लेख-निबंध >> कितने मोरचे कितने मोरचेविद्यानिवास मिश्र
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प्रस्तुत पुस्तक में विद्यानिवास मिश्र के 34 निबन्धों का संकलन है...
Kitne Morche
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
‘कितने मोरचे’ पं. विद्यानिवास मिश्र के चौंतीस निबंधों का संकलन है, जो पिछले दशक में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। अपनी अनूठी शैली में मिश्रजी ने इन निबंधों को समाज और संस्कृति के अनेक प्रश्नों से रू-बरू कराया है। देश, काल, परंपरा और भारतीय मानस के प्रति सहज, पर पैनी निगाह रखते हुए ये निबंध आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करते हैं।
इन निबंधों की आधारभूमि हमारे जीवन को ओत-प्रोत करती संस्कृति की स्रोतस्विनी है, जो उन साधारण मनुष्य की आशाओं, आकांक्षाओं और संघर्षों को सजीव करती है, जो आभिजात्य या ‘एलीट’ दृष्टि से प्रायः अलक्षित रह जाते हैं। पाठक को झकझोरते ये निबंध उन प्रश्नों को छेड़ते हैं, जो जीवन के इतने करीब हैं कि पानी में रहनेवाली मछली की नाईं हमारी चेतना में उभरते ही नहीं। मनुष्य के स्वभाव और उसके सरोकारों में निरंतरता भी है और परिवर्तन भी। जब तक हम इन दोनों की पहचान नहीं करते और उनको अनेक संदर्भों में नहीं देखते, हमारी दृष्टि एकांगी बनी रहेगी। देश की तमाम योजनाएँ और उपक्रम ऐसी ही एकांगी दृष्टि के शिकार रहे हैं।
विकास की योजना हो, भाषा का प्रश्न हो, कला की चिंता हो, शिक्षा की योजना हो, स्त्री-विमर्श हो, उत्सवों का आयोजन हो या फिर भागीरथी गंगा के जल की रक्षा का प्रश्न हो, हमारा फौरी नजरिया आगा-पीछा नहीं सोचता और हम एक समस्या का निदान करते-करते नई समस्या खड़ी कर लेते हैं। हमारे सोच-विचार में व्यापक और दूरगामी दृष्टि की कमी प्रायः खटकती है। मिश्रजी ने इन विडंबनाओं पर संवेदनशील और सर्जनात्मक दृष्टि से विचार किया है और नई सोच का आह्वान किया है।
संस्कृति में रचे-पगे पंडितजी के चिंतन में पाठक को अपने मन की गूँज मिलेगी, भूली-बिसरी स्मृति मिलेगी और जिजीविषा, दुर्दमनीय जिजीविषा के स्रोत मिलेंगे। व्यथा, पीड़ा और वेदना हर कहीं है और आदमी उनसे जूझ रहा है। इन निबंधों में आपको यह सब भी जरूर मिलेगा। अपने आपको पहचानने के व्याज बने ये निबंध आपको गुनने के लिए मजबूर करेंगे।
इन निबंधों का फलक व्यापक है और वे हमें निजी और सामाजिक अस्तित्व की विसंगतियों और चुनौतियों के पास ले जाते हैं। इनमें से कई चुनौतियाँ हमारी अपनी अस्मिता का अंश हैं। बातचीत की, संबोधित करने की अनोखी शैली आपको अपने आपसे मिलवाने का, अपने सामाजिक अस्तित्व से जुड़ने का अवसर प्रदान करेंगे। आशा है, ये आपको प्रिय लगेंगे।
इस संकलन को तैयार करने में भाई दयानिधि मिश्र का विशेष योगदान रहा है।
इन निबंधों की आधारभूमि हमारे जीवन को ओत-प्रोत करती संस्कृति की स्रोतस्विनी है, जो उन साधारण मनुष्य की आशाओं, आकांक्षाओं और संघर्षों को सजीव करती है, जो आभिजात्य या ‘एलीट’ दृष्टि से प्रायः अलक्षित रह जाते हैं। पाठक को झकझोरते ये निबंध उन प्रश्नों को छेड़ते हैं, जो जीवन के इतने करीब हैं कि पानी में रहनेवाली मछली की नाईं हमारी चेतना में उभरते ही नहीं। मनुष्य के स्वभाव और उसके सरोकारों में निरंतरता भी है और परिवर्तन भी। जब तक हम इन दोनों की पहचान नहीं करते और उनको अनेक संदर्भों में नहीं देखते, हमारी दृष्टि एकांगी बनी रहेगी। देश की तमाम योजनाएँ और उपक्रम ऐसी ही एकांगी दृष्टि के शिकार रहे हैं।
विकास की योजना हो, भाषा का प्रश्न हो, कला की चिंता हो, शिक्षा की योजना हो, स्त्री-विमर्श हो, उत्सवों का आयोजन हो या फिर भागीरथी गंगा के जल की रक्षा का प्रश्न हो, हमारा फौरी नजरिया आगा-पीछा नहीं सोचता और हम एक समस्या का निदान करते-करते नई समस्या खड़ी कर लेते हैं। हमारे सोच-विचार में व्यापक और दूरगामी दृष्टि की कमी प्रायः खटकती है। मिश्रजी ने इन विडंबनाओं पर संवेदनशील और सर्जनात्मक दृष्टि से विचार किया है और नई सोच का आह्वान किया है।
संस्कृति में रचे-पगे पंडितजी के चिंतन में पाठक को अपने मन की गूँज मिलेगी, भूली-बिसरी स्मृति मिलेगी और जिजीविषा, दुर्दमनीय जिजीविषा के स्रोत मिलेंगे। व्यथा, पीड़ा और वेदना हर कहीं है और आदमी उनसे जूझ रहा है। इन निबंधों में आपको यह सब भी जरूर मिलेगा। अपने आपको पहचानने के व्याज बने ये निबंध आपको गुनने के लिए मजबूर करेंगे।
इन निबंधों का फलक व्यापक है और वे हमें निजी और सामाजिक अस्तित्व की विसंगतियों और चुनौतियों के पास ले जाते हैं। इनमें से कई चुनौतियाँ हमारी अपनी अस्मिता का अंश हैं। बातचीत की, संबोधित करने की अनोखी शैली आपको अपने आपसे मिलवाने का, अपने सामाजिक अस्तित्व से जुड़ने का अवसर प्रदान करेंगे। आशा है, ये आपको प्रिय लगेंगे।
इस संकलन को तैयार करने में भाई दयानिधि मिश्र का विशेष योगदान रहा है।
गिरीश्वर मिश्र
स्वाधीनता का अर्थ
देश को स्वतंत्र हुए आधी शती बीत चली, पर अपना तंत्र या शासन होते हुए भी हम स्वाधीन नहीं हैं। इसे हम स्थूल धरातल पर देखें तो हमारी अर्थनीति कर्ज की ऐसी बैसाखियों पर टिकी हुई है कि जिनका सूद अदा करने में ही देश की लगभग एक-तिहाई आमदनी चली जाती है। राजनीतिक धरातल पर देखें तो हमने जाने किन-किनसे मित्रता की बात चलाई और सही अर्थ में हमारा कोई मित्र इस समय नहीं है।
हम मित्रता के लिए हाथ जोड़ रहे हैं और कम विकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों से जुड़ रहे हैं और उनके अध्यक्षों को न्यौतकर ही कुछ भारी-भरकम होने का ढोंग पाल रहे हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि राजनीतिक शक्ति सैन्य शक्ति पर बहुत कुछ निर्भर है। आज की सैन्य शक्ति सैन्य की तकनीक पर निर्भर है। उस तकनीक के लिए हम प्रयत्न तो कर रहे हैं, पर अभी इस स्तर तक नहीं पहुँचे हैं कि विशाल सैन्य शक्तिवाले देशों के ऊपर हमारी निर्भरता एकदम समाप्त हो जाए। वैचारिक धरातल पर देखें तो और गहरा शून्य दिखाई पड़ता है।
कितनी लज्जा की बात है कि अपने ही देश के प्रतिभाशाली लोग विदेश में अपनी प्रतिभा का परिचय देकर अंतरिक्ष उपक्रम, संगणक उपक्रम और चिकित्सा जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्रों में शीर्ष स्थान पर पहुँच रहे हैं, अपना देश स्वयं अंतरिक्ष विज्ञान में बहुत समुन्नत हो चुका है। परंतु हमारी मानसिक स्थिति यह है कि हम आत्मगौरव के भाव से एकदम रिक्त हो गए हैं। जिन विषयों में हमारी जानकारी बहुत विकसित है, उन विषयों में भी हम आत्मविश्वास तक नहीं करते कि हम, हमारा अनुशीलन उच्च स्तर का है, हमारी सर्जनात्मक उपलब्धि उच्च स्तर की है।
इससे भी अधिक लज्जा की बात यह है कि हम पश्चिमी संस्कृति से उधार लेने की बार-बार दोहराते हैं और उसकी ओट में अपनी दुर्बलताओं को हटाने की चेष्टा नहीं करते। यदि हम विश्व की एकता के नाम पर अपने सारे दरवाजे खोलने की बात करते हैं तो हमारे भीतर साहस भी होना चाहिए कि हम अपने विचारों को, निरंतर गतिशील विचारों को अपनी संस्कृति की धारा में बहाकर अपने देश से बाहर ले जाएँ।
स्वाधीन होने का अर्थ केवल शासन अपने हाथ में आना नहीं, सत्ता अपने हाथ में आनी नहीं है। स्वाधीन होने का अर्थ पूरा तब होता है जब हम विचार के क्षेत्र और कार्यप्रणाली, दोनों में अपने विशाल जातीय अनुभव का प्रयोग करें। फिर उसका समस्त विश्व के कल्याण के लिए उपयोग करें। हमारी प्रयोगशीलता को लकवा मार गया है। जब तक कोई बाहर का आदमी हमारे अनुभव की धरोहर की प्रशंसा नहीं करता, तब तक हम उस अनुभव का तिरस्कार ही करते रहते हैं।
स्वाधीन होने का अर्थ यह नहीं है कि हम केवल अपने प्राचीन गौरव का राग अलापते रहें। अपनी सक्रियता और जीवंतता का प्रमाण अपने समय से अनुभवों से न दें। हम या तो अपने बारे में बिना जाने-समझे व्यर्थ की डींग हाँकते हैं या अपनी क्षमता की उपेक्षा करके हीनभाव से ग्रस्त रहते हैं। ये दोनों स्थितियाँ एक स्वाधीन देश के लिए भयावह स्थितियाँ हैं। स्व. वात्स्यायनजी कहते थे, ‘‘पराधीन देश में हम स्वाधीन भाषा में सोचते थे, लिखते थे और यह अनुभव करते थे कि राजनीतिक पराधीनता हमें झुका नहीं सकती, और आज स्वाधीन देश में हम जैसे एक पराधीन भाषा में लिख रहे हैं और सोच रहे हैं। विचारों और तर्कों की इतनी विकसित परंपरा के उत्तराधिकारी होकर भी हमारे चिंतन में पारदर्शिता और तीक्ष्णता नहीं आ रही है।
हाँ, जहाँ आ रही है, उसको हम अनदेखा कर रहें हैं।’’ गोविंद चंद्र पांडे के ‘मूल्य मीमांसा’ जैसे उच्च स्तरीय ग्रंथ को भारतीय भाषाओं में ही महत्त्व नहीं मिला। स्व. जड़ाऊलाल मेहता के अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथ विश्व भर में प्रशंसित हुए और हिंदी में जो कुछ लिखे गए उनका मूल्य हमने नहीं आँका। यह मानसिक दरिद्रता स्वाधीनता में सबसे अधिक बाधक है। इस मानसिक दरिद्रता के कारण ही हमारे विश्वविद्यालय केवल कारखाने बनकर रह गए हैं। हमारी अधिकांश साहित्यिक संस्थाएँ दुकान बनकर रह गई हैं। इन संस्थाओं में हमारी कला संस्थाएँ सरकार की मोहताज बनकर रह गईं। अब 1947 के पहले की तेजस्विता की चमक नहीं दिखाई पड़ती। यह नहीं है कि अच्छा साहित्य रचा नहीं जा रहा है, संगीत-नृत्य नई ऊँचाइयाँ नहीं छू रहे हैं, शिल्प और चित्र में नई प्रयोगशीलता नहीं है; पर यह होते हुए भी एक देशव्यापी आत्मसजगता नहीं है; क्योंकि देश का एक विशाल भाव नहीं है।
वह विशाल भाव जब तक था, तब तक राजनीतिक परतंत्रता की बेड़ियाँ कुछ अर्थ नहीं रखती थीं। उन बेड़ियों में जकड़ा हुआ आदमी मस्तक ऊँचा रख सकता था और सत्ता के प्रलोभनों को नकार सकता था। आज देश छोटा हो गया है, हमारा अपना व्यक्तित्व इतना स्फीत हो गया है कि हम बड़े मन से और बड़े सामूहिक मन से सोच ही नहीं पाते। हम सोचते हैं कि अगर हम समाज की बात करते हैं तो समाज हमारा समाज नहीं होता, हमारे ऊपर आरोपित अवधारणा का समाज होता है। हमारा समाज होता तो वह केवल मनुष्यों का संगठन तक सीमित न रहता, न वह मनुष्य-मनुष्य के संबंध की व्यवस्था तक सीमित रहता। वह समस्त गोचर संसार की संबद्धता और एक-दूसरे पर अवलंबिता की बात करता।
विगत पचास वर्षों के सर्जन से हमें निराशा नहीं होती। हमें उसमें आशा दिखती है कि निरंतर नए-नए मोहभंग हुए हैं, निरंतर नई-नई सुगबुगाहट दिखाई पड़ी है। जीन की नई-नई शर्तों की तलाश हुई है और आत्मतुष्टि पर नए-नए ढंग से प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। हमें निराशा एक दूसरी बात पर है कि हमारे लिखने, पढ़ने सोचने और करने में कोई सामंजस्य नहीं है। हमारे घरों में, हमारे कमरों में, हमारे उठने-बैठने के तरीकों में, हमारी रुचि में और हमारी रचनात्मक संवेदना में कहीं भी तालमेल नहीं है। ऐसे लोग मिलेंगे जो अच्छी कविता करते हैं, पर दो अलग-अलग फूलों की गंध में कोई अलग विशेषता नहीं देख सकते। दो तरह की मिट्टी की खासियत नहीं देख सकते और न साँझ की लाली के बदलते हुए रूपों का चमत्कार देख सकते हैं। ऐसे लोग अपने को, अपनी रचनाशीलता को उन्नतिशील बनाए रखने में असफल होते हैं, इसलिए वे बड़ी जल्दी चुकने लगते हैं। रचनाशीलता के लिए जातीय भाव आवश्यक है।
जातीय भाव विश्वबंधुता का विरोधी नहीं होता, पोषक होता है और वह व्यक्ति को कुंठित नहीं करता है, व्यक्ति को समृद्ध करता है। विगत पचास वर्षों में हमारी रचनाशीलता बुरी तरह प्रभावित हुई है-विचारों के लचरपन से और अनावश्यक, अप्रासंगिक विवादों के घेरों में फँसकर। उदाहरण के लिए ‘कला जीवन के लिए’ और ‘कला कला के लिए’ के बीच विवाद हमारे संदर्भ में कोई अर्थ नहीं रखता। जहाँ जीवनमात्र को बचाने पर बल दिया गया है और दैनंदिन जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में साहित्य रहा है, चित्रकला रही है, शिल्प रचना रही है, स्थापत्य रहा है, संगीत रहा है, नृत्य रहा है; यह सब जीवन की शोभा नहीं, यह सब जीवन की आवश्यकता रहे हैं।
इसी प्रकार का एक दूसरा विवाद है-व्यक्ति और समाज के बीच। मानो समाज व्यक्ति से अलग एक कोई अजूबा चीज हो और व्यक्ति अपने आपमें कोई इकाई हो। हमारी अपनी समझ तो यही रही है कि इकाई तो संबंध है व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का परिवार से, परिवार का परिवार से, परिवार का जनपद से, जनपद से, जनपद का देश से और इस प्रकार एक-दूसरे से हर एक का संबंध होता है और एक-दूसरे का अवलंबित होना यही महत्त्व रखता है। किसीका किसीसे टकराव का कोई महत्त्व नहीं है। हम हर टकराव को संवाद की शुरुआत ही मानते हैं। पर व्यक्ति और समाज के विवाद ने गत पचास वर्षों में लेखकों को ऐसा खेमों में बाँट दिया है, जैसे उनके बीच में लामबंदी हो गई हो।
खेमेबाजी को देखकर क्लेश होता है कि संवेदना को प्राण माननेवाले लोग एक-दूसरे के प्रति कितने संवेदनशून्य होते जा रहे हैं। परिवार के बारे में, परिवार को केंद्र मानकर एक के बाद दूसरा वृत्त बनाने के जिस व्यापार ने हमें ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की शिक्षा दी, वह टूटा नहीं है। वह केवल बिखरा है और बिखरने में बराबर इसका अहसास है कि जुड़ना कितना अच्छा होता है। संतोष की बात केवल एक है कि इस परिवार की भावना का मनोवैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर महत्त्व देना शुरू हुआ है। यह प्रयोग के द्वारा देखा गया है कि जो बच्चे बड़े परिवार में पलते हैं और जिन्हें पहले की पीढ़ी का स्नेह और वांछित संस्कार मिलता है वे बच्चे मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ होते हैं और उनका व्यक्तित्व अधिर भरा-पूरा होता है। उनकी शिक्षा भी उन्हें कल्पना-प्रवण बनाती है।
एक तीसरा झूठ-मूठ का विवाद आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के बीच शुरू हुआ। मानो बावले गाँव में ऊँट आ गया हो। यह परखने की कोशिश कम हुई कि आधुनिकता हर देश और हर संस्कृति की अपरिहार्यता होती है। पर उसका रूप वहाँ की परिस्थितियों से उद्भूत होता है। परिस्थितियों के संदर्भ को काटकर जो आधुनिकता स्थापित की जाती है, वह या तो तमाशा बनकर रह जाती है या फिर वह ऐसी रूढ़ि बनती है कि उससे छुटकारा पाना कठिन हो जाता है। उत्तर आधुनिकता पश्चिम में जिन पूर्व संयोजनों को तोडने पर बल देती है, वे संघटन हमारे लिए कोई महत्त्व ही नहीं रखते। वे जिन आधुनिकताओं की, जिन स्थापनाओं का खंडन करना चाहते हैं, वे स्थापनाएँ हमारी आधुनिकता की हैं ही नहीं।
यदि कुछ हद तक हैं भी तो उनका समाधान हमने अपने ढंग से निकाल भी लिया है। इसके बावजूद उत्तर आधुनिकता का ढोल पीटा जा रहा है और हर नया लेखक उत्तर आधुनिक होने के लिए लालायित है। यहीं पर स्वाधीनता के विवेक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह वह विवेक है जब अपनी परिस्थितियों, अपनी क्षमताओं और अपनी आवश्यकताओं के आलोक में अपने पुनर्रचना की बात आदमी सोचता है। पश्चिम में जो परिवर्तन हुआ है, वह कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं है। संस्कृतियों के इतिहास में यह परिवर्तन स्वाभाविक है।
पश्चिम की दृष्टि हमेशा से ही विखंडनात्मक नहीं रही। सत्रहवीं शताब्दी में उसकी दृष्टि विखंडनात्मक हुई और उसने अपनी ही समझ को सही समझ और सभी समझों का स्रोत मानना शुरू किया। इसीने उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया, नस्लवाद को बढ़ावा दिया बुद्धि की श्रेष्ठता का अहंकार बढ़ाया और सभ्यता का ही नहीं, सभ्य बनाने का दंभ भी पाला। यह स्वाभाविक था कि इस दृष्टि का फल विनाश होता। उसके अनंतर उससे विमुख होना भी स्वाभाविक था।
पर हमने कभी अपने विकल्प को एकमात्र विकल्प नहीं माना। हमने सदा अखंड दृष्टि से केवल इस भूतल को ही नहीं, समस्त ब्रह्मांड को एक-दूसरे में अनस्यूत देखा और इसी समग्र दृष्टि ने हमारे प्रत्येक चिंतन के क्षेत्र में और प्रत्येक सर्जन के क्षेत्र को बहुत निर्बंध बनाए रखा। नस्ल की कोई याददाश्त ही हमारे मन में नहीं है। न ही हम स्तरीकृत समाज की अवधारणा में पले हैं। हमारे लिए विश्व एक नीड है, एक साथ रहने का बसेरा है। साथ रहना ही हमारे लिए मुख्य है।
वह लाचारी नहीं है। वह हमारी पूर्ति है। अब इसके साथ उत्तर आधुनिकता की संगति इस प्रकार स्थापित करें कि वह हमारी ओर लौट रही है तो ठीक नहीं है, क्योंकि उसका उद्भव अपने कारणों से है, संयोगवश कहीं-न-कहीं उसका कुछ साधर्म्य हमारे चिंतन से होता है और वैसा साधर्म्य तो मनुष्यमात्र के चिंतन और सर्जन में होता रहता है। अगर यह मानें कि उसी उत्तर आधुनिकता के प्रवाह में हम अपनी आधुनिकता की उपलब्धियों को जो इनमें से कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, तिरस्कृत कर दें तो यह बड़ी भूल होगी। हमारी आधुनिकता में केवल प्रश्नाकुलता नहीं थी, केवल संशय नहीं था, केवल अनास्था नहीं थी; कहीं-कहीं उसमें सामान्य की क्षमता में एक दृढ़ विश्वास भी था और यह विश्वास मध्ययुगीन साहित्य की विरासत के रूप में था।
तीन से चार, चार से पाँच पुरुषार्थों की अवधारणा हमारे उस स्वभाव के साथ मेल खाती है, जो निरंतर अपने को समझते हुए अपना अतिक्रमण करता है। अपनी अपर्याप्तता को पहचानना हमारी आधुनिकता की सबसे बड़ी विशेषता है, परंतु स्वाधीन विवेक के अभाव में हम यह भूल जाते हैं कि हमारे पास यह पहचान है।
निष्कर्ष यह है कि स्वाधीनता संपूर्ण जीवन को अभिव्यक्ति करनेवाली बौद्धिक और संवेदनात्मक सजगता है। इस सजगता में आत्मबोध और आत्म अतिक्रमण दोनों सन्निविष्टि हैं। आज हम जिस युग-संधि में जी रहे हैं, उसमें स्वाधीनता की यह पहचान बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है।
हम मित्रता के लिए हाथ जोड़ रहे हैं और कम विकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों से जुड़ रहे हैं और उनके अध्यक्षों को न्यौतकर ही कुछ भारी-भरकम होने का ढोंग पाल रहे हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि राजनीतिक शक्ति सैन्य शक्ति पर बहुत कुछ निर्भर है। आज की सैन्य शक्ति सैन्य की तकनीक पर निर्भर है। उस तकनीक के लिए हम प्रयत्न तो कर रहे हैं, पर अभी इस स्तर तक नहीं पहुँचे हैं कि विशाल सैन्य शक्तिवाले देशों के ऊपर हमारी निर्भरता एकदम समाप्त हो जाए। वैचारिक धरातल पर देखें तो और गहरा शून्य दिखाई पड़ता है।
कितनी लज्जा की बात है कि अपने ही देश के प्रतिभाशाली लोग विदेश में अपनी प्रतिभा का परिचय देकर अंतरिक्ष उपक्रम, संगणक उपक्रम और चिकित्सा जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्रों में शीर्ष स्थान पर पहुँच रहे हैं, अपना देश स्वयं अंतरिक्ष विज्ञान में बहुत समुन्नत हो चुका है। परंतु हमारी मानसिक स्थिति यह है कि हम आत्मगौरव के भाव से एकदम रिक्त हो गए हैं। जिन विषयों में हमारी जानकारी बहुत विकसित है, उन विषयों में भी हम आत्मविश्वास तक नहीं करते कि हम, हमारा अनुशीलन उच्च स्तर का है, हमारी सर्जनात्मक उपलब्धि उच्च स्तर की है।
इससे भी अधिक लज्जा की बात यह है कि हम पश्चिमी संस्कृति से उधार लेने की बार-बार दोहराते हैं और उसकी ओट में अपनी दुर्बलताओं को हटाने की चेष्टा नहीं करते। यदि हम विश्व की एकता के नाम पर अपने सारे दरवाजे खोलने की बात करते हैं तो हमारे भीतर साहस भी होना चाहिए कि हम अपने विचारों को, निरंतर गतिशील विचारों को अपनी संस्कृति की धारा में बहाकर अपने देश से बाहर ले जाएँ।
स्वाधीन होने का अर्थ केवल शासन अपने हाथ में आना नहीं, सत्ता अपने हाथ में आनी नहीं है। स्वाधीन होने का अर्थ पूरा तब होता है जब हम विचार के क्षेत्र और कार्यप्रणाली, दोनों में अपने विशाल जातीय अनुभव का प्रयोग करें। फिर उसका समस्त विश्व के कल्याण के लिए उपयोग करें। हमारी प्रयोगशीलता को लकवा मार गया है। जब तक कोई बाहर का आदमी हमारे अनुभव की धरोहर की प्रशंसा नहीं करता, तब तक हम उस अनुभव का तिरस्कार ही करते रहते हैं।
स्वाधीन होने का अर्थ यह नहीं है कि हम केवल अपने प्राचीन गौरव का राग अलापते रहें। अपनी सक्रियता और जीवंतता का प्रमाण अपने समय से अनुभवों से न दें। हम या तो अपने बारे में बिना जाने-समझे व्यर्थ की डींग हाँकते हैं या अपनी क्षमता की उपेक्षा करके हीनभाव से ग्रस्त रहते हैं। ये दोनों स्थितियाँ एक स्वाधीन देश के लिए भयावह स्थितियाँ हैं। स्व. वात्स्यायनजी कहते थे, ‘‘पराधीन देश में हम स्वाधीन भाषा में सोचते थे, लिखते थे और यह अनुभव करते थे कि राजनीतिक पराधीनता हमें झुका नहीं सकती, और आज स्वाधीन देश में हम जैसे एक पराधीन भाषा में लिख रहे हैं और सोच रहे हैं। विचारों और तर्कों की इतनी विकसित परंपरा के उत्तराधिकारी होकर भी हमारे चिंतन में पारदर्शिता और तीक्ष्णता नहीं आ रही है।
हाँ, जहाँ आ रही है, उसको हम अनदेखा कर रहें हैं।’’ गोविंद चंद्र पांडे के ‘मूल्य मीमांसा’ जैसे उच्च स्तरीय ग्रंथ को भारतीय भाषाओं में ही महत्त्व नहीं मिला। स्व. जड़ाऊलाल मेहता के अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथ विश्व भर में प्रशंसित हुए और हिंदी में जो कुछ लिखे गए उनका मूल्य हमने नहीं आँका। यह मानसिक दरिद्रता स्वाधीनता में सबसे अधिक बाधक है। इस मानसिक दरिद्रता के कारण ही हमारे विश्वविद्यालय केवल कारखाने बनकर रह गए हैं। हमारी अधिकांश साहित्यिक संस्थाएँ दुकान बनकर रह गई हैं। इन संस्थाओं में हमारी कला संस्थाएँ सरकार की मोहताज बनकर रह गईं। अब 1947 के पहले की तेजस्विता की चमक नहीं दिखाई पड़ती। यह नहीं है कि अच्छा साहित्य रचा नहीं जा रहा है, संगीत-नृत्य नई ऊँचाइयाँ नहीं छू रहे हैं, शिल्प और चित्र में नई प्रयोगशीलता नहीं है; पर यह होते हुए भी एक देशव्यापी आत्मसजगता नहीं है; क्योंकि देश का एक विशाल भाव नहीं है।
वह विशाल भाव जब तक था, तब तक राजनीतिक परतंत्रता की बेड़ियाँ कुछ अर्थ नहीं रखती थीं। उन बेड़ियों में जकड़ा हुआ आदमी मस्तक ऊँचा रख सकता था और सत्ता के प्रलोभनों को नकार सकता था। आज देश छोटा हो गया है, हमारा अपना व्यक्तित्व इतना स्फीत हो गया है कि हम बड़े मन से और बड़े सामूहिक मन से सोच ही नहीं पाते। हम सोचते हैं कि अगर हम समाज की बात करते हैं तो समाज हमारा समाज नहीं होता, हमारे ऊपर आरोपित अवधारणा का समाज होता है। हमारा समाज होता तो वह केवल मनुष्यों का संगठन तक सीमित न रहता, न वह मनुष्य-मनुष्य के संबंध की व्यवस्था तक सीमित रहता। वह समस्त गोचर संसार की संबद्धता और एक-दूसरे पर अवलंबिता की बात करता।
विगत पचास वर्षों के सर्जन से हमें निराशा नहीं होती। हमें उसमें आशा दिखती है कि निरंतर नए-नए मोहभंग हुए हैं, निरंतर नई-नई सुगबुगाहट दिखाई पड़ी है। जीन की नई-नई शर्तों की तलाश हुई है और आत्मतुष्टि पर नए-नए ढंग से प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। हमें निराशा एक दूसरी बात पर है कि हमारे लिखने, पढ़ने सोचने और करने में कोई सामंजस्य नहीं है। हमारे घरों में, हमारे कमरों में, हमारे उठने-बैठने के तरीकों में, हमारी रुचि में और हमारी रचनात्मक संवेदना में कहीं भी तालमेल नहीं है। ऐसे लोग मिलेंगे जो अच्छी कविता करते हैं, पर दो अलग-अलग फूलों की गंध में कोई अलग विशेषता नहीं देख सकते। दो तरह की मिट्टी की खासियत नहीं देख सकते और न साँझ की लाली के बदलते हुए रूपों का चमत्कार देख सकते हैं। ऐसे लोग अपने को, अपनी रचनाशीलता को उन्नतिशील बनाए रखने में असफल होते हैं, इसलिए वे बड़ी जल्दी चुकने लगते हैं। रचनाशीलता के लिए जातीय भाव आवश्यक है।
जातीय भाव विश्वबंधुता का विरोधी नहीं होता, पोषक होता है और वह व्यक्ति को कुंठित नहीं करता है, व्यक्ति को समृद्ध करता है। विगत पचास वर्षों में हमारी रचनाशीलता बुरी तरह प्रभावित हुई है-विचारों के लचरपन से और अनावश्यक, अप्रासंगिक विवादों के घेरों में फँसकर। उदाहरण के लिए ‘कला जीवन के लिए’ और ‘कला कला के लिए’ के बीच विवाद हमारे संदर्भ में कोई अर्थ नहीं रखता। जहाँ जीवनमात्र को बचाने पर बल दिया गया है और दैनंदिन जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में साहित्य रहा है, चित्रकला रही है, शिल्प रचना रही है, स्थापत्य रहा है, संगीत रहा है, नृत्य रहा है; यह सब जीवन की शोभा नहीं, यह सब जीवन की आवश्यकता रहे हैं।
इसी प्रकार का एक दूसरा विवाद है-व्यक्ति और समाज के बीच। मानो समाज व्यक्ति से अलग एक कोई अजूबा चीज हो और व्यक्ति अपने आपमें कोई इकाई हो। हमारी अपनी समझ तो यही रही है कि इकाई तो संबंध है व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का परिवार से, परिवार का परिवार से, परिवार का जनपद से, जनपद से, जनपद का देश से और इस प्रकार एक-दूसरे से हर एक का संबंध होता है और एक-दूसरे का अवलंबित होना यही महत्त्व रखता है। किसीका किसीसे टकराव का कोई महत्त्व नहीं है। हम हर टकराव को संवाद की शुरुआत ही मानते हैं। पर व्यक्ति और समाज के विवाद ने गत पचास वर्षों में लेखकों को ऐसा खेमों में बाँट दिया है, जैसे उनके बीच में लामबंदी हो गई हो।
खेमेबाजी को देखकर क्लेश होता है कि संवेदना को प्राण माननेवाले लोग एक-दूसरे के प्रति कितने संवेदनशून्य होते जा रहे हैं। परिवार के बारे में, परिवार को केंद्र मानकर एक के बाद दूसरा वृत्त बनाने के जिस व्यापार ने हमें ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की शिक्षा दी, वह टूटा नहीं है। वह केवल बिखरा है और बिखरने में बराबर इसका अहसास है कि जुड़ना कितना अच्छा होता है। संतोष की बात केवल एक है कि इस परिवार की भावना का मनोवैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर महत्त्व देना शुरू हुआ है। यह प्रयोग के द्वारा देखा गया है कि जो बच्चे बड़े परिवार में पलते हैं और जिन्हें पहले की पीढ़ी का स्नेह और वांछित संस्कार मिलता है वे बच्चे मानसिक रूप से अधिक स्वस्थ होते हैं और उनका व्यक्तित्व अधिर भरा-पूरा होता है। उनकी शिक्षा भी उन्हें कल्पना-प्रवण बनाती है।
एक तीसरा झूठ-मूठ का विवाद आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के बीच शुरू हुआ। मानो बावले गाँव में ऊँट आ गया हो। यह परखने की कोशिश कम हुई कि आधुनिकता हर देश और हर संस्कृति की अपरिहार्यता होती है। पर उसका रूप वहाँ की परिस्थितियों से उद्भूत होता है। परिस्थितियों के संदर्भ को काटकर जो आधुनिकता स्थापित की जाती है, वह या तो तमाशा बनकर रह जाती है या फिर वह ऐसी रूढ़ि बनती है कि उससे छुटकारा पाना कठिन हो जाता है। उत्तर आधुनिकता पश्चिम में जिन पूर्व संयोजनों को तोडने पर बल देती है, वे संघटन हमारे लिए कोई महत्त्व ही नहीं रखते। वे जिन आधुनिकताओं की, जिन स्थापनाओं का खंडन करना चाहते हैं, वे स्थापनाएँ हमारी आधुनिकता की हैं ही नहीं।
यदि कुछ हद तक हैं भी तो उनका समाधान हमने अपने ढंग से निकाल भी लिया है। इसके बावजूद उत्तर आधुनिकता का ढोल पीटा जा रहा है और हर नया लेखक उत्तर आधुनिक होने के लिए लालायित है। यहीं पर स्वाधीनता के विवेक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह वह विवेक है जब अपनी परिस्थितियों, अपनी क्षमताओं और अपनी आवश्यकताओं के आलोक में अपने पुनर्रचना की बात आदमी सोचता है। पश्चिम में जो परिवर्तन हुआ है, वह कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं है। संस्कृतियों के इतिहास में यह परिवर्तन स्वाभाविक है।
पश्चिम की दृष्टि हमेशा से ही विखंडनात्मक नहीं रही। सत्रहवीं शताब्दी में उसकी दृष्टि विखंडनात्मक हुई और उसने अपनी ही समझ को सही समझ और सभी समझों का स्रोत मानना शुरू किया। इसीने उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया, नस्लवाद को बढ़ावा दिया बुद्धि की श्रेष्ठता का अहंकार बढ़ाया और सभ्यता का ही नहीं, सभ्य बनाने का दंभ भी पाला। यह स्वाभाविक था कि इस दृष्टि का फल विनाश होता। उसके अनंतर उससे विमुख होना भी स्वाभाविक था।
पर हमने कभी अपने विकल्प को एकमात्र विकल्प नहीं माना। हमने सदा अखंड दृष्टि से केवल इस भूतल को ही नहीं, समस्त ब्रह्मांड को एक-दूसरे में अनस्यूत देखा और इसी समग्र दृष्टि ने हमारे प्रत्येक चिंतन के क्षेत्र में और प्रत्येक सर्जन के क्षेत्र को बहुत निर्बंध बनाए रखा। नस्ल की कोई याददाश्त ही हमारे मन में नहीं है। न ही हम स्तरीकृत समाज की अवधारणा में पले हैं। हमारे लिए विश्व एक नीड है, एक साथ रहने का बसेरा है। साथ रहना ही हमारे लिए मुख्य है।
वह लाचारी नहीं है। वह हमारी पूर्ति है। अब इसके साथ उत्तर आधुनिकता की संगति इस प्रकार स्थापित करें कि वह हमारी ओर लौट रही है तो ठीक नहीं है, क्योंकि उसका उद्भव अपने कारणों से है, संयोगवश कहीं-न-कहीं उसका कुछ साधर्म्य हमारे चिंतन से होता है और वैसा साधर्म्य तो मनुष्यमात्र के चिंतन और सर्जन में होता रहता है। अगर यह मानें कि उसी उत्तर आधुनिकता के प्रवाह में हम अपनी आधुनिकता की उपलब्धियों को जो इनमें से कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, तिरस्कृत कर दें तो यह बड़ी भूल होगी। हमारी आधुनिकता में केवल प्रश्नाकुलता नहीं थी, केवल संशय नहीं था, केवल अनास्था नहीं थी; कहीं-कहीं उसमें सामान्य की क्षमता में एक दृढ़ विश्वास भी था और यह विश्वास मध्ययुगीन साहित्य की विरासत के रूप में था।
तीन से चार, चार से पाँच पुरुषार्थों की अवधारणा हमारे उस स्वभाव के साथ मेल खाती है, जो निरंतर अपने को समझते हुए अपना अतिक्रमण करता है। अपनी अपर्याप्तता को पहचानना हमारी आधुनिकता की सबसे बड़ी विशेषता है, परंतु स्वाधीन विवेक के अभाव में हम यह भूल जाते हैं कि हमारे पास यह पहचान है।
निष्कर्ष यह है कि स्वाधीनता संपूर्ण जीवन को अभिव्यक्ति करनेवाली बौद्धिक और संवेदनात्मक सजगता है। इस सजगता में आत्मबोध और आत्म अतिक्रमण दोनों सन्निविष्टि हैं। आज हम जिस युग-संधि में जी रहे हैं, उसमें स्वाधीनता की यह पहचान बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है।
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