संचयन >> नागार्जुन रचना संचयन नागार्जुन रचना संचयनराजेश जोशी
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नागार्जुन की श्रेष्ठ रचनाएँ...
Nagarjuna Rachana Sanchayan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निराला के बाद नागार्जुन (जन्मः 1911:1998) अकेले ऐसे कवि है, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। उनकी अभिव्यक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में वे उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता से पद उधार लें तो कह सकते हैं-स्वागत शोक में बीज निहित हैं विश्व व्याथा के।
उनकी कविता एक ऐसी बातचीत है, जो दूसरों को संबोधित करती है, जो अंतर-बाह्य की अटूट संधि से बनी है। उसमें विश्व व्यथा के बीच भी हैं और स्वागत शोक भी। इस तरह की शैली ज़्यादातर आख्यानात्मक और गद्य कविताओं में अधिक सामर्थ्य के साथ प्रकट होती है। उनकी गद्य लय का उठान काव्य लय के स्तर तक जाता है और कई बार उनकी काव्य लय ठेठ गद्य की लय को छूने लगती है। इसमें उनकी विवरण कला और बातूनीपन का विलक्षण युग्म देखा जा सकता है। विशेष रूप से उत्तर भारत और पूर्वांचल के लोगों का बातूनीपन गप्प मारने, हँसाने, ठिठोली करने, बीच-बीच में चिकोटी काटने, यहाँ तक की शरारत और आब्सिनिटी का भी बेहद सतर्क उपयोग उनकी कविता में है। इस शैली के लचीलेपन का उपयोग करते हुए नागार्जुन कई तरह की स्वतंत्रता लेते हैं। वे कई बार एक से अधिक काव्य रूपों या छंदों का इस्तेमाल एक ही कविता में कर लेते हैं। इस तरह का मिश्रण नाटकीयता को पैदा करता ही है साथ ही हमारी सामाजिक संरचना की ओर भी इंगित करता है। इस शैली में घुमक्कड़ी की मुक्तता भी है और गति भी।
प्रस्तुत चयन में नागार्जुन की कविता के साथ ही उनके गद्य से भी कुछ रचनाओं का चयन किया गया है। नागार्जुन कवि या उपन्यासकार की तरह अधिक जाने जाते हैं। लेकिन उन्होंने व्यक्तियों के संस्मरण और यात्रा संस्मरण भी लिखे हैं, कई कहानियाँ भी और वैचारिक लेख भी। उनके सर्वाधिक चर्चित तीन उपन्यास—‘रतिनाथ की चाची, बलचनमा और वरुण के बेटे से एक-एक अंश इसमें शामिल है। दो कहानियाँ, एक यात्रा संस्मरण, एक निबंध राहुल सांकृत्यायन और फणीश्वरनाथ रेणु पर दो संस्मरण, निराला पर लिखी उनकी छोटी-सी पुस्तक एक व्यक्ति : एक युग से एक अंश और सारिका में प्रकाशित होनेवाले चर्चित कॉलम ‘आइने के सामने’ के लिए लिखा गया एक आत्मकथ्य भी इस संचयन में सम्मिलित हैं। इस छोटे-से खंड से नागार्जुन के गद्य की एक बानगी मिल सकेगी।
उनकी कविता एक ऐसी बातचीत है, जो दूसरों को संबोधित करती है, जो अंतर-बाह्य की अटूट संधि से बनी है। उसमें विश्व व्यथा के बीच भी हैं और स्वागत शोक भी। इस तरह की शैली ज़्यादातर आख्यानात्मक और गद्य कविताओं में अधिक सामर्थ्य के साथ प्रकट होती है। उनकी गद्य लय का उठान काव्य लय के स्तर तक जाता है और कई बार उनकी काव्य लय ठेठ गद्य की लय को छूने लगती है। इसमें उनकी विवरण कला और बातूनीपन का विलक्षण युग्म देखा जा सकता है। विशेष रूप से उत्तर भारत और पूर्वांचल के लोगों का बातूनीपन गप्प मारने, हँसाने, ठिठोली करने, बीच-बीच में चिकोटी काटने, यहाँ तक की शरारत और आब्सिनिटी का भी बेहद सतर्क उपयोग उनकी कविता में है। इस शैली के लचीलेपन का उपयोग करते हुए नागार्जुन कई तरह की स्वतंत्रता लेते हैं। वे कई बार एक से अधिक काव्य रूपों या छंदों का इस्तेमाल एक ही कविता में कर लेते हैं। इस तरह का मिश्रण नाटकीयता को पैदा करता ही है साथ ही हमारी सामाजिक संरचना की ओर भी इंगित करता है। इस शैली में घुमक्कड़ी की मुक्तता भी है और गति भी।
प्रस्तुत चयन में नागार्जुन की कविता के साथ ही उनके गद्य से भी कुछ रचनाओं का चयन किया गया है। नागार्जुन कवि या उपन्यासकार की तरह अधिक जाने जाते हैं। लेकिन उन्होंने व्यक्तियों के संस्मरण और यात्रा संस्मरण भी लिखे हैं, कई कहानियाँ भी और वैचारिक लेख भी। उनके सर्वाधिक चर्चित तीन उपन्यास—‘रतिनाथ की चाची, बलचनमा और वरुण के बेटे से एक-एक अंश इसमें शामिल है। दो कहानियाँ, एक यात्रा संस्मरण, एक निबंध राहुल सांकृत्यायन और फणीश्वरनाथ रेणु पर दो संस्मरण, निराला पर लिखी उनकी छोटी-सी पुस्तक एक व्यक्ति : एक युग से एक अंश और सारिका में प्रकाशित होनेवाले चर्चित कॉलम ‘आइने के सामने’ के लिए लिखा गया एक आत्मकथ्य भी इस संचयन में सम्मिलित हैं। इस छोटे-से खंड से नागार्जुन के गद्य की एक बानगी मिल सकेगी।
भूमिका
नागार्जुन की कविता अपने रचना लोक में धँसने की इच्छा से पहले अपने अचरज भरे और ओर-छोर फैले भूगोल में भटकने को आमंत्रित करती है। हमारी बहुलताओं के रागरंग की हलचल से भरी वह, अविरल और अनथक यात्राओं के स्मरण की तरह है। वह हमारे भौगोलिक, प्राकृतिक, जैविक और प्रतिपल घटित मानवीय व्यवहार का इतिहास भी है और जीवंत साक्ष्य भी। उसमें वस्तुओं की उपस्थिति केन्द्रीय नहीं है। यह वस्तुतः घटनाओं का संसार है। घटनाओं को दर्ज़ करता, अतिक्रमित करता और प्रक्रिया में बदलता हुआ। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन और कवि नागार्जुन में एक महीन-सा आंतरिक रिश्ता है। गोचर साक्ष्य ही उनका केन्द्रीय बिन्दु है या कहें कि टेक ऑफ़ प्वाइंट है। ‘देखा है’ जैसा पद नागार्जुन की कविता में पद की तरह भी मौजूद है और क्रिया के रूप में भी। यह उन्हें विरासत से मिली घुमक्कड़ी से मिला है। मनोहर श्याम जोशी को दिए एक साक्षात्कार में नागार्जुन ने कहा है, ‘‘पिता का मन गाँव में लगता नहीं था। ज़मीन इतनी थी कि परिवार का पालना कर सके किन्तु खेतीबारी में पिता का मन रमता नहीं था। बेकारी घुमक्कडी उन्होंने अपनी इच्छा से अपना रखी थी। मिथिला प्रदेश में उन दिनों रेल का चक्र-पथ टिकिट मिला करता था, उसे पिता अक्सर खरीदते और ठक्कन भी उनके साथ-साथ छुक-छुक गाड़ी में गोल-गोल घूमता। पिता ने ठक्कन को और कुछ न दिया हो, पाँव का सनीचर उत्ताधिकार में अवश्य दिया।’’
‘देखा है’ लेकिन मात्र देखा है तक सीमित नहीं है। इसमें जितना देखना शामिल है उतना ही सुनना, सूँघना और चखना भी शामिल है। उनकी आँख जितनी अपलक जाग्रत है उनके कान भी उतने ही चौकन्ने हैं और अन्य इंद्रियाँ भी उतनी ही सजग। उनकी रचना एक ऐसे प्रिज़्म की तरह है जिससे गुजरते ही जीवन के सारे रंग-ढंग हमारे सामने उजागर होने लगते हैं।
शोभाकांत ने नागार्जुन रचनावली की भूमिका में लिखा है, ‘‘1911 ई. की ज्येष्ठ पूर्णिमा को निहायत मामूली और अपढ़ परिवार में जन्में बैद्यनाथ मिश्र अपने ग्रामीण परिवेश में संस्कृत की पारंपरिक पढ़ाई करते समय समस्यापूर्ति शैली में साहित्य कर्म शुरू कर हिन्दी के नागार्जुन और मैथिली के यात्री हो गए। इन दो भाषाओं के अलावा संस्कृत और बाड़ला में भी मौलिक लेखन करने वाने नागार्जुन जीवन भर बड़े ही सहज और यायावरी वृत्ति के व्यक्ति रहे 1925 ई. में संस्कृत की प्रथमा परीक्षा पास करने के बाद आगे अध्ययन के लिए घर से निकले तो निकल ही गए। इसके बाद अपनी ठेठ बुढ़ौती तक उन्होंने किसी गाँव, प्रांत या देश के किसी कोने में अपना स्थायी ठौर ठिकाना नहीं बनाया। यहाँ तक कि अपनी रचनाओं को सहेज कर रखने तक की ज़रूरत महसूस नहीं की। रचनाओं को क्रमवार व्यवस्थित करना तो उन्होंने अभी आवश्यक ही नहीं समझा।’’ यह बात उनकी रचनाओं और उनके जीवन वृत्त दोनों पर ही लागू होती है।
‘आइने के सामने’ जैसे आत्मकथ्य, रतिनाथ की चाची और बलचनमा जैसे उपन्यास, मनोहर श्याम जोशी, कृष्ण सोबती, पंकज सिंह आदि को दिए दर्जनों साक्षात्कार, ‘थो लिंग महाविहार’, ‘सिंध में सत्रह महीने’, ‘टिहरी से नेलंग’ जैसे यात्रा-संस्मरण, निराला, राहुल, रेणु आदि पर लिखे संस्मरण और अनेक कविताओं में उनकी आत्मकथा के सूत्र बिखरे हुए हैं। इन सबको जोड़कर भी इस घुमंतु कवि के जीवनवृत्त्त का एक टूटा बिखरा-सा कलेजा तो बनाया जा सकता है लेकिन एक व्यवस्थित क्रमवार जीवनवृत्त बनाना असंभव-सा काम है। पंच तत्त्वों से बने इस देहधारी के पाँच नाम हैं। गाँव का और बचपन का नाम ठक्कन, एक नाम बैद्यनाथ मिश्र या बैद्यनाथ मिसिर, फिर वैदेह जिससे 1930 में पहली मैथिली कविता प्रकाशित हुई है, फिर शायद अपनी घुमक्कड़ी के लिए चुना उपनाम यात्री और बौद्ध होने के बाद अपनाया नाम नागार्जुन। बचपन के तिक्त अनुभव उसके अंतःकरण के अनिवार्य हिस्से हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर लिखी कविता में कुछ पंक्तियों से इसका अहसास हो जाता है : पैदा हुआ था मैं/ दीन हीन अपठित किसी कृषक कुल में । आ रहा हूँ पीता अभाव का आसाव ठेठ बचपन से। एक साक्षात्कार में भी उन्होंने कहा है कि ‘‘ठक्कन का पचपन ठुकराये जाने की यादों से भरा हुआ है।’’
दूसरी निर्णायक घटना जिसने उनके बचपन उनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों पर गहरा प्रभाव डाला, वह थी उनका बौद्ध होना। कई वर्ष उन्होंने बैद्ध मठों और अध्ययन केन्द्रों में बिताए हैं। उनके यात्रा वृत्तांतों से भी पता चलता है कि उन्होंने इस दौर में प्राकृत और भोट याने तिब्बती भी सीखी और स्मृतियों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। कई बार लगता है कि गरीब ब्राह्मण कुल और किसान परिवार में जन्में नागार्जुन के बौद्ध हो जाने के उनके अभ्यंतर में किस क़िस्म के टकरावों को जन्म दिया होगा, इसका अध्ययन होना चाहिए। बचपन की स्मृतियाँ और संस्कार और बौद्ध होने के बाद बने मानस की वैचारिक और संवेदनात्मक संरचना के बीच क्या कोई टकराव नहीं हुए होंगे ? क्या इसका प्रभाव उनकी रचना प्रक्रिया पर नहीं पड़ा होगा ? इस टकराव ने किस तरह के अंतर्विरोधों और किस तरह के नए कौशलों को पैदा किया है, इसके लिए गहरे शोध की आवश्यकता है। तीसरी महत्त्वपूर्ण घटना जिसने उनके अंतःकरण के आयतन को और अधिक व्यापक बनाया, वह था स्वामी सहजानंद के साथ स्वाधीनता संघर्ष और किसान आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी।
नागार्जुन अपनी चिरपरिचित फक्कड़ी और मस्ती के बावजूद एक बेचैन कवि हैं। वे सिर्फ़ बाहर हो रहे की ही आलोचना नहीं करते, एक आत्मालोचना की निरंतरता वहाँ है जो कई बार तो आत्मा भर्त्सना तक भी पहुँच जाती है। बौद्ध दर्शन के अनुसंधान में लगे नागार्जुन इसीलिए तो बीच यात्रा से लौट आते हैं। कहते हैं- ‘मन में कही लग रहा था कि वर्तमान से मुँह मोड़कर अतीत में भागना ठीक नहीं हैं।’ इसी समय स्वामी सहजानंद ने उनसे कहा, ‘क्या करोगे पुरातत्त्व का, पुरालेख का, नए तत्त्व से जूझो, नए लेख को बाँचो। तो हम उनके आश्रम में चले गए। उनके आंदोलन में कूद पड़े। दो वर्ष में तीन बार जेल गए।’ और इस सबके बीच है उनकी घुमक्कड़ी जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का केन्द्रीय तत्त्व है। लेकिन यह घुमक्कड़ी बहुत सरल नहीं है। इसमें भी कई पेंच हैं। इसने उन्हें फक्कड़ भी बनाया है, हर तरह की विविधता के प्रति आग्रही भी और बेहद ऐन्द्रिक भी। उनमें चित्रण के बनिस्बत विवरण पर अधिक बल है। इसलिए उनकी कविता सिर्फ़ देखा है कि कविता नहीं है वह पाठक और श्रोता को देखना सिखाती भी है।
‘देखा है’ लेकिन मात्र देखा है तक सीमित नहीं है। इसमें जितना देखना शामिल है उतना ही सुनना, सूँघना और चखना भी शामिल है। उनकी आँख जितनी अपलक जाग्रत है उनके कान भी उतने ही चौकन्ने हैं और अन्य इंद्रियाँ भी उतनी ही सजग। उनकी रचना एक ऐसे प्रिज़्म की तरह है जिससे गुजरते ही जीवन के सारे रंग-ढंग हमारे सामने उजागर होने लगते हैं।
शोभाकांत ने नागार्जुन रचनावली की भूमिका में लिखा है, ‘‘1911 ई. की ज्येष्ठ पूर्णिमा को निहायत मामूली और अपढ़ परिवार में जन्में बैद्यनाथ मिश्र अपने ग्रामीण परिवेश में संस्कृत की पारंपरिक पढ़ाई करते समय समस्यापूर्ति शैली में साहित्य कर्म शुरू कर हिन्दी के नागार्जुन और मैथिली के यात्री हो गए। इन दो भाषाओं के अलावा संस्कृत और बाड़ला में भी मौलिक लेखन करने वाने नागार्जुन जीवन भर बड़े ही सहज और यायावरी वृत्ति के व्यक्ति रहे 1925 ई. में संस्कृत की प्रथमा परीक्षा पास करने के बाद आगे अध्ययन के लिए घर से निकले तो निकल ही गए। इसके बाद अपनी ठेठ बुढ़ौती तक उन्होंने किसी गाँव, प्रांत या देश के किसी कोने में अपना स्थायी ठौर ठिकाना नहीं बनाया। यहाँ तक कि अपनी रचनाओं को सहेज कर रखने तक की ज़रूरत महसूस नहीं की। रचनाओं को क्रमवार व्यवस्थित करना तो उन्होंने अभी आवश्यक ही नहीं समझा।’’ यह बात उनकी रचनाओं और उनके जीवन वृत्त दोनों पर ही लागू होती है।
‘आइने के सामने’ जैसे आत्मकथ्य, रतिनाथ की चाची और बलचनमा जैसे उपन्यास, मनोहर श्याम जोशी, कृष्ण सोबती, पंकज सिंह आदि को दिए दर्जनों साक्षात्कार, ‘थो लिंग महाविहार’, ‘सिंध में सत्रह महीने’, ‘टिहरी से नेलंग’ जैसे यात्रा-संस्मरण, निराला, राहुल, रेणु आदि पर लिखे संस्मरण और अनेक कविताओं में उनकी आत्मकथा के सूत्र बिखरे हुए हैं। इन सबको जोड़कर भी इस घुमंतु कवि के जीवनवृत्त्त का एक टूटा बिखरा-सा कलेजा तो बनाया जा सकता है लेकिन एक व्यवस्थित क्रमवार जीवनवृत्त बनाना असंभव-सा काम है। पंच तत्त्वों से बने इस देहधारी के पाँच नाम हैं। गाँव का और बचपन का नाम ठक्कन, एक नाम बैद्यनाथ मिश्र या बैद्यनाथ मिसिर, फिर वैदेह जिससे 1930 में पहली मैथिली कविता प्रकाशित हुई है, फिर शायद अपनी घुमक्कड़ी के लिए चुना उपनाम यात्री और बौद्ध होने के बाद अपनाया नाम नागार्जुन। बचपन के तिक्त अनुभव उसके अंतःकरण के अनिवार्य हिस्से हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर लिखी कविता में कुछ पंक्तियों से इसका अहसास हो जाता है : पैदा हुआ था मैं/ दीन हीन अपठित किसी कृषक कुल में । आ रहा हूँ पीता अभाव का आसाव ठेठ बचपन से। एक साक्षात्कार में भी उन्होंने कहा है कि ‘‘ठक्कन का पचपन ठुकराये जाने की यादों से भरा हुआ है।’’
दूसरी निर्णायक घटना जिसने उनके बचपन उनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों पर गहरा प्रभाव डाला, वह थी उनका बौद्ध होना। कई वर्ष उन्होंने बैद्ध मठों और अध्ययन केन्द्रों में बिताए हैं। उनके यात्रा वृत्तांतों से भी पता चलता है कि उन्होंने इस दौर में प्राकृत और भोट याने तिब्बती भी सीखी और स्मृतियों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। कई बार लगता है कि गरीब ब्राह्मण कुल और किसान परिवार में जन्में नागार्जुन के बौद्ध हो जाने के उनके अभ्यंतर में किस क़िस्म के टकरावों को जन्म दिया होगा, इसका अध्ययन होना चाहिए। बचपन की स्मृतियाँ और संस्कार और बौद्ध होने के बाद बने मानस की वैचारिक और संवेदनात्मक संरचना के बीच क्या कोई टकराव नहीं हुए होंगे ? क्या इसका प्रभाव उनकी रचना प्रक्रिया पर नहीं पड़ा होगा ? इस टकराव ने किस तरह के अंतर्विरोधों और किस तरह के नए कौशलों को पैदा किया है, इसके लिए गहरे शोध की आवश्यकता है। तीसरी महत्त्वपूर्ण घटना जिसने उनके अंतःकरण के आयतन को और अधिक व्यापक बनाया, वह था स्वामी सहजानंद के साथ स्वाधीनता संघर्ष और किसान आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी।
नागार्जुन अपनी चिरपरिचित फक्कड़ी और मस्ती के बावजूद एक बेचैन कवि हैं। वे सिर्फ़ बाहर हो रहे की ही आलोचना नहीं करते, एक आत्मालोचना की निरंतरता वहाँ है जो कई बार तो आत्मा भर्त्सना तक भी पहुँच जाती है। बौद्ध दर्शन के अनुसंधान में लगे नागार्जुन इसीलिए तो बीच यात्रा से लौट आते हैं। कहते हैं- ‘मन में कही लग रहा था कि वर्तमान से मुँह मोड़कर अतीत में भागना ठीक नहीं हैं।’ इसी समय स्वामी सहजानंद ने उनसे कहा, ‘क्या करोगे पुरातत्त्व का, पुरालेख का, नए तत्त्व से जूझो, नए लेख को बाँचो। तो हम उनके आश्रम में चले गए। उनके आंदोलन में कूद पड़े। दो वर्ष में तीन बार जेल गए।’ और इस सबके बीच है उनकी घुमक्कड़ी जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का केन्द्रीय तत्त्व है। लेकिन यह घुमक्कड़ी बहुत सरल नहीं है। इसमें भी कई पेंच हैं। इसने उन्हें फक्कड़ भी बनाया है, हर तरह की विविधता के प्रति आग्रही भी और बेहद ऐन्द्रिक भी। उनमें चित्रण के बनिस्बत विवरण पर अधिक बल है। इसलिए उनकी कविता सिर्फ़ देखा है कि कविता नहीं है वह पाठक और श्रोता को देखना सिखाती भी है।
कवि हूँ सच है किन्तु क्षणिक तथ्यों को यों अवहेलित करके
शाश्वत की सीमांत कभी क्या छू पाउँगा ?
शाश्वत की सीमांत कभी क्या छू पाउँगा ?
नागार्जुन की कविता का प्रस्थान बिन्दु इंद्रिय गोचर साक्ष्य है। इसलिए वह एक घटना या दृश्य को दर्ज करने से शुरू होती है। उसमें आदिम और आधुनिक दोनों का स्वाद और चमक मौजूद है। जीवन और प्रकृति के छोटे-से-छोटे क्षण को भी, जिसके वे साक्षी हैं, कभी अलक्ष्य नहीं होने देते। ऐसी घटना जो उनकी इंद्रियों की परिधि में हो और जो उनको हिला दे, उनकी वैचारिकता को झनझना दे, को बाँध लेने की ललक और क्षमता ही उनकी रचना के बारे में तात्कालिकता का भ्रम पैदा करती है। शायद बौद्ध दर्शन ने ही उन्हें इस ओर प्रेरित किया होगा कि जो क्षणिक नहीं है वह वास्विकता भी नहीं है। कोई भी चीज़ जड़ नहीं है, ठहरी हुई नहीं है, न ही शाश्वत है।
नागार्जुन के लिए क्षण में उसकी सार्वभौमिकता भी निवास करती है। यह सामान्य क्षण या घटना ही उनके लिए विशिष्ट है, वास्तविक है। इसी आब्जेक्ट से उन्हें अपनी काव्य उत्तेजना प्राप्त होती है। यह उनकी कविता का प्रस्थान बिन्धु है। अनुभवजन्य दिक और काल का पुर्न्सृजन करते हुए वे उसका अतिक्रमण कर जाते हैं। इस तरह एक गोचर साक्ष्य से शुरू हुई कविता विराट और अनेक संस्तरों वाली सामाजिक प्रक्रिया से अपने ताने-बाने जोड़ती जाती है। अपने वैचारिक निष्कर्षों को वह ढाँक-मूदकर नहीं रखती। लेकिन अंतिम निर्णय सुनाकर विचार की प्रक्रिया को समाप्त कर देने का काम भी नहीं करती। वह उसे निरंतरता देते हुए स्वतंत्र भी करती है। उसमें हमारी विद्रूपताएँ भी हैं और विडंबनाएँ भी। नागार्जुन की चेतना अदृश्य सूत्रों से जनता की विराट देह से जुड़ी है इसीलिए तो जानता पर यहाँ-वहाँ दगती शासन की बंदूकों को वे बहुवचन में उपयोग नहीं करते। सबको जोड़कर नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक बना देता है। बहुवचन को जोड़ कर एक विराट एकवचन में बदल देने का प्रयोग नागार्जुन की ही कविता में मिलता है।
नागार्जुन की कविता की आख्यानात्मकता और उनके आख्यानों की काव्यात्मकता एक दूसरे के पूरक तत्त्व हैं शायद इसीलिए वरुण के बेटे या बाबा बटेसरनाथ जैसे उपन्यासों को पढ़ते हुए एक प्रदीर्घ कविता का पढ़ने का अहसास होता है और ‘नेवला’ और ‘हरिजनगाथा’ जैसी कविताओं को पढ़ते हुए एक वृहत् आख्यान को पढ़ने का। उनकी अनेक कविताएँ छोटे-छोटे आख्यानों और उपाख्यानों से बनी हैं। शायद इसीलिए उनकी कविता में विवरण तो है, कई बार बहुत महीन और अक्सर अलक्ष्य कर दिए जानेवाले विवरण भी लेकिन उनमें चित्रण अधिक नहीं है। लोगों के व्यवहार, रीतिरिवाज पहरावे, भाषा और भाव की भंगिमाएँ आदि अनेक महीन ब्यौरे, अपनी पूरी सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ उनकी कविता में मौजूद हैं। इस तरह नागार्जुन ने जनता की सहज वृत्ति को टटोलते हुए हमारी बहुलता के बीच एकता के सबसे ज़रूरी सूत्र को तलाश किया है।
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निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने इतने छंद, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। इस चयन को तैयार करते हुए इस बात की कोशिश मैंने की है कि इसका थोड़ा-सा आभास पाठकों को मिल सके। उनकी अभिव्याक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वागत से मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता के पद उधार लें तो कह सकते हैं- स्वागत शोक में बीच निहित हैं विश्व व्यथा के। उनकी कविता एक ऐसी बातचीत है जो दूसरों को संबोधित है, जो अंतर बाह्य की अटूट संधि से बनी है।
उसमें विश्व व्यथा के बीज भी हैं और स्वागत शोक भी। इस तरह की शैली ज़्यादातर आख्यानात्मक और गद्य कविताओं में अधिक सामर्थ्य के साथ प्रकट होती है। उनकी गद्य लय का उठान काव्य लय के स्तर तक जाता है और कई बार उनकी काव्य लय ठेठ गद्य की लय को छूने लगती है। इसमें उनकी विवरण कला और बातूनीपन का विलक्षण युग्म देखा जा सकता है। विशेष रूप से उत्तर भारत और पूर्वांचल के लोगों का बातूनीपन, गप्प मारने, हँसने-हँसाने, ठिठोली करने, बीच-बीच में चिऊँटी काटने, यहाँ तक की शरारत और आब्सिनिटी का बेहद सतर्क उपयोग उनकी कविता में है। इस शैली के लचीलेपन का उपयोग करते हुए नागार्जुन कई तरह की स्वतंत्रता लेते हैं। वे कई बार एक से अधिक काव्य रूपों या छंदों का इस्तेमाल एक ही कविता में कर लेते है। इस तरह का मिश्रण नाटकीयता को तो पैदा करता ही है साथ ही हमारी सामाजिक संरचना की ओर भी इंगित करता है। इस शैली में घुमक्कड़ी की मुक्ततता भी है और गति भी। वे उन कवियों में नहीं हैं जो अपने ज्ञान और कौशल से स्वयं भी आक्रांत होते हैं और हमेशा दूसरों को चमत्कृत करने की मनोग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं। स्वागत और मुक्त बातचीत की शैली में उनकी लंबी कविता ‘नेवला’ तथा ‘हरिजन गाथा’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। यह महज़ संयोग नहीं है कि आत्मकथात्मक हिस्से अक्सर उनकी इसी शैली की कविताओं में दिखाई पड़ते है।
नागार्जुन की कविता में ‘आत्मा’ शब्द का इस्तेमाल अपवाद स्वरूप ही हुआ है। बुद्ध के अनात्मवाद से इसका क्या रिश्ता है, है भी या नहीं कहना मुश्किल है; लेकिन उनकी कविता में एक नाभीय बिन्दु अक्सर ओझल-सा होता है। उसमें परत-दर-परत कई परतें खुलती हैं। उसमें आवर्त्त-दर-आवर्त्त बाहर की ओर फैलते और बाहर से भीतर की ओर सिमटते आवर्त्त होते हैं। इस कारण अक्सर वह खुला-खुला-सा शिल्प लगता है। नागार्जुन की कविता के शिल्प ने महादेश के विराट भूगोल, उसकी सामाजिक विविधताओं और विस्मयकारी प्रकृति ने बहुत कुछ जोड़ा है। बहुत कुछ रचा-बुना है। उनके छंद का संगीत समतल और सरल रैखिक नहीं है। वहग वक्रीय है। उसमें उतार-चढ़ाव भी हैं और गोलाइयाँ भी। स्वर के परस्पर संघात और आघात से आगे बढ़ती लय है। लक्ष्य किया जाना चाहिए कि जब-जब जन आंदोंलन तीव्र हुए हैं उनकी कविता की लय भी तब-तब अधिक तीव्र हुई है। जन आंदोलन और दमन के बीच मुठभेड़ को उनके शब्दों के परस्पर संघात में भी महसूस किया जा सकता है। तेलंगाना से लेकर ’90 के दौर तक की कविताओं में इसका अलग से अध्ययन किया जाना जाहिए। करूणा और उदासी के अंतर प्रवाह के साथ इसे जेल में लिखी कविताओं में भी सुना और देखा जा सकता है।
नागार्जुन कई बार एक पद या अर्धाली की आवृति से एक लयात्मक वर्तुल बनाते है जिसमें पहले बाहर की ओर फैलते आवर्त्त बनते हैं और बाद में केन्द्र की ओर लौटते आवर्त्त। कभी-कभी लगता है जैसे कोई ‘जनचक्र’ को घुमा रहा हो।
नागार्जुन के लिए क्षण में उसकी सार्वभौमिकता भी निवास करती है। यह सामान्य क्षण या घटना ही उनके लिए विशिष्ट है, वास्तविक है। इसी आब्जेक्ट से उन्हें अपनी काव्य उत्तेजना प्राप्त होती है। यह उनकी कविता का प्रस्थान बिन्धु है। अनुभवजन्य दिक और काल का पुर्न्सृजन करते हुए वे उसका अतिक्रमण कर जाते हैं। इस तरह एक गोचर साक्ष्य से शुरू हुई कविता विराट और अनेक संस्तरों वाली सामाजिक प्रक्रिया से अपने ताने-बाने जोड़ती जाती है। अपने वैचारिक निष्कर्षों को वह ढाँक-मूदकर नहीं रखती। लेकिन अंतिम निर्णय सुनाकर विचार की प्रक्रिया को समाप्त कर देने का काम भी नहीं करती। वह उसे निरंतरता देते हुए स्वतंत्र भी करती है। उसमें हमारी विद्रूपताएँ भी हैं और विडंबनाएँ भी। नागार्जुन की चेतना अदृश्य सूत्रों से जनता की विराट देह से जुड़ी है इसीलिए तो जानता पर यहाँ-वहाँ दगती शासन की बंदूकों को वे बहुवचन में उपयोग नहीं करते। सबको जोड़कर नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक बना देता है। बहुवचन को जोड़ कर एक विराट एकवचन में बदल देने का प्रयोग नागार्जुन की ही कविता में मिलता है।
नागार्जुन की कविता की आख्यानात्मकता और उनके आख्यानों की काव्यात्मकता एक दूसरे के पूरक तत्त्व हैं शायद इसीलिए वरुण के बेटे या बाबा बटेसरनाथ जैसे उपन्यासों को पढ़ते हुए एक प्रदीर्घ कविता का पढ़ने का अहसास होता है और ‘नेवला’ और ‘हरिजनगाथा’ जैसी कविताओं को पढ़ते हुए एक वृहत् आख्यान को पढ़ने का। उनकी अनेक कविताएँ छोटे-छोटे आख्यानों और उपाख्यानों से बनी हैं। शायद इसीलिए उनकी कविता में विवरण तो है, कई बार बहुत महीन और अक्सर अलक्ष्य कर दिए जानेवाले विवरण भी लेकिन उनमें चित्रण अधिक नहीं है। लोगों के व्यवहार, रीतिरिवाज पहरावे, भाषा और भाव की भंगिमाएँ आदि अनेक महीन ब्यौरे, अपनी पूरी सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ उनकी कविता में मौजूद हैं। इस तरह नागार्जुन ने जनता की सहज वृत्ति को टटोलते हुए हमारी बहुलता के बीच एकता के सबसे ज़रूरी सूत्र को तलाश किया है।
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निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने इतने छंद, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। इस चयन को तैयार करते हुए इस बात की कोशिश मैंने की है कि इसका थोड़ा-सा आभास पाठकों को मिल सके। उनकी अभिव्याक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वागत से मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता के पद उधार लें तो कह सकते हैं- स्वागत शोक में बीच निहित हैं विश्व व्यथा के। उनकी कविता एक ऐसी बातचीत है जो दूसरों को संबोधित है, जो अंतर बाह्य की अटूट संधि से बनी है।
उसमें विश्व व्यथा के बीज भी हैं और स्वागत शोक भी। इस तरह की शैली ज़्यादातर आख्यानात्मक और गद्य कविताओं में अधिक सामर्थ्य के साथ प्रकट होती है। उनकी गद्य लय का उठान काव्य लय के स्तर तक जाता है और कई बार उनकी काव्य लय ठेठ गद्य की लय को छूने लगती है। इसमें उनकी विवरण कला और बातूनीपन का विलक्षण युग्म देखा जा सकता है। विशेष रूप से उत्तर भारत और पूर्वांचल के लोगों का बातूनीपन, गप्प मारने, हँसने-हँसाने, ठिठोली करने, बीच-बीच में चिऊँटी काटने, यहाँ तक की शरारत और आब्सिनिटी का बेहद सतर्क उपयोग उनकी कविता में है। इस शैली के लचीलेपन का उपयोग करते हुए नागार्जुन कई तरह की स्वतंत्रता लेते हैं। वे कई बार एक से अधिक काव्य रूपों या छंदों का इस्तेमाल एक ही कविता में कर लेते है। इस तरह का मिश्रण नाटकीयता को तो पैदा करता ही है साथ ही हमारी सामाजिक संरचना की ओर भी इंगित करता है। इस शैली में घुमक्कड़ी की मुक्ततता भी है और गति भी। वे उन कवियों में नहीं हैं जो अपने ज्ञान और कौशल से स्वयं भी आक्रांत होते हैं और हमेशा दूसरों को चमत्कृत करने की मनोग्रंथि से ग्रस्त रहते हैं। स्वागत और मुक्त बातचीत की शैली में उनकी लंबी कविता ‘नेवला’ तथा ‘हरिजन गाथा’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। यह महज़ संयोग नहीं है कि आत्मकथात्मक हिस्से अक्सर उनकी इसी शैली की कविताओं में दिखाई पड़ते है।
नागार्जुन की कविता में ‘आत्मा’ शब्द का इस्तेमाल अपवाद स्वरूप ही हुआ है। बुद्ध के अनात्मवाद से इसका क्या रिश्ता है, है भी या नहीं कहना मुश्किल है; लेकिन उनकी कविता में एक नाभीय बिन्दु अक्सर ओझल-सा होता है। उसमें परत-दर-परत कई परतें खुलती हैं। उसमें आवर्त्त-दर-आवर्त्त बाहर की ओर फैलते और बाहर से भीतर की ओर सिमटते आवर्त्त होते हैं। इस कारण अक्सर वह खुला-खुला-सा शिल्प लगता है। नागार्जुन की कविता के शिल्प ने महादेश के विराट भूगोल, उसकी सामाजिक विविधताओं और विस्मयकारी प्रकृति ने बहुत कुछ जोड़ा है। बहुत कुछ रचा-बुना है। उनके छंद का संगीत समतल और सरल रैखिक नहीं है। वहग वक्रीय है। उसमें उतार-चढ़ाव भी हैं और गोलाइयाँ भी। स्वर के परस्पर संघात और आघात से आगे बढ़ती लय है। लक्ष्य किया जाना चाहिए कि जब-जब जन आंदोंलन तीव्र हुए हैं उनकी कविता की लय भी तब-तब अधिक तीव्र हुई है। जन आंदोलन और दमन के बीच मुठभेड़ को उनके शब्दों के परस्पर संघात में भी महसूस किया जा सकता है। तेलंगाना से लेकर ’90 के दौर तक की कविताओं में इसका अलग से अध्ययन किया जाना जाहिए। करूणा और उदासी के अंतर प्रवाह के साथ इसे जेल में लिखी कविताओं में भी सुना और देखा जा सकता है।
नागार्जुन कई बार एक पद या अर्धाली की आवृति से एक लयात्मक वर्तुल बनाते है जिसमें पहले बाहर की ओर फैलते आवर्त्त बनते हैं और बाद में केन्द्र की ओर लौटते आवर्त्त। कभी-कभी लगता है जैसे कोई ‘जनचक्र’ को घुमा रहा हो।
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
और इसी के दूसरे पैरा में लय उलट जाती है :
दाने आए घर के अंतर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
लगता है जैसे सारी यात्राएँ बार-बार वापस मिथिला की ओर लौट रही हैं। आवृत्ति घटना का अतिक्रमण करके उसमें अंतर्निहित प्रवृति को प्रकट कर देती है। शब्द संघात से कई बार नागार्जुन एक विराट ध्वनि बिम्ब भी रचते है। ध्वनि बिम्ब से किसी विराट बिम्ब को रचने के इस कौशल में मुक्तिबोध और नागार्जुन आस-पास लगते हैं।
नागार्जुन नज़ीर और भारतेन्दु के मिलेजुले उत्ताराधिकार को कविता में संभव बनाते हैं। इसमें सहज संप्रेषणीयता भी है और अद्भुत नाटकीयता भी। उनकी नाटकीयता में व्यंग्य है, हँसी है, गुस्सा है, चुहुल है लेकिन सारा कुछ एक बेहद सजग और जागृत राजनीतिक चेतना के साथ। उनकी हँसी महज़ हँसी नहीं है, वह बेहद साहस भरी हँसी है जो अभिजात को छेदती है, अन्यायी का मज़ाक़ उड़ाती है और अन्यायी पर हँसने और उसका विरोध करने का साहस देती है। कई बार गुस्सा उनके व्यंग्य की जगह ले लेता है, तब नागार्जुन बहुत मुखर हो जाते है। उनकी कविता नुक्कड़ नाटक के सामांतर एक भूमिका भी अदा करती है। वहाँ उनका अंदाज़ नज़ीर की तरह और विवेक भारतेन्दु की तरह होता है। उनकी राजनीतिक कविताएँ कई बार विवाद का विषय रही हैं। यह विवाद उनकी मूल वर्गीय राजनीतिक चेतना को लेकर उतना नहीं है, जितना वह उनकी व्यावहारिक राजनीति की समझ और उस पर की गई टिप्पणीयों को लेकर है। किसी भी रचनाकार की राजनीतिक दृष्टि उसकी पूरी रचना प्रक्रिया और रचना कौशल में अंतर्गुम्फित होती है। इसलिए वह उसके शिल्प उसकी भाषा और उसके काव्य मुहावरे में भी प्रतिबिम्बित होती है।
नागार्जुन की भाषा बहुत फैली हुई भाषा है। बहुत सघन, संकुल और बहुत उन्मुक्त भी। उसमें विभिन्न बोलियों के, संस्कृत, ऊर्दू और अग्रेज़ी के भी कई शब्द मौजूद हैं। नागार्जुन की रचना भाषा शब्दों को ग्रहण करने के अर्थ में बहुत लचीली और समावेशी है। उसके तल में बोलियों की सहस्त्र धारा का अंतर्प्रवाह सतत् मौजूद रहता है। डॉ. रामविलास शर्मा ने नागार्जुन की भाषा के लिए लिखा है-‘‘हिन्दी भाषी क्षेत्र के किसान मजदूर जिस तरह की भाषा आसानी से समझते और बोलते हैं, उसका निखरा हुआ काव्यमय रूप नागार्जुन के यहाँ है।’’ जीवन की भाषा को पकड़ने में उनके कान बहुत चौकन्ने हैं और स्मृति विलक्षण। इसलिए उनकी भाषा में मिथिला की माटी की गंध और गंगा तट का ही संगीत नहीं, शिप्रा के तट की मालवी मिठास और बेतवा के तट की बुंदेली ठसक भी सुनाई पड़ती है। एक कविता में अपने भाषा संबन्धी आग्रह को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है-हिन्दी की है असली रीढ़ गँवारू बोली। मिथकों के साथ नागार्जुन के व्यवहार में भी उनकी सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।
नागार्जुन ने अपनी मूल राजनीतिक दृष्टि को जन के साथ गहरे और आत्मीय जुड़ावों के बीच अर्जित किया था। उनकी कविता में परिचित, अपरिचित और अल्पज्ञात व्यक्तियों की उपस्थिति किसी भी अन्य कवि से अधिक है। इन परिचितों और अल्पज्ञात व्यक्तियों की उपस्थिति किसी भी अन्य कवि से अधिक है। इन परिचितों में कालिदास भारतेन्दु, रवीन्द्रनाथ, निराला अग्रज रचनाकार है, गोर्की, लू शुन, ब्रेष्ट आदि जैसे विदेशी रचनाकार हैं, केदारनाथ अग्रवाल, शैलेन्द्र, हरिशंकर परसाई, रेणु, राजकमल चौधरी जैसे अपने समकालीन और बाद की पीढ़ी के रचनाकार हैं। गाँधी, नेहरू, नाग भूषण पटनायक जैसे कई युगपुरुष हैं। अपने समय के राजनीतिज्ञ हैं और किसी अनहोनी घटना से अचानक चर्चा में आ गए कई सामान्य लोग हैं। इस एलबम में बीसवीं सदी के पचास-साठ बरस के अनेक चेहरे हैं। लगभग सभी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सामाजिक घटनाओं के दृश्य हैं। व्यक्तियों पर लिखी कविताओं में नागार्जुन की अंतर्दृष्टि के कई पक्ष उजागर होते हैं।
नागार्जुन मात्र राजनीतिक कवि नहीं हैं इस महादेश की विपुल और विविधरंगी प्रकृति का ऐसा अनुगायन, जैसा नागार्जुन की कविताओं मे संभव हुआ है, बहुत कम ही कवियों में संभव हो सका है। बादल उनकी कविता का जैसे एक केन्द्रीय पात्र है। इस बादल की जल नाड़ियाँ बहुत दूर-दूर तक फैली हैं। संस्कृत की क्लासकीय परंपरा में अगर इसका एक छोर है तो दूसरा ठेठ लोक से जुड़ा है।
नागार्जुन नज़ीर और भारतेन्दु के मिलेजुले उत्ताराधिकार को कविता में संभव बनाते हैं। इसमें सहज संप्रेषणीयता भी है और अद्भुत नाटकीयता भी। उनकी नाटकीयता में व्यंग्य है, हँसी है, गुस्सा है, चुहुल है लेकिन सारा कुछ एक बेहद सजग और जागृत राजनीतिक चेतना के साथ। उनकी हँसी महज़ हँसी नहीं है, वह बेहद साहस भरी हँसी है जो अभिजात को छेदती है, अन्यायी का मज़ाक़ उड़ाती है और अन्यायी पर हँसने और उसका विरोध करने का साहस देती है। कई बार गुस्सा उनके व्यंग्य की जगह ले लेता है, तब नागार्जुन बहुत मुखर हो जाते है। उनकी कविता नुक्कड़ नाटक के सामांतर एक भूमिका भी अदा करती है। वहाँ उनका अंदाज़ नज़ीर की तरह और विवेक भारतेन्दु की तरह होता है। उनकी राजनीतिक कविताएँ कई बार विवाद का विषय रही हैं। यह विवाद उनकी मूल वर्गीय राजनीतिक चेतना को लेकर उतना नहीं है, जितना वह उनकी व्यावहारिक राजनीति की समझ और उस पर की गई टिप्पणीयों को लेकर है। किसी भी रचनाकार की राजनीतिक दृष्टि उसकी पूरी रचना प्रक्रिया और रचना कौशल में अंतर्गुम्फित होती है। इसलिए वह उसके शिल्प उसकी भाषा और उसके काव्य मुहावरे में भी प्रतिबिम्बित होती है।
नागार्जुन की भाषा बहुत फैली हुई भाषा है। बहुत सघन, संकुल और बहुत उन्मुक्त भी। उसमें विभिन्न बोलियों के, संस्कृत, ऊर्दू और अग्रेज़ी के भी कई शब्द मौजूद हैं। नागार्जुन की रचना भाषा शब्दों को ग्रहण करने के अर्थ में बहुत लचीली और समावेशी है। उसके तल में बोलियों की सहस्त्र धारा का अंतर्प्रवाह सतत् मौजूद रहता है। डॉ. रामविलास शर्मा ने नागार्जुन की भाषा के लिए लिखा है-‘‘हिन्दी भाषी क्षेत्र के किसान मजदूर जिस तरह की भाषा आसानी से समझते और बोलते हैं, उसका निखरा हुआ काव्यमय रूप नागार्जुन के यहाँ है।’’ जीवन की भाषा को पकड़ने में उनके कान बहुत चौकन्ने हैं और स्मृति विलक्षण। इसलिए उनकी भाषा में मिथिला की माटी की गंध और गंगा तट का ही संगीत नहीं, शिप्रा के तट की मालवी मिठास और बेतवा के तट की बुंदेली ठसक भी सुनाई पड़ती है। एक कविता में अपने भाषा संबन्धी आग्रह को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है-हिन्दी की है असली रीढ़ गँवारू बोली। मिथकों के साथ नागार्जुन के व्यवहार में भी उनकी सांस्कृतिक और राजनैतिक दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।
नागार्जुन ने अपनी मूल राजनीतिक दृष्टि को जन के साथ गहरे और आत्मीय जुड़ावों के बीच अर्जित किया था। उनकी कविता में परिचित, अपरिचित और अल्पज्ञात व्यक्तियों की उपस्थिति किसी भी अन्य कवि से अधिक है। इन परिचितों और अल्पज्ञात व्यक्तियों की उपस्थिति किसी भी अन्य कवि से अधिक है। इन परिचितों में कालिदास भारतेन्दु, रवीन्द्रनाथ, निराला अग्रज रचनाकार है, गोर्की, लू शुन, ब्रेष्ट आदि जैसे विदेशी रचनाकार हैं, केदारनाथ अग्रवाल, शैलेन्द्र, हरिशंकर परसाई, रेणु, राजकमल चौधरी जैसे अपने समकालीन और बाद की पीढ़ी के रचनाकार हैं। गाँधी, नेहरू, नाग भूषण पटनायक जैसे कई युगपुरुष हैं। अपने समय के राजनीतिज्ञ हैं और किसी अनहोनी घटना से अचानक चर्चा में आ गए कई सामान्य लोग हैं। इस एलबम में बीसवीं सदी के पचास-साठ बरस के अनेक चेहरे हैं। लगभग सभी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सामाजिक घटनाओं के दृश्य हैं। व्यक्तियों पर लिखी कविताओं में नागार्जुन की अंतर्दृष्टि के कई पक्ष उजागर होते हैं।
नागार्जुन मात्र राजनीतिक कवि नहीं हैं इस महादेश की विपुल और विविधरंगी प्रकृति का ऐसा अनुगायन, जैसा नागार्जुन की कविताओं मे संभव हुआ है, बहुत कम ही कवियों में संभव हो सका है। बादल उनकी कविता का जैसे एक केन्द्रीय पात्र है। इस बादल की जल नाड़ियाँ बहुत दूर-दूर तक फैली हैं। संस्कृत की क्लासकीय परंपरा में अगर इसका एक छोर है तो दूसरा ठेठ लोक से जुड़ा है।
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