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कविता संग्रह >> आने दो शब्दों को

आने दो शब्दों को

बाल गोविन्द द्विवेदी

प्रकाशक : हिन्दी प्रचारिणी समिति कानपुर प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5505
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत-कविता संग्रह जीवन के विविध पक्षों की प्रस्तुति में अत्यन्त सहज एवं सुन्दर है। कवि ने काव्य को जीवन की समीक्षा, कल्पना तथा कला के साथ अन्तर्मन के अनुभूत सत्य का चित्रात्मक रूप माना है।

Aane Do Shabdon Ko - Kavita Sangrah by Dr. Bal Govind Dwivedi - आने दो शब्दों को - बाल गोविन्द द्विवेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कविता-संग्रह : मेरी दृष्टि में

वस्तुतः कवि की अनुभूतियाँ जब वाणी द्वारा अभिव्यक्त होकर प्रतिष्ठित हो जाती हैं, तब साहित्य अपने अस्तित्व को भी प्रमाणित कर देता है। और निर्बाध गति को भी। जीवन भी गतिशील रहकर ही चेतनवत् होता है। चेतना शक्ति का भी आधार है और प्रेरणा का भी। कवि-हृदय निरन्तर इस तत्वानुभूति को जागरुक रखकर ही सृजन करता रहता है। डॉ. बालगोविन्द द्विवेदी मूलतः विज्ञान के अध्येता रहे हैं तथापि वे साहित्य के विविध पक्षों के गम्भीर लेखन में भी संळग्र रहते हैं। उनकी प्रतिभा श्ळाघनीय है।

मेरी समझ में प्रस्तुत-कविता संग्रह जीवन के विविध पक्षों की प्रस्तुति में अत्यन्त सहज एवं सुन्दर है।
कवि ने काव्य को जीवन की समीक्षा, कल्पना तथा कला के साथ अन्तर्मन के अनुभूत सत्य का चित्रात्मक रूप भी माना है। उन्हीं के शब्दों में

काव्य कल्पना, काव्य कला है,
काव्य समीक्षा जीवन की।
काव्य स्वयं अनुभूत सत्य है-
कवि मन में अंकित चित्रित।

अनुभूत सत्य, सचमुच अभिव्यक्त होकर शब्दात्मक होता है, पर अपने विराट् रूप में बोधात्मक होकर कवि-हृदय में एक अभूतपूर्व सामंजस्य भी स्थापित कर देता है। यह सामंजस्य उस दिव्य संस्कृति का प्रतीक है, जो द्वैत को अद्वैत में, अनुभूति को अभिव्यंजना में, चिंतन को ज्ञान में और ज्ञान को चरित्र में प्रतिष्ठित कर, इतिहास की सृष्टि में सर्वथा समर्थ है। बाल गोविन्द जी कहते हैं

‘‘सामाजिक दायित्व-बोध है,
केवल शब्द नहीं है कविता।
हृदय-बुद्धि का परम समन्वय,
जीवन का अनुभव है-कविता।

कोरा शब्दजाल, कोरा बुद्धिवाद कवि को कभी भी प्रिय नहीं रहे, इसीलिए वे बार-बार समन्वय की ही बात पर अत्यधिक जोर देते हैं। भारत की संस्कृति भी समन्वय कारी है। इस संस्कृति में भी गहन चिंतन, दायित्व, बोध, यथार्थ और सत्य का समन्वय ही विद्यमान है। ऐसा समन्वय जीवन-मूल्यों की महत्ता का प्रतिपादन कर उनकी प्रतिष्ठा करता है। डॉ. बाल गोविन्द ने अपनी कविताओं में कुछ ऐसा ही किया है। वे लिखते भी हैं

‘‘गहरा यथार्थ, प्रतिबद्ध सत्य
जीवन के मूल्य मिलेंगे,
हर कालजयी रचना में
संस्कृति के फूल खिलेंगे।

इन मान्यताओं के अनुसार यह काव्य-संग्रह—‘‘आने दो शब्दों को’’-इस शीर्षक से प्रस्तुत हुआ है। कवि की इक्यावन रचनायें यहाँ संग्रहीत हैं। कवि की दृष्टि में शब्द और अर्थ से समन्वित भाषा ही भावना की वह भाषा है, जो संचित ज्ञान की राशि, चिन्तनात्मक लक्ष्य की आशा-किरण और साहित्यिक विधाओं की निर्मात्री है। अपनी कविताओं में कवि की ऐसी ही भाषा सहज रूप से परिलक्षित है। कविताओं में उनकी दृष्टि नाद से गीत तक के दृश्यों को देख लेती है। रंग भरी चेतना ही उनकी कल्पना को साकार करती है। और वही चेतना अपने अस्तित्व का बोध ब्रह्मत्व में भी करा देती है। कवि ने इसी अनुभूति का विवरण किया है। उन्हीं का कथन है

-नव-छन्द-ताल-लय रचना मैं।
क्षमता मेरी, आयाम नये
भावों-प्रतीक-बिंबों में है,
अनुभव को सर्व ग्राह्य करके
अनुभूति बाँटता रहता मैं।

वस्तुतः कवि की यह अनुभूति जिन विविध रूपों में अभिव्यक्त होकर सामने आई है, उनमें कारा से न्याय, अचेतना से चेतना, विस्मृति से स्मृति, अलक्ष्य से लक्ष्य, अविश्वास से विश्वास, अनास्था से आस्था, ध्वंस से सृजन, क्षुधा से तृप्ति तथा निष्ठुरता से करुणा तक के दृश्य प्रतिष्ठित होकर, प्रेरक बन गये हैं।
कविवर बाल गोविन्द के सृजन में सांस्कृतिक निष्ठा कभी अलक्षित नहीं होगी—इस आशा के साथ मैं उन्हें उनकी इस कृति पर साधुवाद देता हूँ।

प्रोफेसर हरिभाऊ गोपीनाथ खाण्डेकर

मैं गीतों में नाद


मैं अनंत ब्रह्माण्ड
व्योम में
आलोकित प्रतिबिंब
बिंब सा सूर्य
सूर्य की ऊर्जा रश्मि-तरंग
रंग में भरी चेतना !

मैं यौगिक में तत्व
तत्व में निहित मूल-कण
कणों का आवेशित संवेग
वेग में घनी चेतना !

मैं प्यारा ऋतुराज
बाग में पुलकित मोहक पुष्प
पुष्प में सुरभित मलय-पराग
राग में निहित चेतना !

मैं गीतों में नाद
नाद में ब्रह्म
ब्रह्म में
विहित चेतना !

न्याय का वसुदेव बंदी है कारा में


जन-आकांक्षा की
तार-तार साड़ी को
सत्ता-मद पीकर
खींच रहे निर्भय हो
मतवाले दुःश्शासन।

बौना व्यक्तित्व हुआ
द्रोण औ’ पितामह का
दीन बीर कर्णों के
बाण हुये गिरवी।

आँख मूंद धर्मराज
खोज रहे उत्तर
यक्ष-प्रश्न बार-बार
गूँजते गगन में।

खोई है गदा कहीं
भीम की कोटर में
अर्जुन का ब्रहन्नला रूप
देश-व्यापी है

नियति दुर्योधन की
अंधी हुई
नंगी हुई
लगे हैं धृतराष्ट्र
स्थिति की समीक्षा में।

भ्रान्त हो भटक रहीं


नीतियाँ विदुर की
माध्यम में छाई हैं
संजय की रपटें।
कहीं चीख-चीत्कार
और कहीं बलात्कार
घर का महाभारत
घृणा-द्वेष की लपटें।

कहाँ गया गोधन ?
गोपाल की गलियां ?
कहाँ है ? वृन्दावन
कान्हा की बतियाँ ?
योगिराज कृष्ण खोह-कंदरा में डूबे कहीं
बाँसूरी विरह के गीत
गाते नहीं थकती

आसुरी प्रवृत्ति चढ़ी मंच में
सिंहासन पर
नंद औ’ जसोदा को घेर ललकारती
न्याय का वसुदेव
बंदी है कारा में
मानवीय मूल्यों की
देवकी सिसकती

अनुभूति बाँटता रहता मैं


मैं कवि हूँ
युग-दृष्टा हूँ
युग का परिवर्तन
साध्य मेरा।
कुंठा-विषाद-पीड़ा ढोता
मानव-मन्दिर
आराध्य मेरा।

जीवन-यथार्थ
मुझमें ढलकर
सम्प्रेषित होता
छन-छन कर
कुंठित चेतना-द्वार पर से
परतें उकेरता आया हूँ।
मैं चषक गरल का
पीकर भी
अमृत बिखेरता आया हूँ।

मैं दूत
संस्कृति पावन का
मानवता का संदेश लिये
जीवन—निगूढ़ की
अकथ-कथा
अनवरत सुनाता आया हूँ।
मैं सर्व-धर्म-समभाव
समन्वय सेतु बना
सभ्यता ईंट को
रच-गढ़कर
सोपान बनाता आया हूँ।

है परम्परा
भाषा-बोली
गढ़ता-समाज
रचता-समाज
जन-जन के
प्रिय-शब्दों को
छूकर विशिष्ट
करता हूँ मैं।

भाषा में मेरी
अहम् गंध
देहाती-सोंधी-बनबासी
सीलन-औ’ घुटन भरी शहरी
गहरी यथार्थ की
भावभूमि
नव-सृजन-भाव
भरता हूँ मैं।

करता नियमन
भाषा-ध्वनि का
नव-छंद-ताल-लय
रचता मैं।
क्षमता मेरी
आयाम नये
भावों-प्रतीक-बिंबों में है
अनुभव को
सर्वग्राह्य करके
अनुभूति बाँटता रहता मैं।


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