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नया विधान

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5441
आईएसबीएन :9788189859268

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नये तीन उपन्यासों की संग्रह....

Naya Vidhan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बाँग्ला के अमर कथाशिल्पी शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में पढ़े जाने वाले शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं। उनके कथा-साहित्य की प्रस्तुति जिस रूप-स्वरूप में भी हुई, लोकप्रियता के तत्त्व ने उसके पाठकीय आस्वाद में वृद्धि ही की। सम्भवतः वह अकेले ऐसे भारतीय कथाकार भी हैं, जिनकी अधिकांश कालजयी कृतियों पर फिल्में बनीं तथा अनेक धारावाहिक सीरियल भी। ‘देवदास’, ‘चरित्रहीन’ और ‘श्रीकान्त’ के साथ तो यह बारम्बार घटित हुआ है।
अपने विपुल लेखन के माध्यम से शरत् बाबू ने मनुष्य को उसकी मर्यादा सौंपी और समाज की उन तथाकथित ‘परम्पराओं’ को ध्वस्त किया जिनके अन्तर्गत नारी की आँखें अनिच्छित आँसुओं से हमेशा छलछलाई रहती हैं। समाज द्वारा अनुसुनी रह गई वंचितों की बिलख-चीख और आर्तनाद को उन्होंने परखा तथा गहरे पैठकर यह जाना कि जाति, वंश और धर्म आदि के नाम पर एक बड़े वर्ग को मनुष्य की श्रेणी के ही अपदस्थ किया जा रहा है। इस षड्यन्त्र के अन्तर्गत पनप रही तथाकथित सामाजिक आम सहमति पर उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से रचनात्मक हस्तेक्षप किया, जिसके चलते वह लाखों करोड़ों पाठकों के चहेते शब्दकार बने। नारी और अन्य शोषित समाजों के धूसर जीवन का उन्होंने चित्रण ही नहीं किया, बल्कि उनके आम जीवन में आच्छादित इन्द्रधनुषी रंगों की छटा भी बिखेरी। प्रेम को आध्यात्मिकता तक ले जाने में शरत् का विरल योगदान है। शरत्-साहित्य आम आदमी के जीवन को जीवंत करने में सहायक जड़ी-बूटी सिद्ध हुआ है।

    हिन्दी के एक विनम्र प्रकाशक होने के नाते हमारा यह उत्तरदायित्व बनता ही था कि शरत्-साहित्य को उसके मूलतम ‘पाठ’ के अन्तर्गत अलंकृत करके पाठकों को सौंप सकें, अतः अब यह प्रस्तुति आपके हाथों में है। हमारा प्रयास रहेगा कि किताबघर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और प्रकाश्य शरत्-साहित्य को सर्वांग तथा सर्वश्रेष्ठ होने का प्रमाणपत्र आप जैसे सुधी पाठकों द्वारा ही जारी किया जाए।

 

नया विधान

 

यदि इस कथा के नायक शैलेश्वर घोषाल अपनी पत्नी की मृत्यु के उपरान्त लोकलाज की उपेक्षा करके पुनर्विवाह के अपने विचार को कार्यरूप दे पाते, तो निश्चित रूप से इस लघु उपन्यास का स्वरूप वर्तमान से कितना भिन्न होता, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।
विलायत से डिग्री पाने वाले घोषाल महाशय कलकत्ता के एक नामी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रवक्ता हैं। बत्तीस वर्षीय इन महाशय को आठ सौ रुपया मासिक वेतन मिलता है। पांच-छह महीने पहले, नौ साल के बच्चे को छोड़कर, इनकी पत्नी स्वर्ग सिधार गयी है। कलकत्ता के पटलडांगा इलाक़े में इनका पैतृक निवास है। इन्होंने अपने घर में सात-आठ नौकरों की गृहस्थी बसा रखी है। पहले तो शैलेश्वर बाबू की इच्छा विवाह करने की नहीं थी, किन्तु बाद में इनका विचार बन गया। भवानीपुर के भूपेन्द्र बाबू की मैट्रिक पास और देखने में सुन्दर मझली लड़की से इनके सम्बन्ध के विषय में एक शाम इनकी बैठक में चाय पीते मित्रों द्वारा चर्चा की जाने लगी।

घोषाल बाबू की इस मित्र मण्डली में थोड़ा वेतन पाने वाले तथा बिना सोच-विचार के मुंह खोलने और अपने कहे से मुकर जाने वाले होने के कारण मित्र-मण्डली में ‘दिग्गज’ के रूप में प्रसिद्ध पागल-से एक स्कूल पण्डित भी थे, जो स्वयं तो अंगरेजी नहीं जानते थे, किसी के द्वारा अंगरेजी परीक्षा पास करने की सुनते ही इनके तन-बदन में आग लग जाती थी। वे ऊंचा वेतन पाने वाले प्रोफेसर से भी कहीं अधिक चाय के शौक़ीन होने के कारण कभी अनुपस्थित नहीं रहते थे। आज घोषाल बाबू के इस लड़की के साथ पुनर्विवाह की मित्रों में चल रही चर्चा के बीच वह अचानक बोल उठे, ‘‘अरे आपने एक बहू को भगा दिया, एक को खा गये, अब तीसरी से विवाह की सोच रहे हो, आश्चर्य है ! यदि विवाह ही करना है, तो उमेश भट्टाचार्य की लड़की की अनदेखी क्यों कर रहे हो ? आखिर उस लड़की ने कौन-सा अपराध किया है ? विवाह करना ही है तो उससे करो।’’

इस तथ्य से अनभिज्ञ साथी प्रोफ़ेसरों का यह सुनकर हंसना स्वाभाविक ही था। दिग्गज बोला, ‘यदि भगवान् में आस्था है और उससे भय खाते हो, तो उसी लड़की को अपने घर बुलाकर अपनी गृहस्थी बसाओ। किसी और से विवाह करने की कोई आवश्यकता नहीं। मैट्रिक पास होना कोई थोड़ी शिक्षा नहीं है।’’ कहते हुए उन महाशय का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा।
अपने क्रोध पर संयम रखते हुए शैलेश्वर बोला, ‘क्यों भाई दिग्गज। क्या तुम्हें उसके पागल होने की जानकारी नहीं है ?’’
सुनते ही भड़क उठा दिग्गज बोला, ‘क्या किसी को पागल कह देने से वह सचमुच पागल हो जाता है ? अब मुझे ही ले लो, तुम लोग मुझे पागल कहते हो, तो क्या मैं वास्तव में पागल हूं ?’’

सुनकर सभी लोगों को हंसी आ गयी। हंसी के थमने पर मित्रों को घटना की जानकारी देते हुए शैलेश्वर बोला, ‘‘मेरे जीवन का यह एक दुःखद प्रसंग है। मेरे विलायत जाने से पहले मेरा विवाह हो गया। मेरे पीछे, मेरे पिताजी और ससुरजी में किसी बात पर झगड़ा हो जाने के कारण सम्बन्धों में दरार आ गयी। इसके अतिरिक्त लड़की के मानसिक रूप से रुग्ण होने के कारण पिताजी उसे घर लाने को सहमत नहीं हुए। इंग्लैंण्ड से लौटने पर मेरी आज तक उससे कभी भेंट नहीं हुई।’’ इसके बाद वह दिग्गज की ओर उन्मुख होकर बोला, ‘‘यदि लड़की में खोट न होता तो क्या मेरे लौट आने पर भूपेन्द्र बाबू मुझसे सम्पर्क स्थापित न करते ? क्या अपनी लड़की को मेरे पास भेजने का प्रयास न करते ? तुम चाय-पार्टी में कभी अनुपस्थिति नहीं रहते, फिर जिस पगली को लाने की सिफ़ारिस कर रहे हो, यदि वह सचमुच इस घर में आ गयी, तो तुम्हारी टांगे तोड़कर तुम्हारे हाथ पकड़ा देगी।’’

दिग्गज ने बलपूर्वक कहा, ‘‘यह सब कोरी बकवास है, ऐसा कुछ भी नहीं।’’ अन्य मित्रों द्वारा इस चर्चा में रुचि न लेने के कारण दो चार औपचारिक बातों के बाद सभा भंग हो गयी। वैसे, प्रायः लोग लगभग इसी समय विदा लेते थे, किन्तु आज विचित्र बात यह थी कि मित्रों के मन को किसी गहरे विषाद ने बुरी तरह से घेर रखा था

 

:2:

 

शैलेश्वर के तीसरे विवाह के सम्बन्ध में मित्रों की चुप्पी उनकी असहमति की सूचक थी, यह तथ्य उससे छिपा न रहा। मित्रों के इस उपेक्षापूर्वक व्यवहार से शैलेश्वर अपने को लज्जित एवं अपमानित अनुभव करने लगा।
अठारह वर्षीय शैलेश के प्रथम विवाह के समय, उसकी पत्नी उषा की आयु ग्यारह वर्ष थी। लड़की के सुन्दर होने के कारण थोड़ी रक़म में ही लड़की का सौदा पट गया था, किन्तु शैलेश के विलायत चले जाने पर उसके पीछे उसके पिता और ससुर में लेन-देन को लेकर झगड़ा हो गया। शैलेश के पिता ने अपनी बहू को अपने घर से निकालकर मायके भेज दिया, अतः शैलेश के लौटने पर पिता द्वारा अपनी बहू को उसके मायके से बुलाना उनके सम्मान के विरुद्ध था। उधर ससुर ने भी इसे अपनी प्रतिष्ठा और मर्यादा का विषय बना दिया। वह ससुरालवालों द्वारा बुलाये बिना अपनी लड़की को उनके पास भेजने को तैयार नहीं हुए। इस प्रसंग की थोड़ी बहुत जानकारी शैलेश को विलायत में हो गयी थी और उसने देश लौटने पर इस समस्या को सुलझाने की सोची भी थी, किन्तु चार वर्ष बाद घर लौटने पर शैलेश के स्वभाव, सोच और व्यवहार में भारी अन्तर आ गया था। अतः जब विलायत से लौटे एक सज्जन ने अपनी सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित पुत्री के विवाह का प्रस्ताव उनके सामने रखा, तो उन्होंने तत्काल अपनी सहमति दे दी।

 इस बीच न केवल शैलेश के पिता, अपितु उषा के पिता भी भगवान् को प्यारे हो गये थे। उषा के अपने भाइयों के साथ रहने और कठोर साधना में जीवन बिताने की जानकारी शैलेश को मिलती रहती थी। उसे यह भी पता चला कि उषा की पवित्रता की भावना पागलपन की सीमा को लांघ गयी थी और इससे उसके भाई बेहद परेशान थे। इस प्रकार शैलेश की पूर्वपत्नी की ओर से कुछ भी सुखद सुनने को नहीं मिला था। हां, उसने उषा के चरित्र के सम्बन्ध में उलटा-सीधा अवश्य कुछ नहीं सुना था। वैसे भी, इस प्रकार की परित्याक्ता स्त्रियां अपने चरित्र की रक्षा के प्रति विशेष कठोर हो जाती है।
भूपेन्द्र बाबू की सुशिक्षिता एवं रुपवती लड़की ने शैलेश के मन-मस्तिष्क को अभिभूत कर रखा था। शैलेश को अपनी अनपढ़, गंवार पूर्वपत्नी उषा को अपने घर लाने पर सारे वातावरण के दूषित हो जाने का पक्का भरोसा था। वास्तव में, किसी स्त्री को घर में लाने की उसकी आवश्यकता और चिन्ता का एकमात्र कारण था-उसका बेटा सोमेन। उसे यह भी डर था कि क्या वह अपनी सौत के बेटे के प्रति सद्भाव रख भी सकेगी या नहीं ? अपनी ईर्ष्या और द्वेष के कारण कहीं वह उस अबोध के साथ दुर्व्यवहार तो नहीं करेगी ? शैलेश अपने इस लड़के-सोमेन को ही अपने दुर्भाग्य और सभी दुःखों की जड़ समझने लगा था। वह अपने इस बेटे को श्यामबाज़ार में रह रही बैरिस्टर की पत्नी, अपनी बहिन विभा के घर रखने की सोचने लगा, किन्तु उसे लगा कि यह प्रबन्ध आख़िर कब तक चल सकेगा ? इसे स्थायी कभी नहीं कहा जा सकता।
दिग्गज पण्डित के व्यवहार पर शैलेश इतना अधिक भड़का हुआ था कि यदि वह उसके सामने आ जाता, तो शायद शैलेश उसकी बुरी तरह से पिटाई कर देता। इतने दिनों तक अपने चाय-बिस्कुट खाने वाले इस दुष्ट के इस प्रकार नमकहराम निकलने पर शैलेश को बेहद ताज्जुब हो रहा था।

अत्यन्त दुर्बल प्रकृति का व्यक्ति होने के कारण शैलेश कुछ गलत सही करने से इतना नहीं घबराता था, जितना वह लोक निन्दा से घबराता था असल में वह ‘बद अच्छा बदनाम बुरा’ की कहावत में यकीन रखता था। इसके अतिरिक्त जहां वह अत्यन्त उच्चशिक्षित था, वहां अपने संस्कारों के कारण वह किसी के प्रति अन्याय, अत्याचार न करने के लिए पूर्ण सजग भी था। फिर भी, उसे ऐसा लगने लगा था कि उसके संगी साथी उसके अपनी पहली पत्नी के प्रति व्वहार के लिए अपना मुंह भले ही न खोलें, किन्तु मन-ही-मन वे उसे निश्चित रूप से इसके लिए अपराधी समझते हैं। उसे यह भी स्पष्ट था कि उसके लिए उनके इस छिपे अपमान को झेलना आसान काम नहीं था।

इसी चिन्ता में शैलेश ने सारी रात आंखों-ही-आंखों में काट दी। प्रभात होने पर अचानक उसके दिमाग़ में एक ख़याल आया कि यदि उषा को बुलवा भेजा जाये, तो सारी समस्या अपने आप सुलझ जायेगी। यदि वह नहीं आती, तो टण्टा समाप्त और यदि वह आ जाती है, तो भी यहाँ के म्लेच्छ वातावरण में उसका टिक पाना कदापि सम्भव नहीं होगा। दो-चार दिन में ही उसका यहाँ से चलते बनना निश्चित है। इस प्रकार मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। फिर किसी को भी मुझे दोष देना उचित नहीं लगेगा। दो-चार दिन के लिए लड़के को उसकी बुआ के घर छोड़कर वह स्वयं किसी मित्र के घर निर्वाह कर लेगा। वह अब इस बात पर हैरान होने लगा कि ऐसा छोटा-सा समाधान उसके दिमाग में पहले क्यों नहीं आया। अब उसने इस तरीके को आजमाने का पक्का मन बना लिया। फलतः शैलेश ने कॉलेज से सात दिन का अवकाश लेकर इलाहाबाद के अपने एक मित्र को तार द्वारा अपने पहुंचने की सूचना दे दी और इधर अपनी बहिन को एक पत्र लिखकर उसे भी सूचित कर दिया कि उसने अपनी पूर्वपत्नी उषा को बुला भेजा है और वह स्वयं सात दिनों के लिए इलाहाबाद जा रहा है। यदि उषा उसके घर आ जाती है, तो विभा सोमेन को अपने घर ले जाये।

शैलेश ने उषा को उसके मायके से बुला लाने का दायित्व किसी सौदागर की नौकरी करने वाले और होटल में ठहरे अपने ममेरे भाई भूतनाथ को सौंप दिया।
भूतनाथ द्वारा परिचय होने कारण उषा के मायकेवालों द्वारा उषा को उसके साथ भेजने को सहमत न होने की आशंका प्रकट किये जाने पर शैलेश ने कहा, ‘‘नहीं आती, तो न सही, तुझे केवल अपनी ड्यूटी पूरी करनी है। हां, बेयरे और नौकरानी को अपने साथ ले जाना न भूलना। यदि उषा के मायकेवाले उषा को भेजने के लिए मना करते हैं, तो तुम्हें किसी प्रकार की कोई बहस नहीं करनी है, चुपचाप उलटे पांव लौट आना है।’’
कुछ देर तक चुपचाप खड़े और सोच में डूबे भूतनाथ ने चिन्ता प्रकट करते हुए कहा, ‘‘चला तो जाऊंगा, किन्तु कहीं जूते न खाने पड़े।’’

शैलेश ने कहा, ‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा।’’ इसके पश्चात् मार्ग-व्यय के लिए कुछ रुपये और घर की चाबी भूतनाथ को थमाते हुए शैलेश बोला, ‘‘मैं एक सप्ताह के लिए इलाहाबाद जा रहा हूं। यदि उषा आ जाती है, तो घर की चाबी उसे सौंप देना और उसे बता देना कि ख़र्च के लिए रखे रुपयों से महीना निकलना चाहिए।’’
‘‘अच्छा’’ कहने के बाद भूतनाथ ने आश्चर्य के स्वर में पूछा, ‘‘मझले भैया ! यह तुम्हें अचानक क्या सूझा, जो ‘आ बैल, मुझे मार’ की कहावत के अनुसार स्वयं मुसीबत को गले लगा रहे हो ?’’
अपने चेहरे पर चिन्ता का भाव लाकर शैलेश बोला, ‘‘मुझे नहीं लगता कि वह आयेगी, किन्तु दुनिया को दिखाने के लिए कुछ ढोंग करना ही पड़ता है। जाते हुए श्यामबाज़ार से विभा से सोमेन को ले जाने के लिए भी कह देना।’’
अपने निश्चय के अनुसार शैलेश रात में जाने वाली पंजाब मेल से इलाहाबाद रवाना हो गया।

 

:3:

 

 

कुछ दिन बीतने पर, एक दिन दोपहर के समय घर के बाहर आकर रुकी गाड़ी में से उतरी बाईस-तेईस वर्ष की युवती ड्राइंगरूम में प्रविष्ठ हुई, तो उसने सोमेन्द्र को कार्पेट पर बैठी नयी मां को अलबम की तस्वीरें दिखाते देखा। सोमेन्द्र ने एक दूसरे से अपरिचित दोनों युवतियों का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘मां ! बुआजी आयी हैं।’’
विभा के सम्मान में उषा तत्काल उठकर खड़ी हो गयी। उषा ने उस समय रंगीन किनारी वाली सस्ती साड़ी और हाथों एवं गले में थोड़े-से आभूषण पहन रखे थे, किन्तु विभा उसके रूप-सौदर्य के आकर्षण से अभिभूत हुए बिना न रह सकी।
उषा ने सोमेन्द्र से कहा, ‘‘बेटे ! बुआजी के चरण स्पर्श करो।’’ सोमेन्द्र के लिए यह एकदम नयी बात थी, फिर भी उसने मां के निर्देश को गौरव देते हुए झुककर बुआ के पांव छुए। ऊषा ने विभा की ओर उन्मुख होकर कहा, ‘‘ननदजी ! विराजिये।’’
विभा द्वारा ‘‘आप कब आयी हैं ?’’ पूछे जाने पर उषा ने उत्तर दिया, ‘‘आज बुधवार है, मैं दो दिन पहले सोमवार को यहां आयी हूं, किन्तु आप तो अभी तक खड़ी हैं, बैठ क्यों नहीं जातीं ?’’

विभा तो घर से कुछ और सोचकर निकली थी। उसका अपनी भाभी से मधुर व्यवहार करने का कोई इरादा नहीं था। अतः रूखेपन से बोली, ‘‘मेरे पास बैठने के लिए समय नहीं है। मैं अत्यन्त व्यस्त हूं, मुश्किल से समय निकालकर सोमेन्द्र को लेने आयी हूं।’’
हंसते हुए उषा बोली, ‘‘यदि आप सोमेन्द्र को ले जायेंगी, तो मैं यहां अकेली कैसे रह सकूंगी ? मायके में भाभियों के बच्चों को मैंने ही पाला-पोसा है, इसलिए बच्चों को रखने का मुझे अच्छा अनुभव है। इसके बिना मेरा रहना दूभर हो जायेगा, ननदजी !’’ इसके बाद उषा फिर से मुसकरा दी।
उषा के अनुनय-विनय की ओर ध्यान न देकर सोमेन्द्र की ओर उन्मुख होकर विभा बोली, ‘‘तुम्हारे बाबूजी तुम्हें हमारे यहां रहने को कह गये हैं, अतः जल्दी से अपना सामान लेकर तैयार हो जाओ। मेरे पास समय का अभाव है, मुझे अभी एक बार न्यू मार्केट भी जाना है।’’

दो पाटों के बीच फंसे बालक ने मासूमियत से, किन्तु डरते हुए कहा, ‘‘बुआजी ! मां कहीं जाने से मना कर रही हैं।’’
उषा ने तत्काल संशोधन करते हए कहा, ‘‘बेटे ! मैं तुम्हें जाने से थोड़ा रोक रही हूं। मैं तो अपनी बात कर रही हूं कि तुम्हारे चले जाने पर मैं घर में अकेली रह जाऊँगी। इससे मुझे कष्ट होगा।’’
बालक मुंह से तो कुछ न बोला, किन्तु मां के आंचल को पकड़कर और मुंह फेरकर उसके सीने से चिपक गया। बालक को पुचकारते और दुलारते हुए उषा बोली, ‘‘ननदजी ! बच्चे का मन आपके साथ जाने का नहीं है।’’
उच्चशिक्षा प्राप्त तथा अत्यन्त उन्नत स्तर के सभ्य समाज की महिला होने पर भी विभा अपनी सहज शिष्टता को तिलाज्जलि देते हुए कठोर एवं तीखे स्वर में बोली, ‘‘मैं इसे लेकर ही जाऊंगी, अन्यथा यहां रहते हुए यह बड़ों की आज्ञा के पालन के महत्त्व को नहीं समझ सकेगा।’’

उषा कुछ देर के लिए असंयत अवश्य हुई, किन्तु शीघ्र ही उसने अपने को संभाल लिया और बोली, ‘‘जब हम परिपक्व बुद्धि के प्रौढ़ व्यक्ति दूसरों की भावनाओं को महत्त्व देने की चिन्ता नहीं करते, तो सोमेन्द्र जैसे बच्चे से ऐसी कोई उपेक्षा करना व्यर्थ होगा। ननदजी ! मैं आपको बता चुकी हूं कि बच्चों को पालने का मुझे काफी अनुभव है। मैं सोमेन्द्र को सुशिक्षित करने में न कोई कोताही करूंगी और न ही आपको शिकायत का कोई मौक़ा दूंगी।’’
पहले-जैसी तीव्रता से विभा बोली, ‘‘फिर मैं शैलेश को पत्र द्वारा सूचित कर देती हूं।’’

उषा बोली, ‘‘आप स्वतन्त्र हैं। हां, यह लिखना न भूलियेगा कि आप इलाहाबाद के आदेश की अपेक्षा कलकत्ता की स्थिति को अधिक महत्त्व देती हैं। देखिये, मैं दोनों-आयु और सम्बन्ध दृष्टि से आपसे बड़ी होने के नाते आपसे अनुरोध करती हूं कि आप इसे अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाइयेगा। आज आप मेरे पास बैठने को सहमत नहीं हो रहीं, किन्तु एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा, जब आप मेरे साथ बैठने में प्रसन्नता अनुभव करेंगी।’’
उषा के इस कथन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना ही विभा बोली, ‘‘मेरे पास समय नहीं है। अच्छा, चलती हूं। नमस्ते।’’ कहते हुए और तेज़ कदम बढ़ाते हुए विभा बाहर चल दी।
गाड़ी में जा कर बैठी विभा ने ऊपर से सिर करने पर देखा कि आंगन में जंगले के पास खड़ी तथा सोमेन्द्र को गोदी में थामे उषा सरल-स्निग्ध दृष्टि से उसे देख रही है।

 

:4:

सात दिनों का अवकाश लेकर इलाहाबाद गया शैलेश दो सप्ताह वहां बिताने के बाद एक दोपहर घर लौट आया। अपने बरामदे में बैठा सोमेन्द्र बांस की खपचियों, रंग-बिरंगे काग़ज़ों लेई और सुतली आदि से आकाशदीप बनाने में इस प्रकार व्यस्त था कि उसे अपने पिता के आने का पता ही न चला। पता चलने पर वह एकदम मुसकराते हुए उठ खड़ा हुआ और उसने झुककर शैलेश के चरणों को छुआ। उसके चेहरे से स्पष्ट आभास मिलता था कि अभी तक वह इस प्रकार से अभिवादन करने का अभ्यस्त नहीं हो सका था। अपने बेटे के इस आचरण से विस्मित हुए शैलेश ने कागज़ लेई आदि की ओर संकेत करते हुए सोमेन्द्र से पूछा। ‘‘बेटे यह सब क्या कर रहे हो ?’’
अपने प्रयोजन को रहस्य बनाये रखने की इच्छा से बालक ने पलटकर शैलेश से पूछा, ‘‘बाबूजी ! आप ही बतलाएं मैं क्या कर रहा हूं ?
शैलेश बोला, ‘‘मुझे क्या मालूम कि तुम क्या कर रहे हो ?’
प्रसन्नता से ताली पीटते हुए सोमेन्द्र बोला, ‘‘मैं आकाशदीप बना रहा हूँ।’’
‘‘इस आकाशदीप का क्या करोगे ?’’ शैलेश ने पूछा।
आज प्रातः मां से सुने को उगलते हुए बालक बोला, ‘’आज संक्रान्ति है। कल से प्रतिदिन शाम को ऊंचे बांस पर इसे टांगा जायेगा। जिससे स्वर्ग में रहने वाले मेरे दादा-परदादा आदि पितरों को प्रकाश मिलेगा और इसके बदले वे मुझे अपना आशीर्वाद देंगे।’’
पहले से ख़ार खाये बैठे शैलेश ने इस ऊलजुलूल बकवास को सुनते ही अपनी लात मारकर सारे सामान को इधर-उधर फेंक दिया और फिर सोमेन्द्र को डांटते हुए बोला, ‘‘कौन किसे आशीर्वाद देगा, यह सब बेकार की बातें हैं। चल छोड़ इस टण्टे को, उठकर अपनी पुस्तक पढ़।’’
इतनी मेहनत, लगन और चाव से बनाये अपने आकाशदीप को इस प्रकार बिखरा पड़ा देखकर सोमेन्द्र रोने लगा था कि उसके कानों में मीठी आवाज़ पड़ी, ‘‘बेटे ! कोई बात नहीं। कल मैं तुम्हें बाजार से इससे भी बढ़िया आकाशदीप मंगवा दूंगी। तुम मेरे पास आ जाओ।’’
सोमेन्द्र आंखें पोंछते हुए ऊपर मां के पास चला गया और शैलेश चुपचाप अपने अध्ययनकक्ष में प्रविष्ट हो गया। वहां से उसने घण्टी बजायी, उत्तर न मिलने पर उसने आवाज़ लगायी, ‘‘अब्दुल !’’
बाहर से उत्तर मिला, ‘‘अब्दुल नहीं आया।’’
गिरधारी को पुकारे जाने पर उसके स्थान पर परदा हटाकर बंगाली नौकर गोकुल ने भीतर प्रवेश किया और बोला, ‘‘आज्ञा कीजिये।’’
तीव्रता से उसे डांटते हुए शैलेश ने पूछा, ‘‘क्या सब मर गये ?’’
धीरे से गोकुल बोला, ‘‘जी नहीं।’’
‘‘फिर अब्दुल कहां है ?’’
‘‘मां से छुट्टी लेकर वह अपने घर चला गया है।’’
‘‘गिरधारी कहां है ?’’
‘‘वह भी छुट्टी लेकर अपने घर चला गया है।’’
‘‘इसका अर्थ है कि अब घर में कोई नौकर नहीं है ?’’
‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, और सब मौजूद हैं।’’
‘‘वे क्यों हैं ? उन्हें छुट्टी क्यों नहीं दे दी गयी ? जा, भाग यहां से।’’



 

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