आचार्य श्रीराम किंकर जी >> कृपा कृपाश्रीरामकिंकर जी महाराज
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विशेष रूप से कलियुग के संदर्भ में
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लूँ तुम्हें पहिचान केवल एक ही वरदान दो प्रिय।
नित नये परिधान में नव,
नव बना कर वेश आते।
कभी दीपक राग के स्वर,
कभी मेघ मल्हार गाते।
राग के अवरोह या, आरोह में स्वर गूँजता जो,
भेद में भटकूँ नहीं बस, एक स्वर का ज्ञान दो प्रिय। इन्द्रधनुषी रंग से,
छलना तुम्हें है खूब आता।
ओ रंगीले तू न जाने,
वेश है कितने बनाता।
सभी रूपों में तुम्हारा, प्रेम का जो प्राण प्यारा।
बाँध लूँ उस प्राण को, बस एक ही तुम दान दो प्रिय। विविध रस के स्वाद में,
अलगाव तो सहना पड़ेगा।
जो मधुर पीता उसे,
कटु तिक्त भी पीना पड़ेगा।
किन्तु प्रति रस रूप में, जो एक रस धारा प्रवाहित
रह सकूँ इस स्रोत में, मैं सर्वदा, वरदान दो प्रिय।
लूँ तुम्हें पहचान केवल एक ही वरदान दो प्रिय।।
नित नये परिधान में नव,
नव बना कर वेश आते।
कभी दीपक राग के स्वर,
कभी मेघ मल्हार गाते।
राग के अवरोह या, आरोह में स्वर गूँजता जो,
भेद में भटकूँ नहीं बस, एक स्वर का ज्ञान दो प्रिय। इन्द्रधनुषी रंग से,
छलना तुम्हें है खूब आता।
ओ रंगीले तू न जाने,
वेश है कितने बनाता।
सभी रूपों में तुम्हारा, प्रेम का जो प्राण प्यारा।
बाँध लूँ उस प्राण को, बस एक ही तुम दान दो प्रिय। विविध रस के स्वाद में,
अलगाव तो सहना पड़ेगा।
जो मधुर पीता उसे,
कटु तिक्त भी पीना पड़ेगा।
किन्तु प्रति रस रूप में, जो एक रस धारा प्रवाहित
रह सकूँ इस स्रोत में, मैं सर्वदा, वरदान दो प्रिय।
लूँ तुम्हें पहचान केवल एक ही वरदान दो प्रिय।।
रामकिंकर
अनुवचन
कलियुग की विभीषिका और जटिलता की ओर उत्तरकाण्ड में मानसकार ने इंगित किया
है। मनुष्य अपने आंतरिक दोष और त्रुटियों को देख नहीं पाता और इसीलिए पाप
और उसके कारण उत्पन्न होने वाले दुःख का उन्मूलन नहीं हो पाता। व्यक्ति के
सामने कठिनाई यह है कि वह पहचाने भी तो कैसे ? सत्कर्म के वृक्ष की आड़
में जब पाप छिप जाते हैं, दान की आड़ में लोभ, सत्य की आड़ में अहंकार,
नियम की आड़ में दंभ और अभेदज्ञान की आड़ में भोगलिप्सा की वृत्तियाँ छिपी
रहती हैं।
काम, क्रोध, लोभ आदि समस्त दोस मोह का सम्पूर्ण परिवार है जो प्रकट रूप में अधिकांश में हैं और बीज रूप में सबमें—
काम, क्रोध, लोभ आदि समस्त दोस मोह का सम्पूर्ण परिवार है जो प्रकट रूप में अधिकांश में हैं और बीज रूप में सबमें—
हहिं सबके लखि बिरलेन्हि पाए।
जब तक इनकी सत्ता बनी हुई है, उनके कारण सृजित दुःख, सुख, क्लेश, अशान्ति
से व्यक्ति कभी ऊपर नहीं उठ सकता। उपाय क्या है ? गोस्वामीजी लिखते
हैं—
राम कृपा नासै सब रोगा।
जो अहिं भाँति बनइ संजोगा।।
जो अहिं भाँति बनइ संजोगा।।
विशेष रूप से कलियुग के संदर्भ में इस विभीषिका का सर्वसुलभ उपाय जिसको
गोस्वामीजी सर्वाधिक महत्त्व देते हैं वह है-
‘‘श्रीराम का
नाम।’’ बालकाण्ड में आदि से अंत तक भगवान् राम तथा
उनके नाम
की बड़ी सुंदर तुलना करते हैं।
गोस्वामीजी का मानना है कि श्रीराम ने तो एक तपस्वी की पत्नी (अहल्या) का उद्धार किया। परन्तु उनके पवित्र रामनाम ने करोड़ों व्यक्तियों की कुमति को सुधारा। श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के हेतु ताड़का एवं उसके पुत्र सुबाहु का, सेना सहित क्षण-भर में ही वध कर दिया, परंतु ‘नाम’ भगवान् दास (भक्त) के दुःख एवं दुराशाओं को दोष समेत नष्ट कर देते हैं, जैसे सूर्यदेव रात्रि का। भगवान् श्रीराम ने स्वयं भगवान् शंकर के धनुष को तोड़ा परन्तु ‘नाम’ का प्रताप संसार के भयों को विनष्ट करता है। भगवान् श्रीराम जब दण्डक वन में पधारते हैं तो वह बड़ा ही शोभायमान हो जाता है, किन्तु ‘नाम’ भगवान् ने असंख्य मनुष्यों के मन पवित्र कर दिये। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा परन्तु ‘नाम’ तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है।
श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को शुभगति प्रदान की, किन्तु ‘नाम’ ने तो अगणित दुष्टों का उद्धार किया। ‘नाम’ के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है। श्री रामजी ने तो सुग्रीव एवं विभीषण दो को ही अपनी शरण में रखा किन्तु ‘नाम’ ने तो अनेकों गरीबों पर कृपा की है। श्रीरामजी ने भालुओं तथा बंदरों की सेना बटोरकर समुद्र पर पुल बाँधने के हेतु कम परिश्रम नहीं किया, परन्तु ‘नाम’ लेते ही संसार-समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण विचार करके देखें कि दोनों में कौन बड़ा है ? श्रीराघवेन्द्र ने कुटुम्ब सहित रावण का वध कर दिया तब श्री सीताजी के साथ अपने नगर (अयोध्या) में पदार्पण किया। श्रीरामजी राजा हुए और अयोध्या उनकी राजधानी हुई, देवता एवं मुनिगण सुन्दर वाणी से उनके गुण गाते हैं। परन्तु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक ‘नाम’ के स्मरण-मात्र से ही बिना परिश्रम ‘मोह’ की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं। ‘नाम’ के प्रसाद से उन्हें स्वप्न में भी कोई चिन्ता नहीं सताती।’’
यह राम नाम रूपी महामंत्र का जप करने के सब अधिकारी हैं, यही ‘‘रामकृपा’’ है।
सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे राम नाम के साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता श्रीराम से जुड़कर उनके लिए भूषण बन गयी। सौभाग्यवती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पण भाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।
सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणास्वरूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता-पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वास्त एवं प्रसन्न होंगे।
सम्पूर्ण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना ! उनके जीवन में सुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यह शुभाशीष।
रामायणम् ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं क्या धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी पाठकों को समर्पित है, के प्रति शुभाशीष !
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
गोस्वामीजी का मानना है कि श्रीराम ने तो एक तपस्वी की पत्नी (अहल्या) का उद्धार किया। परन्तु उनके पवित्र रामनाम ने करोड़ों व्यक्तियों की कुमति को सुधारा। श्रीराम ने महर्षि विश्वामित्र की यज्ञ-रक्षा के हेतु ताड़का एवं उसके पुत्र सुबाहु का, सेना सहित क्षण-भर में ही वध कर दिया, परंतु ‘नाम’ भगवान् दास (भक्त) के दुःख एवं दुराशाओं को दोष समेत नष्ट कर देते हैं, जैसे सूर्यदेव रात्रि का। भगवान् श्रीराम ने स्वयं भगवान् शंकर के धनुष को तोड़ा परन्तु ‘नाम’ का प्रताप संसार के भयों को विनष्ट करता है। भगवान् श्रीराम जब दण्डक वन में पधारते हैं तो वह बड़ा ही शोभायमान हो जाता है, किन्तु ‘नाम’ भगवान् ने असंख्य मनुष्यों के मन पवित्र कर दिये। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा परन्तु ‘नाम’ तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है।
श्री रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को शुभगति प्रदान की, किन्तु ‘नाम’ ने तो अगणित दुष्टों का उद्धार किया। ‘नाम’ के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है। श्री रामजी ने तो सुग्रीव एवं विभीषण दो को ही अपनी शरण में रखा किन्तु ‘नाम’ ने तो अनेकों गरीबों पर कृपा की है। श्रीरामजी ने भालुओं तथा बंदरों की सेना बटोरकर समुद्र पर पुल बाँधने के हेतु कम परिश्रम नहीं किया, परन्तु ‘नाम’ लेते ही संसार-समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण विचार करके देखें कि दोनों में कौन बड़ा है ? श्रीराघवेन्द्र ने कुटुम्ब सहित रावण का वध कर दिया तब श्री सीताजी के साथ अपने नगर (अयोध्या) में पदार्पण किया। श्रीरामजी राजा हुए और अयोध्या उनकी राजधानी हुई, देवता एवं मुनिगण सुन्दर वाणी से उनके गुण गाते हैं। परन्तु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक ‘नाम’ के स्मरण-मात्र से ही बिना परिश्रम ‘मोह’ की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं। ‘नाम’ के प्रसाद से उन्हें स्वप्न में भी कोई चिन्ता नहीं सताती।’’
यह राम नाम रूपी महामंत्र का जप करने के सब अधिकारी हैं, यही ‘‘रामकृपा’’ है।
सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे राम नाम के साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता श्रीराम से जुड़कर उनके लिए भूषण बन गयी। सौभाग्यवती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पण भाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।
सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणास्वरूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता-पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वास्त एवं प्रसन्न होंगे।
सम्पूर्ण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना ! उनके जीवन में सुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यह शुभाशीष।
रामायणम् ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं क्या धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी पाठकों को समर्पित है, के प्रति शुभाशीष !
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
त्वदीयं वस्तु श्रीराम तुभ्यमेव समर्पये।
सादर,
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
।। श्री रामः शरणं मम।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
हृदय विराजत रामसिय और दास हनुमान।
ऐसे श्री गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम।।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
हृदय विराजत रामसिय और दास हनुमान।
ऐसे श्री गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम।।
रामचरितमानस के प्रति प्रेम और आस्था के संस्कार हमारे परिवार में मेरे
दादा विट्ठलदास बालजी गणात्रा से मिला। पर मानस को रक्त में मिलाकर जीवन
को अमृतमय बनाने का कार्य मेरे परम पूज्य सद्गुरुदेव रामायणमय वाणी के
पर्याय श्रीरामकिंकरजी महाराज ने किया।
परमपूज्य श्री रामकिंकर महाराज का एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धाकर से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गयी और संसार से विष के बदले अमृत मिलने लगा। सबसे पहले मैंने उसको लन्दन से मुम्बई आकर ‘‘बिरला मातुश्री सभागृह’’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय उनका वचन, ऐसी गम्भीर उनकी वाण, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण उस समय मुझे वे ही वे दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हमलोगों के कहने पर वे वहाँ पधारे और हमने उन्हें हनुमानचालीसा, नवधा-भक्ति तथा श्रीमद्भागवद्गीता का बारहवाँ अध्याय ‘‘भक्ति-योग’’ सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत आना-जाना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने आता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की, कि वे एक महीना के लिये लन्दन आये और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किये। वहाँ जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। लन्दन के निवासियों के लिये वह स्मृति अविस्मरणीय हो गयी। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदलने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल का होने के नाते मुझे यहाँ की भूमि बहुत आकर्षित करती है, और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट है और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे। और राममय हो गये। उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर जैसे आज के समय में हम लोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की स्मृति करते हैं उसी तरह आज से हजारों वर्ष तक लोग परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज के दर्शन और उनके अमृतमय साहित्य को पढ़कर अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायणम् ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रचारित व प्रसारित करने के लिए अधिकृत है। मेरा यह मानना है कि जितनी भगवान् श्रीराम के नाम की महिमा है, उतनी ही महिमा परम पूज्य महाराजश्री के साहित्य की है, क्योंकि दोनों ही भगवान् के शब्दमय विग्रह हैं।
रामायणम् ट्रस्ट के अध्यक्ष श्रद्धेय मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे इस सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी मेरी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूँ। आमतौर पर माना यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में यह सेवा करके मुझे जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
परमपूज्य श्री रामकिंकर महाराज का एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धाकर से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गयी और संसार से विष के बदले अमृत मिलने लगा। सबसे पहले मैंने उसको लन्दन से मुम्बई आकर ‘‘बिरला मातुश्री सभागृह’’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय उनका वचन, ऐसी गम्भीर उनकी वाण, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण उस समय मुझे वे ही वे दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हमलोगों के कहने पर वे वहाँ पधारे और हमने उन्हें हनुमानचालीसा, नवधा-भक्ति तथा श्रीमद्भागवद्गीता का बारहवाँ अध्याय ‘‘भक्ति-योग’’ सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत आना-जाना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने आता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की, कि वे एक महीना के लिये लन्दन आये और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किये। वहाँ जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। लन्दन के निवासियों के लिये वह स्मृति अविस्मरणीय हो गयी। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदलने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल का होने के नाते मुझे यहाँ की भूमि बहुत आकर्षित करती है, और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट है और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे। और राममय हो गये। उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर जैसे आज के समय में हम लोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की स्मृति करते हैं उसी तरह आज से हजारों वर्ष तक लोग परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज के दर्शन और उनके अमृतमय साहित्य को पढ़कर अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायणम् ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रचारित व प्रसारित करने के लिए अधिकृत है। मेरा यह मानना है कि जितनी भगवान् श्रीराम के नाम की महिमा है, उतनी ही महिमा परम पूज्य महाराजश्री के साहित्य की है, क्योंकि दोनों ही भगवान् के शब्दमय विग्रह हैं।
रामायणम् ट्रस्ट के अध्यक्ष श्रद्धेय मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे इस सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी मेरी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूँ। आमतौर पर माना यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में यह सेवा करके मुझे जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
श्री गुरुदेव का चरण सेवक,
अरुण गोवर्धनदास गणात्रा और
अंजू अरुण गणात्रा, लन्दन
अरुण गोवर्धनदास गणात्रा और
अंजू अरुण गणात्रा, लन्दन
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