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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस दर्पण भाग-3

मानस दर्पण भाग-3

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : संगीत कला मंदिर ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :201
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 5510
आईएसबीएन :000000

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रामकिंकर जी द्वारा परम्परागत रामचरितमानस पर प्रवचन

Manas Darpan (3)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

पं. रामकिंकरजी उपाध्याय द्वारा परम्परागत रामचरितमानस पर प्रवचन के अनुष्ठान में सन् 1982 के जनवरी मास में प्रसंग था-‘धर्मरथ। प्रसंग तो केवल एक केन्द्र होता है और पं. पण्डितजी महाराज अपनी विशिष्ट धारा प्रवाह शैली में सारे मानस का मन्थन कर विविध रूपक एवं सन्दर्भ स्थापित करते हैं जिसमें कृचितन्यतोऽपि का भी समावेश रहताहै। नव दिवसीय उन प्रवचनों को पुस्तकाकार रूप दे पाने से हमें बड़ी प्रसन्नता है।

टेप से लिपिवद्ध करने एवं सम्पादन कार्य के बाद पुनर्लेखन भी श्री सच्चिदानन्द तिवारी ने बड़े ही मनोयोग एवं सद्भावना से सम्पन्न किया। हम उन अत्यन्त आभार मानते हैं।

सम्पादन कार्य सम्पन्न किया रामकृष्ण विवेकानन्द आश्रम रायपुरके महासचिव एवं देश के मूर्धन्य विद्वान् श्रद्धेय स्वामी आत्मानन्दजी महाराज ने। पू. स्वामीजी महाराज का हमारे धर्मग्रन्थों का प्रगाढ़ अध्ययन चिन्तन मनन हैं और मानस के भी विशिष्ट अध्येता एवं वक्ता हैं। सम्पादन कार्य को सम्पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ संभालने के लिए हम उनके अत्यन्त कृतज्ञ हैं।
विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक मानस प्रेमियों के लिए लाभप्रद होगी।

रमणलाल बिन्नानी

अपनी बात


संगीत कला मन्दिर को यह श्रेय रहा है कि इस संस्था की ओर से रामकथा की जो परम्परा पच्चीस वर्ष पूर्व प्रारम्भ की गयी थी उसका अविच्छिन्न निर्वाह होता रहा और पिछले वर्ष ब्रह्मलीन श्री घनश्यामदासजी बिरला के सान्निध्य में रजत जयन्ती सम्पन्न हुई। उस समय दिया गया उनका भाषण अविस्मरणीय रहेगा।

इधर पिछले दो वर्षों से प्रवचन के प्रकाशन की परम्परा भी संगीत कला मन्दिर की ओर से प्रारम्भ की गयी है। ‘जगनन्दिनी की खोज’ के रूप में प्रथम प्रवचन माला दो वर्ष पूर्व प्रकाशित की गयी थी और इस वर्ष प्रवचन माला का द्वितीय पुष्प प्रकाशित हो रहा है। इसे गूंथने में अनेकों सत्यपुरुषों का प्रयास सम्मिलित हैं। प्रिय सच्चिदानन्दजी तिवारी ने इसे टे. रि. से लेखन के रूप में उतारने का श्रम साध्य कार्य बड़े प्रेम से पूरा किया है। एतदर्थ वे आशीर्वाद के पात्र हैं।

आदरणीय स्वामी आत्मानन्दजी के सम्पादन में उनकी साधुता और प्रकाण्ड पाण्डित्य का दर्शनहोता है। उनके प्रति मैं विशेष रूप से आभारी हूँ। श्रीरमणलालजी विन्नानी जहां पच्चीस वर्षों के आयोजन से सम्बद्ध रहे हैं वहीं प्रकाशन का भार भी उन्हें ही सौंपा गया है। वे अपनी श्रद्धा से उसे सुचारु रुप से सम्पन्न कर रहे हैं।
अन्त में यह धन्यवाद ज्ञापन अधूरा रहेगा यदि श्रीविश्वम्भरनाथजी द्विवेदी का स्मरण न करूँ। वे इस पुस्तक के मुद्रक तो हैं ही, मेरे अत्यन्त अपने हैं।

रामकिंकर उपाध्याय

।।श्रीराम: शरण मम।।

प्रथम प्रवचन


दुहु दिसि जय जयकार करि निज-निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उतरावनहि बखानि।।6.79
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद आना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखाकह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सज जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपान न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।
महा अजय संसार रिपु जीति सकई सो बोर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।6.80 (क)

सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज।।6.80(ख)


भगवन श्री रामभद्र की असीम अनुकम्पा से पुनः इस वर्ष हम एकत्र हुए हैं। भगवना के पावन गुणों की कुछ चर्चा करने के लिए। संगीत कला मन्दिर और संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट की ओर से यह आयोजन पिछले चौबीस वर्षों से अनवरत चला आ रहा है। यह अपने आप में एक बड़ी उपबल्धि  है। यह भगवान की विशेष अनुकम्पा है और इस संस्था का भी गरिमा है। मुझे भी यहाँ बोलकर विशेष आनन्द की अनुभूति होता है।

प्रसंग के संदर्भ में इस वर्ष बड़ी दुविधा रही। निर्णय न तो कल हो सका न आज ही। श्री रमणलालजी बिन्नानी से मैंने पूछा तो उन्होंने मेरे ऊपर ही चुनाव का भार सौंप दिया। और अभी आते हुए गाड़ी में जब मैंने श्री बसन्त कुमार बिरला और सौजन्यमयी श्रीमती सरला से पूछा कि आपका प्रसंग के सन्दर्भ में क्या सुझाव है ?’ तो उन्होंने भी कोई स्पष्ट संकेत नहीं किया। मैं जब मंच पर बैठा तब भी इस निश्चय पर नहीं पहुँच पाया था कि इस वर्ष किस प्रसंग को लिया जाय। लेकिन अब तो कोई समय नहीं रहा कि इस विषय में कोई मत लिया जाय। इसलिए यही निश्चय करता हूँ कि आपके समक्ष इस बार धर्मरथ का प्रसंग प्रस्तुत किया जाय। मुझे विश्वास है आप पूरी एकाग्रता एवं तन्मयता से उसका रसास्वादन करेंगे।

जो चौपाइयाँ मैंने प्रारम्भ में पढ़ी उनमें जो दृश्य है, वह लंका के रणांगन का है, जहाँ रावण भगवान श्रीराम से युद्ध करने के लिए रथारूढ़ होकर आया हुआ है। विभीषण जब रावण की आतंककारिणी शक्तियों को देखते हैं-रावण की सेना, रावण के रथ, रावण के कवच आदि पर दृष्टिपात करते हैं तो उनका हृदय संशय से आच्छन्न हो जाता है। और वे श्रीराम के समक्ष अपने संशय का जिन शब्दों में वर्णन करते हैं तथा भगवान श्रीराम जिस तरह विभीषण का समाधान करते हैं, वही उक्त पंक्तियों में प्रस्तुत किया गया है। यदि हम राम और रावण के युद्ध हो मात्र बहिरंग दृष्टि से, केवल इतिहास की दृष्टि से देखें तो वह हमें महाभारत में वर्णित कौरवों और पाण्डवों के युद्ध की याद दिलाता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगता है कि दोनों युद्धों के कारण बहुत कुछ वे ही हैं जो कि संसार में बहुधा संघर्ष के कारण हुआ करते हैं। महाभारत का युद्ध राज्य और पृथ्वी के लिए लड़ा गया दिखायी देता है। पाण्डवों के राज्य को दुर्योधन ने हड़प लिया था। और उसे पुनः पाने के लिए पाण्डव दुर्योधन के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। इसी प्रकार रामायण का युद्ध नारी के लिए लड़ा गया दिखायी देता है।

 श्रीसीताजी का हरण हुआ और उन्हें पुनः लौटाने के लिए श्रीराम ने रावण से युद्ध किया। यदि हम मात्र इतिहास के सन्दर्भ में इन युद्धों को देखें तो इनमें कोई ऐसी विशेषता नहीं दिखायी देती जिसके लिए हम इन युद्धों की याद करें, क्योंकि विश्व के इतिहास में ऐसे युद्ध एक बार नहीं, अनेकों बार लड़े जाते रहे हैं। इस प्रकार का संघर्ष तो सतत चलता ही रहता है। अतः प्रश्न उठता है कि यदि लंका और महाभारत के युद्ध भी उसी प्रकार के हैं, तब फिर उन्हें हम इतना महत्त्व क्यों देते हैं ?

‘श्रीराम चरित मानस’ के प्रारम्भ में एक व्यंग्यात्मक संकेत किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि रामायण के इतिहास में ऐसी कौन सी विशेषता है जिसके लिए हम श्रीराम की वन्दना करें, उनकी भक्ति या पूजा करें। आपने मानस  प्रारम्भ में याज्ञवल्क्य और भरद्वाज का संवाद पढ़ा होगा, जहाँ भरद्वाज मुनि महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं, मैं जानना चाहता हूँ कि यह राम कौन हैं ? और फिर बड़े व्यंग्य भरे स्वर में वे कहते हैं-एक राम का चरित्र तो मैं भी जानता हूँ, और मैं ही क्यों, सारा संसार जानता है। पर राम का वह चरित्र तो कोई महनीय प्रतीत नहीं होता।’ वे कहते हैं-



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