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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> श्रीराम धर्मसेतु संरक्षक

श्रीराम धर्मसेतु संरक्षक

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5511
आईएसबीएन :000000

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धर्म की संरचना का उद्देश्य

Sriram Dharmsetu Sanrakshak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्री रामः शरणं मम।।

अनुवचन

धर्म की संरचना का उद्देश्य मुख्यताः यही है कि सारे विश्व को विराट् ईश्वर से सम्बद्ध कर उसमें एकता के सूत्र को स्थापित करना है। इससे बढ़कर कोई दुर्भाग्यपूर्ण बात नहीं हो सकती कि जो धर्म समाज को सूत्रबद्ध करने का हेतु होना चाहिये वही संघर्ष का कारण बनकर एक दूसरे में विरोध, संघर्ष, द्वेष अथवा प्रतिद्वन्द्विता की प्रेरणा दे। धर्म का मुख्य उद्देश्य एकत्व की सृष्टि करना है। किन्तु बहुधा धर्म अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल नहीं हो पाता है, क्योंकि स्वार्थी व्यक्ति धर्म की व्याख्या भी अपने स्वार्थों के अनुकूल ही करने की चेष्ठा करते हैं। ऐसी स्थिति में श्रीराम अवतार का उद्देश्य क्या था ? महार्षि विश्वामित्र ने इसके लिये यही कहा-


धरम सेतु पालक तुम्ह ताता।
प्रेम बिबस सेवक सुख दाता।।

इसका तात्पर्य है जब धर्म का वह पुल जो मिलाने का साधन होना चाहिए था, टूट रहा था और लोग अपने मिथ्या अहंकार से एक दूसरे के विरुद्ध संघर्षरत थे, ऐसे समय में श्रीराम के रूप में ऐसे सेतु का प्रादुर्भाव होता है जो परस्पर विरोधी शक्तियों को एक दूसरे के सन्निकट ले आती है।

‘‘श्रीराम रूपी धर्मसेतु’’ का मुख्य उद्देश्य समाज के प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति को एक-दूसरे के निकट लाना है। शरीर में अंग पृथक-पृथक होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। वस्तुतः अपने कार्य को सम्पन्न करने वाला प्रत्येक अंग श्रेष्ठ है, न तो कोई छोटा न कोई बड़ा है। जीवन तो वस्तुतः एक समन्वय है। श्रीराम में समन्वय की इसी वृत्ति की सार्थकता दिखायी देती है और अपने इष्ट के इसी गुण को भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ‘‘श्रीरामचरितमानस’’ की रचना के द्वारा तत्कालीन समाज में कलिकाल में प्रकट किया।
इतिहास के पन्ने पलट करके देखें तो लगता है कि आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व धर्म और संप्रदाय को लेकर जिस तरह से पूरा देश खण्ड-खण्ड हो गया था, उस समय श्रीरामचरितमानस का प्रकाश ही था जिसने विघटन के अंधकार को मिटाकर समाज में पुनः समन्वय और शान्ति की स्थापना की।

युग तुलसी परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी के व्यक्तित्व को और जीवन दर्शन को यदि एक शब्द में कोई अभिव्यक्त करना चाहे तो वह शब्द है ‘‘समन्वय और सन्तुलन’’। ‘‘रामगुणगाऊँ’’ नामक काव्य संग्रह में एक कविता में युग मनीषी की भावना की झलक मिलती है।


कभी सुरभित मलय से शीतल सुमन्द समीर आती।
कभी झंझावायु दुर्वह गन्ध तो व्याकुल बनाती।।
संग का परिणाम यह तो मूल में ‘‘तुम’’ वायु हो प्रिय
पा सके जो गंध तेरी एक ऐसी घ्राण दो प्रिय।।

 
अभिनव युग तुलसी के मौलिक चिन्तन और महाभाष्य में महामना तुलसी की अमर कृति में एकात्मकता है, उनमें समन्वय का जो सूत्र है वे ‘‘धर्म सेतु श्रीराम’’ हैं। मुझे विश्वास है कि ‘‘युग तुलसी’’ के द्वारा प्रदत्त यह चिन्तन प्रसाद वर्तमान समय में झंझावत की अंतरंग और बहिरंग परिस्थिति को सही दिशा देकर गति का सदुपयोग करेगा। ‘‘सर्व जन हिताय’’ श्री राम रूपी ‘‘धर्मसेतु’’ को समझने की एक नूतन दृष्टि देगा।

सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता प्रभु से जुड़कर उनके लिये भूषण बन गयी है। श्रीमती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पणभाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।

सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणारूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता-पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वस्त एवं प्रसन्न होंगे। समर्पण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना ! उनके जीवन में शुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें।

निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यही शुभाशीष।

रामायणम् ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं क्या धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी साधकों को समर्पित है।

प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।


त्वदीयं वस्तु श्रीराम तुभ्यमेव समर्पये।

सादर
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से


मन्दाकिनी श्रीरामकिंककरजी


।।श्री रामः शरणं मम।।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।
हृदय विराजत रामसिय और दास हनुमान।
ऐसे श्री गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम।।


रामचरितमानस के प्रति प्रेम और आस्था के संस्कार हमारे परिवार में ऐसे दादा श्री विट्ठलदास बालजी गणात्रा से मिला। पर मानस को रक्त में मिलाकर जीवन को अमृतमय बनाने का कार्य मेरे परम पूज्य सद्गुरुदेव रामायण वाणी के पर्याय श्रीरामकिंकरजी महाराज ने किया।

परम पूज्य श्री रामकिंकर महाराज का एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गयी और संसार से विष के बदले अमृत मिलने लगा। सबसे पहले मैंने उनको लंदन से मुम्बई आकर ‘‘बिरला मातुश्री सभागृह’’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय उनका वचन, ऐसी गम्भीर उनकी वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण उस समय मुझे वे ही वे दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हमलोगों के कहने पर वे वहाँ पर पधारे और हमने उन्हें हनुमानचालीसा, नवधा-भक्ति तथा श्रीमद्भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय ‘‘भक्ति योग्य’’ सुनाया।

कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत आना-जाना लगा राह, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने आता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की कि एक महीने के लिए लन्दन आये और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किये। वहां जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। लन्दन के निवासियों के लिए वह स्मृति अविस्मरणीय हो गयी। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदलने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल का होने  के नाते मुझे यहां की भूमि बहुत आकर्षित करती है, और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे और राममय हो गये। उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर जैसे आज के समय में हमलोग गोस्वामी तुलसीदास महाराज की स्मृति करते हैं उसी तरह आज के हजारों वर्ष तक लोग परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज के दर्शन और उनके अमृतमय साहित्य को पढ़कर अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त रहेंगे।

आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायण ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रासारित करने के लिये अधिकृत है। मेरा यह मानना है कि जितनी भगवान् श्रीराम के नाम की महिमा है, उतनी ही महिमा परम पूज्य महारजश्री के साहित्य की है क्योंकि दोनों ही भगवान के शब्दमय विग्रह हैं।

रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्ष श्रद्धेय मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे इस सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूं। आमतौर पर माना यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा तो कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में यह सेवा करके मुझे जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।   

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