आचार्य श्रीराम किंकर जी >> भक्तत्रयी भक्तत्रयीश्रीरामकिंकर जी महाराज
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सृष्टि में नश्वरता और परिवर्तन की प्रक्रिया केवल भौतिक पदार्थों के विषय में यथार्थ नहीं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आपने यह सुना अथवा पढ़ा होगा कि गीता में भगवान अर्जुन से बार-बार यह कहते
हैं कि अर्जुन ! तुम्हें तो समत्व में स्थित होना चाहिए—‘लाभालाभौ जयाजयौ’— लाभ में, अलाभ में, जय में, पराजय में तुम्हें सम होना चाहिए। पर भगवान ने जो उपदेश दिया उसकी समग्रता अर्जुन के जीवन में कब आयी ? यद्यपि अर्जुन ने इस उपदेश को सुनने के पश्चात विजय प्राप्त कर ली, लड़ाई में जीत गया, किन्तु जीतने के पश्चात् क्या अर्जुन के जीवन में समत्व की प्रतिष्ठा हो गयी ? अपितु यह कह लीजिये कि गीता के तत्त्वज्ञान का जो दूसरा व्यावहारिक पक्ष था, उसकी
परीक्षा तो यही थी कि अर्जुन ! तुम्हारे जीवन में केवल जय ही नहीं पराजय
के क्षण भी आ सकते हैं तथा उस पराजय के क्षण में भी तुम क्या अर्थ ग्रहण
करते हो इसी में तुम्हारी परीक्षा है।
।। श्री राम: शरणं मम ।।
अरथ अमित अरु आखर थोरे
सृष्टि में नश्वरता और परिवर्तन की प्रक्रिया केवल भौतिक पदार्थों के विषय
में यथार्थ नहीं, अधिकांश कवि और लेखक जिस शब्द-सृष्टि की रचना करते हैं,
वे भी इस परिधि में आ जाते हैं। किसी देश काल और व्यक्ति के संदर्भ में
जिन रचनाओं को लोग हृदय के सिंहासन पर अभिषिक्त करते हैं, समय पाकर उन्हें
सत्ताच्युत कर देने और बिसरा देने में भी संकोच का अनुभव नहीं करते।
पुराणों में गिनाये गया राजाओं की वंश परम्परा की नामावली की भाँति उनकी
स्मृति केवल भाषा को इतिहास में अवशिष्ट रह जाती है, पर कुछ रचनाएँ इसका
अपवाद भी हैं। तुलसीकृत रामचरितमानस और ‘‘युग
तुलसी’’ का महाकाव्य उनमें से एक है। इन विलक्षण
ग्रन्थों की
अमृत-शक्ति का रहस्य क्या है ? क्षणिक रचनाओं की तुलना उस नदी से की जाती
है जो वर्षा के जल से आश्रित है, अध्ययन के समुद्र से विचार के मेघ,
मस्तिष्क में उमड़ पड़ते हैं और शब्दों की झड़ी लग जाती है और इस तरह रचना
की वेगवती नदी प्रवाहित हो जाती है। तत्कालीन पाठक उसकी विशालता से अभिभूत
हो उठता है किन्तु समय के प्रवाह में रचना का रस सूख जाता है।
कालजयी कृति गंगा की भाँति है जिसका मूल स्रोत्र बाहर न होकर, हृदय हिमालय का गोमुख है। अजस्र और कभी न सूखने वाले स्रोत्र/उद्गम में उसका रूप अत्यन्त सूक्ष्म प्रतीत होता है किन्तु क्रमश: वह वामन से विराट् बन जाती है। क्षणिक रचनाएँ प्रारम्भ में विराट प्रतीत होकर अंत में वामन बन जाती हैं। तुलसी-साहित्य का इतिहास अगर पढ़ें तो कुछ ऐसा ही है। सारे विरोध और प्रतिकूलता के वातावरण में से तुलसी की लेखिनी की धारा प्रवाहित होती गई महोदधि रूपी श्रीराम सिंधु की विशालता में विलीन हो गयी। ‘‘युग तुलसी’’ का अनुशीलन उनकी महत् व्याख्याएँ और वृहद् भाष्य उसी शील-सिन्धु-राघव समुद्र का मंथन है, जिसमें अमृत तत्त्व का प्राकट्य होता है और जिसे पान करने वाला अमर हो जाता है। यह ग्रन्थ तो उस दिव्य अमृत का एक कण है, एक बिन्दु है, जिसमें उस सिन्धु की प्रतीति है, और पूर्णता भी है।
श्री डी.आर. गजेन्द्र का सत् संकल्प मानो उस अमृत को धारण करने का सुपात्र है। पूर्व में भी भक्तों को यह पीयूष वितरण का उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पर पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् के प्रति उनकी निष्ठा अविचल है, परम पूज्य महाराजश्री की अनंत कृपा के वे भाजन हैं।
अपने स्व. पूज्य पिता और माता की स्मृति में इस अमृत बिन्दु को अर्पित करके श्री गजेन्द्र जी अपने पुत्र-धर्म को सर्वश्रेष्ठ पालन कर रहे हैं। प्रभु से प्रार्थना है कि श्री गजेन्द्रजी और उनके समस्त परिवार पर उनकी महती कृपा बनी रहे। भक्ति मार्ग पर उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प का साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यही शुभाशीष।
रामायण ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी साधकों को समर्पित है।
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
कालजयी कृति गंगा की भाँति है जिसका मूल स्रोत्र बाहर न होकर, हृदय हिमालय का गोमुख है। अजस्र और कभी न सूखने वाले स्रोत्र/उद्गम में उसका रूप अत्यन्त सूक्ष्म प्रतीत होता है किन्तु क्रमश: वह वामन से विराट् बन जाती है। क्षणिक रचनाएँ प्रारम्भ में विराट प्रतीत होकर अंत में वामन बन जाती हैं। तुलसी-साहित्य का इतिहास अगर पढ़ें तो कुछ ऐसा ही है। सारे विरोध और प्रतिकूलता के वातावरण में से तुलसी की लेखिनी की धारा प्रवाहित होती गई महोदधि रूपी श्रीराम सिंधु की विशालता में विलीन हो गयी। ‘‘युग तुलसी’’ का अनुशीलन उनकी महत् व्याख्याएँ और वृहद् भाष्य उसी शील-सिन्धु-राघव समुद्र का मंथन है, जिसमें अमृत तत्त्व का प्राकट्य होता है और जिसे पान करने वाला अमर हो जाता है। यह ग्रन्थ तो उस दिव्य अमृत का एक कण है, एक बिन्दु है, जिसमें उस सिन्धु की प्रतीति है, और पूर्णता भी है।
श्री डी.आर. गजेन्द्र का सत् संकल्प मानो उस अमृत को धारण करने का सुपात्र है। पूर्व में भी भक्तों को यह पीयूष वितरण का उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पर पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् के प्रति उनकी निष्ठा अविचल है, परम पूज्य महाराजश्री की अनंत कृपा के वे भाजन हैं।
अपने स्व. पूज्य पिता और माता की स्मृति में इस अमृत बिन्दु को अर्पित करके श्री गजेन्द्र जी अपने पुत्र-धर्म को सर्वश्रेष्ठ पालन कर रहे हैं। प्रभु से प्रार्थना है कि श्री गजेन्द्रजी और उनके समस्त परिवार पर उनकी महती कृपा बनी रहे। भक्ति मार्ग पर उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे।
निष्ठा एवं समर्पण भाव से कार्यरत डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी इस सत्संकल्प का साकार करने में मन-प्राण से लगे हुए हैं। उनकी श्रद्धा बलवती हो ! यही शुभाशीष।
रामायण ट्रस्ट के ट्रस्टीगण को मैं धन्यवाद दूँ ! वे तो मेरे अपने हैं। उनका स्नेह सद्भाव बना रहे यही प्रभु के चरणों में निवेदन !
अन्य सभी सेवादार एवं नरेन्द्र शुक्ल जिन के अथक परिश्रम से यह ग्रन्थ आप सभी सुधी साधकों को समर्पित है।
प्रभु की सुगंध, प्रभु का सौरभ प्रभु का स्पन्दन सबके जीवन में हो, यही मंगलकामना है।
त्वदीयं वस्तु श्रीराम तुभ्यमेव समर्पये।
सादर,
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी की ओर से
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
।। श्री गुरुवे नम: ।।
जे गुरु चरण रेनु सिर धरहीं.....
जे गुरु चरण रेनु सिर धरहीं.....
मेरी पूजनीया माता स्व. श्रीमती तिजीया देवी एवं पूज्य पिता स्व. श्री
भुवनलाल गजेन्द्र के द्वारा मैंने पैतृक ग्राम समेरा में आज से 50 वर्ष
पहले से प्रति वर्ष ‘‘राम
सप्ताह’’ का दीपक जलाया
गया, जो आज भी जल रहा है। उनके नहीं रहने पर भी प्रति वर्ष यह आयोजन होता
है, उपरोक्त कारणों से मुझे सद्गुरुदेव भगवान् मिले। मैं अपने सद्गुरुदेव
भगवान् के बारे में क्या कहूँ ?
जे गुरु चरण रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजे।
सब पायउँ रज पावनि पूजें।।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजे।
सब पायउँ रज पावनि पूजें।।
‘‘रामायण ट्रस्ट की अध्यक्ष पूज्य दीदी माँ मन्दाकिनी
ने
सद्गुरुदेव भगवान् के साहित्य में मुझे और मेरे माता-पिता को जोड़ने का जो
अवसर दे रही हैं, उसके लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं पूज्य दीदी जी के
चरणों में कोटिश: प्रणाम करता हूँ।
आपका
कृपापात्र
डी.आर. गजेन्द्र
रायपुर
डी.आर. गजेन्द्र
रायपुर
महाराजश्री : एक परिचय
प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा
जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर,
‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी
अमृतमयी, धीर,
गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं
बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान
कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित
मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक
साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी
मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार
हैं।
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-
धेनवः सन्तु, पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः।
दिव्यराम-कथा दुग्धः, प्रस्तोता रामकिंकरः।।
दिव्यराम-कथा दुग्धः, प्रस्तोता रामकिंकरः।।
जैसे पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका
जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही
श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा
में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर
(मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के
निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री
शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के
परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं
अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक
सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति
दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम
सेवक
रखा गया।
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।
पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।
ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।
ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।
प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’
इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।
सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।
अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।
निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।
अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।
पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।
ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।
ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।
प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’
इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।
सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।
अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।
निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।
अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।
प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
प्रथम
देखा सैल न औषधि चीन्हा।
सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा।।
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ।
अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ।।
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि।। 6/58
सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा।।
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ।
अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ।।
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि।। 6/58
भगवान् श्रीरामचन्द्र की असीम अनुकम्पा से पुन: इस वर्ष यह सुवअसर मिला है
कि संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट और संगीत कला मन्दिर के तत्वाधान में होने
वाले इस कार्यक्रम में एकत्र होकर हम लोग भगवान् तथा उनके भक्तों के पावन
गुणों की चर्चा करें एवं सुनें ! गत तेइस वर्षों से अनवरत चलने वाला यह
क्रम भगवान् की मंगलमयी अनुकम्पा तथा इस संस्था की बलवती श्रद्धा का ही
परिणाम है।
प्रसंग के विषय में माहेश्वरीजी ने आपको सूचित किया ही था और अभी जो पंक्तियाँ आपके सामने पढ़ी गयीं उनके माध्यम से आप प्रसंग से पूरी तरह परिचित हो चुके हैं। इस प्रसंग की विलक्षणता यह है कि इसमें जिन तीन महान् भक्तों की भूमिका का संकेत मिलता है, वे तीनों श्रीरामचरितमानस के अद्वितीय पात्र हैं। इन तीनों में से किसी के लिए यह कहना कि इनमें कौन श्रेष्ठ है, तथा कौन कनिष्ठ ?
यह तो धृष्टता जैसी बात प्रतीत होती है। गीतावली रामायण में गोस्वामीजी ने यह कहा कि वैसे तो भगवान् के अनगिनत भक्त हुए हैं और होते रहेंगे, लेकिन इन भक्तों में भी चार प्रमुख हैं तथा उन चारों के नाम गिनाते हुए वे कहते हैं कि ‘ज्ञानी हनुमान्, हर, लखन, भरत भगति मति।’ अर्थात् हनुमानजी, शंकरजी, भरतजी तथा लक्ष्मणजी। इनमें जहाँ तक शंकर जी का संबंध है, वे भगवान् राम के चरित्र में सम्मिलित नहीं हैं, पर हम यह कह सकते हैं कि वे हनुमानजी के रूप में भगवान् राम की समग्र लीला में भाग अवश्य लेते हैं। अब आइए ! प्रस्तुत प्रसंग की पृष्ठभूमि पर थोड़ा विचार करें। जिन चार पात्रों का नाम-स्मरण गोस्वामीजी ने उपर्युक्त पंक्ति में किया है, इस प्रसंग में उनमें से तीन पात्रों की एक साथ चर्चा की गयी है। लंका के रणांगण में रामानुज श्रीलक्ष्मणजी मेघनाद के विरुद्ध युद्ध करते हुए मूर्च्छित हो जाते हैं। उनकी मूर्च्छा दूर करने के लिए भगवान् राम के महान् भक्त आञ्जनेय हनुमानजी ओषधि लाने के लिए भेजे जाते हैं।
ओषधि लेकर लौटते हुए जिस समय वे अयोध्या के ऊपर से अपनी यात्रा कर रहे होते हैं, उसी समय श्रीभरतजी जो तृतीया श्रेष्ठतम भक्त हैं, की दृष्टि उन पर पड़ती है और तब उन्हें ऐसा लगता है कि यह तो कोई बड़ा विशाल निशाचर है, जो अयोध्या को विनष्ट करने के लिए विशाल पर्वत-खण्ड लेकर आ रहा है। तब वे अयोध्या की रक्षा के उद्देश्य से हनुमानजी के ऊपर बिना फल का बाण चला देते हैं। हनुमानजी मूर्च्छित होकर नीचे गिर जाते हैं, लेकिन वे गिरते हुए भी भगवान् का नाम का स्मरण करते हैं। वह स्वर श्रीभरत के कानों में पड़ता है, तब वे व्याकुल होकर हनुमानजी के पास दौड़े हुए आते हैं तथा व्याकुल होकर वे बार-बार हनुमानजी को जगाने की चेष्टा करते हैं, उनकी मूर्च्छा को दूर करने का प्रयास करते हैं और अन्त में अपनी भक्ति तथा प्रेम की दुहाई देकर वे उस मूर्च्छा को दूर करने में समर्थ होते हैं। मूर्च्छा दूर करने के पश्चात् दोनों महान् भक्तों का वार्तालाप होता है और अन्त में श्रीभरतजी के चरणों में प्रणाम करके श्रीहनुमानजी ओषधि लेकर जाते हैं एवं लंका के रणांगण में मूर्च्छित श्रीलक्ष्मणजी को वह ओषधि दी जाती है तथा श्रीलक्ष्मणजी चैतन्य हो जाते हैं।
प्रसंग के विषय में माहेश्वरीजी ने आपको सूचित किया ही था और अभी जो पंक्तियाँ आपके सामने पढ़ी गयीं उनके माध्यम से आप प्रसंग से पूरी तरह परिचित हो चुके हैं। इस प्रसंग की विलक्षणता यह है कि इसमें जिन तीन महान् भक्तों की भूमिका का संकेत मिलता है, वे तीनों श्रीरामचरितमानस के अद्वितीय पात्र हैं। इन तीनों में से किसी के लिए यह कहना कि इनमें कौन श्रेष्ठ है, तथा कौन कनिष्ठ ?
यह तो धृष्टता जैसी बात प्रतीत होती है। गीतावली रामायण में गोस्वामीजी ने यह कहा कि वैसे तो भगवान् के अनगिनत भक्त हुए हैं और होते रहेंगे, लेकिन इन भक्तों में भी चार प्रमुख हैं तथा उन चारों के नाम गिनाते हुए वे कहते हैं कि ‘ज्ञानी हनुमान्, हर, लखन, भरत भगति मति।’ अर्थात् हनुमानजी, शंकरजी, भरतजी तथा लक्ष्मणजी। इनमें जहाँ तक शंकर जी का संबंध है, वे भगवान् राम के चरित्र में सम्मिलित नहीं हैं, पर हम यह कह सकते हैं कि वे हनुमानजी के रूप में भगवान् राम की समग्र लीला में भाग अवश्य लेते हैं। अब आइए ! प्रस्तुत प्रसंग की पृष्ठभूमि पर थोड़ा विचार करें। जिन चार पात्रों का नाम-स्मरण गोस्वामीजी ने उपर्युक्त पंक्ति में किया है, इस प्रसंग में उनमें से तीन पात्रों की एक साथ चर्चा की गयी है। लंका के रणांगण में रामानुज श्रीलक्ष्मणजी मेघनाद के विरुद्ध युद्ध करते हुए मूर्च्छित हो जाते हैं। उनकी मूर्च्छा दूर करने के लिए भगवान् राम के महान् भक्त आञ्जनेय हनुमानजी ओषधि लाने के लिए भेजे जाते हैं।
ओषधि लेकर लौटते हुए जिस समय वे अयोध्या के ऊपर से अपनी यात्रा कर रहे होते हैं, उसी समय श्रीभरतजी जो तृतीया श्रेष्ठतम भक्त हैं, की दृष्टि उन पर पड़ती है और तब उन्हें ऐसा लगता है कि यह तो कोई बड़ा विशाल निशाचर है, जो अयोध्या को विनष्ट करने के लिए विशाल पर्वत-खण्ड लेकर आ रहा है। तब वे अयोध्या की रक्षा के उद्देश्य से हनुमानजी के ऊपर बिना फल का बाण चला देते हैं। हनुमानजी मूर्च्छित होकर नीचे गिर जाते हैं, लेकिन वे गिरते हुए भी भगवान् का नाम का स्मरण करते हैं। वह स्वर श्रीभरत के कानों में पड़ता है, तब वे व्याकुल होकर हनुमानजी के पास दौड़े हुए आते हैं तथा व्याकुल होकर वे बार-बार हनुमानजी को जगाने की चेष्टा करते हैं, उनकी मूर्च्छा को दूर करने का प्रयास करते हैं और अन्त में अपनी भक्ति तथा प्रेम की दुहाई देकर वे उस मूर्च्छा को दूर करने में समर्थ होते हैं। मूर्च्छा दूर करने के पश्चात् दोनों महान् भक्तों का वार्तालाप होता है और अन्त में श्रीभरतजी के चरणों में प्रणाम करके श्रीहनुमानजी ओषधि लेकर जाते हैं एवं लंका के रणांगण में मूर्च्छित श्रीलक्ष्मणजी को वह ओषधि दी जाती है तथा श्रीलक्ष्मणजी चैतन्य हो जाते हैं।
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