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पतझर की आवाज

कुर्रतुल ऐन हैदर

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :244
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 549
आईएसबीएन :81-7201-705-7

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ये कहानियाँ मनुष्य मात्र के अंतर्मन में बारीकी से प्रवेश करती नजर आती है तथा समकालीन समाज के क्रूर यथार्थ को गहन संवेदना के साथ निरूपित करती है।

Patjhar ki Aawaz - A hindi Book by - Qurtul Ain Haider पतझर की आवाज - कुर्रतुलऐन हैदर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पतझर की आवाज़ कुर्रतुल-ऐन-हैदर के साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत उर्दू कहानी-संग्रह का हिन्दी अनुवाद है। संग्रह में शामिल कहानियाँ भारतीय समाज में संरक्षित जीवन मूल्यों के घात-प्रतिघात और पीड़ा को भिन्न-भिन्न रूपों में व्यक्त और अभिव्यंजित करती हैं। बदलते समय की रफ्तार को पीछे छोड़ जाने की संवादहीन नई पीढ़ी की व्याकुलता और व्यक्ति के असमंजस ने उसे कहाँ ला पटका है, इसका नितांत सूक्ष्म और कुशल चित्रण लेखिका ने अपनी कहानियों में किया है। ये कहानियाँ मनुष्य मात्र के अंतर्मन में बारीकी से प्रवेश करती नज़र आती हैं तथा समकालीन समाज के क्रूर यथार्थ को गहन संवेदना के साथ निरूपित करती हैं।

प्रस्तुत कृति का सहज, सरल एवं प्रांजल अनुवाद हिन्दी-उर्दू की सुपरिचित विद्वान माजदा असद ने किया है। निश्चय ही यह अनुवाद वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र के पाठकों को उर्दू की अन्यतम कथा-लेखिका के कथा-संसार से परिचित कराने में मूल का-सा आस्वाद देगा।


डालनवाला



एक बहुत दुबला-पतला बूढ़ा, घिसा हुआ और जगह-जगह से मैल चमकता हुआ कोट-पैंट पहने, काली गोल टोपी ओढ़े, पतली कमानी वाले छोटे-छोटे शीशों की ऐनक लगाए, हर तीसरे दिन तीसरे पहर के समय बरसाती में दाखिल होता था और छडी को धीरे-धीरे बजरी पर खटखटाता था। फ़ख़ीरा बाहर आकर बाजी को आवाज़ देता, ‘‘बिटिया चलिये साइमन साहब आ गये।’’ बूढ़ा बाहर से ही बाग़ की सड़क का चक्कर काटकर पास के बरामदे में पहुँचता। एक कोने में जाकर, जेब से मैला-सा रूमाल निकाल कर झुकता फिर धीरे से पुकारता, ‘‘रेशम, रेशम !’’ रेशम दौड़ती हुई आती। बाजी बड़े करीने से सितार कंधे से लगाये, बरामदे में प्रवेश करती। तख़्त पर बैठ कर सितार का लाल बनारसी गिलाफ़ उतारती और अभ्यास शुरू हो जाता।

वर्षा के बाद जब बाग़ भीगा-भीगा-सा होता और एक अनोखी-सी ताज़गी और सुगंध वातावरण में तैरती तो बूढ़े को वापिस जाते समय घास पर गिरी कोई खूबानी मिल जाती। वह उसे उठाकर जेब में रख लेता। रेशम उसके पीछे-पीछे चलती। प्राय: रेशम शिकार की तलाश में झाड़ियों के अंदर छिप जाती या किसी पेड़ की हिलती हुई शाखा को देखती, वह सिर झुकाकर फाटक से बाहर चला जाता। हर तीसरे दिन, तीसरे पहर के समय फिर इसी तरह बजरी पर छड़ी के खटखटाने की आवाज़ आती।
यह नियम बहुत दिनों से चल रहा था।

जब वे पड़ोस में मिसेज़ जोगमाया चटर्जी कलक्तता से आकर रही थीं इस मोहल्ले के वासियों को बड़ा सख़्त अहसास हुआ था कि उनकी जिन्दगी में आर्ट और कल्चर की बहुत कमी है। संगीत की हद तक इन सब के ‘गोल कमरों’ में एक-एक ग्रामोफ़ोन रखा था। (अभी रेडियो आम नहीं हुए थे। फ़्रिज स्टेटस सिम्बल नहीं बना था। टेप रिकार्डर का आविष्कार नहीं हुआ था और सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक अभी केवल कोठी, कार और बैरे समझे जाते थे) लेकिन जब मिसेज़ जोगमाया चटर्जी के यहाँ सुबह-शाम हारमोनियम की आवाजें सुनाई देने लगीं तो सर्वे आफ इंडिया के उच्च अधिकारी की पत्नी मिसेज़ गोस्वामी ने वन विभाग के उच्च अधिकारी की पत्नी मिसेज़ फ़ारुक़ी से कहा, ‘‘बहन जी हमलोग तो बहुत ही बैकवर्ड रह गये। इन बंगालियों को देखिए, हर चीज़ में आगे आगे....’’
‘‘और मैंने तो यहाँ तक सुना है कि इन लोगों में जब तक लड़की गाना-बजाना न सीख लें उसका ब्याह नहीं होता। मिलिटरी अफ़सर की पत्नी मिसेज़ जसवन्त सिंह ने अपनी राय प्रकट की।

‘‘हम मुसलमानों में तो गाना-बजाना अच्छा नहीं समझा जाता, मगर आजकल जमाना दूसरा है। मैंने तो ‘उनसे’ कह दिया है मैं अपनी हमीदा को हारमोनियम ज़रूर सिखाऊँगी।’’ मिसेज़ फ़ारुक़ी ने जवाब दिया।
और इस तरह धीरे-धीरे डालनवाला में आर्ट और कल्चर की हवा चल पड़ी। डा. सिन्हा की लड़की ने नाच सीखना भी शुरू कर दिया। सप्ताह में तीन बार एक दुबले-पतले डांस मास्टर मुँह से अजीब-अजीब आवाज़ें निकालते-‘‘जी जी कत ता तोम तरंग तका तुन तुन’’ वगैरह। वह तबला बजाते रहते और उषा सिन्हा के पाँव तोड़ों की चकफेरियाँ लेते-लेते घुँघरुओं की चोट से घायल हो जाते।
पड़ोस के एक नौजवान रईस सरदार अमरजीत सिंह ने वायलन पर हाथ साफ करना शुरू किया। सरदार अमरजीत सिंह के पिता ने डच ईस्ट इंडीज के केंद्र बटाविया में जो आज इंडोनेशिया गणतंत्र का केंद्र जकार्ता कहलाता है, व्यापार करके बहुत दौलत जमा की थी। सरदार अमरजीत सिंह एक शौक़ीन मिजाज़ रईस थे। जब वह ग्रामोफ़ोन पर बड़ी तल्लीनता से बिब्बो का रिकार्ड-
‘‘ख़िज़ाँ ने आके चमन को उजाड़ देना है,
मेरी खिली हुई कलियों को लूट लेना है।’’

बार-बार न बजाते तो दरीचे में खड़े होकर वायलन के तारों पर उसी तल्लीनता से ग़ज़ रगड़ा करते, या फेरी वाले बजाजों से रंग-बिरंगी छीटों की जारज़ट अपने साफों के लिए खरीदते रहते। ये बढिय़ा साफ़े बांधकर और दाढ़ी पर बड़ी नफासत से पट्टी चढ़ाकर मिसेज़ फलक नाज़ मर्वांरीद ख़ाँ से मुलाकात के लिए चले जाते और अपनी पत्नी सरदारनी बीबी चरनजीत कौर से कह जाते कि वायलन सीखने जा रहे हैं।
इसी जमाने में बाजी को सितार का शौक़ पैदा हुआ।
उन सर्दियों में बहुत-सी घटनाएँ घटीं। सबसे पहले तो रेशम की टाँग घायल हुई। फिर मौत के कुएँ में मोटर-साइकिल चलाने वाली मिस जोहरा डर्बी ने आकर परेड ग्राउंड में अपने झंडे गाड़े। हसीन डाइना बैकेट हसीना-ए-लंदन कहलाई। डा. मिस ज़ुबैदा सिद्दीक़ी को रात के दो बजे गधे के बराबर आकार वाला कुत्ता नज़र आया। मिस्टर पीटर राबर्ट सरदार ख़ाँ हमारी ज़िन्दगी से ग़ायब हो गये। नीगस ने आत्महत्या कर ली और फ़क़ीरा की भावज गौरैया चिड़िया बन गयी।
चूँकि यह सब बहुत महत्त्वपूर्ण घटनाएँ थीं। इसलिए मैं इनका क्रम से वर्णन करती हूँ।
मेरी बहुत खूबसूरत और प्यारी रेहाना बाजी ने जो मेरी चचेरी बहन थी इसी साल बी.ए. पास किया था और वह अलीगढ़ से कुछ महीनों के लिए हमारे यहाँ आयी हुई थी। एक सुहानी सुबह बाजी सामने के बरामदे में खड़ी डा. हून की बीबी से बातों में व्यस्त थी कि अचानक बरसाती की बजरी पर हल्की-सी खट-खट हुई और एक कमज़ोर और दुबले-पतले से बूढ़े ने बड़ी धीमी और कोमल आवाज़ में कहा-‘‘मैंने सुना है यहाँ कोई लेडी सितार सीखना चाहती हैं ?’’

बाजी के प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने केवल इतना कहा कि उनकी मासिक फीस पाँच रुपये है और वह सप्ताह में तीन बार एक-एक घंटा सिखाया करेंगे। वह कर्ज़न रोड पर पादरी स्काट की खाली कोठी के एक सर्वेन्ट क्वार्टर में रहते है। उनके बीवी बच्चे मर चुके हैं और वर्षों से यही उनकी जीविका का साधन है जिसके द्वारा वह आठ-दस रुपये महीना कमा लेते हैं।
‘‘लेकिन इस सोये से शहर में सितार सीखने वाले ही कितने होगे ?’’ बाजी ने पूछा।
उन्होंने उसी धीमी आवाज़ में कहा, ‘‘कभी-कभी एक दो शागिर्द मिल जाते हैं।’’ (इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने संबंध में कुछ नहीं बताया) वह बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति मालूम होते थे। उनका नाम साइमन था।
सोमवार के दिन वह ट्यूशन के लिए आ गये। बाजी पिछले लॉन पर धूप में बैठी थीं। मिस्टर साइमन को यहीं भेज दो। उन्होंने फ़क़ीरा से कहा। बाजी के पास जाने के लिए फ़क़ीरा ने उन्हें अंदर बुला लिया। उस दिन बड़ी सर्दी थी और मैं अपने कमरे में बैठी किसी सटर-पटर में लीन थी। मेरे अपने कमरे में से गुज़रते हुए जरा ठिठककर साइमन ने चारों तरफ़ देखा। आतिशदान में आग जल रही थी। एक क्षण के लिए उनके पैर आतिशदान की तरफ़ बढ़े और उन्होंने आग की तरफ हथेलियाँ फैलाई, लेकिन जल्दी से फ़क़ीरा के पीछे पीछे बाहर चले गये।

रेशम ने उनसे बहुत जल्दी दोस्ती कर ली। यह बड़ी ताज्जुब की बात थी क्योंकि रेशम बहुत घमंडी अकलखुरी थी और अपने स्यामी सौन्दर्य पर बहुत गर्व करती थी और बहुत कम लोगों को पसंद करती थी। ज़्यादातर वह अपनी साटन के रेशमी झालरदार गिलाफ़ वाली टोकरी के गदीलों पर आराम करती रहती और खाने के समय बड़ी चतुराई से आँखें बंद करके मेज़ के नीचे बैठ जाती।
बाजी मुख पर आकर्षक और सन्तुष्ट मुस्कराहट लिये बाग़ में बैठी मुजफ्फर भाई के बेहद उन दिलचस्प खतों को पढ़ा करतीं, जो उनके नाम हर पाँचवें दिन बंबई से आते थे। वहाँ मुजफ्फर भाई इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। बाजी से उनकी शादी तय हो चुकी थी। जितनी देर वह बाग में बैठतीं गफ़ूर बेगम उनके निकट घास पर पानदान खोले बैठी रहती। जब बाजी अंदर चली जातीं तो गफ़ूर बेगम क्वार्टर की तरफ़ जाकर फ़क़ीरा की भावज़ से बातें करने लगती या फिर अपनी नमाज़ की चौकी पर आ बैठती।
गफ़ूर बेगम बाजी की बहुत वफ़ादार आया थीं।

साइमन के आते ही रेशम दबे पाँव चलती हुई आकर खुर-खुर करने लगती। वह तुरंत जेब से रूमाल निकाल कर उसे कुछ खाने को देते। शाम के समय जब फ़क़ीरा उनके लिए चाय की ट्रे लेकर बरामदे में आता तो आधी चाय प्लेट में डालकर ज़मीन पर रख देते और रेशम फौरन उसे पी लेती और फ़क़ीरा बड़बड़ाता-‘‘हमारे हाथ से तो रानी साहिबा दूध पीने में भी नख़रे करती हैं।’’
फ़क़ीरा एक हँसमुख गढ़वाली नौजवान था। दो साल पहले वह फटे हाल नहर के किनारे बैठा ऊन की सलाइयों से मोज़े बुन रहा था जो पहाड़ियों में आम रिवाज है तो सुखनंदन बावर्ची ने उससे पूछा था, ‘‘क्यों बे, नौकरी करेगा...?’’ उसने खिलखिलाहट भरी हँसी के साथ हँसते हुए जवाब दिया था, ‘‘महीनों से भूखा मर रहा हूँ, क्यों नहीं करूँगा। तब से वह हमारे यहाँ ऊपर का काम कर रहा था। एक दिन उसने सूचना दी कि उसके दोनों बड़े भाइयों की मृत्यु हो गयी है और वह अपनी भावज को लेने गढ़वाल जा रहा था। कुछ दिनों बाद उसकी आवाज जलंधरा पहाड़ से आकर सर्वेन्ट क्वार्टर में रहने लगी।

जलधरा अधेड़ उम्र की एक गोरी-चिट्टी औरत थी जिसका माथा, ठोढ़ी और कलाइयाँ नीले रंग से गुदी हुई थीं। वह नाक में सोने की लौंग और बड़ा-सा बुलाक़ और कानों के बड़े-बड़े छेद में लाख के फूल पहनती थी। उसके गले में मल्का विक्टोरिया के रुपयों की माला भी पड़ी थी। ये तीन गहने उसके तीनों सम्मिलित पतियों की सम्पत्ति थी। उसके दोनों मृतक पति मरते दम तक मुसाफ़िरों का सामान ढोते रहे और इकट्ठे ही एक पहाड़ी से गिर कर मर गये। जलधरा बड़े मीठे ढंग से बात करती है और हर समय स्वेटर बुनती रहती है। उसे घेघे की पुरानी बीमारी थी। फ़क़ीरा उसके इलाज के लिए चिंतित रहता और उससे बेहद प्यार करता था। जलधरा के आने पर बाक़ी नौकरों की पत्नियों में आपस में काना-फूसी होती-‘‘यह पहाड़ियों के यहाँ कैसा बुरा रिवाज़ है, एक लुगाई के दो-दो तीन-तीन पति।’’ और अब जलधरा की चर्चा दोपहर को खाने की मेज़ पर हुई तो बाजी ने तुरंत द्रौपदी का हवाला दिया और कहा पहाड़ियों में यह रिवाज़ महाभारत के ज़माने से चला आता है और देश के बहुत से हिस्सों का सामाजिक विकास एक ख़ास सीमा पर पहुँच कर वहीं ठहर गया है। पहाड़ी इलाके भी इन्हीं पिछड़े हुए हिस्सों में से हैं। बाजी ने यह भी कहा कि पोली एंड्री, जिसे उर्दू में चंदशौहरी (कई पति) कहते हैं, मातृक परम्परा की यादगार है। जब समाज में मातृक परम्परा पैतृक परंपरा की ओर बढ़ी तो मनुष्य भी बहु पत्नीत्व की ओर चला गया और मातृक परंपरा से हज़ारों साल पूर्व तीन चार भाई के बजाए क़बीलों का पूरा-का-पूरा समूह एक ही औरत के साथ रहता था और वेदों में इन क़बीलों की चर्चा मिलती है। मैं मुँह बाये यह सब सुनती रही। बाजी बहुत योग्य थीं। बी.ए. में उन्होंने प्रथम श्रेणी प्राप्त की थी। वह सारे अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रथम आई थीं।

एक दिन मैं अपनी छोटी-सी साइकिल पर अपनी सखियों के यहाँ जा रही थी। रेशम मेरे पीछे-पीछे भागती आ रही थी। इस विचार से कि वह सड़क पर आने वाली मोटरों से कुचल न जाए, मैं साइकिल से उतरी, उसे खूब डांटकर सड़क से उठाया और बाड़ पर से अहाते के अंदर फेंक दिया और पैडल पर ज़ोर से पांव मारकर तेज़ी से आगे निकल गई।
रेशम अहाते में कूदने के बजाए बाड़ के अन्दर लगे हुए तेज नुकीले काँटों वाले तार में उलझ गयी। उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरु कर दिया और उसी तरह तार से लटकी चीख़ती और कराहती रही। बहुत देर बाद जब फ़क़ीरा उधर से गुज़रा जो झाड़ियों से मिर्चे और टमाटर तोड़ने उस ओर आया था, तो उसने बड़ी मुश्किल से रेशम को बाड़ में से निकाला और अंदर ले गया।

जब मैं कमला और बिमला के घर से लौटी तो देखा कि सबके चेहरे उतरे हुए हैं।’’ रेशम मर रही है,’’ बाजी ने कहा उसकी आँखों में आसू’’-कम्बख़्त न जाने किस तरह बाड़ के तारों में उलझ गई। न जाने क्यों इतनी बेवकूफ़ है, चिड़ियों के लालच में वहां जा घुसी होगी। अब बुरी तरह चिल्ला रही है। अभी डॉक्टर साहब मरहम-पट्टी करके गये हैं।’’
मेरा दिल दहल गया। रेशम के इस असहनीय कष्ट की ज़िम्मेदार मैं थी। उसके कष्ट और उसकी बुरी हालत को देखकर मेरे मन में बड़ा ही अपराध बोध हुआ। मैं जा कर घर के पिछवाड़े, घने पेड़ों में छिप गयी ताकि दुनिया की नज़रों से ओझल हो जाऊँ। कुछ दूर पर खुट-खुट बुढ़िया की शक्ल वाली मिसेज़ वारवर्टन के घर से वायरलेस की आवाज़ आ रही थी। दूर सर्वेंट क्वार्टर के सामने फ़क़ीरा की भावज़ घास पर बैठी गफ़ूर बेगम से बातें कर रही थी। पिछले बरामदे में बाजी मुजफ्फर भाई को पत्र लिखने में व्यस्त थीं। बाजी की आदत थी कि दिन भर में कोई भी ख़ास बात होती तो वह तत्काल मुजफ्फर भाई को लम्बा पत्र लिखती थीं। रेशम पट्टियों से बँधी उनके नज़दीक अपनी टोकरी में पड़ी थी। सारी दुनिया शांत थी, केवल मैं भागे हुए अपराधी की तरह ऊँची-ऊँची घास में खड़ी सोच रही थी। कि अब क्या करूँ ! आखिरकार मैं धीरे-धीरे अपने अब्बा के कमरे की तरफ़ गयी और दरीचे में से अंदर झाँका। अब्बा आराम कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मैं अंदर गयी और कुर्सी के पीछे जाकर खड़ी हो गयी। ‘‘क्या बात है बीबी ?’’ मेरी सिसकी सुनकर उन्होंने चौंककर मुझे देखा।
‘‘रेशम को...रेशम को हमने बाड़ में फेंक दिया था।’’

‘‘आपने फेंक दिया था ?’’
‘‘हम...हम कमला-बिमला के यहाँ जाने की जल्दी में थे। वह इतना मना करने के बाद भी पीछे-पीछे आ रही थी। हमने उसे जल्दी से बाग के अंदर फेंक दिया।’’ इतना कहकर मैंने बुरी तरह से रोना शुरू कर दिया।
रोने के बाद दिल हल्का हुआ और अपराध का थोड़ा-बहुत प्रायश्चित्त भी हो गया, मगर रेशम की तकलीफें किसी तरह कम न हुईं। शाम को साइमन सितार सिखाने के बाद देर तक उसके पास बैठे उससे बातें करते रहे।
रेशम की रोज़ाना मरहम-पट्टी होती थी और सप्ताह में एक बार उसे घोड़ा हस्पताल भेजा जाता था। उसकी रान के ऊपर से उसके घने और लम्बे-लम्बे सुरमई बाल काट दिये गये थे। घाव की गहरी लाल लकीरें दूर तक खिंची हुई थीं। काफ़ी दिनों के बाद उसके घाव भरे और उसने लँगड़ा कर चलना शुरू कर दिया। एक महीने के बाद वह धीरे-धीरे लँगड़ाती हुई साइमन को फाटक तक छोड़ने गयी और जब फ़क़ीरा बाज़ार से उसके लिए छीछड़े लेकर आता तो वह उसी तरह लँगड़ाती हुई कोने में रखे हुए अपने बरतन तक भी जाने लगी।

एक दिन सुबह के समय मिस्टर जार्ज बैकेट बाड़ की तरफ़ दिखाई दिये और झिझकते हुए उन्होंने मुझे अपनी तरफ़ बुलाया।
‘‘रेशम की तबीयत अब कैसी है ?’’ उसने पूछा। ‘‘मुझे मिस्टर साइमन ने बताया था कि वह बहुत ही घायल हो गयी थी।’’
मिस्टर जार्ज बैकेट ने पहली बार इस मोहल्ले में किसी से बात की थी। मैंने रेशम का हाल-चाल पूछने के लिए उनका शुक्रिया अदा किया और वह अपने चारख़ाने के कोट की फटी हुई जेबों में अँगूठे ठूँस कर आगे चले गए।
मिस्टर जार्ज बैकेट एक बहुत ग़रीब एंग्लो-इंडियन थे और पिलपिली साहब कहलाते थे। वह सड़क के किनारे एक टूटी-फूटी काई लगी झोंपड़ी में रहते थे और बाल्टी उठा कर सुबह कमेटी के नल से खुद पानी भरने जाया करते थे। उनकी एक लड़की थी जिसका नाम डायना था। वह परेड ग्राउंड पर एक अंग्रेज़ी सिनेमा हाल में टिकट बेचती थी। और अक्सर रंगीन फ्राक पहने सामने से साइकिल से जाया करती थी। उसके पास केवल चार फ़्राके थीं, जिन्हें वह धो-धोकर और बदल-बदल कर पहना करती थी। मिसेज़ गोस्वामी, मिसेज़ फ़ारुकी और मिसेज़ जसवंत सिंह का कहना था—‘‘सिनेमा हाल की नौकरी से उसे केवल पच्चीस रुपल्ली मिलते हैं और कैसे ठाठ से कपड़े पहनती है। उसे गोरे पैसे देते हैं।’’ लेकिन गोरे अगर उसे पैसे देते थे (यह मेरी समझ में नहीं आता था कि उसे गोरे क्यों पैसे देते थे ?) तो उसका बूढ़ा बाप खुद नल पर पानी भरने क्यों जाता था ?

यह पेंशन प्राप्त उन अंग्रेज़ों का मुहल्ला था, जो आकर्षक, खूबसूरत कोठियों में ख़ामोशी में रहते थे। उनके बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे हुए कमरों और बरामदों में लंदन इलेस्ट्रेटिड न्यूज़ टैलर, कंट्री लाइफ और पंच के ढेर मेज़ों पर रखे रहते थे और टाइम्स और डेली टेलीग्राफ़ के पुलन्दे समुद्री डाक से उनके नाम आते थे। उनकी पत्नियाँ प्रतिदिन सुबह अपने-अपने मार्निंग रूम में बैठकर बड़ी तन्मयता से ‘होम’ पत्र लिखती थीं और उनके ‘गोल कमरों’ में उनके बेटों की तस्वीरें सिल्वर फ्रेमों में सजी थीं जो पूर्वी अफ्रीका और दक्षिणी पूर्वी एशिया में अंग्रेज़ी राज्य को अधिक बढ़ाने में लगे थे। ये लोग वर्षों से इस देश में रहते आ रहे थे, मगर ‘कोई हाय’ और ‘अब्दुल छोटा हाजिरी माँगता’ से ज़्यादा शब्द न जानते थे। ये एकांतप्रिय अंग्रेज़ दिन भर बाग़वानी या ‘वर्ड वाचिंग’ या टिकट जमा करने में लीन रहते थे। ये बड़े अजीब लोग थे। मिस्टर हार्ड कॉसल तिब्बती भाषा और रीति-रिवाज के विशेषज्ञ थे। मिस्टर ग्रीन असम के ‘खासी क़बीले’ के विशेषज्ञ थे। कर्नल वाइटहेड जो उत्तरी पश्चिमी सीमा की लड़ाई में अपनी टाँग खो चुके थे और लकड़ी की टाँग लगाते थे, ‘खुशहाल ख़ाँ खटक’ का पूरा ज्ञान रखते थे। मेजर शल्टन स्टेट्समैन में शिकार संबंधी लेख लिखा करते थे और मिस्टर मार्चमैन शतरंज के दीवाने थे। मिस्टर ड्रंकवाटर प्लेन चिट पर रूहें बुलाती थीं और मिसेज वार्वरटन तस्वीरें बनाती थी।

मिसेज वार्वरटन एक ब्रिग्रेडियर की विधवा थी। वह हमारे पिछवाड़े रहती थी। उनकी बूढ़ी फूँस कुँआरी बहन भी उनके साथ रहती थी। इन दोनों बहनों की शक्लें लम्बी चोंच वाले परिन्दों की तरह थीं। ये दोनों अपने लंबे-चौंड़े ड्राइंगरूम के किसी कोने में बैठी हुई पानी के रंगों से हल्के-फुल्के चित्र बनाया करती थीं। ये दोनों इतनी छोटी-सी थीं कि पूरी तरह गिलाफ़ों से ढके हुए फ़र्नीचर और दूसरी चीज़ों के बीच इस तरह खो जाती थीं कि पहली नज़र में मुश्किल से दिखाई देतीं।
डालनवाला की एक कोठी में ‘इंगलिश स्टोर’ था, जिसका मालिक एक पारसी था, मोहल्ले की सारी अंग्रेज़ और दूसरी स्त्रियाँ यहाँ आकर ख़रीददारी करतीं और स्कैंडल और ख़बरों पर एक-दूसरे से सलाह-मसविरा किया करती थीं।
इस खुशहाल और संपन्न अंग्रेजी मुहल्ले के अकेले मिर्धन एंग्लो-इंडियन वासी बुझे-बुझे और नीली आँखों वाले मिस्टर जार्ज बैकेट ही थे, लेकिन वह बहुत सम्माननीय एंग्लो-इंडियन थे और स्वयं को पक्का अंग्रेज समझते थे। ‘इंगलिस्तान को ‘होम’ कहते थे। और कुछ वर्ष पहले जब शहंशाह जार्ज पंचम की मृत्यु पर कोलागढ़ में ‘स्लो मार्च’ में बड़ी भारी परेड हुई थी और गोरों के बैंड ने मौत की धुन बजाई थी तो मिस्टर जार्ज बैकेट भी अपनी भुजा पर शोक की काली पट्टी बाँधकर कोलागढ़ गये थे और अंग्रेजों के बीच बैठे थे। उनकी लड़की डायना रोज़ अपने सुनहरे बालों और सुंदर मुख को काले हैट और काली जाली से ढका हुआ था। बहुत दिनों तक काली शोक की पट्टी मिस्टर बैकेट अपनी भुजा पर बाँधे रहे थे।

लेकिन बच्चे बहुत निर्दयी होते हैं। डायनवाला के सारे हिंदुस्तानी बच्चे मिस्टर जार्ज बैकेट को न केवल पिलपिली साहब कहते थे बल्कि कमला और बिमला के बड़े भाई स्वर्ण ने, जो पन्द्रह वर्ष का था और दून पब्लिक स्कूल में पढ़ता था, मिस्टर बैकेट की लड़की डायना को चिढ़ाने की एक और तरकीब निकाली।
कमला और बिमला के पिता बहुत दिलचस्प और अच्छे स्वभाव के आदमी थे। उन्होंने एक बहुत ही अनोखा अंग्रेज़ी रिकार्ड सन् 1928 ईस्वी में इंगलिस्तान से खरीदा था। यह एक बेदह बेतुका गीत था। इसका एंग्लो-इंडियन उर्दू में अनुवाद भी साथ-साथ इसकी धुन में गाया गया था। न जो किस मनचले अंग्रेज़ ने इसे बनाया था। यह रिकार्ड अब स्वर्ण के कब्जे में था और जब डायना साइकिल पर उनके घर के सामने से गुजरती तो स्वर्ण ग्रामोफ़ोन दरीचे में रखकर उसके भोपू का रुख सड़क की तरफ़ कर देता और सुई रिकार्ड पर रख छिप जाता। गीत की धुन ऊँची होती जिसका एंग्लो-इंडियन अनुवाद निम्नलिखित है:


एक बार एक सौदागर शहर लंदन में था
जिसकी एक बेटी थी, नाम डायना उसका
नाम उसका डायना, सोले बरस की उमर
जिसके पास बहुत कपड़ा और सोना चाँदी
एक दिन जब डायना बगीचे में थी
बाप आया और बोली बेटी
जाओ कपड़ा पहनो और हो सफा
क्योंकि मैं तेरे वास्ते एक खाविन्द लाया
अरे रे मेरा बाप तब बोली बेटी
शादी का इरादा मैं नाहीं करती
अगर एक दो बरस तकलीफ़ नाहीं दयो
आ आ अरे दौलत मैं बिल्कुल छोड़ दयूं
तब बाप बोला अरे बच्चा बेटी
इस शख्स की जोरू तू नाहीं होती
माल और असबाब तेरा कुर्की कर द्यूँ
और एक कच्ची दमड़ी भी तुझे न द्यूँ
एक दिन जब विली किन्ज हवा खाने को गया
डायना का मुर्दा एक कोने में पाया
एक बादशाह प्याला उसकी कमर पर पड़ा
और चिट्ठी जिसमें लिखा
‘जहर पीकर मरा’।


जैसे ही रिकार्ड बजना शुरू होता बेचारी डायना साइकिल की गति तेज़ कर देती और अपने सुनहरे बाल झटक कर तेज़ी से आगे निकल जाती।
इस सर्दी के मौसम की दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना परेड ग्राउंड में ‘द ग्रेट ईस्ट इंडियन सर्कस एंड कारनिवल’ का आगमन था। इसके विज्ञापन लंगूरों और जोकरों के लंबे जुलूस के द्वारा बाँटे गये थे जिन पर लिखा था :
बीसवीं शताब्दी का आश्चर्यजनक तमाशा
शेर दिल हशीना
मिस ज़ोहरा डर्बी
मौत के कुएँ में आज रात
सबसे पहले फ़क़ीरा सर्कस देखकर लौटा। वह अपनी भावज़ को भी खेल दिखाने ले गया था और सुबह उसने सूचना दी-‘‘बेगम साहब बड़ी.... बिटिया...बीबी...जनानी’ ‘डैथ आफ बैल’ में ऐसे फटफटी चलाती है कि बस क्या बताऊँ...औरत है कि शेर की बच्ची...हरे राम...हरे राम....!’’
एक दिन स्कूल में कमला-बिमला ने मुझे बताया कि मिस ज़ोहरा डर्बी तो बड़ी सनसनीख़ेज औरत है और वह दोनों भी उसकी वीरता के कमाल स्वयं देखकर आयी हैं।

चूँकि मैं सर्कस पर पहले से आशिक़ थी। इसलिए जल्द ही बाजी के साथ परेड ग्राउंड पहुँची। वहाँ तम्बू के बाहर एक ऊँचे से चबूतरे पर एक मोटर साइकिल गड़गड़ा रही थी। और उसके पास मिस ज़ोहरा डर्बी कुर्सी पर बैठी थी। उसने नीले रंग के, चमकदार साटन के उस तरह के कपड़े पहन रखे थे जो मिस नादिया ने हंटरवाली फिल्म में पहने हुए थे। उसने चेहरे पर बहुत-सा गुलाबी पाउडर लगा रखा था जो बिजली के प्रकाश में नीला दिखाई दे रहा था और होंठ बहुत गहरे लाल रँगे हुए थे। उसके बराबर में एक बहुत भयंकर, बड़ी-बड़ी मूछों वाला आदमी उसी तरह की रंग-बिरंगी ‘ब्रिजिस’ पहने, लम्बे-लम्बे पट्टे सजाए और गले में बड़ा-सा रुमाल बाँधे बैठा था। मिस ज़ोहरा डर्बी के चेहरे पर बड़ी उकताहट थी। वह बड़ी बेदिली से सिगरेट के कश लगा रही थी।

उसके बाद दोनों मौत के कुएँ में दाखिल हुए किसकी तह में एक ओर मोटर साइकिल रखी थी। भयंकर आदमी मोटर साइकिल पर चढ़ा और मिस ज़ोहरा डर्बी उसकी बाहों में बैठ गई। उसी भयंकर आदमी ने कुएँ में चक्कर लगाया फिर वह उतर गया। मिस जोहरा डर्बी ने तालियों के शोर में मोटर साइकिल पर अकेले कुएँ के चक्कर लगाये और ऊपर आकर दोनों हाथ छोड़ दिये। मोटर साइकिल की तेज़ गति की वजह से मौत का कुआँ ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगा और मैं मिस जोहरा डर्बी की इस आश्चर्यजनक वीरता को मंत्रमुग्ध होकर देखती रही। खेल के बाद वह दोबारा उसी तरह चबूतरे पर जा बैठी और बड़े सहज भाव से सिगरेट पीना शुरू कर दिया जैसे कोई बात ही न हो।

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