सामाजिक >> संजोग संजोगअरुण कुमार जैन
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प्रेम, कर्त्तव्य, पर्यटन, काव्य व जीवंत यथार्थ का अभिनव प्रस्तुतीकरण
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
समय अपनी अजस्र धारा में जीवन व संसार को ही नहीं प्रभावित करता, बल्कि
अपने हर ठहराव व जीवन के प्रत्येक क्षण पर कुछ बदलाव उसमें समाहित करता
है। हम होते कौन है यह प्रश्न करने वाले कि बदलाव की सीमा क्या हो, कौन
उसे स्वीकार करे व उसकी दिशा हमारी चिंतन सीमा के अंदर ही हो या उसका
विस्तार करके कुछ नयी अनुभूति करा दे। साहित्य की उत्पत्ति इसी अवस्था से
होती है। लोरियों के समय कही गयीं छोटी-छोटी कहानियाँ, जीवन पर कितना
प्रभाव डालती हैं यह नहीं है। हममें से हर एक, जीवन के किसी भी पडाव पर
उसे अभी भी महसूस करता है। हमारा चिंतन, हमारी उपलब्धियाँ, हमारे मूल्य
उससे बहुत प्रभावित होते हैं, कभी-कभी प्रतीक बदलते रहते हैं, लेकिन
पुराने मूल्य अपना महत्त्व या सार्थकता नहीं खोते कुछ अंश तक संशोधित व
परिमार्जित होते हैं। हमारे उस वय को ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर यह नया
आयाम भी उसी की ही उपज है, हम यह अस्वीकार कर देते हैं।
समयानुसार सामाजिक मूल्यों, चिन्तन में परिवर्तन होता है, वह भी विकास क्रम को ही परिलक्षित करता है। यह आवश्यक भी है क्योंकि कोई भी ज्ञान उस समय तक जाने गये तथ्यों एवं तत्वों के आधार पर आधारित होता है। यही हमारे बदलाव का कारक है। समाज के स्वास्थ्य के लिए यह अति आवश्यक है, अन्यथा समाज वहीं रह जायेगा व परिवर्तनों को अपने में सामाहित नहीं कर पायेगा और अन्त में अपनी मूल्यहीनता को प्राप्त होगा। हाँ इन विभिन्न मूल्यों को हर व्यक्ति अलग-अलग ढंग से ग्रहण करता है, यह उस व्यक्ति के परिवेश अनुभव ज्ञान, कार्यक्षेत्र और जीवन शैली जैसी अन्य कई बातों से भी प्रभावित होता है।
श्री अरुण कुमार जैन द्वारा लिखा यह उपन्यास अपने आवरण में एक कहानी कहता है जो उनके युवा होने पर लिखी गयी और वहीं समाप्त हुयी। वर्षों तक यह बंद रही या जो हर साहित्यकार को कभी झेलना पड़ता है उसी दंश का शिकार रही। मुझे प्रसन्नता है कि उनकी यह कृति संजोग एक परिमार्जित आवरण में सूर्य के आलोक के साथ साक्षात्कार कर रही है।
कुछ लिखूँ यह उसका आग्रह था। कई बार पढ़ा कुछ अंशों को जिया। कुछ लिखना उस समय मुश्किल होता है जब आप उस उपन्यास के स्वंय पात्र हों और साथ ही उसकी भूमिका लिख रहे हों। इस कृति की कहानी का पात्र बनाना मेरी स्वीकृति से ही हुआ है। उपन्यासों में यह एक नया प्रयोग ही होगा। इस कृति में मेरी व मेरी सहधर्मिणी की कवितायें तो हैं ही, मेरे और सहयोगी साहित्यकारों की रचनाएं भी हैं। उन पर कुछ भी कहना या विचार प्रकट करना मुझे उचित नहीं लगता, इसका निर्धारण सुधी पाठक स्वयं करें। इस विषय में मात्र इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के लिये वह एक ऐतिहासिक क्षण था जब एक ही मंच पर हिंदी के पच्चीस से अधिक कवि-कवियत्रियाँ थे और सैकड़ों श्रोताओं ने उनकी विभिन्न रसो से परिपूर्ण रचनाओं का भरपूर आनंद लिया। यह कहकर मैं अपनी आत्म प्रशंसा नहीं करना चाहता, इस तरह के विचार हिंदी के कई प्रबुद्ध हस्ताक्षरों व श्रोताओं द्वारा इस आयोजन के बाद व्यक्त किये गये। यह भुवनेश्वर के साहित्य सेवियों के लिये अभी भी एक उपलब्धि है। कविताएं वही सम्मिलित की गयीं, जो वहाँ पढ़ी गयीं। मैं श्री जैन के इस साहसिक कार्य के लिए उन्हें हृदय से बधाई देता हूँ। मेरा एक निवेदन है आप उन्हें पढ़ें केवल कुछ पंक्तियों एक बार, उनका रसास्वादन करें, पुनः आगे पढ़ें।
उपन्यास में एक सुन्दर कहानी है जो अपनी लय के साथ-साथ चलती है जिसमें साहित्य के कई सुन्दर गुण समावेशित है। इसमें प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण बड़ी सुघड़ता से किया गया है, वह चाहे पुरी के समुद्रतट का वर्णन हो, डॉलफिन का क्षेत्र सातपौड़ा के नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन हो या इलाहाबाद से सोन की ट्रेन की यात्रा में गाँवों का वर्णन हो, इन सभी जगहों पर यह सौंदर्य उभरकर आया है।
ट्रेन की यात्रा में एक छोटी सी बालिका छलोनी (सलोनी) के माध्यम से या नायिका की छोटी बहिन दीप्ति के माध्यम से बाल स्वभाव का लुभावना चित्रण हैं। कृति में जिये गये पात्रों का अनुकरण कर आज परिवार व समाज की विसंगतियां समाप्त हो सकती हैं। कथा का नायक अंशुल हर स्थान पर सर्वप्रिय पात्र है तो नायिका रुचि उससे भी अधिक धैर्य, दृढ़ता संयम व आत्मानुशासन का परिचय देने वाली नायिका है। जो प्रेम को अधिक अपने व्यक्तिगत लाभ या हित से अधिक ‘परजन हिताय परजनसुखाय’ की भावना से स्वीकार कर / आत्मसात कर एक नवीन संसार का सृजन करती है, जो सभी को सुखकारी होता है, इसी परिणाम स्वरूप कहानी की दूसरी नायिका, रुचि की सौत न बनकर सहेली व उपासिका बन जाती है।
कहानी के प्रात्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते है व कहानी बिना खलनायक/ खलनायिका के ही गतिमान होकर पूर्णता प्राप्त करती है।
लेखक का प्रयास बहुत ही प्रशंसनीय है। साहित्य प्रेमी पाठक जब भी इसे पढ़ना प्रारंभ करेंगे, लेखक की अन्य कृतियों की तरह इसे भी बिना पूरा पढ़े नहीं छोड़ेगे। यह उपन्यास जो 22 वर्ष पूर्व के परिवेश में लिखकर हाल ही में पूर्णता को प्राप्त कर सका, में एक साथ दो पीढ़ियाँ अपने प्रतिबिंब इसमें पायेगी।
यह मात्र एक उपन्यास ही नहीं एक सुखद यात्रा वृत्तांत भी है। जैसे ही आप ट्रेन में सवार होते हैं कैसे अपने गंतव्यों तक (उड़ीसा) पहुँचते हैं, सब एक भोगा हुआ सत्य है। इतना सजीव चित्रण लगता है आप उस ट्रेन में स्वयं यात्रा कर रहे हों। यात्रा के मध्य आने वाले स्थानों का परिचय देकर श्री जैन ने बहुत ही अच्छी आवश्यक तथ्यपरक सूचनायें दी हैं, यह यात्रियों विशेषरूप से पर्यटन के उद्देश्य से भ्रमण करने वाले सैलानियों के लिए सुगम सुबोध रूप से प्रस्तुत किया गया है।
उड़ीसा अपने चक्रवात (सुपर साईक्लोन) के साथ ही जगन्नाथ जी के कारण प्रसिद्ध हैं। अधिकांश लोग इतना ही जानते हैं लेकिन वहाँ इतना अधिक है जो आज भी हमें अन्जाना अन्चीन्हा सा है। भुवनेशवर, पुरी, कोणार्क, कटक, आदि की यात्रा करके उसे वहाँ उपलब्ध कराया गया है। वर्षों से उड़ीसा में रहने वाले भी उन स्थानों के विषय में इतनी विस्तृत जानकारी नहीं रखते, यह वर्णन निश्चित रूप से देश के नागरिकों को उड़ीसा की यात्रा करने को प्रेरित करेगा। इस प्रेरणा के लिये श्री अरुण जैन साधुवाद के पात्र है।
जब आप उपन्यास को पढ़े तो उसमें प्रकट किए गये विचारों को उपन्यास के पात्रों की मानसिकता का प्रतिबिंब मानें, लेखक के स्वयं के विचार न मानें। सत्य तो यह है कि कोई बिंब किसी भी पंथ का देवता या देवी हो सकते है। हमें तो प्रसन्न होना चाहिए कि कोई आज भी उनकी पूजा अर्चना कर रहा है। विभिन्न रूपों में यदि हम एक ही ईश्वर मान लें तो तेरा-मेरा के झगड़े स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे, बशर्ते की आज पूजा करने वालों के अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, धन में लिप्सा, लोभ या पूर्वाग्रही वृत्ति इसमें समाहित न हो।
श्री जगन्नाथ जी के विषय में कुछ स्पष्टीकरण देना चाहता हूँ श्री जगन्नाथ जी कौन है ? वह परम पिता परमेश्वर है, किसी भी पंथ के हो सकते हैं, वह तो वहां मानव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। हर भक्त को अपनी भावनानुरूप ही उसी रूप में दिखते है। वे तरह-तरह के रूप धारण करते है, बीमार होते है, भ्रमण हेतु जाते हैं, नौका बिहार करते हैं। आठ से अठारह वर्ष के मध्य अपना कलेवर बदलते हैं, नव कलेवर धारण करते हैं। मंदिर में पुराना है, नया है वहाँ कोई जाति नहीं सभी एक-दूसरे के साथ-साथ खा सकते हैं। अन्न का दाना गिरने पर उसे उठाकर माथे पर लगाते हैं और श्रद्धा से ग्रहण करते हैं।
उड़ीसा वासियों का जीवन श्री जगन्नाथ जी से इतना अप्लावित है कि उनके बिना उनके जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह बात अन्य स्थानों के लिए नहीं की जा सकती। पुरी के मंदिर में ब्रह्मगादी है जहाँ ज्ञानी पण्डित बैठते है। श्री जगन्नाथ जी के विषय में अपने विचार प्रकट करते हैं तथा उन सभी का निर्णय ही मान्य होता है। देखिए श्री जगन्नाथ जी की बात पर मैं भी बहक गया।
श्री अरुण कुमार जैन का उपन्यास ‘संजोग’ हर उम्र के लोगों की जीवनशैली, चिंतन, मनोभाव व परेशानियों पर बेबाक चर्चा करता है, बिना किसी पर कुठाराघात किये, बिना किसी बहस के समाप्त होता है। आपको जब लगता है कि परेशानी प्रारंभ हुई यह आज के टी. वी सीरियलों की तरह लम्बा खिचेंगा वह वहीं अच्छे परिणामों के साथ समाप्त होता है और एक नया स्वाभाविक आयाम प्रस्तुत करता है। पाठक इस नाविक के समान हो जाते हैं, जिनकी नैया मंझदार में है और वह स्वयं सो गया है।
पर फिर भी इस उपन्यास का पाठक मंझधार से स्वतः निकल, नदी के प्रवाह के साथ किनारे पर आ जाता है। ‘संयोग’ सचमुच में संजोग ही है जीवन के किस क्षण में हम सभी के लिए न जाने क्या सौगात मिले, हाथ में आते-आते लक्ष्य छूट जाता है और निराशा के गहन तम में फंसे रहने पर भी स्वर्णिम आलोक की रश्मियां दूर कहीं से आकर, उमंग, उत्साह, प्रेम, सृजन व उल्लास के झरने हमारे चारों ओर निर्झरित कर देती हैं, यही तो संजोग है। तब लगता है हम तो मात्र किसी मंच पर निर्देशक द्वारा चलने-फिरने वाले पात्र ही हैं नियंता कोई और नहीं है।
उपन्यास की सरल भाषा सरल, सहज, बोलचाल की सहज ग्राह्य भाषा है। लगता नहीं पात्र किसी और दुनियाँ के हैं। वे हमारे बीच ही प्रकट होते हैं।
हमारी ही भाषा बोलते हैं व हम जैसा ही उनका स्वभाव है, इससे इन सभी की ग्राह्यता सहज हो जाती है।
मुझे विश्वास है कि श्री जैन की यह कृति संजोग साहित्य जगत में लोकप्रियता पाकर अपनी अलग पहचान बनायेगी, समाज को सकारात्मक चिंतन की ओर मोड़ेगी व उड़ीसा की यात्रा हेतु देश के लाखों नागरिकों को लालायित करेगी तथा लेखको को अपनी सामाजिक दृष्टि चिंतन व शिल्प की सुघड़ता के कारण हिंदी साहित्यकारों की समर्थ पंक्ति में और उच्च् स्थान पाने की ओर अग्रसर करेगी।
समयानुसार सामाजिक मूल्यों, चिन्तन में परिवर्तन होता है, वह भी विकास क्रम को ही परिलक्षित करता है। यह आवश्यक भी है क्योंकि कोई भी ज्ञान उस समय तक जाने गये तथ्यों एवं तत्वों के आधार पर आधारित होता है। यही हमारे बदलाव का कारक है। समाज के स्वास्थ्य के लिए यह अति आवश्यक है, अन्यथा समाज वहीं रह जायेगा व परिवर्तनों को अपने में सामाहित नहीं कर पायेगा और अन्त में अपनी मूल्यहीनता को प्राप्त होगा। हाँ इन विभिन्न मूल्यों को हर व्यक्ति अलग-अलग ढंग से ग्रहण करता है, यह उस व्यक्ति के परिवेश अनुभव ज्ञान, कार्यक्षेत्र और जीवन शैली जैसी अन्य कई बातों से भी प्रभावित होता है।
श्री अरुण कुमार जैन द्वारा लिखा यह उपन्यास अपने आवरण में एक कहानी कहता है जो उनके युवा होने पर लिखी गयी और वहीं समाप्त हुयी। वर्षों तक यह बंद रही या जो हर साहित्यकार को कभी झेलना पड़ता है उसी दंश का शिकार रही। मुझे प्रसन्नता है कि उनकी यह कृति संजोग एक परिमार्जित आवरण में सूर्य के आलोक के साथ साक्षात्कार कर रही है।
कुछ लिखूँ यह उसका आग्रह था। कई बार पढ़ा कुछ अंशों को जिया। कुछ लिखना उस समय मुश्किल होता है जब आप उस उपन्यास के स्वंय पात्र हों और साथ ही उसकी भूमिका लिख रहे हों। इस कृति की कहानी का पात्र बनाना मेरी स्वीकृति से ही हुआ है। उपन्यासों में यह एक नया प्रयोग ही होगा। इस कृति में मेरी व मेरी सहधर्मिणी की कवितायें तो हैं ही, मेरे और सहयोगी साहित्यकारों की रचनाएं भी हैं। उन पर कुछ भी कहना या विचार प्रकट करना मुझे उचित नहीं लगता, इसका निर्धारण सुधी पाठक स्वयं करें। इस विषय में मात्र इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के लिये वह एक ऐतिहासिक क्षण था जब एक ही मंच पर हिंदी के पच्चीस से अधिक कवि-कवियत्रियाँ थे और सैकड़ों श्रोताओं ने उनकी विभिन्न रसो से परिपूर्ण रचनाओं का भरपूर आनंद लिया। यह कहकर मैं अपनी आत्म प्रशंसा नहीं करना चाहता, इस तरह के विचार हिंदी के कई प्रबुद्ध हस्ताक्षरों व श्रोताओं द्वारा इस आयोजन के बाद व्यक्त किये गये। यह भुवनेश्वर के साहित्य सेवियों के लिये अभी भी एक उपलब्धि है। कविताएं वही सम्मिलित की गयीं, जो वहाँ पढ़ी गयीं। मैं श्री जैन के इस साहसिक कार्य के लिए उन्हें हृदय से बधाई देता हूँ। मेरा एक निवेदन है आप उन्हें पढ़ें केवल कुछ पंक्तियों एक बार, उनका रसास्वादन करें, पुनः आगे पढ़ें।
उपन्यास में एक सुन्दर कहानी है जो अपनी लय के साथ-साथ चलती है जिसमें साहित्य के कई सुन्दर गुण समावेशित है। इसमें प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण बड़ी सुघड़ता से किया गया है, वह चाहे पुरी के समुद्रतट का वर्णन हो, डॉलफिन का क्षेत्र सातपौड़ा के नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन हो या इलाहाबाद से सोन की ट्रेन की यात्रा में गाँवों का वर्णन हो, इन सभी जगहों पर यह सौंदर्य उभरकर आया है।
ट्रेन की यात्रा में एक छोटी सी बालिका छलोनी (सलोनी) के माध्यम से या नायिका की छोटी बहिन दीप्ति के माध्यम से बाल स्वभाव का लुभावना चित्रण हैं। कृति में जिये गये पात्रों का अनुकरण कर आज परिवार व समाज की विसंगतियां समाप्त हो सकती हैं। कथा का नायक अंशुल हर स्थान पर सर्वप्रिय पात्र है तो नायिका रुचि उससे भी अधिक धैर्य, दृढ़ता संयम व आत्मानुशासन का परिचय देने वाली नायिका है। जो प्रेम को अधिक अपने व्यक्तिगत लाभ या हित से अधिक ‘परजन हिताय परजनसुखाय’ की भावना से स्वीकार कर / आत्मसात कर एक नवीन संसार का सृजन करती है, जो सभी को सुखकारी होता है, इसी परिणाम स्वरूप कहानी की दूसरी नायिका, रुचि की सौत न बनकर सहेली व उपासिका बन जाती है।
कहानी के प्रात्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते है व कहानी बिना खलनायक/ खलनायिका के ही गतिमान होकर पूर्णता प्राप्त करती है।
लेखक का प्रयास बहुत ही प्रशंसनीय है। साहित्य प्रेमी पाठक जब भी इसे पढ़ना प्रारंभ करेंगे, लेखक की अन्य कृतियों की तरह इसे भी बिना पूरा पढ़े नहीं छोड़ेगे। यह उपन्यास जो 22 वर्ष पूर्व के परिवेश में लिखकर हाल ही में पूर्णता को प्राप्त कर सका, में एक साथ दो पीढ़ियाँ अपने प्रतिबिंब इसमें पायेगी।
यह मात्र एक उपन्यास ही नहीं एक सुखद यात्रा वृत्तांत भी है। जैसे ही आप ट्रेन में सवार होते हैं कैसे अपने गंतव्यों तक (उड़ीसा) पहुँचते हैं, सब एक भोगा हुआ सत्य है। इतना सजीव चित्रण लगता है आप उस ट्रेन में स्वयं यात्रा कर रहे हों। यात्रा के मध्य आने वाले स्थानों का परिचय देकर श्री जैन ने बहुत ही अच्छी आवश्यक तथ्यपरक सूचनायें दी हैं, यह यात्रियों विशेषरूप से पर्यटन के उद्देश्य से भ्रमण करने वाले सैलानियों के लिए सुगम सुबोध रूप से प्रस्तुत किया गया है।
उड़ीसा अपने चक्रवात (सुपर साईक्लोन) के साथ ही जगन्नाथ जी के कारण प्रसिद्ध हैं। अधिकांश लोग इतना ही जानते हैं लेकिन वहाँ इतना अधिक है जो आज भी हमें अन्जाना अन्चीन्हा सा है। भुवनेशवर, पुरी, कोणार्क, कटक, आदि की यात्रा करके उसे वहाँ उपलब्ध कराया गया है। वर्षों से उड़ीसा में रहने वाले भी उन स्थानों के विषय में इतनी विस्तृत जानकारी नहीं रखते, यह वर्णन निश्चित रूप से देश के नागरिकों को उड़ीसा की यात्रा करने को प्रेरित करेगा। इस प्रेरणा के लिये श्री अरुण जैन साधुवाद के पात्र है।
जब आप उपन्यास को पढ़े तो उसमें प्रकट किए गये विचारों को उपन्यास के पात्रों की मानसिकता का प्रतिबिंब मानें, लेखक के स्वयं के विचार न मानें। सत्य तो यह है कि कोई बिंब किसी भी पंथ का देवता या देवी हो सकते है। हमें तो प्रसन्न होना चाहिए कि कोई आज भी उनकी पूजा अर्चना कर रहा है। विभिन्न रूपों में यदि हम एक ही ईश्वर मान लें तो तेरा-मेरा के झगड़े स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे, बशर्ते की आज पूजा करने वालों के अपने व्यक्तिगत स्वार्थ, धन में लिप्सा, लोभ या पूर्वाग्रही वृत्ति इसमें समाहित न हो।
श्री जगन्नाथ जी के विषय में कुछ स्पष्टीकरण देना चाहता हूँ श्री जगन्नाथ जी कौन है ? वह परम पिता परमेश्वर है, किसी भी पंथ के हो सकते हैं, वह तो वहां मानव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। हर भक्त को अपनी भावनानुरूप ही उसी रूप में दिखते है। वे तरह-तरह के रूप धारण करते है, बीमार होते है, भ्रमण हेतु जाते हैं, नौका बिहार करते हैं। आठ से अठारह वर्ष के मध्य अपना कलेवर बदलते हैं, नव कलेवर धारण करते हैं। मंदिर में पुराना है, नया है वहाँ कोई जाति नहीं सभी एक-दूसरे के साथ-साथ खा सकते हैं। अन्न का दाना गिरने पर उसे उठाकर माथे पर लगाते हैं और श्रद्धा से ग्रहण करते हैं।
उड़ीसा वासियों का जीवन श्री जगन्नाथ जी से इतना अप्लावित है कि उनके बिना उनके जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह बात अन्य स्थानों के लिए नहीं की जा सकती। पुरी के मंदिर में ब्रह्मगादी है जहाँ ज्ञानी पण्डित बैठते है। श्री जगन्नाथ जी के विषय में अपने विचार प्रकट करते हैं तथा उन सभी का निर्णय ही मान्य होता है। देखिए श्री जगन्नाथ जी की बात पर मैं भी बहक गया।
श्री अरुण कुमार जैन का उपन्यास ‘संजोग’ हर उम्र के लोगों की जीवनशैली, चिंतन, मनोभाव व परेशानियों पर बेबाक चर्चा करता है, बिना किसी पर कुठाराघात किये, बिना किसी बहस के समाप्त होता है। आपको जब लगता है कि परेशानी प्रारंभ हुई यह आज के टी. वी सीरियलों की तरह लम्बा खिचेंगा वह वहीं अच्छे परिणामों के साथ समाप्त होता है और एक नया स्वाभाविक आयाम प्रस्तुत करता है। पाठक इस नाविक के समान हो जाते हैं, जिनकी नैया मंझदार में है और वह स्वयं सो गया है।
पर फिर भी इस उपन्यास का पाठक मंझधार से स्वतः निकल, नदी के प्रवाह के साथ किनारे पर आ जाता है। ‘संयोग’ सचमुच में संजोग ही है जीवन के किस क्षण में हम सभी के लिए न जाने क्या सौगात मिले, हाथ में आते-आते लक्ष्य छूट जाता है और निराशा के गहन तम में फंसे रहने पर भी स्वर्णिम आलोक की रश्मियां दूर कहीं से आकर, उमंग, उत्साह, प्रेम, सृजन व उल्लास के झरने हमारे चारों ओर निर्झरित कर देती हैं, यही तो संजोग है। तब लगता है हम तो मात्र किसी मंच पर निर्देशक द्वारा चलने-फिरने वाले पात्र ही हैं नियंता कोई और नहीं है।
उपन्यास की सरल भाषा सरल, सहज, बोलचाल की सहज ग्राह्य भाषा है। लगता नहीं पात्र किसी और दुनियाँ के हैं। वे हमारे बीच ही प्रकट होते हैं।
हमारी ही भाषा बोलते हैं व हम जैसा ही उनका स्वभाव है, इससे इन सभी की ग्राह्यता सहज हो जाती है।
मुझे विश्वास है कि श्री जैन की यह कृति संजोग साहित्य जगत में लोकप्रियता पाकर अपनी अलग पहचान बनायेगी, समाज को सकारात्मक चिंतन की ओर मोड़ेगी व उड़ीसा की यात्रा हेतु देश के लाखों नागरिकों को लालायित करेगी तथा लेखको को अपनी सामाजिक दृष्टि चिंतन व शिल्प की सुघड़ता के कारण हिंदी साहित्यकारों की समर्थ पंक्ति में और उच्च् स्थान पाने की ओर अग्रसर करेगी।
सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
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लोगों की राय
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