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कविता संग्रह >> गीतांजलि

गीतांजलि

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5549
आईएसबीएन :81-7182-975-9

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नोबल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ का काव्य संग्रह

Gitanjali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रवीन्द्रनाथ एक गीत हैं, रंग हैं और हैं एक असमाप्त कहानी। बांग्ला में लिखने पर भी वे किसी प्रांत और किसी भाषा के रचनाकार नहीं हैं, बल्कि समय की चिन्ता में मनुष्य को केन्द्र में रख कर विचार करने वाले विचारक भी हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ उनके लिए नारा नहीं आदर्श था। केवल ‘गीतांजलि’ से यह भ्रम भी हुआ कि वे केवल भक्त हैं, जबकि ऐसा है नहीं। दरअसल, ह्विटमैन की तरह उन्होंने ‘आत्म साक्ष्य’ से ही अपनी रचनाधर्मिता को जोड़े रखा। इसीलिए वे मानते रहे कविता की दुनिया में दृष्टा ही सृष्टा है ‘अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापति।’ हालांकि वे पारंपरिक दर्शन की बांसुरी के चितेरे हैं, फिर भी इसमें सुर सिर्फ रवीन्द्र के हैं। अपनी आस्था और शोध के सुर। कला उनके लिए शाश्वत मूल्यों का संसार था।

गीतांजलि से पहले


रवीन्द्रनाथ की कविता यात्रा हिन्दीं में तो कम से कम पुर्नमूल्यांकन की दरकार रखती है। लेखन के क्षेत्र में इतने सारे विषयों पर शायद ही कोई और लेखक होगा जिन्होंने लिखा हो। कवितायें हों या लघु कथाएँ, नाटक हो या गीत, या फिर उपन्यास कोई भी क्षेत्र रवीन्द्रनाथ की लेखनी से अछूता नहीं रहा उन्होंने एक हजार कविताएं और दो हजार गीत लिखे। जब वे पन्द्रह बरस के थे तब उनकी पहली कविता पुस्तक छप चुकी थी और अंतिम कविता मृत्यु के ठीक पहले की लिखी हुई है।

वैसे रवीन्द्रनाथ सूफी रहस्यवाद और वैष्णव काव्य से प्रभावित थे। फिर भी संवेदना चित्रण में वे इन कवियों को अनुकृति नहीं लगते। जैसे मनुष्य के प्रति प्रेम अनजाने ही परमात्मा के प्रति प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। वे नहीं मानते कि भगवान किसी आदम बीज की तरह है। उनके लिए प्रेम है प्रारंभ और परमात्मा है अंत ! जब पहले-पहल गीतांजलि का अनुवाद आया अंग्रेजी में तब प्रेम और शांति का संदेश के लिए इसका पश्चिम ने जबर्दस्त स्वागत किया। वह दौरे ही ऐसा था। खुन्नस और खुरैंजी से लकदक। ऐसे में आत्मविश्लेषण के नजरिये उन्होंने आदमकद करुणा विकसित की।

शरीर और आत्मा धरती और आकाश, इतिहास और रोमांस के सहज तनावों से जूझते हुए किसी भी महाकवि की तरह रवीन्द्र की तकनीक और ‘बुलबुल’ कहते रहे। मगर वे केवल ‘बुलबुल’ नहीं थे। उनमें एक जरूरी प्रभाव भी था जो बुलबुल की चुलबुल में शायद नहीं होता। गीतांजलि के सिलसिले में भी कई सवाल हैं। चर्चाएं हैं। जैसे अंग्रेजी गीतांजलि बिल्कुल वही नहीं है। जो बांग्ला है। विश्वभारती की बांग्ला गीतांजलि में साफ है कि अंग्रेजी गीतांजलि में इसकी मात्र 53 कविताएं ली गई है। अंग्रेजी में बांग्ला की सर्वाधिक चर्चित कविता ‘ह्वेयर द माइंड इज विदाउट फीयर’ है ही नहीं। बहरहाल, सवाल यह है कि अपनी केन्द्रीय भावना में रवीन्द्र लोक कवि हैं या नहीं ? रहस्यवादी हैं या धार्मिक। उन्हें एक केन्द्रीभूत भावना में बांधकर रखना असंभव है। आप उन्हें रहस्यवाद कहते हैं तो वे किसान के हक में खड़े हो जाते हैं। यानी उनकी एन्द्रिक चेतना सीधे सरोकारों का ध्यान रखती है।

सिर्फ इतना कहना नाकाफी है कि गीतांजलि के स्वर में सिर्फ रहस्यवाद है। इसमें मध्ययुगीन कवियों का निपटारा भी है। धारदार तरीके से उनके मूल्यबोधों के खिलाफ। हालांकि पूरी गीतांजलि का स्वर यह नहीं है। उसमें समर्पण की भावना प्रमुख विषयवस्तु है। यह रवीन्द्रनाथ का सम्पूर्ण जिज्ञासा से उपजी रहस्योन्मुखकृति है, जिसका अनुवाद उतना भर नहीं है जितना किया जाता है। वह सुदूर अर्थों का समुच्चय भी है। उसमें एक तो उपस्थित अर्थ है ही, एक अनुपस्थित अर्थ भी है, जिसके जरिए वे अपनी बात कहते हैं। जागतिक निस्सारताओं को मानने के बावजूद वे उन्हें निरर्थक नहीं कहते, वे अस्तित्व को टुकड़ों में भी नहीं देखते। अस्तित्व का विनम्र-स्वीकार ही उनकी कारुणिक, लेकिन प्रामाणिक और घनित्वक अभिव्यक्ति है। वह भी अपने पूरे हरेपन के साथ।

यूं तो किसी भाषा का अनुवाद बड़ा ही कठिन कार्य होता है। क्योंकि अनुवादक को उस काल, लेखक के भाव और भाषा में प्रवेश करना होता है। किसी भी भाषा में किसी एक शब्द का जो भाव होता है, कई बार दूसरा भाषा में उस शब्द का शाब्दिक अनुभव करने पर वह अर्थ नहीं रह पाता। इस कारण अनुवादक को बड़ा ध्यान रखना पड़ता है।
और अगर महाकवि रवीन्द्रनाथ को अनुवाद करना हो तो...। वो भी उनकी कवितायें। मैंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की है कि गीतांजलि की प्रत्येक कविता में, कविता के भावों में अनुवाद करते समय भाव न बदले। अनुवाद करते समय शब्दों के साथ मैंने भावों पर अधिक ध्यान दिया है। मेरी कोशिश यही रही है कि मैं उनकी भाषा और भावों के साथ न्याय कर सकूं।


1


मेरा शीश झुका दो अपनी
चरण धूलि के तल में
प्रभु ! डुबा दो अहंकार मम
मेरे अश्रुजल में।
अपने को गौरव देने को
अपमानित करता अपने को
अपने आप में घूम-घूम कर
मरता हूं क्षण-क्षण मैं।
प्रभु ! डुबा दो अहंकार मम
मेरे अश्रुजल में।

अपने कार्यों में न करूं
अपना ही प्रचार प्रभु !
अपनी इच्छा पूर्ण करो तुम
मेरे ही जीवन में।
मुझको अपनी चरम शांति दो
प्राणों में परम कांति हो
आप खड़े हो मुझे ओट दें
अपने हृदय कमल में
मेरे अश्रुजल में।


2


अनगिनत वासनायें जो भरी हैं मेरे मन में
तुमने बचा लिया उन सबसे वंचित करके।
संचित रहे यह करुणा इस कठोर जीवन में।

बिन मांगे जो मुझे दिया है
गगन, ज्योति, तन-मन प्राण दिया है।
दिन-दिन मुझे बना रहे तुम
उस महादान के लिए योग्यतर।
अति-वासना के संकट से
मुझे उबार कर।

कभी भूलता कभी चलता किन्तु
तुम्हें बनाकर लक्ष्य-उसी राह पर
निष्ठुर ! सामने से जाते हो हट पर
है मालूम यह दया है तेरी
अपनाने को ठुकराते तुम
पूर्ण कर लोगे यह जीवन मेरा
अपने मिलन योग्य बनाकर।
आधी-इच्छा के संकट से
मुझे बचाकर।


3


अनजानों को जानकर
कितने घरों को दी राह-
किया दूर को निकट बंधु
कहा भाई परायों को
घर छोड़ पुराना जब-जब जाता
जाने क्या हो, मन घबराता,
नये के बीच तुम तो पुरातन
यह सत्य मैं बिसरा जाता।
किया दूर को निकट बंधु
कहा भाई परायों को।

जीने मरने में, अखिल भुवन में
जब-जहां भी अपना लोगे
जनम-जनम के जाने-आनजाने,
तुम्हीं सबसे परिचित कर दोगे।
तुम्हें जान लूं तो रहे न कोई पराया
न कोई मनाही, न कोई डर-
सारे रूपों में तुम हो जागे
दरस सदा तुम्हारा प्रभु हो।
किया दूर को निकट, बंधु
कहा भाई परायों को।


4


विपदाओं से मुझे बचाना
यह नहीं प्रार्थना मेरी।
विपदाओं में न होऊं भयभीत।
जब दुःखी हूं, चित्त व्यथित हो
न भी दो सांत्वना।
दुःखों को बस कर पाऊं जय मैं।
सहाय अगर जो कभी न जुटे
बल ना मेरा फिर भी टूटे।
क्षति जो घटे जगत में
लायेगी केवल वंचना
अपने मन में न मानूं कोई क्षय।

मुझे दुःखों से बाहर निकालो
यह नहीं मेरी प्रार्थना
तरने का बल कर पाऊं संचय।।
मेरा भार घटाकर तुम
न भी दो सांत्वना।
ढो पाऊं उसे इतना हो निश्चय।।।
सर झुकाये जब आये सुख
पहचान लूं मैं तुम्हारा मुख
दुःख की रात में निखिल धरा
जब करें वंज्जना।
तुम पर करूं न कोई संशय।।।।


5


अन्तर मम विकसित करो
अन्तरयामी हे !
निर्मल करो, उज्ज्वल करो
कर दो सुंदर हे !
जागृत करो, उद्दत करो
कर दो निर्भय हे !
मंगल करो, निरलस, निःसंशय कर दो हे !
अन्तर मम विकसित करो
अन्तरयामी हे !

युक्त करो सबसे मुझको हे
मुक्त करो सब बंधन।
संचार करो सारे कर्मों में
शांतिमय सब छंद।
चरण-कमल में मेरा चित्त निस्पंन्दित कर हे !
अन्तर मम विकसित करो
अन्तर-यामी हे !


6


प्रेम-प्राण, गंध-गान, आलोक-पुलक से
प्लावित करके निखिल गगन तल-भृमंडल को
झर रहा हर क्षण तुम्हारा अमृत-निर्झर।

चारों ओर की सारी बाधाएं आज तोड़कर
आनंद जाग रहा अनोखा मूर्त रूप-धर,
निविड़ सुधा से जीवन उठा है भर।

चेतना मेरी उस कल्याण रस के मधुर स्पर्श से
कमल सी खिली परम हरस से।
उसका सब मधु तुम्हारे चरण धर कर।
नीरव ज्योति-जगी हिय-प्रदेश में
मुक्त उषा उदय की आभा निर्मल
असल नयन का हटा आवरण।


7


तुम आओ प्राणों में नव-नव रूपों में
आओ गंध-वर्ण में, आओ गीतों में।
आओ पुलकित अंगों में सरस भर
आओ मुग्ध मुदित नयनों में।
तुम आओ प्राणों में नव-नव रूपों में।

आओ हे कांत, उज्जवल-तर आओ।
आओ स्निग्ध प्रशांत सुंदरतर आओ।
आओ दुःख में, सुख में, आओ अन्तरतर में।
आओ नित्य-नित्य सब कर्मों में।
आओ सब कर्मों के अवसानों में।
तुम आओ प्राणों में, नव-नव रूपों में।


8


आज धान के खेतों में धूप-छांव का
लुका-छिपी का खेल !
नील-गगन में किसने खोली
श्वेत मेघ की नौका।
आज भूल रहा मधु पीना भौरां
उड़ा फिर रहा वह प्रकाश में डूबा,
यह कैसा मेला नदी किनारे
चकवा-चकवी का।

आज न जाऊंगा घर मैं भाई
जाऊंगा आज न घर।
आकाश तोड़ लूट लूंगा।
आज मैं सारी बहार।
ज्वार-का वो फेनिल जल
उड़ता फिर रहा हवा में खिलखिल
आज बिना काम के बजाकर बंसी
बीतेगा यह सारा दिन।


9


आनंद के सागर से
आया आज तूफान।
डांड पकड़ लो बैठ कर सब
खेता चल अम्लान।
बोझ चाहे कितना हो ज्यादा
कसी है पर दुःख की नैया,
चले तरंगों पर उतराये
चले जाये भले प्राण।
आनंद के सागर से
आया आज तूफान।

कौन बुलाये है पीछे से
कौन करे है मना।
डर की बात करे कौन आज-
डर का हमें पता
कौन शाप ग्रह दशा कौन जो
सुख के किनारे रहूं मैं बैठा-
पकड़ पाल की डोर जोर से
चलूंगा गाता गान।
आनंद के सागर से
आया आज तूफान।


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