने का आह्वान प्रति-ध्वनित होने लगा।
सन् 1905 में सावरकर बी.ए. की तैयारी कर रहे थे। इसी बीच उन्होंने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का जोरदार आंदोलन चला दिया। उन्होंने सबसे पहले पुणे के बीच बाजार में सार्वजनिक रूप से विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वयं श्री लोकमान्य तिलक ने की। तिलक जी सावरकर जी की इस सफलता पर भारी प्रसन्न हुए। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने की घटना बिजली की तरह समस्त विश्व में फैल गयी। समाचार पत्रों में इस घटना की काफी आलोचना-प्रत्यालोचनाएं हुई। परिणामस्वरूप फर्ग्युसन कालेज के अधिकारियों ने सावरकर को कालेज से निष्कासित कर दिया। इस पर भी उनको मुंबई विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा देने की अनुमति मिल गयी और उन्होंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।
बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् सावरकर जी ने अपने विश्वस्त साथियों को एकत्रित करके एक गुप्त बैठक में भारत की स्वाधीनता के लिए सशस्त्र क्रांति को मूर्त रूप रूप देने के लिए ‘अभिनव भारत’ नामक एक संस्था की स्थापना की।
‘अभिनव भारत’ का प्रत्येक सदस्य निम्न प्रतिज्ञा लेता था-
‘‘छत्रपति शिवाजी के नाम पर, अपने पवित्र धर्म के नाम पर और अपने प्यारे देश के लिए हम पूर्व पुरुषों की शपथ लेते हुए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करता रहूंगा। मैं न तो आलस्य करूंगा और न अपने उद्देश्य से हटूंगा। मैं ‘अभिनव भारत’ के नियमों का पूर्ण पालन करूंगा और संस्था के कार्यक्रम बिल्कुल गुप्त रखूंगा।’’ सावरकर ने स्थान-स्थान पर जाकर युवकों को संगठित किया और उनमें देशभक्ति की भावना भरी। सावरकर के ओजस्वी भाषणों ने महाराष्ट्र में तहलका मचा दिया।
उन्होंने पुणे की एक सभा में भाषण देते हुए कहा-‘‘छत्रपति शिवाजी की संतानो ! जिस प्रकार शिवाजी ने मुगल साम्राज्य को ध्वंस किया, सदाशिव राव भाऊ ने मुगल-तख्त को चकनाचूर किया, उसी प्रकार तुम्हें अब भारत माँ को दासता के बेड़ियों में जकड़ने वाले अंग्रेजों के अत्याचारी साम्राज्य को चकनाचूर करके स्वाधीन राष्ट्र की स्थापना करनी है। सशस्त्र क्रांति के बल पर इस विदेशी साम्राज्य का तख्ता पलटना है।
फर्ग्युसन कालेज में सावरकर ने राष्ट्रभक्त छात्रों का एक दल बनाया। उन्होंने कविताएं एवं लेख लिखकर युवकों में राष्ट्रीय भावनाएं भरनी प्रारम्भ कर दीं। उनकी रनचाएं अनेक मराठी पत्रों में प्रकाशित हुई एवं अनेक कविताओं पर पुरस्कार भी मिले। ‘काल’ के सम्पादक श्री परांजपे सावरकर की रनचाओं से अत्यधिक प्रभावित हुए उन्होंने सावरकर जी का परिचय राष्ट्रभक्त श्री बाल गंगाधर तिलक जी से करा दिया। लोकमान्य तिलक सावरकर की रचनाओं से भी अधिक उनके आकर्षक व तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप सावरकर श्री तिलक एवं श्री परांजपे के निकट संपर्क में आने लगे। उनकी मानसभूमि में राष्ट्रभक्ति के बीज तो पहले से विद्यमान थे ही, अब वे इन व्यक्तियों की तेजस्वी वाणी से अपने अनुकूल जलवायु पाकर अंकुरित एवं पुष्पित हो उठे। उनकी रचनाओं में युवकों के लिए देश पर मर-मिटने का आह्वान प्रति-ध्वनित होने लगा।
सन् 1905 में सावरकर बी.ए. की तैयारी कर रहे थे। इसी बीच उन्होंने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का जोरदार आंदोलन चला दिया। उन्होंने सबसे पहले पुणे के बीच बाजार में सार्वजनिक रूप से विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वयं श्री लोकमान्य तिलक ने की। तिलक जी सावरकर जी की इस सफलता पर भारी प्रसन्न हुए। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने की घटना बिजली की तरह समस्त विश्व में फैल गयी। समाचार पत्रों में इस घटना की काफी आलोचना-प्रत्यालोचनाएं हुई। परिणामस्वरूप फर्ग्युसन कालेज के अधिकारियों ने सावरकर को कालेज से निष्कासित कर दिया। इस पर भी उनको मुंबई विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा देने की अनुमति मिल गयी और उन्होंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।
बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् सावरकर जी ने अपने विश्वस्त साथियों को एकत्रित करके एक गुप्त बैठक में भारत की स्वाधीनता के लिए सशस्त्र क्रांति को मूर्त रूप रूप देने के लिए ‘अभिनव भारत’ नामक एक संस्था की स्थापना की।
‘अभिनव भारत’ का प्रत्येक सदस्य निम्न प्रतिज्ञा लेता था-
‘‘छत्रपति शिवाजी के नाम पर, अपने पवित्र धर्म के नाम पर और अपने प्यारे देश के लिए हम पूर्व पुरुषों की शपथ लेते हुए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करता रहूंगा। मैं न तो आलस्य करूंगा और न अपने उद्देश्य से हटूंगा। मैं ‘अभिनव भारत’ के नियमों का पूर्ण पालन करूंगा और संस्था के कार्यक्रम बिल्कुल गुप्त रखूंगा।’’ सावरकर ने स्थान-स्थान पर जाकर युवकों को संगठित किया और उनमें देशभक्ति की भावना भरी। सावरकर के ओजस्वी भाषणों ने महाराष्ट्र में तहलका मचा दिया।
उन्होंने पुणे की एक सभा में भाषण देते हुए कहा-‘‘छत्रपति शिवाजी की संतानो ! जिस प्रकार शिवाजी ने मुगल साम्राज्य को ध्वंस किया, सदाशिव राव भाऊ ने मुगल-तख्त को चकनाचूर किया, उसी प्रकार तुम्हें अब भारत माँ को दासता के बेड़ियों में जकड़ने वाले अंग्रेजों के अत्याचारी साम्राज्य को चकनाचूर करके स्वाधीन राष्ट्र की स्थापना करनी है। सशस्त्र क्रांति के बल पर इस विदेशी साम्राज्य का तख्ता पलटना है।
लन्दन को प्रस्थान
सुप्रसिद्ध देशभक्त पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा लंदन में ‘इंडियन
सोशियालाजिस्ट’ नामक पत्र निकालते थे। उन्होंने अपने पत्र में
प्रतिभाशाली छात्रों को इंग्लैड में पढ़ाई के लिए छात्रवृत्तियां देने की
घोषणा प्रकाशित की। श्री लोकमान्य तिलक ने श्यामजी कृष्ण वर्मा को पत्र
लिखकर ‘शिवाजी छात्रवृत्ति’ सावरकर को देने की
सिफारिश की। इस प्रकार विनायक दामोदर सावरकर कानून का अध्ययन करने के लिए
इंग्लैड जाने की तैयारी करने लगे। उनके श्वसुर श्री भाऊराव चिपलूणकर ने दो
हजार रुपये की राशि उन्हें खर्च के लिए दी। इंग्लैड के लिए वह 9 जून, 1906
को बम्बई बंदरगाह से रवाना हुए।
इंग्लैड में पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ‘इंडिया हाउस’ का संचालन करते थे। वे आर्य समाजी व कट्टर हिन्दुत्वनिष्ठ राष्ट्रीय विचारों के व्यक्ति थे। इंग्लैड में रहकर भारत की स्वाधीनता के लिए वे प्रयत्नशील थे। इंडियन सोशियालाजिस्ट के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीय भावनाओं का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने इंग्लैड में ‘होमरूल’ का आंदोलन भी चलाया था।
सावरकर जी इंग्लैड में उनके इंडिया हाउस में ही ठहरे।
सन् 1906 में सावरकर ने ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की। भाई परमानंद, सेनापति बापट, मदनलाल ढींगरा, लाला हरदयाल बाबा जोशी, महेशचरण सिन्हा, कोरगांवकर हरनाम सिंह आदि भारतीय देशभक्त युवक इसके सदस्य बन गये। ‘फ्री इंडिया’ सोसायटी के तत्वावधान में बैठकों का आयोजन करके भारत की स्वाधीनता के लिए योजनाएं बनाई जाने लगीं। सावरकर ने सोसायटी की पहली बैठक में अपना ओजस्वी भाषण देते हुए कहा-‘‘अंग्रेजी साम्राज्य को भारत से तभी समाप्त किया जा सकता है, जब भारतीय युवक हाथों में शस्त्र लेकर मारने-मरने को कटिबद्ध हो जाएं। सशस्त्र क्रांति के द्वारा ही भारत की स्वाधीनता संभव है। अत: हमें भारतीयों को इसके लिए तैयार करना है, उनकी शस्त्रास्त्रों से सहायता करनी है।’’
सावरकर ने लंदन विश्वविद्यालय में कानून के अध्ययन के लिए प्रवेश लिया हुआ था। वे विश्वविद्यालय में नाममात्र को जाते थे। अपना अधिकतर समय वे ब्रिटिश लाइब्रेरी में बैठकर विभिन्न देशों की राजनीतिक स्थिति के अध्ययन में लगाने लगे। इटली के क्रांतिवीर मैजिनी के जीवन से वह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मैजिनी का जीवन चरित्र लिखा। सन् 1906 में उन्होंने विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन करने के पश्चात् ‘सिखों का स्फूर्तिदायक इतिहास’ नामक ग्रंथ लिखा। इसी समय उन्होंने इंग्लैड की विशाल लायब्रेरी में अथक अध्ययन करने के पश्चात् 1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर नामक ऐतिहासिक ग्रंथ लिखा। अंग्रेज इतिहासकारों और अधिकारियों ने 1857 के प्रथम स्वातन्त्र्य समर को ‘गदर’,‘लूट’ और ‘विद्रोह’ जैसे नाम देकर बदनाम किया हुआ था। सावरकर ने सबसे पहले अपने इस ग्रंथ में पूर्ण तथ्य देकर यह सिद्ध किया कि 1857 की क्रांति गदर या लूट नहीं अपितु वीर मंगलपांडे, वीरांगना लक्ष्मीबाई, बिहार केसरी बाबू कुंवरसिंह, तात्या टोपे आदि सैकड़ों राष्ट्र वीरों द्वारा बलिदान देकर भारतीय स्वाधीनता के लिए किया गया पहला महान् युद्ध था।
1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर सन् 1908 में सबसे पहले मराठी में लिखा गया। सावरकर ने इस ग्रंथ के कुछ महत्वपूर्ण परिच्छेद अंग्रेजी में अनुवाद करके फ्री इंडिया सोसायटी की सभा में सुनाये। गुप्तचर पुलिस को जब इस पुस्तक का पता चला तो पुस्तक जब्त करने के आदेश दे दिये गये। बड़ी सावधानी से पुस्तक की पाण्डुलिपि भारत भेज दी गयी। भारत में इसे गुप्त रूप से प्रकाशित करने के प्रयास किया गया, किन्तु पुलिस ने मुद्रणालयों पर छापे मारे, जिससे पुस्तक प्रकाशित न हो सकी। मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद करके उसे सबसे पहले हालैंड में प्रकाशित किया गया। पुस्तक की हजारों प्रतियां फ्रांस भेज दी गयीं। ब्रिटिश सरकार ने इस महान ऐतिहासिक पुस्तक को गैर कानूनी घोषित करके प्रकाशित होने से पूर्व ही जब्त कर लिया था। पुस्तक प्रकाशित हुई तो इसकी कुछ प्रतियां सभी देशों में पहुंच गयीं। भारत में भी कुछ प्रतियां गुप्त रूप से पहुंचा दी गयीं।
इस महान ऐतिहासिक ग्रंथ का दूसरा संस्करण मैडम कामा, लाला हरदयाल आदि क्रांतिकारियों ने प्रकाशित कराया। उर्दू, हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित किये गये। लाला हरदयाल ने अमेरिका से प्रकाशित होने वाले ‘गदर’ पत्र में इस ग्रंथ को धारावाहिक प्रकाशित किया। 1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर, इतना प्रसिद्ध हुआ कि क्रांतिकारी इसे सशस्त्र क्रांति के तत्वज्ञान की गीता कहकर पुकारने लगे। इस महान् क्रांतिकारी ग्रंथ की तीसरा संस्करण आगे चलकर सरदार भगतसिंह ने गुप्त रूप से प्रकाशित कराया। क्रांतिकारियों को इसके अध्ययन से भारी प्रेरणा प्राप्त हुई। यह ग्रंथ इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी एक-एक प्रति तीन-तीन सौ रुपये तक में बिकी।
एक यह ऐतिहासिक सत्य है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर ग्रंथ से ही प्रेरणा पाकर वीर सावरकर से भेंट की और उनकी प्रेरणा से ही विदेश जाकर ‘आजाद हिन्द फौज’ का निर्माण किया। आजाद हिन्द फौज का प्रत्येक सैनिक इस महान् ग्रंथ से प्रेरणा लेता था। सैनिक छावनियों में इस ग्रंथ की प्रतियां वितरित की जाती थीं।
इंग्लैड में पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ‘इंडिया हाउस’ का संचालन करते थे। वे आर्य समाजी व कट्टर हिन्दुत्वनिष्ठ राष्ट्रीय विचारों के व्यक्ति थे। इंग्लैड में रहकर भारत की स्वाधीनता के लिए वे प्रयत्नशील थे। इंडियन सोशियालाजिस्ट के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीय भावनाओं का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने इंग्लैड में ‘होमरूल’ का आंदोलन भी चलाया था।
सावरकर जी इंग्लैड में उनके इंडिया हाउस में ही ठहरे।
सन् 1906 में सावरकर ने ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की। भाई परमानंद, सेनापति बापट, मदनलाल ढींगरा, लाला हरदयाल बाबा जोशी, महेशचरण सिन्हा, कोरगांवकर हरनाम सिंह आदि भारतीय देशभक्त युवक इसके सदस्य बन गये। ‘फ्री इंडिया’ सोसायटी के तत्वावधान में बैठकों का आयोजन करके भारत की स्वाधीनता के लिए योजनाएं बनाई जाने लगीं। सावरकर ने सोसायटी की पहली बैठक में अपना ओजस्वी भाषण देते हुए कहा-‘‘अंग्रेजी साम्राज्य को भारत से तभी समाप्त किया जा सकता है, जब भारतीय युवक हाथों में शस्त्र लेकर मारने-मरने को कटिबद्ध हो जाएं। सशस्त्र क्रांति के द्वारा ही भारत की स्वाधीनता संभव है। अत: हमें भारतीयों को इसके लिए तैयार करना है, उनकी शस्त्रास्त्रों से सहायता करनी है।’’
सावरकर ने लंदन विश्वविद्यालय में कानून के अध्ययन के लिए प्रवेश लिया हुआ था। वे विश्वविद्यालय में नाममात्र को जाते थे। अपना अधिकतर समय वे ब्रिटिश लाइब्रेरी में बैठकर विभिन्न देशों की राजनीतिक स्थिति के अध्ययन में लगाने लगे। इटली के क्रांतिवीर मैजिनी के जीवन से वह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मैजिनी का जीवन चरित्र लिखा। सन् 1906 में उन्होंने विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन करने के पश्चात् ‘सिखों का स्फूर्तिदायक इतिहास’ नामक ग्रंथ लिखा। इसी समय उन्होंने इंग्लैड की विशाल लायब्रेरी में अथक अध्ययन करने के पश्चात् 1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर नामक ऐतिहासिक ग्रंथ लिखा। अंग्रेज इतिहासकारों और अधिकारियों ने 1857 के प्रथम स्वातन्त्र्य समर को ‘गदर’,‘लूट’ और ‘विद्रोह’ जैसे नाम देकर बदनाम किया हुआ था। सावरकर ने सबसे पहले अपने इस ग्रंथ में पूर्ण तथ्य देकर यह सिद्ध किया कि 1857 की क्रांति गदर या लूट नहीं अपितु वीर मंगलपांडे, वीरांगना लक्ष्मीबाई, बिहार केसरी बाबू कुंवरसिंह, तात्या टोपे आदि सैकड़ों राष्ट्र वीरों द्वारा बलिदान देकर भारतीय स्वाधीनता के लिए किया गया पहला महान् युद्ध था।
1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर सन् 1908 में सबसे पहले मराठी में लिखा गया। सावरकर ने इस ग्रंथ के कुछ महत्वपूर्ण परिच्छेद अंग्रेजी में अनुवाद करके फ्री इंडिया सोसायटी की सभा में सुनाये। गुप्तचर पुलिस को जब इस पुस्तक का पता चला तो पुस्तक जब्त करने के आदेश दे दिये गये। बड़ी सावधानी से पुस्तक की पाण्डुलिपि भारत भेज दी गयी। भारत में इसे गुप्त रूप से प्रकाशित करने के प्रयास किया गया, किन्तु पुलिस ने मुद्रणालयों पर छापे मारे, जिससे पुस्तक प्रकाशित न हो सकी। मराठी से अंग्रेजी में अनुवाद करके उसे सबसे पहले हालैंड में प्रकाशित किया गया। पुस्तक की हजारों प्रतियां फ्रांस भेज दी गयीं। ब्रिटिश सरकार ने इस महान ऐतिहासिक पुस्तक को गैर कानूनी घोषित करके प्रकाशित होने से पूर्व ही जब्त कर लिया था। पुस्तक प्रकाशित हुई तो इसकी कुछ प्रतियां सभी देशों में पहुंच गयीं। भारत में भी कुछ प्रतियां गुप्त रूप से पहुंचा दी गयीं।
इस महान ऐतिहासिक ग्रंथ का दूसरा संस्करण मैडम कामा, लाला हरदयाल आदि क्रांतिकारियों ने प्रकाशित कराया। उर्दू, हिन्दी, पंजाबी आदि भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित किये गये। लाला हरदयाल ने अमेरिका से प्रकाशित होने वाले ‘गदर’ पत्र में इस ग्रंथ को धारावाहिक प्रकाशित किया। 1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर, इतना प्रसिद्ध हुआ कि क्रांतिकारी इसे सशस्त्र क्रांति के तत्वज्ञान की गीता कहकर पुकारने लगे। इस महान् क्रांतिकारी ग्रंथ की तीसरा संस्करण आगे चलकर सरदार भगतसिंह ने गुप्त रूप से प्रकाशित कराया। क्रांतिकारियों को इसके अध्ययन से भारी प्रेरणा प्राप्त हुई। यह ग्रंथ इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी एक-एक प्रति तीन-तीन सौ रुपये तक में बिकी।
एक यह ऐतिहासिक सत्य है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य समर ग्रंथ से ही प्रेरणा पाकर वीर सावरकर से भेंट की और उनकी प्रेरणा से ही विदेश जाकर ‘आजाद हिन्द फौज’ का निर्माण किया। आजाद हिन्द फौज का प्रत्येक सैनिक इस महान् ग्रंथ से प्रेरणा लेता था। सैनिक छावनियों में इस ग्रंथ की प्रतियां वितरित की जाती थीं।
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