आचार्य श्रीराम किंकर जी >> अहंकार के रूप अहंकार के रूपश्रीरामकिंकर जी महाराज
|
7 पाठकों को प्रिय 24 पाठक हैं |
जीव का सबसे बड़ा आन्तरिक शत्रु यदि कोई है तो वह है ‘अहं’। संसार में भी संघर्ष टकराहट का मुख्य हेतु है यह ‘‘मैं’’।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जीव का सबसे बड़ा आन्तरिक शत्रु यदि कोई है तो वह है ‘अहं’।
संसार में भी संघर्ष टकराहट का मुख्य हेतु है यह ‘‘मैं’’। इससे मुक्त होकर
व्यक्ति का जीवन कितना सुखद हो सकता है, इसकी ओर परम पूज्य महाराजश्री ने इस ग्रंथ में संकेत किया है। इष्ट या सद्गुरु के चरणों में ‘मैं’ विलीन
करके ही मनुष्य पूर्ण सुख और शान्ति प्राप्त कर सकता है।
अनुवचन
आयुर्वेद शास्त्र मनुष्य के शरीर में त्रिविध धातुओं की उपस्थित का वर्णन
करता है। उन्हें उसने वात, पित्त और कफ का नाम दिया है। जब शरीर में यह
त्रिधातु समत्व की स्थिति में होती है तब व्यक्ति स्वस्थ होता है, किन्तु
जब इनमें से कोई धातु विषम हो जाती है, तब व्यक्ति के शरीर में रोगों का
प्रादुर्भाव होता है।
शरीर की ही भाँति मन के भी त्रिविध धातुओं से रचना की बात कही गयी है। वह है काम, क्रोध और लोभ। इन तीनों में संतुलन रखना परमावश्यक है, क्योंकि इनका अतिरेक व्यक्ति और समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। त्रिविध धातुएँ जब एक साथ कुपित हो जाती हैं, उसे आयुर्वेद में सन्निपात की स्थिति कही जाती है। सन्निपातग्रस्त रोगी बहुदा मृत्यु का ग्रास बन जाता है। चिकित्सा शास्त्र का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि रुग्ण व्यक्ति स्वयं अपनी चिकित्सा नहीं कर सकता है। इसीलिए बड़े से बड़ा चिकित्सक भी अपनी चिकित्सा के लिए दूसरे चिकित्सक का आश्रय ग्रहण करता है। मानस रोगों में तो यह सिद्धान्त और भी अधिक आवश्यक प्रतीत होती है।
व्यक्ति को अपनी मानसिक विकृतियों का सही परिज्ञान हो ही नहीं पाता है। अपितु यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मानस रोगी को अपनी विकृति स्वयं में न दिखाई देकर अन्य व्यक्तियों में दिखायी देती है। मानस रोगों के संदर्भ से यह कहा जा सकता है कि सारे के सारे रोग छूत से फैलते हैं। जो व्यक्ति मन से रोगी होते हैं वे परिवार को और समाज को भी रोगी बना देता है। मन के रोग के स्वरूप को समझकर उसे मूल से नष्ट करने की चेष्टा करनी चाहिये। इसलिए मानस-रोगों से ग्रस्त व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह सद्गुरु वैद्य का आश्रय ग्रहण करे। श्रीरामचरितमानस की दृष्टि में विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति ही नहीं है जिसमें यह रोग किसी न किसी रूप में विद्यमान न हो-
शरीर की ही भाँति मन के भी त्रिविध धातुओं से रचना की बात कही गयी है। वह है काम, क्रोध और लोभ। इन तीनों में संतुलन रखना परमावश्यक है, क्योंकि इनका अतिरेक व्यक्ति और समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। त्रिविध धातुएँ जब एक साथ कुपित हो जाती हैं, उसे आयुर्वेद में सन्निपात की स्थिति कही जाती है। सन्निपातग्रस्त रोगी बहुदा मृत्यु का ग्रास बन जाता है। चिकित्सा शास्त्र का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि रुग्ण व्यक्ति स्वयं अपनी चिकित्सा नहीं कर सकता है। इसीलिए बड़े से बड़ा चिकित्सक भी अपनी चिकित्सा के लिए दूसरे चिकित्सक का आश्रय ग्रहण करता है। मानस रोगों में तो यह सिद्धान्त और भी अधिक आवश्यक प्रतीत होती है।
व्यक्ति को अपनी मानसिक विकृतियों का सही परिज्ञान हो ही नहीं पाता है। अपितु यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मानस रोगी को अपनी विकृति स्वयं में न दिखाई देकर अन्य व्यक्तियों में दिखायी देती है। मानस रोगों के संदर्भ से यह कहा जा सकता है कि सारे के सारे रोग छूत से फैलते हैं। जो व्यक्ति मन से रोगी होते हैं वे परिवार को और समाज को भी रोगी बना देता है। मन के रोग के स्वरूप को समझकर उसे मूल से नष्ट करने की चेष्टा करनी चाहिये। इसलिए मानस-रोगों से ग्रस्त व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह सद्गुरु वैद्य का आश्रय ग्रहण करे। श्रीरामचरितमानस की दृष्टि में विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति ही नहीं है जिसमें यह रोग किसी न किसी रूप में विद्यमान न हो-
हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए।
और-
विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।
इस दृष्टि से विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के लिये सद्गुरु वैद्य की
आवश्यकता है। श्रीरामचरितमानस का दृष्टिकोण मनुष्य में समग्र सन्तुलन की
सृष्टि करना है। गोस्वामी तुलसीदास का मानना है कि यह दिव्य ग्रन्थ
अमृतमयी जड़ी बूटियों से युक्त
‘‘सद्गुरु’’ की
भूमिका पूर्णरूपेण निर्वहन कर सकता है-
सदगुरु ज्ञान बिराग जोग के।
विबुध बैद भव भीम रोग के।।
विबुध बैद भव भीम रोग के।।
सद्गुरु ही है जो भाव रोग से मुक्त करा सकता है। चाहे आप किसी भी मार्ग के
साधक हों, सर्वतोभावेन आपको श्रीरामचरितमानस में से मार्गदर्शन मिल सकता
है। गोस्वामीजी का यह अनुरोध है कि हम श्रीरामचरितमानस को केवल ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में भूतकालीन सत्य और इतिहास के रूप में ही न देखें।
प्रस्तुत ग्रन्थ ‘अहंकार’ का सूक्ष्म विश्लेशषण प्रस्तुत किया गया है। अज्ञानजनित यह शूल मानवमात्र को पीड़ित कर रहा है—
प्रस्तुत ग्रन्थ ‘अहंकार’ का सूक्ष्म विश्लेशषण प्रस्तुत किया गया है। अज्ञानजनित यह शूल मानवमात्र को पीड़ित कर रहा है—
हरष बिषाद ग्यान अग्याना।
जीव धर्म अहमिति अभिमाना।।
जीव धर्म अहमिति अभिमाना।।
जीव का सबसे बड़ा आन्तरिक शत्रु यदि कोई है तो वह है
‘अहं’।
संसार में भी संघर्ष टकराहट का मुख्य हेतु है यह
‘मैं’। इससे
मुक्त होकर व्यक्ति का जीवन कितनी सुखद हो सकता है, इसकी ओर परम पूज्य
महाराजश्री ने इस ग्रन्थ में संकेत किया है। इष्ट या सद्गुरु के चरणों में
‘मैं’ विलीन करके ही मनुष्य पूर्ण सुख और शान्ति
प्राप्त कर
सकता है।
‘‘युग तुलसी’’ का साहित्य आज संजीवनी के रूप में समाज और व्यक्ति को स्वस्थता प्रदान कर रहा है। असंख्य भक्तों की अनुभूति सुनकर, पढ़कर हृदय पुलकित हो उठता है। जीवन के कठिन काल में कैसे उन्हें इस साहित्य से दिशा बोध और मार्गदर्शन मिला। एक स्वस्थ, विश्व स्वस्थ्य मानव जाति की परिकल्पना और संकल्प से कि अधिक से अधिक लोग इससे लाभान्वित हो इसी प्रार्थना से यह ग्रन्थ, प्रभु के चरणों में अर्पित है।
सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता प्रभु से जुड़कर उनके लिये भूषण बन गयी। श्रीमती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पणभाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।
सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणारूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता-पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वस्त एवं प्रसन्न होंगे। संपूर्ण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना ! उनके जीवन में शुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यही शुभाशीष।
रामायणम् ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं क्या धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी साधकों को समर्पित है।
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
‘‘युग तुलसी’’ का साहित्य आज संजीवनी के रूप में समाज और व्यक्ति को स्वस्थता प्रदान कर रहा है। असंख्य भक्तों की अनुभूति सुनकर, पढ़कर हृदय पुलकित हो उठता है। जीवन के कठिन काल में कैसे उन्हें इस साहित्य से दिशा बोध और मार्गदर्शन मिला। एक स्वस्थ, विश्व स्वस्थ्य मानव जाति की परिकल्पना और संकल्प से कि अधिक से अधिक लोग इससे लाभान्वित हो इसी प्रार्थना से यह ग्रन्थ, प्रभु के चरणों में अर्पित है।
सद्गुण सम्पन्न श्री गणात्रा दंपति बहुत अच्छे साधक हैं, उनके स्वभाव की तेजस्विता और सेवा में अधीरता प्रभु से जुड़कर उनके लिये भूषण बन गयी। श्रीमती अंजुजी की श्रद्धा, समर्पणभाव जो मैंने अनुभव किया वह दुर्लभ है।
सत्साहित्य प्रकाशन में उनकी यह सेवा असंख्य भक्तों के लिये प्रेरणारूप रहेगी। उनके स्वर्गीय माता-पिता उनकी मातृ-पितृ एवं गुरुभक्ति देखकर अवश्य आश्वस्त एवं प्रसन्न होंगे। संपूर्ण गणात्रा परिवार के प्रति मंगलकामना करते हुए प्रभु से प्रार्थना ! उनके जीवन में शुचिता, सुमधुरता एवं सुमति बनाये रखें।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प को साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यही शुभाशीष।
रामायणम् ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं क्या धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव सदैव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी साधकों को समर्पित है।
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
त्वदीयं वस्तु श्रीराम तुभ्यमेव समर्पये।
सादर,
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
।।श्री रामः शरणं मम।।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्नवरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
हृदय विराजत रामसिय और दास हनुमान।
ऐसे श्री गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम।।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
हृदय विराजत रामसिय और दास हनुमान।
ऐसे श्री गुरुदेव को बारम्बार प्रणाम।।
रामचरितमानस के प्रति प्रेम और आस्था के संस्कार हमारे परिवार में मेरे
दादा श्री विट्ठलदास बालजी गणात्रा से मिला। पर मानस को रक्त में मिलाकर
जीवन को अमृतमय बनाने का कार्य मेरे परम पूज्य सद्गुरुदेव रामायणमय वाणी
के पर्याय श्रीरामकिंकरजी महाराज ने किया।
परम पूज्य श्री रामकिंकर महाराज का एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गयी और संसार से विष के बदले अमृत मिलने लगा। सबसे पहले मैंने उनको लन्दन से मुम्बई आकर ‘‘बिरला मातुश्री सभागृह’’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय उनका वचन, ऐसी गम्भीर उनकी वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण उस समय मुझे वे ही दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हम लोगों के कहने पर वे वहाँ पर पधारे और हमने उन्हें हनुमान चालीसा, नवधा-भक्ति तथा श्रीमद्भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय ‘‘भक्ति-योग’’ सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत आना-जाना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने आता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की कि वे एक महीना के लिये लन्दन आये और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किये। वहां जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। लन्दन के निवासियों के लिये वह स्मृति अविस्मरणीय हो गयी। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदलने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल का होने के नाते मुझे यहाँ की भूमि बहुत आकर्षित करती है, और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट है और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे और राममय हो गये। उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर जैसे आज के समय में हम लोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की स्मृति करते हैं उसी तरह आज से हजारों वर्ष तक लोग परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज के दर्शन और उनके अमृतमय साहित्य को पढ़कर अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायणम् ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रसारित व प्रचारित करने के लिये अधिकृत है। मेरा यह मानना है कि जितनी भगवान् श्री राम के नाम की महिमा है, उतनी ही महिमा परम पूज्य महाराजश्री के साहित्य की है, क्योंकि दोनों ही भगवान् के शब्दमय विग्रह हैं।
रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्ष श्रद्धेय मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे इस सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी मेरी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूँ। आमतौर पर माना जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा तो कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में यह सेवा करके मुझे जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
परम पूज्य श्री रामकिंकर महाराज का एक ग्रन्थ पढ़ते ही मुझे लगा कि जो मेरे पास नहीं है वह मानो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गयी और संसार से विष के बदले अमृत मिलने लगा। सबसे पहले मैंने उनको लन्दन से मुम्बई आकर ‘‘बिरला मातुश्री सभागृह’’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय उनका वचन, ऐसी गम्भीर उनकी वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतीकरण उस समय मुझे वे ही दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हम लोगों के कहने पर वे वहाँ पर पधारे और हमने उन्हें हनुमान चालीसा, नवधा-भक्ति तथा श्रीमद्भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय ‘‘भक्ति-योग’’ सुनाया।
कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत आना-जाना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने आता था। मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की कि वे एक महीना के लिये लन्दन आये और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किये। वहां जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। लन्दन के निवासियों के लिये वह स्मृति अविस्मरणीय हो गयी। महाराजश्री की पुस्तकों में व्यक्ति के जीवन, चिन्तन और दिशा बदलने की अभूतपूर्व सामर्थ्य है। भारत मूल का होने के नाते मुझे यहाँ की भूमि बहुत आकर्षित करती है, और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट है और जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय थे और राममय हो गये। उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर जैसे आज के समय में हम लोग गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की स्मृति करते हैं उसी तरह आज से हजारों वर्ष तक लोग परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज के दर्शन और उनके अमृतमय साहित्य को पढ़कर अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करते रहेंगे।
आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह है स्वस्थ चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे, उसको विकास नहीं माना जा सकता। रामायणम् ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रसारित व प्रचारित करने के लिये अधिकृत है। मेरा यह मानना है कि जितनी भगवान् श्री राम के नाम की महिमा है, उतनी ही महिमा परम पूज्य महाराजश्री के साहित्य की है, क्योंकि दोनों ही भगवान् के शब्दमय विग्रह हैं।
रामायणम् ट्रस्ट की अध्यक्ष श्रद्धेय मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि जिन्होंने मुझे इस सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी मेरी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूँ। आमतौर पर माना जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा तो कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में यह सेवा करके मुझे जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।
श्री गुरुदेव का चरण सेवक,
अरुण गोवर्धनदास गणात्रा और
अंजू अरुण गणात्रा, लन्दन
अरुण गोवर्धनदास गणात्रा और
अंजू अरुण गणात्रा, लन्दन
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book