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प्रेमचंद रचना संचयन

निर्मल वर्मा,कमल किशोर गोयनका

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :1038
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 551
आईएसबीएन :81-260-0663-8

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प्रस्तुत रचनाएँ प्रेमचन्द्र की इस मूर्ति को न केवल साकार करेंगी,बल्कि पाठकों को उनकी सृजनात्मकता के वास्तविक रूप की झाँकी भी मिल सकेगी।

Premchand Rachna Sanchyan - A hindi Book by - Nirmal Verma, Kamal Kishore Goenka प्रेमचंद रचना संचयन - निर्मल वर्मा,कमल किशोर गोयनका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचन्द आधुनिक भारत के शीर्षस्थ एवं कालजयी साहित्यकारों में एक हैं। भारतीय ही नहीं सम्पूर्ण विश्व साहित्य में उनका नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में हुआ था। यह देश के इतिहास का वह काल-खण्ड था, जब देश अंग्रेजों के दमन, शोषण एवं ईसाई धर्म-संस्कृति के प्रचार के विरुद्ध पुनर्जागरण की देशव्यापी लहर से आन्दोलित हो रहा था। राजा राममोहनराय के उपरान्त स्वामी दयानन्द,

रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, अरविंद, बंकिमचंद्र, दादा भाई नौरोजी, गोखले आदि ने अपने विचारों एवं कार्यों से ऐसी जाग्रति उत्पन्न की कि देश के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के प्रति भारतीय दृष्टि से विचार-मंथन आरम्भ हुआ और स्वदेशी, स्वाराज्य तथा स्वाधीनता की धारणा लोकमानस को उद्वेलित करने लगी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना, लार्ड कर्ज़न द्वारा बंग-विभाजन और गांधी के राजनीतिक रंगमंच पर प्रादुर्भाव ने इस स्वदेशी चिन्तन-धारा को भारत के स्वाधीनता संग्राम में परिवर्तित कर दिया। राष्ट्र के ऐसे उद्वेलन, मंथन तथा आत्म-चिंतन के बीच हिन्दी-उर्दू के प्रख्यात साहित्यकार प्रेमचन्द का जन्म, पालन-पोषण, शिक्षण, जीविका एवं लेखन का क्रम आरम्भ हुआ। वास्तव में, देश के अस्तित्व एवं अस्मिता की रक्षा का यह ऐसा संघर्ष-काल था, जब प्रेमचन्द, महात्मा गाँधी, नेहरू तिलक, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजगोपालाचार्य, राजेन्द्र प्रसाद, सुभाषचन्द्र बोस, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद आदि जैसे तेजस्वी देशभक्त तथा जनसेवकों को जन्म लेना ही था।

युग के अनुरूप साहित्य का स्वरूप कैसा हो–उसकी कसौटी क्या हो, इस बारे में प्रेमचन्द का स्पष्ट विचार था, ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाशन हो–जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलायें नहीं क्योंकि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।’’

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही ‘उपन्यास सम्राट’ की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। उन्होंने ‘रंगभूमि’ तक के सभी उपन्यास पहले उर्दू भाषा में लिखे थे और कायाकल्प से लेकर अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तक सभी उपन्यास मूलतः हिन्दी में लिखे। बाद में इन्हें अनूदित या रूपान्तरित किया गया।

प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्याकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘आवाज-ए-खल्क़’ में 8 अक्तूबर, 1903 से 1 फरवरी, 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ, जबकि उनकी पहली उर्दू कहानी सन् 1908 में छपी। उनके कुल 15 उपन्यास है, जिनमें 2 अपूर्ण है। हिन्दी के सुपरिचित कथा-साहित्यकार और चिन्तक श्री निर्मल वर्मा तथा प्रेमचन्द वाड्मय पर विशिष्ट कार्य करने के लिए कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित डा.कमल किशोर गोयनका ने प्रस्तुत संकलन के लिए सामग्री का चयन एवं संयोजन किया है ताकि यह पूर्णता से अधिक-से-अधिक निकट हो और जिसमें ज्ञात-अज्ञात दोनों पक्षों की रचनाओं का उचित प्रतिनिधित्व हो।

हमें विश्वास है कि रवीन्द्र रचना संचयन और प्रसाद रचना संचयन के बाद इसी श्रृंखला में प्रकाशित प्रेमचन्द्र रचना संचयन में संकलित रचनाएँ प्रेमचन्द्र की इस मूर्ति को न केवल साकार करेंगी, बल्कि पाठकों को उनकी सर्जनात्मकता के वास्तविक रूप की झाँकी भी मिल सकेगी।

निवेदन


प्रेमचन्द आधुनिक भारत के शीर्षस्थ एवं कालजयी साहित्यकारों में एक हैं। भारतीय ही नहीं सम्पूर्ण विश्व साहित्य में उनका नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में हुआ था। यह देश के इतिहास का वह काल-खण्ड था, जब देश अंग्रेज़ों के दमन, शोषण एवं ईसाई धर्म-संस्कृति के प्रचार के विरुद्ध पुर्नाजागरण की देशव्यापी लहर से आन्दोलित हो रहा था। राजा राममोहनराय के उपरान्त स्वामी दयानन्द, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, अरविंद, बंकिमचंद्र, दादा भाई नौरोजी, गोखले आदि ने अपने विचारों एवं कार्यों से ऐसी जाग्रति उत्पन्न की कि देश के अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के प्रति भारतीय दृष्टि से विचार-मंथन आरम्भ हुआ और स्वदेशी, स्वराज्य तथा स्वाधीनता की धारणा लोकमानस को उद्वेलित करने लगी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना, लार्ड कर्ज़न द्वारा बंग-विभाजन और गाँधी के राजनीतिक रंगमंच पर प्रादुर्भाव ने इस स्वदेशी चिन्तन-धारा को भारत के स्वाधीनता संग्राम में पिरवर्तित कर दिया। राष्ट्र के ऐसे उद्वेलिन, मंथन तथा आत्म-चिंतन के बीच हिन्दी-उर्दू के प्रख्यात साहित्यकार प्रेमचन्द का जन्म, पालन-पोषण, शिक्षण, जीविका एवं लेखन का क्रम आरम्भ हुआ। वास्तव में, देश के अस्तित्व एवं अस्मिता की रक्षा का यह ऐसा संघर्ष-काल था, जब प्रेमचन्द, महात्मा गाँधी, नेहरू तिलक, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजगोपालाचार्य, राजेन्द्र प्रसाद, सुभाषचन्द्र बोस, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद आदि जैसे तेजस्वी देशभक्त तथा जनसेवकों को जन्म लेना ही था।

प्रेमचन्द का जीवन उनके साहित्य के समान ही रोचक, प्रेरणादायक एवं घटनापूर्ण होने के कारण अध्येता को परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए एक श्रेष्ठ मनुष्य बनने की आधारभूत सामग्री प्रदान करता है। उनका जन्म तीन बहनों के बाद हुआ था, इस कारण सभी के लाड़ले थे। पिता ने पुत्र का नाम रखा ‘धनपतराय’ और ताऊ ने ‘नवाबराय’, लेकिन वे आगे चलकर ‘प्रेमचन्द’ के नाम से प्रसिद्ध लेखक बने। वे बचपन में नटखट और खिलाड़ी थे, किन्तु माता-पिता के शीघ्र देहान्त ने उन्हें

जीवन की कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए विवश कर दिया। पिता के दूसरे विवाह तथा अपने पहले बेमेल विवाह ने उन्हें अनेक कटु अनुभव दिये, जिनका उन्होंने बाद में अपनी रचनाओं में उपयोग किया। बीस वर्ष की उम्र तक उन्होंने उर्दू-अंग्रेज़ी में लिखा विपुल साहित्य पढ़ लिया था और 13-14 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने मामा के एक प्रेम-प्रसंग पर एक नाटक लिखा था। वे 2 जुलाई, 1900 ई.को बीस रुपये मासिक पर सरकारी मास्टर बने और 1 मई, 1903 को उनकी पहली रचना ‘ओलिवर क्रमवेल’ उर्दू सप्ताहिक पत्र ‘आवाज़-ए-ख़ल्क़’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई। इसके कुछ समय उपरान्त मार्च, 1906 में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह करके एक बड़ी सामाजिक क्रान्ति की। स्वामी दयानन्द के आर्य समाज तथा विवेकानन्द के विचारों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसके कारण उनके जीवन एवं साहित्य दोनों में समाज-सुधार, देश-प्रेम तथा जन-जागरण प्रमुख प्रेरणा-स्रोत के रूप में विद्यमान रहे। उनका प्रथम उर्दू कहानी संग्रह ‘सोज़ेवतन’ जुलाई, 1908 में कानपुर से प्रकाशित हुआ, जिसकी कहानियाँ देश-प्रेम से परिपूर्ण थीं।

अंग्रेज़ कलक्टर ने इन कहानियों को राजद्रोहात्मक माना और उन्हें बुलाकर फटकारते हुए कहा कि यदि मुग़ल सल्तनत में होते तो हाथ काट दिये जाते। कलक्टर ने सात सौ बची प्रतियों को आग में जलवा दिया और भविष्य में सभी रचनाओं को प्रकाशन से पूर्व दिखाने की आज्ञा दी। इस पर उन्होंने अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर अपना छद्म नाम ‘प्रेमचन्द’ रखा और इस नाम से उनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ उर्दू मासिक पत्रिका ‘ज़माना’ के दिसम्बर, 1910 के अंक में प्रकाशित हुई।

इस घटना के कुछ वर्षों के उपरांत उन्होंने उर्दू के साथ हिन्दी में भी लिखने का फ़ैसला किया। उन्होंने 1 सितम्बर, 1915 को अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम को पत्र में लिखा, ‘‘अब हिन्दी लिखने की मश्क़ भी कर रहा हूँ। उर्दू में अब गुज़र नहीं। यह मालूम होता है कि बालमुकुन्द गुप्त मरहूम की तरह मैं भी हिन्दी लिखने में ज़िन्दगी सर्फ़ कर दूँगा। उर्दू नवीसी में किस हिन्दू को फ़ैल हुआ, जो मुझे हो जायेगा।’’ उन्होंने अपने इस प्रयास को जारी रखा और उनकी पहली हिन्दी कहानी ‘सौत’ हिन्दी के प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ के दिसम्बर, 1915 के अंक में तथा प्रथम हिन्दी कहानी-संग्रह ‘सप्त-सरोज’ जून, 1917 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक की भूमिका में पं.मन्नन द्विवेदी ने उनका मातृ-भाषा में लिखने पर स्वागत करते हुए उन्हें रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समकक्ष रखकर देखा। इसी बीच उन्होंने सन् 1916 में इण्टरमीडिएट परीक्षा तथा सन् 1919 में बी.ए. परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की, क्योंकि वे साहित्यिक जीवन में सफलता एवं वृद्धावस्था में निश्चिंतता के लिए बी.ए. करना आवश्यक समझने लगे थे, किन्तु वे महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन से इतने प्रभावित हुए कि 8 फरवरी, 1921 को गोरखपुर में उनके भाषण को सुनकर उन्होंने 16 फ़रवरी, 1921 को बीस वर्ष पुरानी सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। इस संबंध में उन्होंने अपने आत्मकथात्मक लेख ‘जीवन-सार’ में लिखा, ‘‘ऐसा समारोह मैंने अपने जीवन में कभी न देखा था। महात्मा जी के दर्शनों का यह प्रताप था कि मुझ जैसा मरा हुआ आदमी भी चेत उठा। उसके दो-ही-चार दिन बाद मैंने बीस साल की पुरानी नौकरी से इस्तीफा दे दिया।’’
महात्मा गाँधी के प्रति उनका यह दृष्टिकोण जीवन-पर्यन्त बना रहा। वे उनके निष्ठावान भक्त एवं अनुयायी बने रहे। उन्होंने इस्तीफ़े के लगभग पाँच महीने उपरान्त छपे अपने लेख ‘स्वराज्य के फ़ायदे’ में लिखा कि महात्मा गाँधी देशभक्त हैं और उन्होंने देश के लिए सर्वस्व त्याग दिया है। ऐसे महापुरुष संसार में विरले ही पैदा होते हैं। परमात्मा ने ही उन्हें भारत का उद्धार करने के लिए अवतरित किया है और यदि हमने उनकी आज्ञा न मानी तो यह हमारा परम दुर्भाग्य होगा। इसके बाद उन्होंने ‘हंस’ के मई, 1930 के अंक में लिखा, ‘‘महात्मा गाँधी भारतीय आत्मा की स्वाधीनता, प्रेम और उसकी विफल आकृति के जीते-जागते अवतार हैं। वह भारत के सत्य, धर्म, नीति और जीवन के सर्वोपरि आदर्श हैं।’’ एक बार उन्होंने स्वयं को महात्मा गाँधी का ‘चेला’ बतलाते हुए अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहा था, ‘‘मैं महात्मा गाँधी को सबसे बड़ा मानता हूँ। उनका भी उद्देश्य यही है कि मज़दूर और काश्तकार सुखी हों और मैं भी लिखकर उनको उत्साह दे रहा हूँ। वे हिन्दू-मुस्लमान एकता चाहते हैं, तो मैं हिन्दी और उर्दू को मिलाकर हिन्दुस्तानी बनाना चाहता हूँ।’’

सरकारी नौकरी से इस्तीफ़े के उपरान्त प्रेमचन्द ने महावीर प्रसाद पेद्दार की मदद से चरखे एवं खद्दर बनाने का काम आरम्भ किया, किन्तु एक महीने के बाद ही उसे बन्द करके लमही गाँव चले गये। अब उन्होंने ‘स्वदेश’ में लिखना शुरू किया, कानपुर में मारवाड़ी स्कूल में हेडमास्टरी की, ‘मर्यादा’ के स्थानापन्न सम्पादक बने तथा 125 रुपये मासिक पर काशी विद्यापीठ के हेड मास्टर के रूप में भी कार्य किया। इसी बीच उन्होंने आजीविका के लिए एक निश्चित एवं नियमित आय के लिए ‘सरस्वती प्रेम’ नाम से प्रेस खोला, किन्तु व्यापार उनकी प्रकृति में न था। प्रेस से उन्हें बराबर हानि उठानी पड़ी और मानसिक यातना भी, क्योंकि आगे चलकर यह प्रेस उनके जी का जंजाल बन गया। इस प्रेस के लगने के लगभग एक वर्ष बाद उन्होंने लखनऊ के दुलारेलाल भार्गव की प्रकाशन संस्था ‘गंगा पुस्तक-माला कार्यालय’ में साहित्यिक सलाहकार का पद स्वीकार कर लिया तथा बाद में वे नवलकिशोर प्रेस के मालिक मुंशी विष्णुनारायण भार्गव के निमंत्रण पर ‘माधुरी’ के सम्पादक बने। उनके सम्पादकत्व-काल में ‘माधुरी’ के जनवरी, 1928 के अंक में उनकी कहानी ‘मोटेराम जी शास्त्री’ छपी तो लखनऊ के प्रसिद्ध वैद्य पं.शालिग्राम शास्त्री ने उन पर मान-हानि का दावा दायर कर दिया, पर उनके स्पष्टीकरण के बाद, अदालत ने यह दावा खारिज़ कर दिया। वास्तव में, मोटेराम शास्त्री नाम पात्र की सृष्टि उन्होंने हास-परिहास के लिए ‘वरदान’ (सन् 1912) में ही कर दी थी, जो बाद में भी उनकी कई कहानियों में आकर पाठकों का मनोरंजन करता रहा।
यह वह समय था, जब प्रेमचन्द की हिन्दी में उनके पाठक निरन्तर बढ़ रहे थे। और उनकी रचनाएँ, ‘प्रभा’, ‘स्वदेश’, ‘आज’, ‘श्री शारदा’, ‘चाँद’, ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित हो रही थीं। उन्होंने 17 फ़रवरी, 1924 को अपने अभिन्न मित्र मुंशी दयानारायण निगम को पत्र में लिखा था ‘‘हिन्दी रसाइल इस क़दर दिक करते हैं कि कुछ किये नहीं बन पड़ता। अब मैं कहानियाँ उर्दू में नहीं, हिन्दी में ही लिखकर भेज दिया करता हूँ।’’ उनकी यह लोकप्रियता एवं प्रसिद्धि अन्य भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं तक पहुँचाने लगी और जनवरी, 1928 में मराठी लेखक आनन्दराव जोशी ने मराठी में अनुवाद के लिए उनसे अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानियों की सूची माँगी। बाँदा के जगमोहन हरीलाल पारिख ने भी ‘निर्मला’ के गुजराती अनुवाद की अनुमति माँगी तथा जापान में रहनेवाले भारतीय केशोराम सब्बरवाल ने उसकी कहानी ‘मुक्ति-मार्ग’ का जापानी में अनुवाद ‘सेईडो नो मीची’ नाम से करके वहाँ की प्रसिद्ध पत्रिका ‘केजऋ’ के जून, 1928 के अंक में प्रकाशित कराया। स्वयं पं.बनारसीदास चतुर्वेदी एवं सी.एफ.एन्ड्रयूज़ द्वारा अनूदित तथा संशोधित उनकी कहानी ‘ऐक्ट्रेस’ अंग्रेज़ी मासिक ‘मॉर्डन रिव्यू’ के जून, 1928 के अंक में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफ़ेसर ताराचन्द राय नें भी उनकी कहानियों-उपन्यासों का जर्मन में अनुवाद करने के लिए संपर्क किया।
वास्तव में, इस समय तक हिन्दी के प्रतिष्ठित विद्वान यह मानने लगे थे कि प्रेमचन्द की रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद करके हिन्दी का मस्तक और भी ऊँचा किया जा सकता है। पं.बनारसीदास चतुर्वेदी ने 28 मई, 1928 के पत्र में यही कामना करते हुए प्रेमचन्द को लिखा, ‘‘मैं उस दिन का स्वप्न देख रहा हूँ, जबकि किसी हिन्दी गल्प-लेखक की कहानियों का अनुवाद रूसी, जर्मन, फ्रेंच इत्यादि भाषाओं में होगा।

यदि आप ही को यह गौरव प्राप्त हो तब तो बात ही क्या है ? मेरे हृदय में आपके लिए श्रद्धा इसलिए है कि आप दूसरी भाषाओं को कुछ देकर हिन्दी का मस्तक ऊंचा कर सकते हैं। बंगला इत्यादि से दान लेते-लेते हमारा गौरव वह नहीं रहा।’’

प्रेमचन्द अब कई स्तरों पर कार्य में संलग्न हो गये। लखनऊ में रहते हुए वे ‘माधुरी’ का सम्पादन कर रहे थे। और बनारस (अब वाराणसी) में उनका ‘सरस्वती प्रेस’ भी चल रहा था, लेकिन उन्हें इससे संतोष न था। उनका मन अंग्रेज़ों की पराधीनता से पीड़ित था और वे महात्मा गाँधी के शान्तिमय स्वाधीनता संग्राम में अपना लघु योगदान करना चाहते थे। इसी समय उन्होंने हिन्दी में एक मासिक पत्रिका निकालने का निर्णय किया तथा जयशंकर प्रसाद के सुझाव पर उसका नाम रखा ‘हंस’। इसका पहला अंक 10 मार्च, 1930 को प्रकाशित हुआ। अपने पहले सम्पादकीय में उन्होंने लिखा, ‘‘जब श्री रामचन्द्र जी समुद्र पर पुल बाँध रहे थे, उस वक़्त छोटे-छोटे पशु-पक्षियों ने मिट्टी ला-लाकर समुद्र के पाटने में मदद की थी। इस समय देश में उससे कहीं विकट संग्राम छिड़ हुआ है। भारत ने शान्तिमय समर की भेरी बजा दी है। ‘हंस’ भी मानसरोवर की शान्ति छोड़कर अपनी नन्हीं-सी चोंच में चुटकी-भर मिट्टी लिए हुए समुद्र पाटने, आज़ादी की जंग में योग देने चला है। समुद्र का विस्तार देखकर उसकी हिम्मत छूट रही है, लेकिन संघ-शक्ति ने उसका दिल मज़बूत कर दिया है।’’

इधर प्रेमचन्द की पत्नी शिवरानी देवी भी स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं तथा वे पति के साथ ही काग्रेंस की सदस्या बनीं। उन्होंने 10 नवम्बर, 1930 को लखनऊ में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार आन्दोलन के अन्तर्गत दुकानों की पिकेटिंग की और गिरफ़्तार हुईं तथा उन्हें डेढ़ महीने की सज़ा हुई। प्रेमचन्द की दृष्टि में अब उनकी पत्नी हज़ार गुना ऊपर उठ गयी थीं और वे स्वयं ही अपनी नज़र में छोटे हो गये थे। वे स्वयं जेल जाना चाहते थे, पर पत्नी के इस क़दम ने उनका रास्ता रोक दिया।

प्रेमचन्द निरन्तर आर्थिक हानि के बावजूद ‘हंस’ से संतुष्ट न थे। वे एक सप्ताहिक पत्र भी निकालना चाहते थे। अवसर मिलते ही उन्होंने विनोदशंकर व्यास से ‘जागरण’ ले लिया और 22 अगस्त, 1932 को उनके सम्पादकत्व में इसका पहला अंक निकला, किन्तु आर्थिक हानि के कारण उन्हें इसका अन्तिम अंक 21 मई, 1934 को निकाल कर इसे बन्द करना पड़ा। ‘हंस’ अब भी चल रहा था, पर वे विकल्प की तालाश में थे इस बीच महात्मा गाँधी की प्रेरणा तथा गुजराती लेखक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के सक्रिय प्रयास से ‘भारतीय साहित्य परिषद्’ की स्थापना हुई तथा प्रेमचन्द ने मुंशी के प्रस्ताव पर, ‘हंस’ को परिषद् का मुख-पत्र बनाना स्वीकार कर लिया। अब वे मुंशी के साथ ‘हंस’ के अवैतनिक सम्पादक बने तथा इसका पहला अंक अक्टूबर, 1933 को प्रकाशित हुआ। इस स्थिति में इसके दस अंक निकले तथा अन्य भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ रचनाओं के हिन्दी अनुवाद इसमें प्रकाशित होते रहे, पर जब जुलाई, 1936 के अंक में सेठ गोविन्द दास का नाटक ‘विचार स्वातन्त्र्य’ प्रकाशित हुआ तो अंग्रेज़ी सरकार ने एक हज़ार रुपये की ज़मानत माँग ली। महात्मा गाँधी जमानत देकर ‘हंस’ निकालने को तैयार न हुए और परिषद् के मुख-पत्र के रूप में इसका प्रकाशन बन्द हो गया।

इस समय प्रेमचन्द अस्वस्थ थे, किन्तु उन्होंने जमानत देकर ‘हंस’ को पुनर्जीवित किया और उनके स्वतन्त्र सम्पादन में इसका सितम्बर, 1936 का अंक प्रकाशित हुआ। इसी अंक में उनका धन पर आधारित सामाजिक व्यवस्था एवं पूँजीवाद का विरोध करते हुए रूस में उदित होनेवाली समाजवादी सम्पदा का स्वागत किया।

प्रेमचन्द आर्थिक निश्चिंतता का जीवन जीते हुए साहित्य-साधना करना चाहते थे, जो शायद उन्हें कभी नहीं मिला। उन्होंने इसके लिए खूब अनुवाद कार्य किया–हिन्दी से उर्दू में तथा अंग्रेज़ी से हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं में और जिन प्रमुख लेखकों की रचनाएँ अनूदित की वे हैं–बर्नार्ड शॉ, मेटरलिंक तथा पं.जवाहरलाल नेहरू आदि। उन्होंने आर्थिक तनावों को कम करने के लिए फ़िल्मों में लेखन कार्य भी स्वीकार किया और वे अजन्ता सिनेटोन लि., बम्बई में डायरेक्टर एम. भवनानी के आमन्त्रण पर आठ हजार रुपये वार्षिक पर काम करने के लिए बम्बई गये। उनकी पहली कहानी ‘मिल का मज़दूर’ पर फ़िल्म बनी जो नवम्बर, 1934 में लाहौर में प्रदर्शित हुई। बम्बई में प्रदर्शित करने की अनुमति सेंसर ने नहीं दी। यह कम्पनी जब घाटे के कारण बन्द हो गयी तो प्रेमचन्द 3 अप्रैल, 1935 को बम्बई छोड़कर बनारस लौट आये।

अपने फ़िल्मी जीवन के अनुभवों के आधार पर उन्होंने फ़िल्म-निर्माताओं की फ़िल्म-निर्माण को ‘इंडस्ट्री’ समझने, पवित्र भावनाओं को ‘एक्सप्लॉइट’ करने तथा अश्लीलता को मनोरंजन मानने की कटु आलोचना की। उनका निष्कर्ष था–स्वतन्त्र लेखन-कार्य में चाहे धन न हो, मगर सन्तोष अवश्य है। लेकिन बम्बई में रहते समय प्रेस की हालत ख़राब होती गयी। प्रवासीलाल वर्मा प्रेस के व्यवस्थापक थे। उनके दुर्व्यवहार तथा महीने का वेतन न मिलने पर कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। यद्यपि तेरह दिन के बाद कर्मचारियों से समझौता हो गया, किन्तु प्रेमचन्द ‘भारत’ में मज़दूरों की विजय के समाचार छपने से आहत हुए और उन्होंने इसके सम्पादक को पत्र लिखकर प्रेस की घाटे की स्थिति से परिचित कराते हुए लिखा कि मैंने कर्मचारियों को बेकार हो जाने के डर से प्रेस बन्द नहीं किया। मैंने कभी कर्मचारियों को एक्प्लॉइट नहीं किया, बल्कि उनके द्वारा एक्सप्लॉइट किया जा रहा हूँ। मैंने इस प्रेस से एक पैसा भी नहीं कमाया, फिर भी उन्हें साहित्य और समाज की सेवा तथा मज़दूरों की वक़ालत करनेवाले प्रेस से हमदर्दी नहीं हुई। मैं खुद मज़दूर हूँ और मज़दूरों का दोस्त हूँ और उनसे पूरी सहानुभूति है।
प्रेमचन्द अब थक चुके थे। उन्होंने अनेक अप्रिय स्थितियों में अपने जीवन को आगे बढ़ाया और विचलित नहीं हुए, किन्तु उनका शरीर रोगों से क्षीण होने लगा। उन्हें 6 जून, 1936 को लमही गाँव लौटने पर खून की पहली उल्टी हुई और एक महीने के बाद पुनः खून की उल्टी हुई। इस अवस्था में उन्होंने ‘महाजनी सभ्यता’ लेख तथा ‘मंगलसूत्र’ अधूरे उपन्यास के पृष्ठ लिखे और ‘हंस’ को पुनर्जीवित किया। वे इलाज के लिए लखनऊ भी गये, पर उनकी जीवन-शक्ति क्षीण होती गयी और 8 अक्टूबर, 1936 को प्रातः 10 बजे उनका निधन हो गया।

प्रेमचन्द एक सच्चे भारतीय थे, जिन्हें जीवनयापन के लिए बहुत कम वस्तुओं की आवश्यकता थी। एक सामान्य भारतीय के समान उनकी इच्छाएँ एवं आवश्यकताएँ सीमित थीं। वे एक सामान्य देहाती के समान कपड़े पहनते थे। धोती-कुर्ता उनकी सबसे प्रिय पोषाक़ थीं। उस समय गाँधी टोपी, कुर्ता, धोती, साफ़ा, शेरवानी, पाजामा आदि राष्ट्रीय वेशभूषा थी और उन्होंने इन्हें आत्मिक रूप अपनाया हुआ था। उन्होंने कोट-पैंट पहना अवश्य, किन्तु विदेशी वेशभूषा उन्हें पसन्द न थी

और उसमें उन्हें अंग्रेज़ियत की बू आती थी। अमृतराय ने अपने पिता की वेशभूषा का बयान करते हुए लिखा है, ‘‘क्या तो उनका हुलिया था, घुटनों से ज़रा ही नीचे तक पहुँचनेवाली मिल की धोती, उसके ऊपर गाढ़े का कुर्ता और पैर में बन्ददार जूता। यानी कुल मिलाकर आप उसे दहकान ही कहते, गँवइया भुच्च जो अभी गाँव से चला आ रहा है, जिसे कपड़े पहनने की भी तमीज़ नहीं, आप शायद उन्हें प्रेमचन्द कहकर पहचानने से भी इन्कार कर दें, लेकिन तब भी वहीं प्रेमचन्द था, क्योंकि वही हिन्दुस्तान है।’’
प्रेमचन्द की अन्य आवश्यकताएँ भी सीमित थीं। हाँ, गाय उनके पास सदैव रही। वे प्रायः फ़र्श पर बैठकर डेस्क पर लिखते। वे मेज़-कुर्सी तो बहुत बाद में पत्नी के कहने से लाये। इस प्रकार उनकी दुनिया क़लम, दावात, काग़ज़, घर, पतनी और बच्चों तक सीमित थी, लेकिन इस दुनिया में देश की चिन्ता सर्वोपरी थी। उन्होंने 3 जून, 1930 को पं.बनारसीदास चतुर्वेदी को अपने पत्र में लिखा था, ‘‘मेरी आकांक्षाएँ कुछ नहीं हैं। इस समय जो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वाराज्य संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालशा मुझे नहीं रही। खाने भर को मिल ही जाता है। मोटर और बँगले की मुझे हविश नहीं। हाँ, यह ज़रूर चाहता हूँ कि दो-चार कोटि की पुस्तकें लिखूँ, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही हो।’’

इसी दृष्टिकोण से प्रेमचन्द का सम्पूर्ण साहित्य-चिन्तन तथा सृजन संचालित होता है। देश की परिस्थितियों के कारण वे साहित्य को उपदेश, सुधार-जन-जाग्रति तथा उपयोगिता की तुला पर देखना अनिवार्य मानते हैं। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के पहले अधिवेशन में सभापति के पद से दिये अपने भाषण में उन्होंने कहा कि साहित्यकार कालक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है–उसका दरजा इतना न गिराइये। वह देशभक्ति और राजनीतिक के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है। उन्होंने युग के अनुरूप साहित्य के स्वरूप तय करते हुए इसी भाषण में कहा कि जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, इसमें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौन्दर्य प्रेम न जाग्रत हो–जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहाने का अधिकारी नहीं। अतः उन्होंने साहित्य की कसौटी निश्चित करते हुए अपने भाषण के अन्त में कहा, ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश हो–जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।’’

प्रेमचन्द की यही रचना-दृष्टि, विभिन्न रूपों में, अनेक साहित्य में अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थे और उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की है, परन्तु वे प्रमुख रूप से कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन-काल में ही ‘उपन्यास-सम्राट’ की पदवी मिल गयी थी और कहानीकार के रूप में रवीन्द्रनाथ ठाकुर से उनकी तुलना की जाती थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनो में समान रूप से दिखायी देती है। उन्होंने ‘रंगभूमि’ तक के सभी उपन्यास पहले उर्दू भाषा में लिखे थे और ‘कायाकल्प’ से लेकर अपूर्ण उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तक सभी उपन्यास मूलतः हिन्दी में लिखे। बाद में इन्हें अनूदित या रूपान्तरित किया गया।

कहानी में स्थिति इससे कुछ भिन्न है। प्रेमचन्द की पहली हिन्दी कहानी सन् 1915 में छपी थी, किन्तु वे जीवन-पर्यन्त उर्दू में भी कभी-कभी कहानियाँ लिखते रहे। यहाँ तक कि उनकी विश्व प्रसिद्ध कहानी ‘क़फ़न’ पहले उर्दू में प्रकाशित हुई जो उर्दू मासिक पत्रिका ‘जामिया’ के दिसम्बर, 1935 के अंक में छपी, लेकिन हिन्दी में इसका प्रकाशन हुआ ‘चाँद’ के अप्रैल, 1936 के अंक में; परन्तु जहाँ तक लोकप्रियता, प्रतिष्ठता और सम्मान का प्रश्न है, हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के कथा-साहित्य में उन्हें लगभग एक जैसा ही स्थान प्राप्त था।

उनके कथा-साहित्य में उनके उपन्यासकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘आवाज-ए-ख़ल्क’ में 8 अक्तूबर, 1903 से 1 फरवरी, 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ, जबकि उनकी पहली उर्दू कहानी सन् 1908 में छपी। उनके कुल 15 उपन्यास हैं, जिनमें 2 अपूर्ण तथा 13 पूर्ण उपन्यास है।

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