लोगों की राय

कहानी संग्रह >> एक कद्दावर औरत

एक कद्दावर औरत

जवाहर सिंह

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :130
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5454
आईएसबीएन :81-85478-41-4

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

23 पाठक हैं

सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों पर करारे चुभते व्यंग्य....

Ek Kaddawar Aurat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

व्यापक सामाजिक सरोकार...मानवीय चिंता...यथार्थ की गहरी पकड़...सतर्क दृष्टि...सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों पर करारे चुभते व्यंग्य—सब मिल कर इन कहानियों को नयी अर्थवत्ता प्रदान करते हैं।

समकालीन वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में व्याप्त तीखे अन्तर्विरोधों को गहराई से उकेरती ये कहानियां न तो भ्रष्ट राजनीति और राजनीति-व्यावसायियों से परहेज करती हैं और न अप-संस्कृति व सामाजिक विसंगतियों के पर्दाफाश से। इन कहानियों में मध्यवर्गीय विडंबनाओं-विद्रूपताओं को भी देखा जा सकता है और निम्नवर्गीय जीवन की त्रासदी को भी।
स्वस्थ जीवन मूल्यों और सुखद भविष्य को लिए संघर्षरत क्रांतिधर्मी जन-मानसिकता के साथ सहभागिता के लिए प्रतिबद्ध प्रस्तुत संग्रह की ये कहानियां समकालीन कथा लेखन की एक विशेष दिशा की ओर संकेत करती हैं।
सधी हुई कलम से लिखी ये पकी हुई कहानियां...मंजी हुई भाषा और फड़कती-मचलती शैली का बेजोड़ दस्तावेज हैं।

यह आदमी


सुधा इस आदमी से अब बुरी तरह तंग आ चुकी है। ‘इस आदमी’ से अर्थात् अपने पति शिवनाथ से। पुराने संस्कारों के कारण वह अपने पति को नाम लेकर तो संबोधित कर नहीं सकती है, किंतु प्रचलित परंपरा के अनुसार अपने बच्चों के नाम लेकर ‘शेखर के डैडी’ या ‘सरो के बाबू’ कह कर भी उसे अपने पति को संबोधित करना अच्छा नहीं लगता। पता नहीं क्यों इस तरह के संबोधनों में उसे ढलती उम्र या बुढ़ापे के अरूआये-बसिआये दांपत्य की बू आती है। इसलिए शिवनाथ के लिए हमेशा ‘इस आदमी’ या ‘यह आदमी’ जैसे सर्वनामों का ही प्रयोग करती है।

शादी के बाद कुछ दिनों तक यह आदमी उसे थोड़ा अटपटा सा...कुछ कुछ झक्की क़िस्म का ज़रूर लगा था, लेकिन वैसा कुछ नहीं जिसको ले कर चिंतित हुआ जाये या इसके बारे में अन्यथा कुछ सोचा जाये। बात-बेबात खीजते-कुढ़ते रहने या छोटी-छोटी बातों पर भी उत्तेजित होकर देर तक बड़बड़ाते-भुनभुनाते रहने जैसी इसकी हरकतों को सुधा इस आदमी का स्वभाव ही मान कर अपने मन को तसल्ली दे दिया करती थी।

उसे विश्वास था कि उसके अनुभवी पिता अपनी बेटी की शादी किसी सिरफिरे पगलेट से नहीं कर सकते। इस आदमी के बारे में पूरी जांच-पड़ताल करके और देख-सुन कर ही उन्होंने उसका रिश्ता तय किया था।
उसके पिता ने इस आदमी को दो साल तक हाई स्कूल में पढ़ाया भी था और इसके पिता से भी उनकी पुरानी जान-पहचान थी। ऐसी स्थिति में धोखा खाने जैसी किसी बात की संभावना नहीं की जा सकती। रिश्ता तय करके पिता जी जब घर लौटे थे तो इस आदमी की तारीफ़ करते नहीं अघाते थे। जो कोई भी लड़के और उसके घर-परिवार के बारे में उनसे पूछता, वे एक ही बात जोर दे कर सबसे कहते, ‘‘देखो भई, हमने धन-दौलत कोठा-अभारी नहीं देखी है, बस केवल लड़का देखा है जो लाखों में एक है। वैसा सज्जन, सच्चरित्र और मेधावी लड़का आज के युग में विरले ही मिलते हैं। ‘सिंपल लिविंग एंड हाई थिंकिंग’ वाला लड़का है। सरकारी नौकरी में भी लगा है। वैसे घर पर साधारण खेती-बाड़ी भी है। उसके पिता मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक पद से पिछले साल ही सेवानिवृत्त हुए हैं। पुरानी जान-पहचान और दोस्ती थी, इसलिये यह काम इतनी आसानी से बन गया, अन्यथा आज के जमाने में सरकारी नौकरी में लगे लड़कों की कीमत कितनी बढ़ गयी है, आप सब लोग जानते ही हैं। मेरी सुधा बिटिया बड़ी किस्मत वाली है कि ऐसा लड़का इतनी आसानी से मिल गया।’’

इसलिये सुधा आश्वस्त थी कि यह आदमी दूसरे लोगों से थोड़ा भिन्न जरूर है, लेकिन पागल-वागल तो कतई नहीं है। वैसे भी, इस आदमी में सुधा को कोई ख़ास ख़राबी नहीं दिखायी देती हैं। पढ़ा-लिखा है, व्यक्तित्व भी आकर्षक है, जुआ-शराब, औरतबाज़ी या इस तरह की कोई बुरी लत भी नहीं है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि शादी के पहले से ही अच्छी सरकारी नौकरी में भी लगा है। लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी कोई ऐसी-वैसी साधारण नौकरी तो नहीं है। इसी नौकरी में रह कर कितने लोगों ने लाखों-लाख कमाये हैं, जमीन-मकान खड़े कर लिये हैं..क्या क्या न कर लिया है। अब कोई कुछ करना ही नहीं चाहे तो इसमें पद और विभाग का क्या दोष?

सुधा जानती है कि उस जैसी एक साधारण शिक्षक की हाई स्कूल पास बेटी को इससे बढ़िया दूल्हा मिल भी कैसे सकता था। अपनी शिक्षा, रूप-गुण और परिवार की स्थिति की सीमाओं को देखते हुए उसने अपने पति के रूप में किसी आई.ए.एस., आई.पी.एस. या बड़े घराने के किसी राजकुमार का सपना भी नहीं देखा था। इसलिये शादी के समय शिवनाथ जैसा सुंदर, स्वस्थ, चरित्रवान और कमाऊ पति पा कर उसने अपने भाग्य को सराहा भी था।
लेकिन तब उसे कहां मालूम था कि यह आदमी ऐसा भी होगा। वेश-भूषा, रहन-सहन और बात-व्यवहार में इतना सीधा-सरल एकदम सिधुआ सा, किंतु भीतर भीतर तितलौकी सा कड़ुवा..कच्चे कोयले की अंगीठी सा अंदर ही अंदर धुंआते-सुलगते रहने वाला तेज आंच में पक रही बेसन की कढ़ी सा भीतर ही भीतर खदबदाते, खौलते रहने वाला...

कभी कभी तो वह इस आदमी की हरकतों से इतनी खीज और झल्ला उठती है कि अपने सिर पर दोहत्थी मार मार कर अपने करम को कोसने लगती है। उसकी समझ में नहीं आता कि यह आदमी सारी दुनिया से खार खाये क्यों बैठा है ! हर बात और हर आदमी से इसे शिकायत ही शिकायत क्यों रहती है ? क्या अपने देश में, अपने समाज में, ऑफ़िसों में, सरकार में कहीं कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है ? क्या कहीं कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा है जो इस आदमी को अच्छा लगे ? जिसकी यह तारीफ कर सके ?

सब लोग जानते हैं कि सरकार ग़रीबों की भलाई के लिए तरह तरह की योजनाएँ चला रही है। लाखों लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठा दिया गया है बेघरबार लोगों के लिए घर बना कर दिये जा रहे हैं। ये सारी बातें तो रोज रोज अखबारों में भी छपती हैं, रेडियो से भी सुनायी जाती हैं। क्या रेडियो और अखबार झूठ बोलते हैं ? लेकिन यह आदमी मानता ही नहीं। जब भी अखबार में ऐसी कोई खबर छपती हैं या रेडियो से सुनायी जाती है, इस आदमी पर बकने-बोलने के दौरे पड़ने लगते हैं। रेडियो और अखबार वालों को गालियां बकने लगता है, ‘‘साले सब के सब सरकार के दलाल बन गये हैं...पैसों पर बिक गये हैं ! ये लोग देश और जनता के गद्दार हैं, झूठ बोल कर लोगों को फुसलाते-बरगलाते हैं। कहां ग़रीबी मिटी है ? किसकी ग़रीबी मिटी है ? लोग तो पहले से भी अधिक ग़रीब होते जा रहे हैं....’’

बकता जायेगा...बकता रहेगा यह आदमी बिना सांस लिये। चाहे कोई सुने या नहीं, इसका भाषण जारी रहेगा। हर समय खीजे-कुढ़े रहना, चिड़चिड़ाये-पिन-पिनाये रहना, बड़बड़ाते-मिनमिनाते रहना। भला यह भी कोई ढंग है ! हमेशा थोबड़ा लटकाये रहेगा, जैसे दुनिया-जहान की सारी विपत्ति इसी के सिर पर आ पड़ी है।

क्या तुम्हारे कुढ़ने-बड़बड़ाने और थोबड़ा लटकाये रहने से कहीं कुछ बदल जायेगा ? क्या देश-दुनिया से अत्याचार, अन्याय, शोषण उत्पीड़न, गुंडागर्दी और रिश्वतखोरी तुम्हारे कुढ़ने बड़बड़ाने से मिट जायेगी ? क्या तुम्हारे चाहने से सरकार पूंजीपतियों-उद्योगपतियों से धन छीन कर गरीबों में बाँट देगी ? क्या मंत्री और नेता लोग अपने सजे-सजाये विशाल बंगलों और फ़्लैटों में झोपड़पट्टी और फुटपाथ वालों को बुलाकर बैठा लेंगे ? अगर कभी इसकी ऐसी आलतू-फालतू बातें सुनते सुनते मन ऊब जाता और कुछ बोल देती हूं तो, इसे जैसे मिर्च लग जाती है और अधिक बौखला कर बोलने लगता है। कहता है, ‘‘जब से बेईमान-दगाबाज़ लोग ख़ुद अपनी कही हुई बातों पर अमल नहीं करते, तो मंच से जनता के सामने ऐसा भाषण ही क्यों देते हैं ? चुनाव के समय झूठे वायदे ही क्यों करते हैं ?’’

अब भला इस सिरफिरे आदमी को कौन समझाये कि मंच से भाषण देना तथा चुनाव के समय लंबी लंबी बातें करना दीगर बात है और उस पर अमल करना दीगर बात। लाखों रुपये जो चुनाव में फूंकेगा, वह किसी न किसी तरह अपने रुपये निकालेगा या नहीं ? फिर उसे आगे भी तो चुनाव लड़ना है। कमायेगा नहीं तो अगले चुनाव में ख़र्च कहां से करेगा ?
माना की हर विभाग और महकमे में कुछ न कुछ गड़बड़ी है। हर ऑफ़िस में भ्रष्टाचार है। काम ठीक ढंग से नहीं होता है। घूस-रिश्वत का बाज़ार है, ग़लत ढंग के लोगों का बोलबाला बढ़ गया है। लेकिन क्या तुम यह सब रोक सकते हो ?

और क्या तुम्हारे पास इन्हें रोकने-बदलने की कूबत है ? जब तुम्हारे किये कुछ होने ही वाला नहीं तो कुढ़-खीज कर अपनी सेहत ख़राब करने से क्या फ़ायदा ? पहाड़ से सिर टकराओगे तो तुम्हारा ही सिर फूटेगा, पहाड़ का क्या बिगड़ेगा ?
जब भी समझाने की कोशिश करती हूं, यह आदमी और भड़क उठता है। लगता है चीख़ने-चिल्लाने और बकवास करने। मुझसे कहता है, ‘‘तुम्हारे जैसे सड़े-गले बीमार दिमाग़ वालों के चलते ही तो इस देश में न सामाजिक परिवर्तन हो पा रहा है, न आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन। सुअर की तरह गंदगी को ही अपना स्वर्ग मान कर जैसे-तैसे अपनी ज़िन्दगी गुज़ार देने वाले लोग ही ऐसी बेहूदी बातें करते हैं। ऐसे ही लोग कहते हैं कि पहाड़ से सिर टकराने से क्या होगा ? ग़लत को ग़लत कहने से क्या होगा ? करने से सब कुछ होता है, सब कुछ हो सकता है, देवी जी ! सब कुछ बदल सकता है। सिर टकराने से पहाड़ भी टूट सकता है। कभी न कभी तो टूटेगा ही। आदमी में बदलने और तोड़ने की इच्छा होनी चाहिए, दृढ़ संकल्प और पक्का इरादा होना चाहिए। अत्याचार-अन्याय को सिर झुका कर चुपचाप सहते रह कर जीने और उसका विरोध करते हुए, उसे अस्वीकार करते हुए जीने में बहुत फ़र्क होता है...बहुत !’’

इसी तरह की अनाप-शनाप बातें बकता रहता है यह आदमी। पूरा पागल है, पागल। मुझे सड़ियल दिमाग़ का और नाबदान का कीड़ा कहता है। भला कोई सही दिमाग़ वाला आदमी अपनी पत्नी को ऐसा कहता है ?

इसी पागलपन के चलते तो आज तक इसकी पदोन्नति तक नहीं हुई। इससे जूनियर शर्मा भाई साहब सहायक अभियंता बन गये। ज़मीन ख़रीद कर इसी शहर में अपना दो मंज़िली मकान बनवा लिया। पांच पांच बच्चों को पब्लिक स्कूल में डाल रखा है। फ़्रिज, टी.वी.; वी.सी.आर., क्या नहीं है उनके घर में ? इधर ख़ुद सरकारी क्वार्टर में रहते हैं और उधर हर महीने डेढ़ हजार रुपये अपने मकान का भाड़ा भी उठाते हैं। और एक यह आदमी है...सत्यवादी राजा हरिश्चंदर ! दो ही तो बच्चे हैं, उन्हें भी नगरपालिका स्कूल में डाल रखा है। बच्चे छिप-छिप कर पड़ोसियों के घर टी.वी. देखने जाते हैं। मैंने कई बार कहा कि न बड़ा वाला तो एक छोटा वाला ही टी.वी. ले लो। किरानियों और चपरासियों तक के घर में टी.वी. आ गया है। क्या उन लोगों से भी हम गये-गुज़रे हैं ? लेकिन इसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन बहुत ज़िद करने लगी तो आलमारी में से सेविंग बैंक की पासबुक निकाल कर मेरे आगे पटक दी, ‘‘लो, देख लो, तीन सो इकतीस रुपये पड़े हैं बैंक में। अगर इतने में टी.वी. मिलता हो तो जाकर आज़ ही ख़रीद लाओ बाज़ार से।’’

भला तीन सौ इकतीस रुपये में कहीं टी.वी. मिलता है ? टी.वी.-फ़्रिज तो गया चूल्हे-भाड़ में, शादी के बाद से आज तक इस आदमी ने कभी एक ढंग की अच्छी साड़ी तक ख़रीद कर दी है मुझे ! कहीं आने-जाने के लिए सिल्क की एक अच्छी साड़ी लेने का मन कितने दिनों से कर रहा है। जब भी कहती हूं, लगता है दुनिया भर का लेक्चर झाड़ने कि इस महंगाई के जमाने में पेट में डालने के लिए कोई मोटा-झोंटा अन्न और तन ढंकने को कैसा भी कपड़ा मिल जाये यही बहुत है। ये सिल्क और टेरेलीन बड़े लोगों के चोंचले हैं। हम लोग ऐसा शौक़ नहीं पाल सकते। जानती हो, इसी देश में लाखों-लाख लोग ऐसे हैं जो कपड़े और अन्न के अभाव में नंगे-भूखे रहते हैं, दवा के बिना घुट-घुट कर मर रहे हैं और तुम चार-पांच सौ रुपये की एक साड़ी पहनना चाहती हो ?

अब इस पगले को कैसे बताया जाये कि उन लाखों-करोड़ों लोगों के अन्न, वस्त्र और दवा के बारे में चिंता करने की जिम्मेवारी सरकार की है, तुम्हारी नहीं। काजी जी को शहर के अंदेशों में दुबला होने की ज़रूरत नहीं। तुम्हारे खद्दर का कुरता-पाजामा पहनने से सिल्क और टेरेलीन की बिक्री इस देश में रुक तो नहीं गयी है !

मैं पूछती हूं, उसी ऑफ़िस में शर्मा भाई साहब भी तो काम करते हैं, सक्सेना जी और तिवारी जी भी तो करते हैं ! तुम्हारी तरह कौन अपने बड़े ऑफ़िसरों और ठेकेदारों से लड़ता-झगड़ता रहता है ? ठीक है, तुम बड़े संत महात्मा हो, तो मत लो घूस-रिश्वत, मत करो ठेकेदारों के बिलों पर हस्ताक्षर, मत करो उनके ग़लत बिल पास, लेकिन दूसरों के पीछे लट्ठ ले कर क्यों पड़े रहते हो ? तुमने क्या दुनिया ज़हान को सुधारने का ठेका ले रखा है ? लेकिन यह आदमी मेरी कुछ सुने तब न ! कभी इस ऑफ़िसर से लड़ाई करके बौखलाया हुआ घर लौटेगा, तो कभी उस ऑफ़िसर से डांट-फटकार खा कर घोंघा जैसा मुंह बनाये घर लौटेगा। ठेकेदार लोग अलग धमकी देते रहते हैं। किसी दिन कोई गुंडा-बदमाश पीछे लगा देगा तब उसकी समझ में बात आयेगी। हड्डी-पसली तोड़ कर रख देंगे सब।

मुझे तो कभी-कभी इस आदमी की हरकतों और बातों पर हंसी भी आती है और रोना भी। अब भला अख़बार में छपी किसी ख़बर को लेकर कोई किसी से गाली-गलौज और हाथापाई करता है ! अभी चार-पांच दिन पहले की ही तो बात है। अख़बार में कोई ख़बर छपी थी कि बिहार के किसी गांव में उच्च वर्ग के लोगों ने हरिजनों के घर में आग लगा दी, जिसमें सात हरिजन ज़िन्दा ही जल मरे। इनमें बच्चे और बूढ़े भी थे।
तिवारी भाई साहब भी वहीं बैठे थे। ख़बर पढ़ने के बाद वे केवल इतना बोले थे, ‘‘ठीक किया बिहार वालों ने, इन लोगों को अपनी औकात पर ला दिया।’’

इतना सुनना था कि यह आदमी अगिया बैताल बन गया। लगा तिवारी जी से तू-तड़ाक करने। ग़ुस्से में आकर उन्हें गालियां बकने लगा, ‘‘देखो, तिवारी, मेरे सामने ऐसी घिनौनी बातें करोगे तो ठीक न होगा। तुममें और जानवर में कोई अंतर नहीं। इतनी शर्मनाक और अमानुषिक घटना घट गयी और तुम कह रहे हो कि यह ठीक हुआ। हरिजन क्या आदमी नहीं हैं ? उन्हें क्या हमारे-तुम्हारे जैसा रहने और जीने का अधिकार नहीं है ? शरम नहीं आती तुम्हें इस तरह की बातें कहते और सोचते हुए ?’’
इस पर तिवारी जी भी भड़क उठे थे। दोनों में हाथापाई की नौबत आ गयी। वह तो पड़ोसी नंदलाल बाबू आ कर बीच-बचाव न करते तो उस दिन न जाने क्या हो जाता।

अब भला अख़बार में छपी ख़बर को ले कर कोई आदमी किसी से झगड़ा करता है। अख़बार में तो रोज़ ही ऐसी झूठी-सच्ची ख़बरें छपती रहती हैं। कौन उसको ले कर अपना सिर धुनता है। कल ही तो ख़बर छपी थी कि पुलिस वालों ने हिरासत में बंद कर एक औरत के साथ ज़बरदस्ती मुंह काला किया। ख़बर पढ़ने के बाद घंटो तक यह आदमी बकता-झकता रहा, सरकार और पुलिस वालों को गालियां देता रहा, अपना सिर पीटता रहा और इसी चिंता में बिना खाये-पीये ही ऑफ़िस चला गया।

यह सब पागलपन नहीं है तो क्या है ? अपने बाल-बच्चों और घर-परिवार की चिंता नहीं है और दुनिया-जहान के बारे में सोच सोच कर अपना ख़ून जलाते रहना। मुझे तो लगता है, यह आदमी कुछ ही दिनों में पूरा का पूरा पागल हो जायेगा। तीन बार नौकरी से सस्पेंड किया जा चुका है, इस बार किसी से लड़ झगड़ लेगा तो वे लोग नौकरी से ही निकाल देंगे। हे भगवान ! तब क्या होगा हमारे बाल-बच्चों का ?
लेकिन अचरज तो मुझे इस बात पर होता है कि आज भी मेरे पिता जी इस आदमी की तारीफ़ करते नहीं थकते। कहते हैं, ‘‘अगर इस देश में थोड़े से नौजवान मेरे शिवनाथ बेटे जैसे हो जायें तो इस देश का नक्शा ही बदल जाये। आज देश को ऐसे युवकों की ज़रूरत है।’’

ख़ाक ज़रूरत है ! ऐसे पागलों से कहीं देश का नक्शा बदलता है। पता नहीं मेरे पिता जी के दिमाग में भी कोई गड़बड़ी शुरू हो गयी है क्या ? न जाने आजकल कैसी एक हवा चली है, बहुत लोग इसी तरह के पागल हो रहे हैं। हे भगवान ! मेरे शेखर और सरो को बचाना इस बीमारी से। सुनती हूं, यह बीमारी खानदानी होती है। तो क्या मेरे बच्चे भी....


विषकन्या



उस दिन ढलती दोपहरी में किसी ज़रूरी काम से सिविल लाइंस जाते हुए महात्मा गांधी मार्ग के पहले चौराहे के गोलंबर के पास लोगों की अच्छी-खासी भीड़ देख कर उत्सुकतावश मैंने भी अपना स्कूटर रोक लिया था। भीड़ की आंखें गोलंबर के बीच में एक ऊंचे चबूतरे पर खड़ी की गयी काले पत्थर की बनी पनिहारिन की उस लंबी—ख़ूबसूरत मूर्ति की ओर केंद्रित थीं जिसके सिर पर रखे बड़े से मटके के भीतर से पानी की चार पतली धाराएं फूट कर तीव्र वेग से ऊपर जाकर उस मूर्ति के आसपास लगी फूलों की क्यारियों को फुहारों से नहलाती हुई नीचे गिर रही थीं। इस समय उस ऊंचे चबूतरे पर पत्थर की पनिहारिन बनी मूर्ति से सट कर एक दूसरी जीवित नारी मूर्ति अवस्था में शांत खड़ी फ़व्वारे की फुहारों में स्नान कर रही थी।

उस जीवित नारी मूर्ति की कमर में केवल एक चुस्त पेंटी थी और ऊपर का भाग आदमजाद एकदम नंगा। उसकी दोनों ढली हुई छातियां बबूल की सूखी डाली में झूलते बया के घोसलों की तरह नीचे लटकी हुई थीं। गरदन तक कटे हुए सिर के बालों को सराबोर करती हुई पानी की धारा उसकी दुर्बल गोरी काया को भिगोती हुई निरंतर नीचे की ओर प्रवाहित होती जा रही थी। सिर के भीगे हुए बाल चेहरे पर चिपक कर उसकी पहचान छिपाने में काफ़ी हद तक कामयाब हो रहे थे।
इस अजीब नजारे को देखने वालों की भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी। पता नहीं, नारी के इस देहमुक्त स्नान का नज़ारा कब से लोगों के केंद्र का आकर्षण बना हुआ था। तभी कहीं से तीन पुलिस वाले आ गये थे। वे उस स्त्री को वहां से नीचे उतर जाने के लिए आदेश देने लगे। लेकिन वह किसी तरह के आदेश से परे थी। चबूतरे पर निर्द्वन्द्व खड़ी वह स्नान करती रही। अंत में दो पुलिस वाले किसी तरह उसे पकड़ कर नीचे सड़क तक लाने में सफल हो गये थे।

देखते देखते आसपास चारों ओर फैल कर खड़े लोगों ने सिमट कर उसे चारों ओर से घेर लिया था। मैं अपना स्कूटर पकड़े अब भी उस भीड़ से अलग खड़ा था। मुफ़्त में निर्वस्त्र नारी कन्या को निकट से देखने का सुअवसर लोगों को शायद बड़ी मुश्किल से मिलता था। अधिक से अधिक निकट से उसे देखने के लिए लोग आपस में धक्कमपेल आगे बढ़ते जा रहे थे। पुलिस वाले भीड़ को ठेल रहे थे कि दो क़दम पीछे हट कर परंतु तीन क़दम आगे की ओर सरक जाती थी।
अंत में पुलिस वालों ने उस तमाशा को ही भीड़ से बाहर निकलाने का फैसला कर लिया था। पुलिस वाले जब उसे भीड़ से बाहर निकाल लाये थे तब उसका नंगापन आधा ढंक चुका था। उसकी कमर से एक तौलिया लिपटा हुआ था और चारखाने का एक गमछा दुपट्टे की तरह उसके कंधे से लिपटा इस प्रकार आगे की ओर फैला दिया गया था कि उसकी अनावृत्त छातियां कुछ हद तक ढंक गयी थीं।

इन तमाशबीनों में भी शायद कुछ ऐसे हयादार लोग थे जिन्हें नारी की अनावृत्त काया की बीभत्सता देखना बर्दाश्त नहीं हुआ होगा और उन्होंने अपना तौलिया और गमछा उदारतापूर्वक दान कर दिया होगा।
अभी तक अपने आसपास खड़े लोगों के मुंह से मैं यही सुनता रहा था कि ‘कोई पगली है।’ एक-दो को तो उसके इस नग्न स्नान को अधिक तर्कसंगत बनाने के लिए ऐसा भी कहते हुए सुना था, कि क्या करे बेचारी....आसमान से कैसी आग बरस रही थी आज दोपहरी में। खुले में कहीं पड़ी होगी बेचारी चढ़ी दोपहरी में...तपिश बरदाश्त न हुई होगी तो फ़व्वारे के नीचे खड़ी हो गयी होगी स्नान करने के लिए....!

तभी सफारी सूट वाले एक नौजवान ने उस सज्जन पर व्यंग्य किया था, ‘‘लेकिन मैंने इस सड़क पर या आसपास के एरिया में बॉब्ड हेयर स्टाइल और पेंटी पहनने वाली किसी मेमनुमा पगली को कभी नहीं देखा है...मैं तो इसी एरिया का रहने वाला हूं।’’
उसकी बात के वज़न से दब कर लोग चुप लगा गये थे। लेकिन भीड़ की आम राय यही थी कि यह औरत पागल ही है। कोई सामान्य औरत इस तरह बीच चौराहे पर नंगी होकर हरगिज़ स्नान नहीं कर सकती।

तभी अचानक भीड़ में एक हलचल सी मच गयी थी। कई लोग उस तरफ़ तेज़ी से बढ़ने लगे थे जहां पुलिस वालों की पकड़ से निकल भागने की कोशिश में वह औरत संघर्ष कर रही थी। पुलिस वाले उसका हाथ पकड़ आगे खींच रहे थे और वह पूरी ताकत से उनसे अपना हाथ छुड़ाने में लगी थी। भीड़ में चर्चा चल पड़ी कि पगली एकदम फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोल रही है...पुलिस वालों को अंग्रेजी में ही गालियां दे रही है और उन्हें जेल भिजवाने की धमकी भी दे रही है।

फिर लोगों ने कहना शुरू किया कि वह पागल नहीं है...ज़्यादा पढ़ने के कारण उसका दिमाग़ कुछ गड़बड़ा गया है।
अब लोग उसे किसी धनीमानी बड़े खानदान की बताने लगे थे। इस बीच उसने लड़ लड़ कर पुलिस वालों की पकड़ से अपने को मुक्त करा लेने में सफलता पा ली थी। पुलिस की पकड़ से छूटते ही वह फिर गोलंबर की ओर दौड़ पड़ी थी और फूलों की झाड़ी के बीच कहीं रखा हुआ अपना सामान उठा लिया था। वहीं खड़े खड़े पहले उसने पैंट और ढीला-ढाला सा एक कुरता पहना था। फिर बड़े आकार का चौकोर शीशे वाला गॉगल्स लगा सैंडिल पहन कर जब उसने चमड़े का एक छोटा सा बैग कंधे से लटका लिया तो लोग अश अश करने लगे थे। अब वह सचमुच किसी विदेशी पर्यटक मेम की तरह लगने लगी।

भीड़ के साथ पुलिस वाले भी भकुआए से खड़े खड़े कौतूहल के साथ वह सब देखते रहे थे।
जब वह भीड़ के बीच से निकल कर आगे बढ़ी थी और ठीक मेरे सामने से गुज़रने लगी थी तो अचानक ही मेरे मुंह से एक चीख़ सी निकल पड़ी थी, ‘‘दीपा ! यह तुम हो....यह क्या अपनी दशा बना ली है...क्या हो गया है तुम्हें...क्या...?’’

 

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book