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जुड़वां पति पत्नी

शीतांशु भारद्वाज

प्रकाशक : इण्डियन बुक बैंक प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5553
आईएसबीएन :81-8115-001-5

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प्रस्तुत है शीतांशु भारद्वाज की लम्बी कहानियों का संग्रह

Judvan pati Patni

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


डॉ.शीतांशु भारद्वाज की इन लम्बी कहानियों में नारी मन की उथल-पुथल के साथ साथ पुरुष की गिरगिरी-चरित्र का लेखा-जोखा है। विभिन्न पात्रों के माध्यम से कथाकार ने समाज के यथार्थ को रेखांकित किया है। इनकी विशेषता यह है कि पाठक का इन चरित्रों के साथ तादात्मय स्थापित होने लगता है। और यहीं कथाकार अपनी बात कहने में सफल कहा जा सकता है।

परकटी


बॉथरूम से सिर के गीले बालों को फटकारती हुई इरा ड्रेसिंग टेबल के समीप आ खड़ी हुई। वे भी दिन ही थे जब इसी आदमकद आईने के पास खड़ी देर तक वह वहां अपना मन-मोहक श्रृंगार किया करती थी। कभी वह सिर के बालों को दो-दो चोटियों में गूंथ कर समेटती तो कभी उन्हें आकर्षक जूड़े में बांधती। संध्या-समय अकसर यहीं आकर वह जूड़े पर चमेली के फूलों का गजरा बांधा करती। मुसकराता हुआ आईना भी तो उसे कनॉटप्लेस की ओर उड़ने की आज्ञा दे दिया करता।
किंतु अब न वे दिन रहे, न ही चमेली के गजरों की वह महकती हुई खुशबू !
समय की सरकती हुई परतें जैसे सभी कुछ धों-पोंछ कर अपने साथ उड़ा ले गई हैं। वक्त इरा को निरन्तर छलता ही रहा है और वह बूढ़ा आईना बेशर्मी के साथ सब कुछ देखता ही रहा। उसने आईने में ही देखा कि सामने से पहिए वाली गाड़ी को ठेलते हुए पापा उसी की ओर आ रहे हैं। जल्दी से उसने छितराये हुए बालों को जुड़े की शक्ल में समेट लिया और उधर से एक ओर हट गई।

-इरा बेटे ! अगर माइंड न करो....। गाड़ी के हत्थों को रोककर पापा बाहर मरामदे में ही रुक गए।
अपंगता भी क्या चीज होती है ! समय के थपेड़े झेलता हुआ पापा का रौबदार और दबंग चेहरा आज किस कदर निरीह हो आया है ! इरा का मन रो देने को हुआ।
-पैसे चाहिए न ? इरा ने टेबल से पर्स उठा लिया।
-न पापा के शुष्क होंठों पर फीकी-सी मुककान उधर आई, इधर स्ट्रॉंग स्पोकिंग किए हुए एक लंबा अरसा हो आया है, पुत्तर !
समय सचमुच में बलवान हुआ करता है। इरा का मन पिघलने लगा। उसे लगा जैसे पापा की चेतना में पुराने दिनों की यादें ताजी हो आई हैं। दिन, जो कभी उनकी मुट्ठी में कैद हुआ करते थे। समय का कीट किस प्रकार उन्हें दरिद्रता के शिकंजे में जकड़ता गया है ! वही पापा जो दिन में कई-कई सिगार पी जाया करते थे, पिछले वर्ष से घटिया किस्म की सिगरटें पीने पर विवश हो आए हैं। उनके कमरे में जहां-तहां सिगरेट के ठूंठ बिखरे पड़े हैं।
-पर रहने दो। तुम्हें शायद इससे...। होंठों पर जीभ फिराकर पापा ने अपनी चाहत का गला घोंट लिया।
-सिगार न ? इरा खोखली हंसी हंस दी, शाम को वापसी पर लेती आऊंगी।

चेहरे पर संतोष का भाव लिये हुए पापा ने गाड़ी अपने कमरे की ओर मोड़ ली। उबासी लेकर इरा ने घड़ी देखी। सुबह के साढ़े नौ बज चुके थे। कपूर साहब आते ही होंगे। वह फिर से आईने के सामने खड़ी हुई। उसका सारा रूप-लावण्य किसने पोंछ लिया ? वह आंखों के इर्द-गिर्द उभर आई झाइयों को देखने लगी। कनपटी के आस-पास भी तो दस-पांच बाल चांदी के तारों की तरह सफेद हो आये थे। उसका मन बुझने लगा। उसने गहरा उच्छवास लिया और धप्प-से वहीं सोफे पर बैठकर आंखें मूंद लीं। उसके कानों में किसी गहरी गुफा से आते शब्द गूंजने लगे।
-मेरी इरा तो डॉक्टरनी बनेगी। मां कभी उसका सिर सहलाती हुई कहा करती थीं, तब तो मेरा इलाज करेगी न ?
-नहीं भई ! इरा तो आई.ए.एस. में एपियर होगी। सिगार सुलगाते हुए पापा मां की योजना को हंसी के कहकहों में घोल दिया करते, आखिर इतने बड़े इंजीनियर की बेटी होकर...।

इरा के पापा नारंग साहब कभी सार्वजनिक निर्माण विभाग में चीफ इंजीनियर हुआ करते थे। यह मकान भी उन्होंने उन्हीं दिनों खरीदा था। इरा का यही कमरा था तब सारे परिवार का सम्मिलित ड्राइंग रूम हुआ करता था। उसके भविष्य को लेकर यहां आये दिन मां-पापा में चख-चख हुआ करती थी। दस बजते ही पापा जीप लेकर साइड के दौरे पर निकल जाया करते। मां भी उन्हीं के पीछे-पीछे अपनी किसी सहेली के पास चल देतीं। तब इरा इसी टेबल के पास आ खड़ी होती। कभी वह सिर के स्याह और घने बालों को बिखेरती रहती तो कभी उन्हें जूड़े में समेट लेती। ऐसे में उसके कानों में कलकत्ता वाले मनीश अंकल के शब्द गूँजने लगते।
-इरा को तो भाभी, एयर होस्टेस बनाना चाहिये। अंकल कहा करते, क्यों इरा, करूं, कहीं बात ?
...और, इरा अपने ही रूप-लावण्य के भार से दबने लगती। वह अपनी कनपट्टी के इर्द-गिर्द कहीं तपिश-सी अनुभव करने लगती।

-नहीं मनीश ! अपनी इरा तो दीन-दुखियों की सेवा किया करेगी। मां को अंकल का वह प्रस्ताव पसंद न आता।
उसको लेकर कौन किस प्रकार के सपने बुनता है, इस सब से बेखबर होकर इरा अपना अलग ही भविष्य बुना करती। यहीं आईने के पास वह स्वयं ही अपनी रूप-राशि को सराहती रहती। वह सोचती, एयर होस्टेस ही क्या, वह तो फिल्म जगत में भी तहलका मचा सकती है। विधाता ने उस पर कितना रूप लुटाया है ! उसी रूप के मोह में पड़कर एक दिन चुपके से उसने पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में अभिनय-कला का प्रोस्पेक्टस भी मंगवा लिया था।
सपने कौन नहीं देखता ? अपनी-अपनी अवस्था और समय में इन्हें सभी तो देखा करते हैं। जो समय पर उन्हें उचित खाद और पानी दे पाते हैं, उनके सपने सफल भी हो जाया करते हैं। किंतु इरा की त्रासदी तो यह रही है कि समय का कीट इसके सारे सपनों को चाटता रहा है।
-इरा ! पापा ने कमरे से ही इरा को आवाज दी।
-आई पापा ! वह सामान्य हो गई। वह पापा के कमरे में चल दी। वे वहां घटिया किस्म की सिगरेट पी रहे थे।
-पापा, आप सिगरेट छोड़ क्यों नहीं देते ! इरा चाह कर भी तो नहीं कह पाती। ऐसे में बुरा मान जायेंगे। वह उनके बिस्तर के सिरे पर बैठ गई।

-कितने बजे होंगे ? उन्होंने समय जानना चाहा।
-पौने दस। इरा बोली, कपूर साहब आते ही होंगे।
इरा रजाई पर पड़े छेदों को देखने लगी। मां जब-तब पापा की लापरवाही की बात छेद दिया करती। वे कहा करती थीं, जिसे चाहा छोड़ दिया, जिसे चाहा ओढ़ लिया। कितनी मेहनत से बनवाई थीं मां ने वह रेशमी रजाई !
-कपूर बता रहा था कि जल्द ही वह तुझे प्रमोट करने जा रहा है। पापा उसी बासी हो आई खबर की जुगाली करने लगे।
-जी। इरा की दृष्टि सामने टंगी मां की तस्वीर पर जा लगी।
-कौन जाने वे तुम्हें किसी नई ब्रांच का मैनेजर ही बना दें ! पापा उसी प्रकार जुगाली करते रहे।

‘कपूर कंस्ट्रक्शन कंपनी’ के प्रबंध निदेशक सुरेंद कपूर इरा के पापा के अधीन एक मामूली—से एस.डी.ओ. हुआ करते थे। सरकारी सेवा से त्याग-पत्र दिलवा कर स्वतंत्र रुप से कारोबार करने की सलाह भी उनको उन्होंने ही दी थी। देखते-ही-देखते वे लाखों का काम अपने हाथ में लेने लगे। उनका काम दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से बढ़ने लगा। इन दिनों वे करोड़ों में खेला करते हैं। चारों ओर उनके कारोबार का जाल फैला हुआ है।
होली-दीवाली पर कपूर साहब जब-तब उनके यहां उपहार लेकर आ पहुंचते। वे कहते, नारंग साहब, आज मैं आपकी ही बदौलत...।
-अरे नहीं भाई ! पापा उनका कंधा थपथपाने लगते, मर्द की मर्दानगी उसके बाजुओं में छिपी हुई होती है।

यह सब तो समय का ही तो हेर-फेर है। आज पापा उन्हीं कपूर के मोहताज हैं। एक अच्छा-भला, खाता-पीता परिवार किस प्रकार अभावग्रस्त होकर टूटने लगता है, यह कोई इरा से पूछे। इरा जो हसरतों की दुनिया से धरती पर उतर आई है।
उन दिनों इरा एम.ए. कर रही थी। एक दिन सहसा ही पापा को उनके पद से निलंबित कर दिया गया। आरोप था कि उन्होंने एक सार्वजनिक पुल के निर्माण का काम एक ऐसी भ्रष्ट कंपनी को सौंपा था जो पहले से ही सरकार की ब्लेक लिस्ट में थी। पुल निर्माण में जिस सामग्री का निर्माण किया गया था, वह बहुत ही निक्रिष्ट किस्म का था। विभाग ने सारा मामला जांच ब्यूरो को सौंप दिया था। पापा हक्के-बक्के रह गये थे। उनके हाथों से तोते उड़ गये थे। तब से उनकी नैतिकता रिस-रिसकर उन्हें निचोड़ती आ रही है।

महानगर के उस पुल का निर्माण ‘बी.सी. एण्ड बी.सी.’ कंपनी ने किया था। पापा को बाद में पता चला था कि ‘कपूर इंस्ट्रक्शन कंपनी’ की भी उस कंपनी के साथ मिली-भगत थी। तब उस खाते-पीते परिवार को लगा था जैसे कि वह कच्चा पुल हरहरा कर उनके ऊपर ही आ गिरा हो !
-मैं लुट गया प्रकाशो ! मां के कंधे पर सिर रखकर पापा बच्चों की तरह से फफक पड़े थे, मेरी ईमानदारी ने ही मेरा गला घोंट लिया।
-कोई नहीं। सब ‘ऊपर वाला’ देखता है। मां उन्हें धैर्य बंधाती हुई ‘ऊपर वाले’ की दुहाई देने लगी थी।
किंतु ऊपर वाले अधिकारियों के सामने मां के ऊपर वाले की भी एक भी नहीं चली थी। पापा पर बकायदा मुकदमा चलाया गया। अंत में उन्हें उनके पद से भी अलग कर दिया गया। तब से उनके ऊपर मुसीबतों के पहाड़ ही टूटते चले गये। मां के अंदर दबा हुआ कैंसर भी बेशर्मी के साथ उभरता गया।

इरा को जब कभी ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट के कैंसर वार्ड की याद आती है तो उसके रोंगटे खड़े होने लगते हैं। मां ने वहां कितनी पीड़ा भोगी थी ! उनकी छाती का जहर बराबर फैलता ही गया। डॉक्टरों ने ऑपरेशन करके उसका एक स्तन ही अलग कर दिया था। जहर जब सारे जिस्म में फैलने लगा तो डॉक्टर भी जवाब देने लगे थे।
-अच्छा ही हुआ, बेचारी मुक्ति पा गई। पापा ने अपने आंसू आँखों में ही सुखा लिये थे। वे सुबुक उठे थे, बेचारी बहुत दुख झेलती रही !
उन लोगों के लिये तो एक दुनिया ही डूब गई थी। इरा की दूसरी दुनिया उस दिन डूबी थी जब पिछले वर्ष रेलदुर्घटना में पापा अपनी टाँगे तुड़वा लाये थे। वे शरीर से भी अपंग हो आये थे।
-नारंग साहब, मेरे होते हुए आप कोई चिंता न करें। एक दिन कपूर साहब पापा को पहियों वाली गाड़ी भेंटकर बोले थे।
-ओह कपूर ! पापा उनके प्रति कृतज्ञ हो आये थे, सचमुच में तुम महान् हो।
-नहीं साहब, मैं तो जो कुछ भी हूं वह आप ही की बदौलत हूं।
-कपूर ! एक दिन पापा कहते-कहते बीच में ही अटक गये थे। उन्होंने गहरी सांस खींची थी, इरा बेटी को यदि कहीं....।
-कहीं क्या ! कपूर साहब अपूर्व उत्साह दिखलाने लगे थे, यदि आप कहें तो मैं उसे अपनी ही कंपनी में रख लेता हूं।
-मगर...। पापा के माथे पर सलवटें उभर आई थीं। उन्होंने कहा था, वह कोई काम-धंधा भी तो नहीं जानती।
-जानती हूं पापा। मैंने टाइप-शार्टहैंड, सभी कुछ सीख लिया है। वहीं बैठी इरा बोली थी। उसने परिस्थितियों के साथ समझौता कर लिया था।

दोनों आश्चर्यचकित हो उसका मुँह देखने लगे थे।
अगले ही दिन कपूर साहब ने इरा को अपनी कंपनी में निजी सहायक के रूप में नियुक्त कर लिया था। तब से उसे लेने के लिये भी वे स्वयं गाड़ी लेकर आया करते हैं।
-कपूर नहीं आया ? पापा ने सिगरेट सुलगाकर पूछा।
-आते ही होंगे। इरा ने घड़ी देखी। दिन के ग्यारह बजने को थे।
-अपने में कुछ व्यावहारिकता लाया कर पुत्तर ! पापा इरा की ओर घूम गये, आई मीन...।
इरा को लगा जैसे पापा भी मां की ही भाषा बोलने लगे हों। वह मां की तस्वीर देखने लगी। लगा जैसे वह कह रही हों, औरत जात का जन्म ही खूंटे से बंधने को हुआ करता है, कुड़िये !
यह बात तब की है जब इरा के लिये विवाह का आकर्षण फीका पड़ चुका था। दुर्दिनों ने उसके सारे सपनों को दफ्ना दिया था। उसके चेहरे की सारी लुनाई न जाने किधर उड़ गई थी ! एयर होस्टेस बनने और फिल्म-जगत में तहलका मचा देने की उसकी तमाम हसरतें बहुत पीछे छूट चुकी थीं। मां तब ऐसा ही दर्शन बाघारा करती थीं।
हम ही नहीं, समय भी तो बराबर तेरा गला घोंटता जा रहा है, बेटे ! पापा की भर्राई हुई आवाज थी, अब भी संभलने का समय है। अगर कहीं...।
होंठों पर विवशताभरी मुस्कान ओड़कर इरा पापा के निरीह चेहरे को देखने लगी। बुझा-बुझा चेहरा जो आज हर किसी का मोहताज है। वह मन मसोसकर ही रह गई।

-मेरा भी क्या है ! पापा के हाथ ऊपर की ओर उठ गये, मैं तो दरख्त का पीला पत्ता हूं। कभी-न-कभी तो झड़ूंगा ही !
-ओह पापा ! इरा ने सर्द आह भरी।
-कपूर कोई गैर नहीं है। पापा फिर से कपूर की पैरवी करने लगे, अपने में थोड़ी-सी व्यावहारिकता लाया कर।
इरा ही जानती है कि अपनत्व की आड़ में कपूर साहब उससे कितना कुछ लाभ उठाना चाहते हैं। धन की मदद में वे मित्रता और नैतिकता की सीमायें तक लांघने लगे हैं।
सड़क से गाड़ी के हॉर्न का जाना-पहचाना स्वर आया।
-जा पुत्तर ! पापा ने इरा की पीठ थपथपा दी, कपूर आ गया है।
इरा कमरे से निकलकर नीचे सड़क पर चल दी। कपूर साहब ने आज बहुत ही बढ़िया सूट पहन रखा था। उसने दोनों हाथ जोड़ उन्हें नमस्ते की।
-पापा तो मजे मैं हैं न ? कपूर साहब ने गाड़ी का अगला दरवाजा खोलते हुए पूछा।
-हां जी। इरा गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ गई।

-इरा, तुम भी एक ही हो। खिसियाकर कपूर साहब ने दरवाजा बन्द किया और गाड़ी स्टार्ट कर ली।
कपूर साहब की उस टिप्पणी पर इरा अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न कर सकी। पिछले कुछ दिनों से वे उसमें आवश्यकता से कुछ अधिक ही रुचि लेते आ रहे हैं। कंपनी कर्मचारियों को भी लगने लगा है कि उनके बीच धीरे-धीरे नौकर-मालिक का संबंध मिटते जा रहे हैं। कभी वे इरा से कनॉटप्लेस चलने को कहते हैं तो कभी उसके आगे फिल्म देखने का प्रस्ताव रखने लगते हैं। किंतु इरा है कि उन सभी प्रस्तावों को शालीनता के साथ टालती रहती है।
‘‘किंतु कब तक ?’’ इरा ने अपने अंदर की दूसरी इरा से पूछा, जल में रहकर मगरमच्छ से बैर कैसा ? बकरे की मां कब तक खैर मनाती रहेगी ?
कंपनी में जब वह रमेश कपूर की निजी सहायक के रूप में नियुक्त हुई थी तो उसे लगा था जैसे उसने दुनिया की सबसे बड़ी नियामत पा ली हो। उसके कुचले हुए सपने फिर से ताजे होने लगे थे। कानों पर फिर से शहनाइयों के स्वर घुलने लगे थे। महावर और मेंहदी रचाने की हसरतें फिर से हरी होने लगी थीं। रमेश के खयाल से ही वह महकने लगती।
-लगता है इरा, तुम किसी हीन ग्रंथि से...। चौराहे की ओर गाड़ी मोड़ते हुए कपूर साहब ने इरा को साइड दर्पण में देखा।
इरा के भाग्य की भी कैसी विडम्बना है कि जिसे वह मन-प्राणों में चाहती है, वह उससे घृणा करता है, वह उसके जीवन में सेंध लगा रहा है। काश ! इतनी रुचि उसमें रमेश कपूर लेते !

एक बार इरा रमेश कपूर से किसी महत्त्वपूर्ण मामले पर डिक्टेशन ले रही थी। जाने कब और कैसे उसके वक्ष से चुन्नी खिसक गई थी। अगले ही क्षण वे उस पर आग बबूला हो आये थे, मिस इरा ! मुझे तुम्हारी सेवायें नहीं चाहिये।
-सॉरी सर ! सखेद वह उनकी केबिन से बाहर आ गई थी। अगले दिन से वह कपूर साहब के साथ काम करने लगी थी।
पिछले सप्ताह कपूर साहब के आदेश पर इरा ने रमेश से फोन पर संपर्क किया था, सर, बड़े सर चंडीगढ़ की प्रोग्रेस रिपोर्ट मांग रहे हैं।
-कौन बोल रहा है ? उन्होंने रौब झाड़ा था।
-जी, मैं इरा हूं। वह सहम गई थी।
-मिस इरा, यू माइंड योर ओन बिजनेस ! खटाक-से उन्होंने फोन रख दिया था।
गाड़ी लिंक रोड की ओर मु़ड़ गई। आगे चौराहे पर लाल बत्ती थी। गाड़ी रोककर कपूर साहब ने पीछे देखा, क्यों ?
-जी ! इरा सकपका कर रह गई।
-खोई-खोई-सी रहने लगी हो। कपूर साहब ने पूछा, क्या बात है ?
-आप तो जानते ही हैं कि इन दिनों...। इरा आगे न कह सकी। पीछे से किसी वाहन ने हॉर्न दिया। चौराहे पर हरी बत्ती हो आई थी। कपूर साहब ने गाड़ी चलाते हुए पूछा, रुक क्यों गई ?

-यही कि कंपनी कर्मचारी भी इन दिनों तरह-तरह की बातें...।
इरा के अंदर का आहत अहं धीरे-धीरे सुलगने लगा। एक बार कॉलेज ऑडिटोरियम के रंगमंच पर उसने रानी तिष्यरक्षिता बनकर सम्राट अशोक से कुणाल की आंखें निकलवाई थीं। एकांकी के उस दृश्य में उसने अपना प्रणय-निवेदन कर निर्ममता से प्रतिशोध लिया था।
-क्यों ? कपूर साहब ने उसकी तंद्रा भंग की।
इरा की कल्पना के पर कट गये। काल्पनिक राजसिंहासन से नीचे उतरकर वह यथार्थ के धरातल पर चली आई। कहां अपने समय की महारानी तिष्यरक्षिता और कहां वह ? उसने मुस्कराने की असफल चेष्टा की, ऐसी कोई बात नहीं है।
-फिर ? कपूर साहब गाड़ी को दाईं ओर मोड़ने लगे। इरा ने चुप्पी साध लेना ही उचित समझा। अब गाड़ी राजेंद्र नगर की ओर जा रही थी। इरा समझ नहीं पा रही थी कि वे उसे कहाँ ले जा रहे हैं ! पेट्रोल पंप से गाड़ी बुद्धाजयंती गार्डन की ओर मुड़ गई।

-सोचता हूं, इस वर्ष तुम्हें शिमला या मंसूरी की ब्रांच मैनेजर बना दूं ! कपूर साहब अपनत्व भाव से बोले।
-जी, दिल्ली से बाहर तो....। इरा रुक-रुक कर कहने लगी, आप तो जानते ही हैं कि पापा....।
-हम कोई गैर तो नहीं हैं न ! कपूर साहब खिलखिलाकर हंस दिये, पापा को यहां हम संभाल लेंगे।
बुद्धाजयंती पार्क पर आकर कपूर साहब ने गाड़ी को बाहर एक ओर पार्क कर लिया।
-अहा ! कैसा खुशगवार मौसम है। गाड़ी से उतरकर कपूर साहब ने इरा के लिए पिछला दरवाजा खोल दिया।
मंद-मंद मुस्कराती हुई इरा गाड़ी से उतरी और कपूर साहब के साथ मंथर गति से चलने लगी। ऐसे में उसे लग रहा था जैसे कि वह रमेश के साथ टहल रही हो। किंतु अगले ही पल वास्तवकिता से परिचित होते ही उसकी हसरतों का दम घुटने लगा। सामने ही रिज पर एक-दूसरे का हाथ थामे हुई कोई नवविवाहिता जोड़ी घूम रही थी। युवती ने अपने जूड़े पर मनमोहक गजरा बांधा हुआ था। इरा उन्हें चाहतभरी नजरों से देखती ही रह गई।

-किधर खो गई ? कपूर साहब ने इरा की नंगी कमर पर अपना खुरदुरा हाथ रख लिया।
इस अजीब सिहरन से कांप उठी। चाह कर भी तो वह कोई प्रतिवाद न कर पाई।
-इरा डियर, मैं चाहता हूं कि तुम मेरे जीवन में इसी प्रकार महकती रहो। कपूर साहब के हाथ का कसाव और भी मजबूत होने लगा। वे अपनेपन की दुहाई देने लगे, दरअसल, इत्ती बड़ी दुनिया में मैं अकेला-अकेला...।
-जी, आप शायद...। इरा ने धीमे से उनका हाथ हटाने का प्रयास किया।
-तुम्हारे संग बहकने लगा हूं इरा ! कपूर साहब का हाथ इरा के कंधे पर जा लगा, मुझे तुम क्या मिली कि समझ लो जन्नत ही मिल गई।

-लेकिन अंकल...। इरा धर्म-संकट में पड़ गई। जाने कैसे उसके मुंह से कभी का अपनत्व भरा शब्द निकल गया ! वह होंठ काट कर ही रह गई।
-कह लो इरा, जो भी चाहे कह लो ! इरा के कंधे पर उसी प्रकार हाथ रखे हुए कपूर साहब बहकने लगे, उधर बाग की ओर चलते हैं।

इरा चुपचाप कपूर साहब के साथ चलती रही।
-अहा ! तुम्हारा यह छलकता हुआ रूप और फूलों की यह महकती हुई खुशबू ! कपूर साहब एक फूलोंभरी मखमली क्यारी पर लेट गये। इरा भी वहीं एक ओर बैठ गई।
मौसम सचमुच में सुरमई हो आया था। नवम्बर की उस दोपहरी में ऊपर आकाश में बादलों के कई टुकड़े आ-जा रहे थे।
-अहा ! यह तो स्वर्ग है ! लेटे-लेटे ही कपूर साहब इरा की ओर खिसकने लगे। इरा नहीं समझ पा रही थी कि वह क्या करे, क्या न करे ?
-जरा स्वर्ग के इस महकते हुए फूल को भी तो सूँघ लूं ! कपूर साहब ने हाथ के गुलाब के फूल को एक ओर फेंका और इरा की गोद में सिर रखकर आकाश में तैरते हुए बादलों के छौनों को देखने लगा।
 

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