श्रंगार - प्रेम >> अधूरी प्रेम कहानी अधूरी प्रेम कहानीरेवती सरन शर्मा
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प्यार और वासना के इर्द-गिर्द घूमती जिंदगी की बहुरंगी समस्याओं को यथार्थ अभिव्यक्ति देनेवाला एक भावनापूर्ण सामाजिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रेम
प्रेम की भावना ने कथा, कविता और कलाओं को जितना प्रेरित किया रिश्तों में
जितने तनाव पैदा किये नैतिकता अनैतिकता के जितने सवाल उठाये सुख-दुख,
आल्हाद और कसक जितने इसने दिये जितने जीवन और जितने भविष्य इसने दाव पर
लगाये उतने किसी और भावना ने मनुष्य के भाग्य में नहीं लिखे।
प्रेम को पाने, भोगने और एक ‘मानवीय’ परिस्थिति में स्वयं पीछे हट जाने, यादों को सीने से समेट कर पता नहीं कैसे जीने, कितना तड़पने और जीते जी मर कट और मरते मरते जीने की कहानी है यह उपन्यास।
यह कहानी है एक आधुनिक लड़की अर्चना की। इश्क और अपनी मां की जिम्मेदारी की सूली पर टंगी रजिया मिस ‘ऑटोमोबील’ यानी अनीता की, जो कारों की थी, कारों की ही रही और कारों ही में जीवन-रहस्य पा गयी।
यह उपन्यास प्रेम को कोरी ‘भावना’ मान कर नहीं चलता। इसमें शरीर को शामिल करता है। इसलिए इसमें शरीर की मांसलता वह शायरी है जिसकी रचना महाकवि कालीदास ने की, पर हम नहीं करते।
प्रेम को पाने, भोगने और एक ‘मानवीय’ परिस्थिति में स्वयं पीछे हट जाने, यादों को सीने से समेट कर पता नहीं कैसे जीने, कितना तड़पने और जीते जी मर कट और मरते मरते जीने की कहानी है यह उपन्यास।
यह कहानी है एक आधुनिक लड़की अर्चना की। इश्क और अपनी मां की जिम्मेदारी की सूली पर टंगी रजिया मिस ‘ऑटोमोबील’ यानी अनीता की, जो कारों की थी, कारों की ही रही और कारों ही में जीवन-रहस्य पा गयी।
यह उपन्यास प्रेम को कोरी ‘भावना’ मान कर नहीं चलता। इसमें शरीर को शामिल करता है। इसलिए इसमें शरीर की मांसलता वह शायरी है जिसकी रचना महाकवि कालीदास ने की, पर हम नहीं करते।
अधूरी प्रेम कहानी
इस उपन्यास में आप पायेंगे ‘सौंदर्य’-शरीर का,
मांसलता का, कल्पना का, भावना का, भाषा का, शहरी वातावरण और उच्च वर्ग का।
और अन्त में भावुकता और एक मानवीय ‘सोच’ का।
अनीता कहती है :
‘‘साली, तेरी रंगों में खून है कि पानी ! किसी आदमी से स्पार्किंग पैदा नहीं होता।’’
मैं जवाब देती हूं :
‘‘तू लड़की है कि गीगर-काउंटर। जो भी कार वाला तेरे पास से गुजरता है, तू धौं धौं करने लगती है।’’
अनीता एक बड़े मोटर इंजीनियर की बेटी है। मेरे पिता कस्टम्स के बड़े अफ़सर हैं। इसलिए हमारी बोलचाल में हमारे पिताओं के पेशे के मुहावरे आ जाते हैं।
लेकिन मज़ाक बरतरफ़, यानी मज़ाक दूर कर दें, तो अनीता जो कहती है, उसमें बड़ी सच्चाई है। बी.ए. के तीन और एम.ए. के दो–ये पांच साल यूनिवर्सिटी में गुज़ार आयी, लेकिन एक बार दिल ने नहीं कहा, ‘इसे देख, कितना स्मार्ट, कितना क्यूट है ?’’
ऐसा नहीं कि यूनिवर्सिटी में खूबसूरत और स्मार्ट लड़कों की कमी थी। एक से एक डैंडी और ‘डॉन-जुआं’ थे, और उन्हेंने अटैंशन भी पे की। बहुतों ने अपने बापों की इंपोर्टिड कारों से गुजरते हुए, आहें, ‘फ्लाइंग किस’ और गुलाब और डेलिया के फूल फेंके। अपने चमचों के गले में बांहें डाल कर अपनी टी शर्ट के खुले गले से अपनी बालों भरी चौड़ी छातियां भी दिखायीं। अनीता कहती रही, ‘इसे देख क्या क्रिकिटियर है। क्या टेनिस का खिलाड़ी है। क्या स्कॉलर है। साली इसे तो देख, यह गाता ही नहीं, स्टेज और रेडियो का स्टार भी है।’
लेकिन निगाह गयी और लौट आयी। यू.पी.एस.सी. के चेयरमैन ने किसी को न चुना। यही नहीं, अवरुचि इस इंतहा को पहुंची कि जो इश्क करती थीं, उनकी खिंचाई करना मेरा पेशा बन गया था।
‘‘अबे शुषमा, आज तेरा नकटू नजर नहीं आ रहा ?’’
‘‘ऐ, तेरा पॉकिट ट्रांजिस्टर आज क्या हुआ ?’’
‘‘यार, कल रानी का बाय फ्रैंड दीखा था। जी चाहा उसे होटल वैंगरस के हैड कुक के पास ले जाऊं और कहूं, सलाद के लिए चुंकदर नहीं मिल रहा तो क्या, यह तो है !’’
शीला के आशिक को मैंने झींगर, रज़िया के मंगेतर को जिराफ़ और अज़रा के होने वाले मियां को मि. हिप्पोपोटोमस नामों से इस तरह मशहूर कर दिया था कि अब वे अक़सर खुद उनका जिक्र इन्हीं नामों से करने लगी थीं।
अनीता का मैंने और तरह नाका बंद कर रखा था। सारी यूनिवर्सिटी में उसे ‘मिस ऑटोमोबील’ के नाम से मशहूर कर दिया था, क्योंकि वह लड़कों से ज्यादा उनकी कारों पर मरती थी।
‘‘तूने देखा उसे ? उसके पास क्या बढ़िया कार है ! उसने हमें उस दिन लिफ़्ट दिया, क्या स्मूथ ड्राइव थी ! बियरिंग इतने अच्छे कि ज़रा रैटलिंग नहीं करती। और इंजिन की बीट-एकदम परफेक्ट।’’
उसके तीन अफेयर हुए और तीनों लड़कों से ज़्यादा उनकी कारों का दखल था। अब जिससे शादी कर रही है, उसमें भी लंबी अमरीकी कैडलियक कार का दखल है। मैंने कई बार कहा कि साली किस ओवरसाइज़ आदमी से शादी कर रही है ? उसके हाथ देख, चेहरा देख, नाक के नथुने देख। किसी दिन गहरा सांस लिया तो मेज़ की चीजों के साथ उड़ कर उसके नथुनों में चली जायेगी।
लेकिन अनीता की एक ही रट है :
‘‘हाय, तूने उसकी कार नहीं देखी। क्या लंबी शानदार कार है ! छोटे ड्राइंग रूमों जितनी तो उसकी डिक्की है।’’
एक दिन वह हांफती हांफती आयी, ‘‘अर्चना ! सतीश के एक दोस्त हैं। अभी जर्मनी से आये हैं। हाय, क्या मर्सीडीज बैंज लाये हैं। तेरी शादी की बात चलवाऊं ?’’
यही नहीं, एक दिन सचमुच उसे गेलार्ड में ले आयी। उससे चाबी ले कर उसकी दूधिया रंग की मर्सीडीज में प्रेसीडैंट्स एस्टेट का चक्कर लगवा कर बोली, ‘‘बोल, पसंद हो तो ऑफर मिजवाऊं ?’’
‘‘शादी सिविल मैरिजेज़ एक्ट के अंडर होगी या मोटर विहिकल रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंडर ?’’
अनीता मेरी बात नहीं समझी, मुझे ऐसे देखती रही, जैसे उसकी समझ में न आ रहा हो कि शादी का भला सिविल मैरिजेज़ एक्ट से क्या ताल्लुक है।
‘इस तरह यूनिवर्सिटी के पांच साल गुज़र गये और बक़ौल अनीता मेरे इग्निशन सिस्मट में न कोई विस्फोट हुआ, न सूटकेस में कपड़ों के नीचे नीले लिफ़ाफ़ों का ढेर लगा।
इधर पिताजी ने मुझे दिखाने के लिए बहुत से फ़ोटो माता जी को दिये। लेकिन पता नहीं फोटो किस कैमरे से खिंचे थे कि सब एकदम ‘स्टिल-बॉर्न’ लगे। अच्छी नौकरियां और उच्च घरानों के आकर्षण, क़ुतुबनुमा की सुई को न हिला सके और मुझे कहना पड़ा, ‘‘ये कोई आदमी हैं ? मुझे कतई पसंद नहीं।’’
तंग आकर एक दिन अनीता ने श्राप दिया, ‘‘कभी मुंह के बल ऐसी गिरेगी कि उठना चाहेगी पर उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा।’’
लेकिन ‘मिस ऑटोमोबील’ सचमुच दुर्वाशा की बेटी निकलेगी, मैंने ख्वाब में भी न सोचा था। मैं दिनों और महीनों के कैलेंडर के कागज़ों को फूंक मार मार कर उड़ाती रही, लेकिन अनीता झंडिया हिला हिला कर अपनी ज़िंदगी की कार को पास बुलाती गयी और एक दिन मैंने देखा, एक नहीं, सैकड़ों कारें उसकी कोठी के आगे आ कर रुक रही हैं। उनमें से मेहमान उतर रहे हैं। उसके पिता गुलाबी साफा बांधे सबका स्वागत कर रहे हैं। एक तरफ कमखाब की शेरवानियां और टोपी पहने शहनाई बजाने वाले बैठे हैं। वे बजाते बजाते अपनी शहनाइयों को मुंह से निकाल कर झटकते और उन्हें साफ करके फिर बजाने लगते हैं। इस हंगामे के बीच अनीता सजी-बनी बैठी है। आज कमबख़्त सचमुच ख़ूबसूरत लग रही है। न जाने शादी के दिन क्या हो जाता है कि लड़की एकदम खू़बसूरत हो जाती है। मेरे अंदर एक हूक सी उठती है-चाव ? ईर्ष्या ? अभाव ? स्पर्धा ?
फिर बारात आ जाती है। स्वागत होता है। वरमाला पहनायी जाती है। अब अनीता और उसका ओवरसाइज़ मियां कीमती कालीन से ढंके सोफ़े पर एकसाथ बैठे हैं। उनके गिर्द लड़के-लड़कियां और रिश्तेदारों का हुज़ूम है। मूवी से रील ली जा रही है।
अनीता की शादी हो रही है। अनीता की शादी हो गयी।
आज अनीता के मियां ने रिसेप्शन दिया है और मुझे बुलाया है। अनीता ने सुबह सुबह फ़ोन किया, ‘‘आज तू नहीं आयी तो मेरी कार तेरे दरवाज़े के सामने से बिना रुके निकला करेगी।’’
अनीता अब भी ‘मिस ऑटोमोबील’ ही है।
मैं रिसेप्शन में जाती हूं।
अनीता दो ही दिन में कुछ मोटी नज़र आती है। लगता है यह भी ओवरसाइज़ होने जा रही है। उसका मियां आता है-डिनर सूट पहने, हाथ में गिलास लिये। वह बड़े अदब से झुकता है। मगर मुझे उसके ओवरसाइज़ नथुने ही नज़र आते हैं। मुझे वह आदमी कम, अपनी लंबी गाड़ी का ‘ऑड साइज़ गैराज’ ज़्यादा नज़र आता है। वैसे मुझे वहां सब कुछ ओवरसाइज़ ही मिलता है।
‘‘ये चेंबर क्लब के सैक्रेटरी हैं।’’
मैं हैरान रह जाती हूँ कि आम पने के सूटिंग से इनका सूट कैसे बनता होगा ?
‘‘ये नाभे की एक्स प्रिंसैस हैं।’’
मेरी समझ में नही आता सिल्क के ब्लाउज और रीयल जार्जट की साड़ी में इतना रबड़ फोम किस तरह ठूंस ठूंस कर भरा गया है।
‘‘तान एक बेडिंग केक पर टूटती है, लगता है उसे भी कुतुब में गड़ी लोहे की लाट की तरह इसलिए ‘ओवरसाइज़’ बनाया गया है कि जो उसे आरे के बजाय छुरी से काटे, वही असल मां-बाप का।
अनीता और उसका ओवरसाइज़ मिआं मिलकर ओवरसाइज़ केक काट देते हैं और अनीता एक ओवरसाइज़ टुकड़ा अपने मियां के मुंह में और मियां अनीता के मुंह में दे देते हैं। अब दोनों के मुंह केक से भरे हैं। उनके हलक़ इतने बड़े केक के टुकड़ों की डिलिवरी लेने से इनकार कर रहे हैं।
जहां केक रखा था, वहां अब सिर्फ केक के नीचे का कागज़ है। अब खाने की मेज़ों की बारी है। मुझे सबसे बेज़ारी है। अनीता मुझे अपने पास रखना चाहती है। लेकिन बार बार उसकी पहलवाननुमा ननद आती है और उसे किसी से मिलाने ले जाती है, मैं फिर अकेली खड़ी रह जाती हूँ। कॉलिज की और लड़कियां भी आयी हैं, पर बेशतर अपने बॉय फ्रैंडों के साथ। वैसे भी खाने की मेज़ों ने कम को किसी और काम का छोड़ा है। इसलिए मैं अकेली हूं।
एकाएक ऐलान होता है, ‘‘साहबान, आप लोग जल्दी से फ़ारिग हो जायें। म्यूज़िक का प्रोग्राम होगा।’’
लोगों को यह दख़ल-दर-माकूलात अच्छा नहीं लगता। वे एक बार मुड़ कर देखते हैं, फिर खाने में जुट जाते हैं। मुझे उन पर रहम आता है जो आयेंगे, गायेंगे और जिन्हें कोई नहीं सुनेगा।
थोड़ी देर बाद लोगों को घेर घेर कर गाने के बाड़े की तरफ लाया जाता है। यहां मंच बना है और मायक्रोफ़ोन रखा है। एक साहब मंच पर आते हैं। ये जोकर हैं। आजकल दिल्ली में दो-तीन गाने वाले और एक जोकर मिल कर एक पार्टी बना लेते हैं और शादी के मौकों पर गाना न सुनने वालों को गाना सुनाने की कोशिश करते हैं। जोकर सूटेड-बूटेड है। वह दो-तीन लतीफ़े सुनाते हैं। लोगों का विरोध, उनकी जड़ता कुछ कम होती है। वे सब्र करना शुरू कर देते हैं कि पार्टी खायी है तो गाना भी गले से उतारना होगा।
एक गाने वाला आता है, फिर एक गाने वाली, फिर जोकर, फिर गाने वाला और गाने वाली मिल कर, एक-दो गाना गाते हैं। लोग जाते भी रहते हैं। फिर भी ज्यादातर लोग शरमदार हैं, ठहरे रहते हैं।
‘‘अब आपको श्री रंजन कुमार सितार सुनायेंगे।’’
मैंने रंजन कुमार को देखा नहीं, पर उनका नाम सुना है, शायद सितार भी सुना है, रेडियो पर। लेकिन लोग अब वाक़ई बेचैन हो जाते हैं। एक रिसेप्सन की इतनी ज्यादा कीमत ! बेशतर लोग खिसकने वाले होते हैं कि कुरता-पाजामा और सफेद शाल ओढ़े एक आदमी स्टेज पर आता है। बैठता नहीं, सीधा मायक्रोफोन पर आता है :
‘‘देवियो और सज्जनो !
मैं आपके साथ ज़ुल्म कर लूं, अपनी सितार के साथ नहीं करूंगा। मुझे मालूम है आप सितार सुनने नहीं, रिसेप्शन की दावत खाने आये हैं। इसलिए मैं उस वक़्त सितार बजाऊंगा जब रिसेप्शन खाने वाले चले जायेंगे और वे लोग रह जायेंगे जिन्हें घर पर जा कर खाना नहीं पकाना, बच्चे नहीं देखने और जिनके लिए सितार सुनना ज़ुल्म नहीं है। आप में से जाने वाले जा सकते हैं।’’
वह स्टेज से उतर जाता है।
मेरे दिल से निकलता है-‘आदमी है।’
आधा घंटे बाद जब प्रोग्राम शुरू होता है तो पंद्रह-बीस आदमी रह जाते हैं। लेकिन सितार बजाने वाला खुश है। उसने अपने लिए तख्त और सुनने वालों के लिए कुर्सियां कोठी के पीछे लॉन में उस जगह लगवा दी हैं, जहां रातरानी की झाड़ियां और गुलाब की क्यारियां हैं। वह रोशनी नहीं लगवाता, क्योंकि आसमान में बड़ा सा चांद है जो पेड़ों से ऊपर आ चुका है और उसके चेहरे पर चमक रहा है।
मैं इस इंतज़ाम को पसंद करती हूं।
वह सितार के तारों को तिजराब से छेड़ कर उनका कसाव देखता है। अपने सामने सितार की पोजीशन ठीक करता है। जब तबले वाला भी अपनी तैयारी और तसल्ली की सूचना दे देता है, तो बोलता है :
‘‘साहबान, मैं पूरा अलाप बजाऊंगा। अलाप वातावरण बनाता है। आपके कानों में संगीत के लिए जगह बनाता है। आप आने वाले संगीत के क़दमों की चाप सुनते हैं, पहले धीमी धीमी, फिर तेज़। आप उसके लिए अपना घर ठीक कर लेते हैं। बन-संवर कर तैयार हो जाते हैं और जब वह आता है तो आप उसके स्वागत को मुस्कराते हुए द्वार पर खड़े होते हैं, मेरी गत तभी बेजेगी।’’
वह सितार छेड़ देता है।
उसने सितार कितनी देर बजाया, किसी ने न जाना। सिर्फ़ जब उसने राग पूरा किया तब लोगों ने जाना कि कुर्सियों के हत्थों पर काफ़ी ओस पड़ चुकी है और रात काफ़ी गहरी हो चुकी है। उसने कैसा बजाया, कोई नहीं जानता। बस, सब इतना जानते हैं, वह बजाता रहा था और हम निःशरीर हो कर सुनते रहे थे।
सितार के बाद सब अंदर चाय पीते हैं। फिर उसे कार में भेज दिया जाता है। मेरी भी कार आ जाती है। अनीता और उसका मियां, दोनों मुझे छोड़ने आते हैं। इस बार मुझे उसके मियां के नथुने ‘ओवरसाइज़’ नहीं मालूम होते।
दिन बीतने में हुज्जत करने लगते हैं।
जब तक यूनिर्वसिटी में थी, वक्त कम था। वह ऐसे उड़ता था कि इम्तिहान सिर पर आ जाते थे और हमने कुछ न पढ़ा होता था। अगला दिन बड़ी जल्दी निकल आता था और ‘फुर’ से उड़ जाता था। अब उसके पैरों में सीसा भर गया था।
बच्ची थी तो एक बार अपने ननिहाल गयी थी छोटे से क़स्बे में। वहां मेरी दिलचस्पी का केंद्र एक बिजार था। वह बाज़ार में खड़ा रहता। उसकी एक टांग की हड्डी खुर के पास से टूट गयी थी और ज़मीन से उठी रहती थी। वह एक क़दम आगे बढ़ने के लिए अपनी टूटी टांग को हिलाता रहता था और उस दर्द के लिए अपने को तैयार करता रहता था जो खुर ज़मीन से लगने पर उसको होता था। जब कई बार ज़मीन से खुर छुआने के बाद वह दर्द सहने लायक हो जाता था तो सहसा उस टांग को धरती पर टिका कर झटके से बदन झुला कर एक क़दम आगे ले लेता था और फिर अगले क़दम के लिए टांग हिलाने लगता था।
वक़्त मेरे लिए कुछ ऐसा ही बन गया था।
मैं देर से उठती। हर काम देर से करती। सुस्ती का रिकार्ड तोड़ दिया लेकिन ‘स्लो साइक्लिंग’ की रेस में वक़्त मुझे मात दे गया। बीत कर न देता। सहेलियां बिखर गयी थीं। जो थीं उनके यहां जाने पर लगता, टॉपिक खत्म हो गये और बातें शादी या नौकरी पर आ कर टूट जातीं। पढ़ने का शौक़ कभी न था। जब यूनिवर्सिटी के दिनों में क़िताबों की धूल सिर्फ इम्तिहान आने पर झाड़ी जाती थी तो अब वे क्या साथ देतीं। बोरियत बहुत होने लगी है।
अनीता के यहाँ अक़सर चली जाती हूं। मियां का माल खा कर दुंबा हो गयी है। मगर मोटर कारों का जुनून अब भी वैसा है। जब भी जाती हूं, मेज़ पर बाहर के मैगजीनों का ढेर लगा होता है और जब भी वह कोई मैगज़ीन खोल कर दिखाती है, कार की तसवीर ही होती है।
‘‘देख जनरल मोटर्स ने नयी शैवरलेट निकाली है। यह पैकार्ड है। यह कैडलियक है जो खास तौर पर सऊदी अरब के शाह के लिए बनायी गयी है। इसके आगे की सारी डैकोरेशन प्यारे गोल्ड की है। पर फ्रेंच कारों का जवाब नहीं। हाय, क्या प्यारी प्यारी शक़्लें बनाते हैं ! अभी दिखाती हूं।’’
अनीता एक एलबम उठा लाती है जिसमें कारों की तसवीरें काट काट कर लगायी हुई हैं। मुझे डर है, कहीं अनीता खुद एक कार को जन्म न दे।
मैं अपनी प्रॉब्लम अनीता को बताती हूं। वह तुरंत अपने मियां के दोस्त गिनाने लगती है, ‘‘देख, मि. सिन्हा का तो जवाब नहीं। अभी एस.टी.सी. की सेल से उन्होंने एक लैमन-यलो कलर की ‘कन्वरटिबल रूफ’ कार ली है। ऐसी खुली कार पूरे शहर में नहीं। बंबई के फ़िल्म स्टारों के एजेंट आये हुए थे। मगर बिड में (बोली में) उन्होंने किसी को आगे जाने नहीं दिया। हाय, मैं उसमें बैठ कर आयी। गर्मियों की शाम की सैर के लिए क्या कार है ! मगर तुझे स्कार्फ़ बांधना पड़ेगा वरना हेयर-डू (बना जूड़ा) एक मिनट नहीं टिकेगा।’’
अनीता मुझे अभी से उस कार में मि. सिन्हा के साथ जाते देख रही थी।
रूथ से मिलती हूं। वह सुझाती है,‘‘स्विमिंग, तैरना सीख। मैं तो दस बजे तक स्विमिंग पूल में पड़ी रहती हूं। बदन स्लिम (इकहरा’ रहता है और वक्त का पता ही नहीं चलता। शाम को टेनिस कोर्ट चली जाती हूं।’’
ऐसा ही करती हूं। दस बजे तक स्विमिंग पूल पर रहती हूं। शाम को टेनिस खेलने चली जाती हूं। लेकिन दस बजे से शाम छह बजे तक क्या करूं ? लगता है शादी के सिवा वक्त गुज़ारने का और कोई चारा नहीं। वक़्त का लंगड़ा बिजार खड़े होने के बजाय, मेरी जिंदगी में आ कर बैठ गया है।
मैं कुकरी (खाना पकाने) की क्लास जॉयन करती हूं। इकावा (जापानी ढंग से फूल सजाने) के लैसन लेने जाने लगती हूं। तुमने देखा होगा कभी कभी पैर से धागा लिपट जाता है, उसे खींचने लगते हैं लेकिन वह ख़त्म नहीं होता, क्योंकि उसके दूसरे सिरे पर धागे की पूरी रील होती है। मेरे लिए वक़्त ऐसा ही बन गया है।
हार-थक कर सोना शुरू कर देती हूं। वक़्त-बे-वक़्त, बैड रूम में जा, परदे खींच, सो जाती हूं। लेकिन मालूम होता है, ज़्यादा सोने से पलकें दुखने लगती हैं, सिर में दर्द होने लगता है और सारे बदन में ऐसी बेकली फैल जाती है जैसे कोई तुम्हारी हड्डियों पर बेलन फेर कर तुम्हें ‘फ़्लैट’ कर रहा हो।
यह तो उससे भी बड़ी लानत है।
अनीता वैसे बिलकुल डफ़र है। पांच साल यूनिवर्सिटी में साथ रही, लेकिन एक ब्रिलियैंट बात नहीं की; दूसरे ने कही तो समझी नहीं। रूथ ने उसका नाम ‘डफ़र दि ग्रेट’ रखा। लेकिन इस नाम से बुलाने पर भी वह ऐसे चली आती जैसे रोटी दिखाने पर गाय। मेरी दोस्ती उससे इसीलिए चली आ रही है।
अनीता कहती है :
‘‘साली, तेरी रंगों में खून है कि पानी ! किसी आदमी से स्पार्किंग पैदा नहीं होता।’’
मैं जवाब देती हूं :
‘‘तू लड़की है कि गीगर-काउंटर। जो भी कार वाला तेरे पास से गुजरता है, तू धौं धौं करने लगती है।’’
अनीता एक बड़े मोटर इंजीनियर की बेटी है। मेरे पिता कस्टम्स के बड़े अफ़सर हैं। इसलिए हमारी बोलचाल में हमारे पिताओं के पेशे के मुहावरे आ जाते हैं।
लेकिन मज़ाक बरतरफ़, यानी मज़ाक दूर कर दें, तो अनीता जो कहती है, उसमें बड़ी सच्चाई है। बी.ए. के तीन और एम.ए. के दो–ये पांच साल यूनिवर्सिटी में गुज़ार आयी, लेकिन एक बार दिल ने नहीं कहा, ‘इसे देख, कितना स्मार्ट, कितना क्यूट है ?’’
ऐसा नहीं कि यूनिवर्सिटी में खूबसूरत और स्मार्ट लड़कों की कमी थी। एक से एक डैंडी और ‘डॉन-जुआं’ थे, और उन्हेंने अटैंशन भी पे की। बहुतों ने अपने बापों की इंपोर्टिड कारों से गुजरते हुए, आहें, ‘फ्लाइंग किस’ और गुलाब और डेलिया के फूल फेंके। अपने चमचों के गले में बांहें डाल कर अपनी टी शर्ट के खुले गले से अपनी बालों भरी चौड़ी छातियां भी दिखायीं। अनीता कहती रही, ‘इसे देख क्या क्रिकिटियर है। क्या टेनिस का खिलाड़ी है। क्या स्कॉलर है। साली इसे तो देख, यह गाता ही नहीं, स्टेज और रेडियो का स्टार भी है।’
लेकिन निगाह गयी और लौट आयी। यू.पी.एस.सी. के चेयरमैन ने किसी को न चुना। यही नहीं, अवरुचि इस इंतहा को पहुंची कि जो इश्क करती थीं, उनकी खिंचाई करना मेरा पेशा बन गया था।
‘‘अबे शुषमा, आज तेरा नकटू नजर नहीं आ रहा ?’’
‘‘ऐ, तेरा पॉकिट ट्रांजिस्टर आज क्या हुआ ?’’
‘‘यार, कल रानी का बाय फ्रैंड दीखा था। जी चाहा उसे होटल वैंगरस के हैड कुक के पास ले जाऊं और कहूं, सलाद के लिए चुंकदर नहीं मिल रहा तो क्या, यह तो है !’’
शीला के आशिक को मैंने झींगर, रज़िया के मंगेतर को जिराफ़ और अज़रा के होने वाले मियां को मि. हिप्पोपोटोमस नामों से इस तरह मशहूर कर दिया था कि अब वे अक़सर खुद उनका जिक्र इन्हीं नामों से करने लगी थीं।
अनीता का मैंने और तरह नाका बंद कर रखा था। सारी यूनिवर्सिटी में उसे ‘मिस ऑटोमोबील’ के नाम से मशहूर कर दिया था, क्योंकि वह लड़कों से ज्यादा उनकी कारों पर मरती थी।
‘‘तूने देखा उसे ? उसके पास क्या बढ़िया कार है ! उसने हमें उस दिन लिफ़्ट दिया, क्या स्मूथ ड्राइव थी ! बियरिंग इतने अच्छे कि ज़रा रैटलिंग नहीं करती। और इंजिन की बीट-एकदम परफेक्ट।’’
उसके तीन अफेयर हुए और तीनों लड़कों से ज़्यादा उनकी कारों का दखल था। अब जिससे शादी कर रही है, उसमें भी लंबी अमरीकी कैडलियक कार का दखल है। मैंने कई बार कहा कि साली किस ओवरसाइज़ आदमी से शादी कर रही है ? उसके हाथ देख, चेहरा देख, नाक के नथुने देख। किसी दिन गहरा सांस लिया तो मेज़ की चीजों के साथ उड़ कर उसके नथुनों में चली जायेगी।
लेकिन अनीता की एक ही रट है :
‘‘हाय, तूने उसकी कार नहीं देखी। क्या लंबी शानदार कार है ! छोटे ड्राइंग रूमों जितनी तो उसकी डिक्की है।’’
एक दिन वह हांफती हांफती आयी, ‘‘अर्चना ! सतीश के एक दोस्त हैं। अभी जर्मनी से आये हैं। हाय, क्या मर्सीडीज बैंज लाये हैं। तेरी शादी की बात चलवाऊं ?’’
यही नहीं, एक दिन सचमुच उसे गेलार्ड में ले आयी। उससे चाबी ले कर उसकी दूधिया रंग की मर्सीडीज में प्रेसीडैंट्स एस्टेट का चक्कर लगवा कर बोली, ‘‘बोल, पसंद हो तो ऑफर मिजवाऊं ?’’
‘‘शादी सिविल मैरिजेज़ एक्ट के अंडर होगी या मोटर विहिकल रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंडर ?’’
अनीता मेरी बात नहीं समझी, मुझे ऐसे देखती रही, जैसे उसकी समझ में न आ रहा हो कि शादी का भला सिविल मैरिजेज़ एक्ट से क्या ताल्लुक है।
‘इस तरह यूनिवर्सिटी के पांच साल गुज़र गये और बक़ौल अनीता मेरे इग्निशन सिस्मट में न कोई विस्फोट हुआ, न सूटकेस में कपड़ों के नीचे नीले लिफ़ाफ़ों का ढेर लगा।
इधर पिताजी ने मुझे दिखाने के लिए बहुत से फ़ोटो माता जी को दिये। लेकिन पता नहीं फोटो किस कैमरे से खिंचे थे कि सब एकदम ‘स्टिल-बॉर्न’ लगे। अच्छी नौकरियां और उच्च घरानों के आकर्षण, क़ुतुबनुमा की सुई को न हिला सके और मुझे कहना पड़ा, ‘‘ये कोई आदमी हैं ? मुझे कतई पसंद नहीं।’’
तंग आकर एक दिन अनीता ने श्राप दिया, ‘‘कभी मुंह के बल ऐसी गिरेगी कि उठना चाहेगी पर उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा।’’
लेकिन ‘मिस ऑटोमोबील’ सचमुच दुर्वाशा की बेटी निकलेगी, मैंने ख्वाब में भी न सोचा था। मैं दिनों और महीनों के कैलेंडर के कागज़ों को फूंक मार मार कर उड़ाती रही, लेकिन अनीता झंडिया हिला हिला कर अपनी ज़िंदगी की कार को पास बुलाती गयी और एक दिन मैंने देखा, एक नहीं, सैकड़ों कारें उसकी कोठी के आगे आ कर रुक रही हैं। उनमें से मेहमान उतर रहे हैं। उसके पिता गुलाबी साफा बांधे सबका स्वागत कर रहे हैं। एक तरफ कमखाब की शेरवानियां और टोपी पहने शहनाई बजाने वाले बैठे हैं। वे बजाते बजाते अपनी शहनाइयों को मुंह से निकाल कर झटकते और उन्हें साफ करके फिर बजाने लगते हैं। इस हंगामे के बीच अनीता सजी-बनी बैठी है। आज कमबख़्त सचमुच ख़ूबसूरत लग रही है। न जाने शादी के दिन क्या हो जाता है कि लड़की एकदम खू़बसूरत हो जाती है। मेरे अंदर एक हूक सी उठती है-चाव ? ईर्ष्या ? अभाव ? स्पर्धा ?
फिर बारात आ जाती है। स्वागत होता है। वरमाला पहनायी जाती है। अब अनीता और उसका ओवरसाइज़ मियां कीमती कालीन से ढंके सोफ़े पर एकसाथ बैठे हैं। उनके गिर्द लड़के-लड़कियां और रिश्तेदारों का हुज़ूम है। मूवी से रील ली जा रही है।
अनीता की शादी हो रही है। अनीता की शादी हो गयी।
आज अनीता के मियां ने रिसेप्शन दिया है और मुझे बुलाया है। अनीता ने सुबह सुबह फ़ोन किया, ‘‘आज तू नहीं आयी तो मेरी कार तेरे दरवाज़े के सामने से बिना रुके निकला करेगी।’’
अनीता अब भी ‘मिस ऑटोमोबील’ ही है।
मैं रिसेप्शन में जाती हूं।
अनीता दो ही दिन में कुछ मोटी नज़र आती है। लगता है यह भी ओवरसाइज़ होने जा रही है। उसका मियां आता है-डिनर सूट पहने, हाथ में गिलास लिये। वह बड़े अदब से झुकता है। मगर मुझे उसके ओवरसाइज़ नथुने ही नज़र आते हैं। मुझे वह आदमी कम, अपनी लंबी गाड़ी का ‘ऑड साइज़ गैराज’ ज़्यादा नज़र आता है। वैसे मुझे वहां सब कुछ ओवरसाइज़ ही मिलता है।
‘‘ये चेंबर क्लब के सैक्रेटरी हैं।’’
मैं हैरान रह जाती हूँ कि आम पने के सूटिंग से इनका सूट कैसे बनता होगा ?
‘‘ये नाभे की एक्स प्रिंसैस हैं।’’
मेरी समझ में नही आता सिल्क के ब्लाउज और रीयल जार्जट की साड़ी में इतना रबड़ फोम किस तरह ठूंस ठूंस कर भरा गया है।
‘‘तान एक बेडिंग केक पर टूटती है, लगता है उसे भी कुतुब में गड़ी लोहे की लाट की तरह इसलिए ‘ओवरसाइज़’ बनाया गया है कि जो उसे आरे के बजाय छुरी से काटे, वही असल मां-बाप का।
अनीता और उसका ओवरसाइज़ मिआं मिलकर ओवरसाइज़ केक काट देते हैं और अनीता एक ओवरसाइज़ टुकड़ा अपने मियां के मुंह में और मियां अनीता के मुंह में दे देते हैं। अब दोनों के मुंह केक से भरे हैं। उनके हलक़ इतने बड़े केक के टुकड़ों की डिलिवरी लेने से इनकार कर रहे हैं।
जहां केक रखा था, वहां अब सिर्फ केक के नीचे का कागज़ है। अब खाने की मेज़ों की बारी है। मुझे सबसे बेज़ारी है। अनीता मुझे अपने पास रखना चाहती है। लेकिन बार बार उसकी पहलवाननुमा ननद आती है और उसे किसी से मिलाने ले जाती है, मैं फिर अकेली खड़ी रह जाती हूँ। कॉलिज की और लड़कियां भी आयी हैं, पर बेशतर अपने बॉय फ्रैंडों के साथ। वैसे भी खाने की मेज़ों ने कम को किसी और काम का छोड़ा है। इसलिए मैं अकेली हूं।
एकाएक ऐलान होता है, ‘‘साहबान, आप लोग जल्दी से फ़ारिग हो जायें। म्यूज़िक का प्रोग्राम होगा।’’
लोगों को यह दख़ल-दर-माकूलात अच्छा नहीं लगता। वे एक बार मुड़ कर देखते हैं, फिर खाने में जुट जाते हैं। मुझे उन पर रहम आता है जो आयेंगे, गायेंगे और जिन्हें कोई नहीं सुनेगा।
थोड़ी देर बाद लोगों को घेर घेर कर गाने के बाड़े की तरफ लाया जाता है। यहां मंच बना है और मायक्रोफ़ोन रखा है। एक साहब मंच पर आते हैं। ये जोकर हैं। आजकल दिल्ली में दो-तीन गाने वाले और एक जोकर मिल कर एक पार्टी बना लेते हैं और शादी के मौकों पर गाना न सुनने वालों को गाना सुनाने की कोशिश करते हैं। जोकर सूटेड-बूटेड है। वह दो-तीन लतीफ़े सुनाते हैं। लोगों का विरोध, उनकी जड़ता कुछ कम होती है। वे सब्र करना शुरू कर देते हैं कि पार्टी खायी है तो गाना भी गले से उतारना होगा।
एक गाने वाला आता है, फिर एक गाने वाली, फिर जोकर, फिर गाने वाला और गाने वाली मिल कर, एक-दो गाना गाते हैं। लोग जाते भी रहते हैं। फिर भी ज्यादातर लोग शरमदार हैं, ठहरे रहते हैं।
‘‘अब आपको श्री रंजन कुमार सितार सुनायेंगे।’’
मैंने रंजन कुमार को देखा नहीं, पर उनका नाम सुना है, शायद सितार भी सुना है, रेडियो पर। लेकिन लोग अब वाक़ई बेचैन हो जाते हैं। एक रिसेप्सन की इतनी ज्यादा कीमत ! बेशतर लोग खिसकने वाले होते हैं कि कुरता-पाजामा और सफेद शाल ओढ़े एक आदमी स्टेज पर आता है। बैठता नहीं, सीधा मायक्रोफोन पर आता है :
‘‘देवियो और सज्जनो !
मैं आपके साथ ज़ुल्म कर लूं, अपनी सितार के साथ नहीं करूंगा। मुझे मालूम है आप सितार सुनने नहीं, रिसेप्शन की दावत खाने आये हैं। इसलिए मैं उस वक़्त सितार बजाऊंगा जब रिसेप्शन खाने वाले चले जायेंगे और वे लोग रह जायेंगे जिन्हें घर पर जा कर खाना नहीं पकाना, बच्चे नहीं देखने और जिनके लिए सितार सुनना ज़ुल्म नहीं है। आप में से जाने वाले जा सकते हैं।’’
वह स्टेज से उतर जाता है।
मेरे दिल से निकलता है-‘आदमी है।’
आधा घंटे बाद जब प्रोग्राम शुरू होता है तो पंद्रह-बीस आदमी रह जाते हैं। लेकिन सितार बजाने वाला खुश है। उसने अपने लिए तख्त और सुनने वालों के लिए कुर्सियां कोठी के पीछे लॉन में उस जगह लगवा दी हैं, जहां रातरानी की झाड़ियां और गुलाब की क्यारियां हैं। वह रोशनी नहीं लगवाता, क्योंकि आसमान में बड़ा सा चांद है जो पेड़ों से ऊपर आ चुका है और उसके चेहरे पर चमक रहा है।
मैं इस इंतज़ाम को पसंद करती हूं।
वह सितार के तारों को तिजराब से छेड़ कर उनका कसाव देखता है। अपने सामने सितार की पोजीशन ठीक करता है। जब तबले वाला भी अपनी तैयारी और तसल्ली की सूचना दे देता है, तो बोलता है :
‘‘साहबान, मैं पूरा अलाप बजाऊंगा। अलाप वातावरण बनाता है। आपके कानों में संगीत के लिए जगह बनाता है। आप आने वाले संगीत के क़दमों की चाप सुनते हैं, पहले धीमी धीमी, फिर तेज़। आप उसके लिए अपना घर ठीक कर लेते हैं। बन-संवर कर तैयार हो जाते हैं और जब वह आता है तो आप उसके स्वागत को मुस्कराते हुए द्वार पर खड़े होते हैं, मेरी गत तभी बेजेगी।’’
वह सितार छेड़ देता है।
उसने सितार कितनी देर बजाया, किसी ने न जाना। सिर्फ़ जब उसने राग पूरा किया तब लोगों ने जाना कि कुर्सियों के हत्थों पर काफ़ी ओस पड़ चुकी है और रात काफ़ी गहरी हो चुकी है। उसने कैसा बजाया, कोई नहीं जानता। बस, सब इतना जानते हैं, वह बजाता रहा था और हम निःशरीर हो कर सुनते रहे थे।
सितार के बाद सब अंदर चाय पीते हैं। फिर उसे कार में भेज दिया जाता है। मेरी भी कार आ जाती है। अनीता और उसका मियां, दोनों मुझे छोड़ने आते हैं। इस बार मुझे उसके मियां के नथुने ‘ओवरसाइज़’ नहीं मालूम होते।
दिन बीतने में हुज्जत करने लगते हैं।
जब तक यूनिर्वसिटी में थी, वक्त कम था। वह ऐसे उड़ता था कि इम्तिहान सिर पर आ जाते थे और हमने कुछ न पढ़ा होता था। अगला दिन बड़ी जल्दी निकल आता था और ‘फुर’ से उड़ जाता था। अब उसके पैरों में सीसा भर गया था।
बच्ची थी तो एक बार अपने ननिहाल गयी थी छोटे से क़स्बे में। वहां मेरी दिलचस्पी का केंद्र एक बिजार था। वह बाज़ार में खड़ा रहता। उसकी एक टांग की हड्डी खुर के पास से टूट गयी थी और ज़मीन से उठी रहती थी। वह एक क़दम आगे बढ़ने के लिए अपनी टूटी टांग को हिलाता रहता था और उस दर्द के लिए अपने को तैयार करता रहता था जो खुर ज़मीन से लगने पर उसको होता था। जब कई बार ज़मीन से खुर छुआने के बाद वह दर्द सहने लायक हो जाता था तो सहसा उस टांग को धरती पर टिका कर झटके से बदन झुला कर एक क़दम आगे ले लेता था और फिर अगले क़दम के लिए टांग हिलाने लगता था।
वक़्त मेरे लिए कुछ ऐसा ही बन गया था।
मैं देर से उठती। हर काम देर से करती। सुस्ती का रिकार्ड तोड़ दिया लेकिन ‘स्लो साइक्लिंग’ की रेस में वक़्त मुझे मात दे गया। बीत कर न देता। सहेलियां बिखर गयी थीं। जो थीं उनके यहां जाने पर लगता, टॉपिक खत्म हो गये और बातें शादी या नौकरी पर आ कर टूट जातीं। पढ़ने का शौक़ कभी न था। जब यूनिवर्सिटी के दिनों में क़िताबों की धूल सिर्फ इम्तिहान आने पर झाड़ी जाती थी तो अब वे क्या साथ देतीं। बोरियत बहुत होने लगी है।
अनीता के यहाँ अक़सर चली जाती हूं। मियां का माल खा कर दुंबा हो गयी है। मगर मोटर कारों का जुनून अब भी वैसा है। जब भी जाती हूं, मेज़ पर बाहर के मैगजीनों का ढेर लगा होता है और जब भी वह कोई मैगज़ीन खोल कर दिखाती है, कार की तसवीर ही होती है।
‘‘देख जनरल मोटर्स ने नयी शैवरलेट निकाली है। यह पैकार्ड है। यह कैडलियक है जो खास तौर पर सऊदी अरब के शाह के लिए बनायी गयी है। इसके आगे की सारी डैकोरेशन प्यारे गोल्ड की है। पर फ्रेंच कारों का जवाब नहीं। हाय, क्या प्यारी प्यारी शक़्लें बनाते हैं ! अभी दिखाती हूं।’’
अनीता एक एलबम उठा लाती है जिसमें कारों की तसवीरें काट काट कर लगायी हुई हैं। मुझे डर है, कहीं अनीता खुद एक कार को जन्म न दे।
मैं अपनी प्रॉब्लम अनीता को बताती हूं। वह तुरंत अपने मियां के दोस्त गिनाने लगती है, ‘‘देख, मि. सिन्हा का तो जवाब नहीं। अभी एस.टी.सी. की सेल से उन्होंने एक लैमन-यलो कलर की ‘कन्वरटिबल रूफ’ कार ली है। ऐसी खुली कार पूरे शहर में नहीं। बंबई के फ़िल्म स्टारों के एजेंट आये हुए थे। मगर बिड में (बोली में) उन्होंने किसी को आगे जाने नहीं दिया। हाय, मैं उसमें बैठ कर आयी। गर्मियों की शाम की सैर के लिए क्या कार है ! मगर तुझे स्कार्फ़ बांधना पड़ेगा वरना हेयर-डू (बना जूड़ा) एक मिनट नहीं टिकेगा।’’
अनीता मुझे अभी से उस कार में मि. सिन्हा के साथ जाते देख रही थी।
रूथ से मिलती हूं। वह सुझाती है,‘‘स्विमिंग, तैरना सीख। मैं तो दस बजे तक स्विमिंग पूल में पड़ी रहती हूं। बदन स्लिम (इकहरा’ रहता है और वक्त का पता ही नहीं चलता। शाम को टेनिस कोर्ट चली जाती हूं।’’
ऐसा ही करती हूं। दस बजे तक स्विमिंग पूल पर रहती हूं। शाम को टेनिस खेलने चली जाती हूं। लेकिन दस बजे से शाम छह बजे तक क्या करूं ? लगता है शादी के सिवा वक्त गुज़ारने का और कोई चारा नहीं। वक़्त का लंगड़ा बिजार खड़े होने के बजाय, मेरी जिंदगी में आ कर बैठ गया है।
मैं कुकरी (खाना पकाने) की क्लास जॉयन करती हूं। इकावा (जापानी ढंग से फूल सजाने) के लैसन लेने जाने लगती हूं। तुमने देखा होगा कभी कभी पैर से धागा लिपट जाता है, उसे खींचने लगते हैं लेकिन वह ख़त्म नहीं होता, क्योंकि उसके दूसरे सिरे पर धागे की पूरी रील होती है। मेरे लिए वक़्त ऐसा ही बन गया है।
हार-थक कर सोना शुरू कर देती हूं। वक़्त-बे-वक़्त, बैड रूम में जा, परदे खींच, सो जाती हूं। लेकिन मालूम होता है, ज़्यादा सोने से पलकें दुखने लगती हैं, सिर में दर्द होने लगता है और सारे बदन में ऐसी बेकली फैल जाती है जैसे कोई तुम्हारी हड्डियों पर बेलन फेर कर तुम्हें ‘फ़्लैट’ कर रहा हो।
यह तो उससे भी बड़ी लानत है।
अनीता वैसे बिलकुल डफ़र है। पांच साल यूनिवर्सिटी में साथ रही, लेकिन एक ब्रिलियैंट बात नहीं की; दूसरे ने कही तो समझी नहीं। रूथ ने उसका नाम ‘डफ़र दि ग्रेट’ रखा। लेकिन इस नाम से बुलाने पर भी वह ऐसे चली आती जैसे रोटी दिखाने पर गाय। मेरी दोस्ती उससे इसीलिए चली आ रही है।
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