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आधी रात में

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5460
आईएसबीएन :81-88286-18-4

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एक श्रेष्ठ कहानी-संग्रह...

Aadhi Rat Main a hindi book by Rabindranath Tagore (Thakur) - आधी रात में - रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दृष्टिदान

सुना है कि आजकल अनेक बंगाली लड़कियों को स्वयं ही पति ढूंढ़ना पड़ता है। मैंने भी यही किया है, किन्तु देवता की सहायता से। मैंने बचपन से ही अनेक व्रत और काफी शिव की पूजा की थी।

आठ वर्ष की आयु पूरी होने के पहले ही मेरा विवाह हो गया था। किन्तु पूर्वजन्म के पापों के कारण मैं पति को पाकर भी पूरी तरह न पा सकी। मां दुर्गा ने मेरी आंखें ले लीं। जीवन के अन्तिम क्षण तक पति को देखने का सुख प्रदान नहीं किया।
बाल्यावस्था से ही मेरी अग्नि-परीक्षा आरम्भ हो गई थी। चौदह वर्ष पूरे होने के पूर्व ही मैंने एक मृत शिशु को जन्म दिया, स्वयं भी मृत्यु के समीप पहुंच गई थी, किन्तु जिसके भाग्य में दु:ख बदा होता है, वह मर कैसे सकता है जो दीप जलने के लिए होता है उसमें तेल की कमी नहीं पड़ती, वह रातभर जलकर ही बुझता है।
बच तो गई, किन्तु शरीर की दुर्बलता, मन के दु:ख अथवा जिस कारण से भी हो, मुझे नेत्र-रोग हो गया।

मेरे पति उस समय डॉक्टरी पढ़ रहे थे। नई विद्या सीखने के उत्साह में चिकित्सा करने का सुयोग पाते ही वे खुश हो उठते। उन्होंने स्वयं मेरी चिकित्सा आरम्भ की।
उस वर्ष भैया बी.एल. देने के विचार से कॉलेज में पढ़ रहे थे। उन्होंने एक दिन आकर मेरे पति से कहा, ‘‘कर क्या रहे हो ! कुमू की आंखें नष्ट करने चले हो। किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाओ ?’’
मेरे पति ने कहा, ‘‘अच्छा डॉक्टर आकर और क्या नई चिकित्सा करेगा ? औषधियां तो सब जानी हुई हैं।’’
भैया ने कुछ क्रोधित होकर कहा, ‘‘तो फिर क्या तुममें और कॉलेज के बड़े साहब में कोई अन्तर नहीं ?’’
पति ने कहा, ‘‘कानून पढ़ते हो, डॉक्टरी तुम क्या समझो। तुम जब विवाह करोगे, तब अपनी स्त्री की सम्पत्ति को लेकर यदि कभी मुकद्दमा छिड़ जाए तो क्या तुम मेरे परामर्श के अनुसार चलोगे ?’’
मैं मन ही मन सोच रही थी, राजा-राजाओं में युद्ध हो, मारे जायं गरीब बेचारे। पति के साथ विवाद छिड़ा भैया का, किन्तु दोनों पक्षों का आघात मुझे ही सहना पड़ा। फिर सोचा, भाइयों ने जब मेरा दान कर ही दिया है, तब मेरे प्रति कर्त्तव्य को लेकर यह खींचतान क्यों ? मेरा सुख-दु:ख, मेरा रोग और स्वास्थ्य, अब तो सभी कुछ मेरे पति का है।
उस दिन मेरे नेत्रों की चिकित्सा जैसी साधारण बात को लेकर भैया के साथ मेरे पति का मानो कुछ मनमुटाव हो गया। मेरी आंखों से पानी गिरता था, पानी गिरना और भी बढ़ गया, उसका असली कारण उस समय मेरे पति या भैया कोई भी न समझ सके।

मेरे पति के कॉलेज चले जाने पर अपराह्न में भैया अचानक एक डॉक्टर को लेकर उपस्थित हुए। डॉक्टर ने परीक्षा करके कहा, ‘सावधानी न बरती गई तो रोग के गुरुतर हो जाने की संभावना है।’ यह कहकर उन्होंने न जाने क्या-क्या दवाइयां लिख दीं, भैया ने तुरन्त मंगा भेजीं।
डॉक्टर के चले जाने के पर मैंने भैया से कहा, ‘‘भैया, आपके पैरों पड़ती हूं मेरी जो चिकित्सा चल रही है उसमें किसी प्रकार की बाधा न डालें।’’
मैं बाल्यावस्था से ही भैया से बहुत डरती थी, उनके सामने मुंह खोलकर इस तरह की बात करना मेरे लिए एक आश्चर्यजनक घटना थी, किन्तु मैं अच्छी तरह समझ गई थी कि मेरे पति से छिपाकर भैया मेरी जिस चिकित्सा की व्यवस्था कर रहे हैं, उसमें मेरा अशुभ छोड़कर शुभ नहीं है।

भैया को भी मेरी धृष्टता पर शायद कुछ आश्चर्य हुआ। कुछ देर चुप रहकर सोचते-सोचते अंत में बोले, अच्छा, अब फिर डॉक्टर नहीं लाऊंगा, किन्तु जो दवाइयां आएंगी उनका विधिपूर्वक सेवन करके देखना ! दवाइयां आने पर मुझे उनकी सेवन-विधि समझाकर भैया चले गए। पति के कॉलेज से लौटने के पहले ही मैंने वह डिब्बा, शीशी, दवा लगाने की सलाई और सारी सेवन-विधि उठाकर यत्नपूर्वक अपने आंगन के कुएं में फेंक दी। भैया से कुछ अप्रसन्न होकर ही मानो मेरे पति और भी दुगुने उत्साह से मेरी आंखों की चिकि्त्सा में लग गए। दोनों समय दवाई बदली जाने लगी। आंखों में पट्टी बांधी, चश्मा लगाया, आंख में बूंद-बूंद करके दवाई डाली, चूर्ण लगाया, दुर्गंन्धयुक्त मछली का तेल खाने से अन्दर की आंतें तक बाहर निकलने लगतीं, उन्हें भी रोके रही। पति पूछते, ‘‘कैसा लग रहा है।’ मैं कहती, काफी अच्छा। मैं यह सोचने की भी कोशिश करती कि अच्छी हो रही हूं। जब बहुत ज्यादा पानी निकलने लगता तो सोचती, पानी निकलना ही अच्छा लक्षण है। जब पानी गिरना बन्द हो जाता तो सोचती, बस, अब अच्छे होने की राह पर हूं।
किन्तु कुछ समय बाद यन्त्रणा असह्य हो गई। आंखों से धुंधला दिखाई पड़ने लगा और सिर-दर्द ने मुझे बेचैन कर दिया। मैंने देखा, मानो मेरे पति भी कुछ अप्रतिभ हो गए हैं। इतने दिन बाद क्या बहाना करके डॉक्टर को बुलावें, समझ नहीं पा रहे थे।

मैंने उनसे कहा, ‘‘भैया का मन रखने के लिए एक बार किसी डॉक्टर को बुलाने में क्या हानि है ? इसी बात पर वे बेकार गुस्सा हो रहे हैं, इससे मेरे मन को कष्ट होता है। चिकित्सा तो तुम्हीं करोगे, किसी एक डॉक्टर का साथ रहना अच्छा है।’’
पति बोले, ‘‘ठीक कहती हो !’’ यह कहकर उसी दिन अंग्रेज डॉक्टर को ला हाजिर किया। क्या बात हुई, नहीं जानती, किन्तु लगा, जैसे साहब ने मेरे पति को कुछ फटकारा हो, वे सिर झुकाए निरूत्तर खड़े रहे।

डॉक्टर के चले जाने पर मैं अपने पति का हाथ पकड़कर बोली, ‘‘कहां से गंवार गोरे गर्दभ को पकड़ लाए, कोई देशी डॉक्टर ही काफी था। मेरी आंख की बीमारी को क्या वह तुमसे अधिक समझ सकेगा।’’

पति कुछ कुण्ठित होकर बोले, ‘‘आंख का ऑपरेशन कराना आवश्यक है।’’
मैंने कुछ ऊपरी क्रोध दिखाकर कहा, ‘‘ऑपरेशन कराना होगा। यह तो तुम जानते थे, किन्तु शुरू से ही यह बात मुझसे छिपाते रहे हो। तुम क्या यह सोचते हो कि मैं डरती हूं।
पति की लज्जा दूर हो गई। वे बोले, ‘‘आंख के ऑपरेशन की बात सुनकर न डरें, आदमियों में ऐसे कितने वीर हैं।’’
मैंने मजाक करते हुए कहा, ‘‘पुरुष की वीरता केवल स्त्री के सामने प्रकट होती है।’’
तत्क्षण पति ने उदास और गम्भीर होकर कहा, ‘‘यह बात ठीक है। पुरुषों का तो अहंकार ही सब कुछ है।’’

उनके गांभीर्य को उड़ाकर मैंने कहा, ‘‘अहंकार में भी क्या तुम लोग स्त्रियों से पार पाओगे ? उसमें भी हमारी ही जीत है।’’
इस बीच भैया के आ जाने पर मैंने उनको अकेले में बुलाकर कहा, ‘‘भैया, आपके उस डॉक्टर की व्यवस्था के अनुसार चलने से मेरी आंखें इस बीच खूब अच्छी हो रही थीं, एक दिन भ्रम से खाने की दवा का आंखों पर लेप कर लिया तब से आंखें जैसे फूटी जा रही हैं। मेरे पति कह रहे हैं, आंखों का ऑपरेशन करना होगा।’’
भैया ने कहा, ‘‘मैं सोच रहा था, तुम्हारे पति की ही चिकित्सा चल रही है, इसी से और भी नाराज होकर मैं इतने दिन नहीं आया।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, मैं बिना किसी से कहे उसी डॉक्टर की विधि के अनुसार चल रही थी, पति को बताया ही नहीं कि कहीं वे नाराज न हों।’’
स्त्री का जन्म लेने पर इतना झूठ भी बोलना पड़ता है ! भैया के मन को भी नहीं दुखाना चाहती, पति के यश को भी कम करते नहीं बनता। मां होकर गोद के शिशु को बहलाना पड़ता है, स्त्री होकर शिशु के पिता को बहलाना पड़ता है-औरतों के लिए इतनी छलना आवश्यक है।

छलना का फल यह हुआ कि अन्धी होने के पहले अपने भैया और पति का मिलन देख सकी। भैया ने सोचा, ‘गोपनीय चिकित्सा करने से ही यह दुर्घटना घटी, पति ने सोचा, ‘‘शुरू में ही मैं भैया का परामर्श मान लेता तो अच्छा होता।’ यह सोचकर दो अनुतप्त हृदय भीतर-ही-भीतर क्षमाप्रार्थी होकर एक-दूसरे के अत्यन्त निकट आ गए। पति भैया का परामर्श लेने लगे, भैया भी विनीत भाव से सब बातों में मेरे पति के मत का ही समर्थन करने लगे।
अन्त में दोनों के परामर्श के अनुसार एक अंग्रेज डॉक्टर ने मेरी बाई आंख पर अस्त्राघात किया दुर्बल नेत्र यह आघात न सह सका, उसकी क्षीण दीप्ति हठात् बुझ गई। उसके बाद बची हुई आंख भी धीरे-धीरे अन्धकार में आवृत हो गई। बाल्यावस्था में शुभदृष्टि1 के दिन जो चन्दनचर्चित तरुणमूर्ति मेरे सामने पहले प्रकाशित हुई थी उसके ऊपर सदा के लिए जैसे पर्दा पड़ गया।
एक दिन मेरी चारपाई के पास आकर पति बोले, ‘‘तुम्हारे सामने अब और झूठी बड़ाई नहीं करूंगा, तुम्हारी दोनों आंखें मैंने ही नष्ट की हैं।’’

मुझे लगा,  उनकी आवाज अश्रु-जल से भर गई है। अपने हाथों में उनका दाहिना हाथ लेकर मैंने कहा, अपनी वस्तु तुमने ले ली। सोचकर तो देखो, यदि किसी डॉक्टर की चिकित्सा से मेरी आंख नष्ट हुई होती तो उससे मुझे क्या सान्त्वना मिलती। भवितव्यता यदि मिटती नहीं तो फिर मेरी आंख को तो कोई बचा ही नहीं सकता था, वह आंख तुम्हारे हाथों गई है, यही मेरे अंधे होने का एकमात्र सुख है। जब पूजा के फूल कम पड़ गए थे तब रामचंद्र अपने दोनों नेत्र निकालकर देवता पर चढ़ाने गए थे। अपने देवता को मैंने अपनी दृष्टि दे दी ! अपनी पूर्णिमा की ज्योत्स्ना, अपने प्रभात का प्रकाश, अपने प्रकाश की नीलिमा, अपनी पृथ्वी की हरीतिमा, सब तुमको दे दी, तुम्हारी आंखों को जब जो अच्छा लगे मुझे मुंह से बताना, उसे मैं तुम्हारे नेत्रों से देखने का प्रसाद मानकर ग्रहण करूंगी।’’
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1.बंगाल में विवाह के समय वर-कन्या में परस्पर दृष्टि-विनिमय करने का एक अनुष्ठान विशेष।

    मैं उतनी बातें कह नहीं सकी, ऐसी बातें मुंह से कही भी नहीं जा सकतीं, ये सब बातें तो मैं बहुत दिनों से सोच रही थी। बीच-बीच में जब अवसाद का अनुभव करती, तब मैं अपने मन से यह सब कहलवा लेती इस शान्ति, इस भक्ति का अवलंबन करके अपने दु:ख से भी अपने को ऊंचा उठाने की चेष्टा करती। उस दिन कुछ कहकर कुछ मौन रहकर कदाचित् अपने मन का भाव किसी तरह उन्हें समझा सकी थी। वे बोले, ‘‘कुमू, मूढ़ता से तुम्हारा जो नष्ट किया है उसे अब लौटा तो नहीं सकूंगा, किन्तु जहां तक मुझसे हो सकेगा तुम्हारे नेत्रों का अभाव पूरा करने के लिए तुम्हारे साथ-साथ रहूंगा।’’
    मैंने कहा, ‘‘यह बेकार की बात है। तुम अपनी गृहस्थी को एक अन्धे का अस्पताल बनाकर रखोगे, यह मैं किसी भी प्रकार नहीं होने दूंगी। तुमको दूसरा विवाह करना ही होगा।’’

    किसलिए दूसरा विवाह करना नितान्त आवश्यक है। यह विस्तारपूर्वक बताने के पहले ही मेरा गला जैसे कुछ क्षण भर आया। कुछ खांसकर, कुछ संभलकर बोलने ही वाली थी कि इसी बीच मेरे पति उच्छ्वसित आवेग से बोले उठे मैं मूढ़ हूं, अहंकारी हूं, किन्तु ऐसा होते हुए भी मैं पाखण्डी नहीं हूं। अपने हाथों से तुम्हें अंधा कर दिया है, अन्त में उसी कमी के कारण तुम्हें छोड़कर यदि अन्य स्त्री ग्रहण करूं तो अपने इष्टदेव गोपीनाथ की शपथ खाकर कहता हूं, मैं ब्रह्म-हत्या, पितृ-हत्या के समान पाप का भागी होऊं।’’
इतनी बड़ी शपथ नहीं लेने देती, बाधा डालती, किन्तु उस समय हृदय फोड़कर, कण्ठ दबाकर नेत्रों से आंसू उमड़ पड़ने की कोशिश में थे, उन्हें रोककर बात नहीं कह सकती थी। उन्होंने जो कहा उसे सुनकर अपार आनन्द के उद्देग से तकिए में मुंह गड़ाकर रो पड़ी। मैं अंधी हूं, तो भी वे मुझे नहीं छोड़ेगे। दुखी के दु:ख के समान मुझे हृदय से लगाकर रखेंगे। इतना सौभाग्य मैं नहीं चाहती थी, किन्तु मन तो स्वार्थी होता है।

आखिर में आंसुओं की पहली बौछार चुक जाने के बाद उनके मुख को अपने हृदय के पास खींचकर कहा, ‘‘ऐसी भीषण शपथ क्यों ली। मैंने क्या तुमसे अपने सुख के लिए विवाह करने के लिए कहा था। सौत से मैं अपना स्वार्थ साधती। आंखों के अभाव में तुम्हारा जो काम मैं स्वयं नहीं कर पाती, वह उससे करवाती।’’
पति बोले, ‘‘काम तो दासी से भी चल सकता है। काम की सुविधा के लिए दासी से विवाह करके उसे क्या मैं अपनी इस देवी के साथ एक आसन पर बैठा सकता हूं।’’ यह कहकर मेरा मुंह उठाकर उन्होंने मेरे माथे का एक निर्मल चुम्बन लिया, उस चुम्बन द्वारा मानो मेरा तृतीय नेत्र खुल गया हो। उसी क्षण देवीत्व पद पर मेरा अभिषेक हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा, ‘यही अच्छा है। जब मैं अन्धी हो गई हूं तो मैं इस बहिसंसार की गृहिणी नहीं हो सकती, अब मैं संसार से ऊपर उठकर देवी होकर पति का मंगल करूंगी।’ अब मिथ्या नहीं, छलना नहीं। गृहिणी रमणी की जो कुछ क्षुद्रता और कपटता होती है, सब दूर कर दी।

उस दिन दिनभर अपने साथ एक विरोध चलता रहा। गुरुतर शपथ से बाध्य होकर पति किसी भी प्रकार दूसरा विवाह नहीं कर सकेंगे, यह आनन्द जैसे मन को एकदम जकड़े रहा, किसी प्रकार भी उसे छुड़ा नहीं सकी। आज मेरे भीतर जिन नई देवी का आविर्भाव हुआ था, उन्होंने कहा, ‘‘शायद ऐसा दिन आ सकता है जब इस शपथ का पालन करने की अपेक्षा विवाह करने से तुम्हारे पति का मंगल होगा।’’, किन्तु मेरे भीतर जो पुरातन नारी थी, उसने कहा, ‘वह भले हो, किन्तु उन्होंने जब शपथ ली है तब दूसरा विवाह तो नहीं कर सकेंगे।’ देवी ने कहा, ‘वह हो, किन्तु इसमें तुम्हारे प्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है।’ मानवी ने कहा, सब समझती हूं किन्तु जब उन्होंने शपथ ली है, तब’, इत्यादि। बार-बार वही बात। देवी ने तब निरूतर होकर केवल भौंहें तानीं और एक भयंकर आशंका के अन्धकार से मेरा सम्पूर्ण अन्त:करण आच्छन्न हो गया।

मेरे अनुतप्त पति नौकर-चाकर-दासियों को मना करके स्वयं मेरे सब काम करने को तैयार हुए। पति के ऊपर तुच्छ बातों के लिए भी इस प्रकार पूर्ण रूप से निर्भर रहना पहले से तो अच्छा ही लगता। क्योंकि इस प्रकार सब समय उनको अपने पास पाती। आंखों से उनको देख नहीं पाती थी इसलिए उनके सदा पास बने रहने की आकांक्षा अत्यन्त उग्र हो उठी। पति के सुख का जो अंश मेरे नेत्रों के हिस्से में पड़ा था उसको अब अन्य इन्द्रियों ने बांटकर अपना-अपना हिस्सा बढ़ा लेने की चेष्टा की। अब अपने पति के अधिक समय काम पर बाहर रहने से लगता, जैसे मैं शून्य में होऊं, जैसे मैं कहीं भी कुछ पकड़ न पा रही होऊं, जैसे मेरा सब कुछ खो गया हो। पहले पति जब कॉलेज जाते तब विलम्ब होने पर जंगले को थोड़ा सा खुला रखकर रास्ता देखती रहती। जिस जगत् में वे घूमते उस जगत् को नेत्रों द्वारा मैंने अपने साथ बांध रखा था। आज दृष्टिहीन मेरा सारा शरीर ढूँढ़ने की चेष्टा करता है। उनकी और दुनिया के बीच जो प्रधान सेतु था वह आज टूट गया था। अब उनके और मेरे बीच एक दुस्तर अंधता थी, अब मुझे निरूपाय होकर व्यग्र भाव से बैठे रहना पड़ता था, कब वे अपने तट से मेरे तट पर स्वयं आकर उपस्थित होंगे। इस कारण अब जब क्षणभर के लिए भी वे मुझे छोड़कर चले जाते तब मेरी सारी अन्धी देह लपककर उन्हें पकड़ने दौड़ती, हाहाकार करके उन्हें पुकारती।

किन्तु इतनी आकांक्षा, इतना निर्भर रहना तो अच्छा नहीं। पहले तो पति के ऊपर स्त्री का भार ही पर्याप्त है, उसके ऊपर अंधेपन का भारी भार और नहीं लाद सकती। अपने इस विश्वव्यापी अंधकार को मैं स्वयं ही वहन करूंगी। एकाग्र मन से मैंने प्रतिज्ञा की-अपनी इस अनन्त अंधता के द्वारा मैं पति को अपने संग बांधे नहीं रखूंगी।
थोड़े ही समय में केवल शब्द-गंध-स्पर्श के द्वारा मैंने अपना सारा नित्य कार्य करना सीख लिया। यहां तक कि मैं अपना बहुत सा घर का कामकाज पहले की अपेक्षा अधिक निपुणतापूर्वक निर्वाह करने लगी। अब लगने लगा कि आंखे हमारे काम में जितनी सहायता करती हैं उसकी अपेक्षा कहीं अधिक विक्षिप्त कर देती हैं। जितना देखने से काम अच्छा होता है आंखें उससे कहीं ज्यादा देखती हैं और आंखें जब पहरेदारी करती हैं तो कान आलसी बन जाते हैं, उनको जितना सुनना चाहिए वे उससे कम सुनते हैं। अब चंचल नेत्रों की अनुपस्थिति में मेरी अन्य समस्त इन्द्रियां अपना कर्तव्य शान्त और सम्पूर्ण भाव से करने लगीं।

अब मैं अपने पति को अपना कोई काम न करने देती, और उनका सारा काम फिर पहले की ही भांति मैं करने लगी।
पति ने मुझसे कहा, ‘‘मेरे प्रायश्चित से मुझे वंचित कर रही हो।’’
मैंने कहा, ‘‘तुम्हारा प्रायश्चित, मैं नहीं जानती, किन्तु अपने पाप का भार मैं क्यों बढ़ाऊं।’’
जो भी कहें, मैंने जब उन्हें छुट्टी दी तो उन्होंने मुक्ति की सांस ली। अन्धी स्त्री की सेवा का आजीवन व्रत लेना पुरुषों का काम नहीं है।
डॉक्टरी पास करके मेरे पति मुझे लेकर मुफस्सिल क्षेत्र में चले गए। गांव में आकर ऐसा लगा, जैसे माता की गोद में आ गई होऊं। आठ वर्ष की अवस्था में मैं गांव छोड़कर शहर आई थी। इन दस वर्षों में जन्मभूमि मेरे मन में छाया के समान धुंधली हो चली थी। जब तक आंखें थीं कलकत्ता शहर अन्य सारी स्मृतियों को ओट में किये मेरे चारों ओर खड़ा था। आंखों के जाते ही समझ में आया कि कलकत्ता केवल आंखें लुभाने वाला शहर है, उससे मन नहीं भरता। दृष्टि खोते ही अपनी बाल्यावस्था का वह गांव दिवसावसान के नक्षत्र-लोक की भांति मेरे मन में उज्जवल हो उठा।

अगहन के अंतिम दिनों में हम हाशिमपुर गए। नया स्थान था, चारों ओर का दृश्य कैसा था यह तो मैं न जान सकी, किन्तु बाल्य-काल की उस सुगंध और सुख की अनुभूति ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। ओस के भीगे नए जुते खेतों से प्रभातकाल की वायु, सुनहरे अरहर और सरसों के खेतों की आकाश-व्यापी कोमल सुमिष्ट सुगंध चरवाहों के गीत, यही नहीं, कच्ची डगर में चलने वाली बैलगाड़ी की आवाज तक ने मुझे पुलकित कर दिया। अपने उस जीवनारम्भ की अतीत स्मृति ने अपनी अनिवर्चनीय ध्वनि और सुगंध से मुझे प्रत्यक्ष वर्तमान की भांति घेर लिया, अन्धे नेत्र उसका कोई प्रतिवाद न कर सके। मैं अपने उसी बाल्याकाल में पहुंच गई, बस मां नहीं मिली। मन-ही-मन देखनी लगी कि नानी अपने विरल कोश-गुच्छों को बिखेरकर धूप की ओर पीठ किये आंगन में बड़ियां तोड़ रही हैं, किन्तु उनके कोमल कम्पित पुराने क्षीण स्वर में अपने गांव के साधु भजनदास के देह-तत्त्वपूर्ण गीतों का गुंजन-स्वर नहीं सुनाई पड़ा, नवान्न का वह उत्सव शीतकाल की ओस से भीगे हुए आकाश के नीचे जागकर सजीव हो उठा, किन्तु ढेंकीघर में नया धान कूटने वाले लोगों के बीच अपनी छोटी-छोटी ग्रामीण संगिनियों का मिलन कहां गया ! सन्ध्या समय कहीं समीप से ही गायों के रंभाने की ध्वनि सुनाई देती, तब याद आता कि मां हाथ में सन्ध्या-दीप लेकर गोशाला में दिया दिखाने जा रही हैं, उसी के साथ भीगी घास चारे और पुआल जलाने के धुंए की गंध मानो हृदय में प्रवेश करती और मैं सुन पाती मानो तालाब के किनारे विद्यालंकारजी के मंदिर से कांसे के घंटे की ध्वनि आ रही हो। न जाने किसने मेरे बचपन के आठ वर्षो में से उनका सम्पूर्ण स्थूल भाग छानकर केवल उनका रस, गन्ध-मात्र मेरे चारों ओर जमा कर दिया था।

इसके साथ ही मुझे अपने उस बाल्यावस्था के व्रत और भोर-बेला में फूल चुनने और शिव-पूजा करने की बात याद आई। यह स्वीकार करना ही पडे़गा कि कलकत्ता की बातचीत, चर्चा, चलने-फिरने के शोरगुल के कारण बुद्धि में कुछ विकार आ ही जाता है। धर्म-कर्म, भक्ति-श्रद्धा में निर्मल सरलता नहीं रहती। मुझे उस दिन की बात याद आ रही है जब अन्धी होने के बाद कलकत्ता में मेरे गांव की एक सखी ने आकर मुझसे कहा था, ‘‘कुमू, तुझे क्रोध नहीं आता ? मैं होती तो ऐसे पति का मुंह न देखती।’’ मैंने कहा, ‘‘बहन, मुंह देखना तो बन्द ही है, उसके लिए तो इन बेचारी अभागी आंखों पर क्रोध आता है, किन्तु पति पर क्यों क्रोध करूं।’’ उचित समय पर डॉक्टर को न बुलाने के कारण लावण्य मेरे पति पर बहुत क्रोधित हुई थी और मुझे भी क्रोधित करने की चेष्टा की थी। मैंने उसे समझाया, ‘गृहस्थी में रहते इच्छा से अनिच्छा से, ज्ञान-अज्ञान से, भूल-भ्रांति से, अनेक प्रकार के दु:ख-सुख घटित होते रहते हैं, किन्तु मन में यदि भक्ति स्थिर रह सके तो दु:ख में ही एक शान्ति मिलती है। नहीं तो केवल क्रोध-रोष, ईर्ष्या-द्वेष, बक-झक में ही जीवन कटता है। अन्धी हो गई हूं यही काफी दु:ख है, तिस पर अब पति से विद्वेष करके दु:ख का बोझ क्यों बढ़ाऊं।’ मेरी जैसी बालिका के मुंह से पुराने जमाने की-सी बातें सुनकर लावण्य गुस्सा होकर अवज्ञापूर्वक सिर हिलाकर चली गई। किन्तु जो भी हो, बात में विष रहता है, बातें एकदम व्यर्थ नहीं होतीं। लावण्य के मुंह से निकली रोष की बातें मेरे मन में दो-एक स्फुलिंग छोड़ गई थीं, मैंने उनको पैरों से कुचलकर बुझा दिया था, किन्तु फिर भी दो-एक चिनगारी रह गई थीं। इसी से कह रही थी, कलकत्ता में अनेक विवाद, अनेक बातें हैं, वहां बुद्धि देखते-देखते जल्दी ही पककर कठोर हो जाती है।


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