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जीवन कथाएँ >> तानसेन

तानसेन

गिरीश चतुर्वेदी

प्रकाशक : इतिहास शोध-संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5559
आईएसबीएन :81-8071-024-6

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तानसेन पर आधारित उपन्यास

tansen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक निवेदन

संगीत का नाम सुनते ही हमारे ध्यान में तानसेन का नाम आ जाता है। भारतीय संगीत के गगनांगन पर तानसेन उदय हुये और अपनी दिव्य प्रभा फैलाकर चले गये। तानेसेन भारतीय संगीत के वह सूर्य थे कि जिनके संगीत प्रकाश ने एक अपूर्व आभा हमारे देश में फैलाई। ग्वालियर के पास बेहट गाँव में उनका जन्म हुआ था। शोध-कर्ताओं ने उनके जन्म और मरण की अनेकों तारीखें लिखी हैं। परन्तु यह सच है कि तानसेन ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर के समय में थे। वो ग्वालियर के विख्यात फकीर मुहम्मद गौस के पास पले और वृंदावन में आकर उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा स्वामी हरिदास से प्राप्त की ! ध्रुवपद गायकी हमारे देश की प्राचीन गायकी है और तानसेन इस गायकी के शीर्ष गायक थे। आज भी तानसेन और उनके संगीत के संबंध में गहन शोध की आवश्यकता है।

तानसेन उपन्यास पाठकों को तानसेन संबंधित अनेक जानकारियाँ देगा ऐसा मेरा विश्वास है। मैं अपनी दो पुस्तकों को भेंट करने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति स्वर्गीय शंकर दयाल जी शर्मा के पास राष्ट्रपति भवन था स्वर्गीय शर्माजी एक प्रकांड, थे। बातों-बातों में तानसेन का जिक्र आ गया। शर्माजी ने कहा, ‘अभी तानसेन पर लिखने की बहुत गुंजाइश है।’
मुझे उनके इन शब्दों से प्रेरणा मिली और मैंने तानसेन घटनायें पढ़कर मैं सोचने लगा कि मुझे तानसेन पर एक उपन्यास लिखना चाहिये। इसी बीच ऐसा अवसर आया कि विख्यात गायिका आशा भोंसले दिल्ली आईं। मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला। आज के गायक और पुराने गायकों के संबंध में बात हुई। आशा जी ने इच्छा व्यक्त की कि तानसेन पर टी. वी. सीरियल मुझे लिखने को कहा, मैंने सोचा कि पहले तानसेन पर उपन्यास लिखूँ तभी टी.वी. सीरियल लिखने में मुझे सुविधा होगी अतः यह उपन्यास इस तरह मैं लिख सका।

आज के संगीत, डिस्को, पॉप से भारतीय संगीत को बचाकर रखने की लोग बातें कर रहे हैं। यह सच भी है हमें प्राचीन संगीत की रक्षा करनी होगी। हमारी पहचान हमारी संस्कृति से ही होगी। अतः आवश्यक है कि हम अपनी प्राचीन धरोहरों की रक्षा करें ! टी.वी. सीरियल तो इस उपन्यास पर नहीं बना है परन्तु रेडियो सीरियल अवश्य बन गया है। इस उपन्यास में कुछ चरित्र तो ऐतिहासिक हैं और कुछ कथानक को आगे बढ़ाने के लिए काल्पनिक हैं। उपन्यास लेखन में कल्पना के सहारे भी चलना होता है।

मैं समझता हूँ कि हिन्दी लेखकों को महान गायकों, कवियों और लेखकों के जीवन की घटनाओं पर उपन्यास लिखना चाहिये। हिन्दी की रचनाओं का दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो और दूसरी भाषा की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद होना आवश्यक है। हमारा साहित्य इस तरह सम्पन्न होगा और हम एक दूसरे के और भी पास आ सकेंगे।
 उपन्यास ‘तानसेन’ मैं अपने स्वर्गीय मामा पं. श्री नारायण जी चतुर्वेदी को भेंट कर रहा हूँ। जिनकी असीम कृपा स्नेह और छत्रछाया सदैव मुझे मिली है।

-गिरीश चतुर्वेदी

1


बसंत लग चुका था। मलयानल के झोंके फूलों की सुगंध लिये चले आ रहे थे। आमों की डाली पर बैठी कोयल मधु-भीने स्वर अलापने लगी थी। पास की डाल पर कोयल का बच्चा फुदक-फुदक कर कूहू-कूहू कर रहा था। सरसों की चादर ओढे़ खेत फूले नहीं समा रहे थे। गुलाब, चम्पा, चमेली, रजनीगंधा, पलाश और करील के अरुण अधर खिल गये थे। प्रकृति सुहानी कविता रचने लगी थी और मौसम की मस्ती में सभी कुछ मदमस्त लग रहा था। ऊषा के कपोलों पर अरुणाभा उतर आई थी। क्षितिज पर सूर्य का लाल गोला निकल आया तो प्रकाश फैल गया।

ग्वालियर से तीन कोस दूर बसा छोटा-सा बेहट गाँव  वन-युगल के स्वागत के लिए व्याकुल था। बेहट गाँव में रहने वाला मकरंद पांडे अपना विवाह आंतरी गाँव से करके अपनी बारात के साथ वापस अपने गाँव लौट रहा था। दुल्हन पार्वती का डोला उठाये कहार वापस बेहट की ओर आ रहे थे। रात भर जंगली रास्तों पर चले थे। सुबह हुई तो डोला एक वृक्ष की छाव में रख दिया गया और बारात के कुछ लोग नित्य कर्म में लग गये। जंगल इतना घना था कि सूर्य की किरण भी वहाँ नहीं पड़ रही थी। नीरवता छाई हुई परंतु कभी-कभी जंगली जानवरों की आवाजों से जंगल गूँज उठता था।

मकरंद ने पानी पिया और प्रतीक्षा करने लगा अपने साथियों की। शादी करके लौट रहा था। कमर से तलवार झूल रही थी। वह सोच रहा था कि अभी दस कोस और चलना है। पहुँचते-पहुँचते रात हो जायेगी। सोचते-सोचते जाने कहा तक की बातें मकरंद सोच गया। भावी वैवाहिक जीवन। पार्वती के साथ महादेव मंदिर पूजा करने जाना। गाँव के लोगों को प्रतिभोज में क्या-क्या खिलायेगा। मकरंद सोचे जा रहा था कि इतने में उसे शेर के गरजने की आवाज सुनाई दी। मकरंद मन में पहले तो कुछ भयभीत हुआ फिर धीरे-धीरे साहस करके मन में लौट आया। कमर से झूलती तलवार उसने निकाल ली और जंगल की ओर खोजी निगाहों से देखता रहा। पार्वती नवविवाहिता थी। वह अभी तक रास्ते भर चुपचाप डोली में बैठी आई थी। शेर की आवाज और मकरंद को नंगी तलवार लिए देखकर वह मन ही मन सहस गई। डोली का पर्दा हटाया गया और लजाते हुए बोली, ‘‘शेर आ गया तो क्या होगा ! आप पे़ड़ पर चढ़ जाओ तो प्राण रक्षा हो जाएगी।’’

‘‘और तुम ?’’ ‘‘मैं पे़ड पर चढ़ना नहीं जानती।’’ ‘‘तो पार्वती क्या तुम्हारा पति इतना शक्ति हीन है कि वह अपने प्राण बचाने को पे़ड पर चढ जाये और तुम्हें अकेला छोड़ दे, मैंने अग्नि को साक्षी मानकर तुम्हारा हाथ थामा है। तुम्हारे सुख, तुम्हारी रक्षा का भार मुझ पर है। मैं अपने कर्त्तव्य से दूर नहीं हो सकता।’’ बातें हो ही रही थीं कि शेर की आवाज पास से सुनाई दी। पार्वती ने मकरंद का हाथ पकड़कर डोली में अन्दर बैठने को खींचा परंतु मकरंद डोली में नहीं गया और शेर के आने की प्रतीक्षा करता रहा। थोड़ी देर बाद शेर की आवाज बंद हो गई। शेर वापस जंगल में कहीं चला गया। दोनों ने राहत की साँस ली। दोनों अकेले थे। मकरंद ने कहा, ‘‘पार्वती विवाह एक सामाजिक बंधंन है। इससे भी ज्यादा यह मन का बंधंन है, पार्वती। जीवन की नाव हम दोनों को मिल कर अब खेनी है। मेरे सुख तुम्हारे होंगे और दुःख जो भी जीवन में आयेंगे वह हम दोनों मिलकर आपस में बाँटेंगे।’’

 कहकर मकरंद चुप हो गया। पार्वती अति सुंदर थी। उसने आँखों की घनी पलकें उठाकर मकरंद की ओर पहली निगाह भर कर देखा और मन ही मन खुश हुई। फिर धीरे से नयन झुकाकर बोली, ‘‘मुझे आप सदा अपने साथ पायेंगे। विश्वास रखें। मैं विवाह से पूर्व जैसे पति की कल्पना करती थी मुझे वैसा ही पति मिला है। मैं भाग्यवान हूँ।’’ पार्वती डोली में बैठ गई कि बारात के लोग वापस आ गए। डोली में बैठी पार्वती डोली के छेदों से सब देख रही थी। उसने हाथ जोड़कर ईश्वर से प्रार्थना की और मन ही मन कहने लगी कि उसे वीर पति मिला है।
डोला उठाये हुए फिर कहार चलने लगे। कहीं-कहीं सूर्य की किरणें जंगल में पड़ रही थीं। जानवर इधर–उधर जंगल में भाग रहे थे। हिरनों के झुंड, स्यार, जंगली बिल्ली, से ही डालों पर बैठे लंगूर सभी वहाँ भागते चलते दीख रहे थे। बारात डोले के साथ बारात बेहट की ओर चली आ रही थी। घंटे भर के सफर के बाद जंगल कुछ कम हुआ। कच्चे रास्ते से बारात चलने लगी। जब गाँव एक कोस की दूरी पर रह गया तब आराम करने बाराती डोले के साथ पेड़ की छाँहों में बैठ गये। दुल्हन को पानी और बेसन के लड्डू नाश्ते में दिए गये।

थोड़ी देर में करीब दस लोगों का दल भी वहाँ आ पहुँचा। दल के लोगों की कमर से तलवारें लटक रही थीं। किसी-किसी के हाथ में भाले और फरसे भी थे। एक आदमी के गले में ढोलक। आपस में बातें होने लगीं। मकरंद के पूछने पर एक ने जिस के बडी मूँछें और दाढ़ी थी बतलाया कि वो लोग यात्री हैं और तीर्थ यात्रा के लिए मथुरा जा रहे हैं। तरह-तरह की बातें होती रहीं। थोड़ी देर में यात्रियों ने भजन और निर्गुण गाना शुरू कर दिया। जंगल उनके सुरीले स्वर से गूँज गया। परंतु गाना समाप्त होते ही यात्रियों के भेष में छिपे डाकुओं ने बारात का माल असवाब छीनना शुरू कर दिया। बारात में और डाकुओं में भीषण युद्ध शुरू हो गया। मकरंद की तलवार ने फिर अपना कौशल दिखलाया और दोनों ओर के लोग घायल हो गए। डाकू सारा सामान छोड़कर भाग गए और लहूलुहान बाराती किसी तरह दिन छिपे वापस लौट आये बेहट, गाँव।
संध्या हो चुकी थी। दिन भर का थका सूर्य अस्त हो गया। रात के साये घिर आये थे। आकाश में तारे निकल आये। पार्वती का डोला घर के सामने उतारा गया। गाँव की महिलाएँ भागी-भागी मकरंद के घर आईं और उन्होंने मीठे स्वरों में बहू के स्वागत गान गाये। पार्वती मकरंद के घर में अच्छे स्थान पर बैठा दी गईं है। सभी खुश थे कि मोती पांडे के घर में कोई दिया जलाने आ गई है। लेकिन मकरंद उदास था। वह सोच रहा था कि उसके माता-पिता यदि जीवित होते तो आज उसकी पत्नी को देख कर फूले नहीं समाते।

मकरंद के पिता मोती पांडे गाँव के जमींदार थे। बड़े ही नेक इंसान। सभी गाँव वाले उनका आदर करते थे। गाँव में प्लेग फैल गई और एक दिन मोती पांडे और उनकी स्त्री अकाल ही काल का गाल में समा गये। पंद्रह वर्ष का मकरंद किसी तरह बच गया और फिर अकेला ही जीवन की सीढियों पर चढ़ने लगा था। सहारा कोई नहीं। आसरे के लिए पक्का घर था। खेत थे। जमींदारी थीं। गाँव में ही छोटी-सी पाठशाला थी। अक्षर ज्ञान हो गया था। नित्य सुबह उठता स्नान करने के बाद गाँव के बाहर बने महादेव जी के मंदिर में जाकर पानी दूध, बेलपत्र चढ़ाता, भजन गाता। वह क्यों मंदिर जाता था, इसका प्रश्न उसने कभी अपने आपसे नहीं पूछा। उसके स्वर्गीय पिता उसे नित्य मंदिर ले जाते थे और इसलिए वह भी मंदिर जाता। बचपन के संस्कार जीवन के अंतिम दिनों तक मनुष्य में बने रहते हैं। मकरंद इन्हीं संस्कारों को लेकर बड़ा हुआ था।
रात हो गई थी। आकाश पर चन्द्रमा सुहानी छटा बिखेर रहा था। तारे ऐसे लग रहे थे जैसे किसी सुन्दर स्त्री की काली साड़ी पर लग बूटे। फागुन आने लगा था। पगनौटी हवायें तन मन में मस्ती पैदा कर रही थीं। दूर चरवाहे फाग गा रहे थे। ढोलक मंजीरे-चिमटे और बेला के स्वर पाकर फाग की तानें मन  को आनन्द दे रही थीं। मकरंद को आज ये फाग बहुत अच्छी लग रही थीं। लोग गा रहे थे ‘कोई जीवें सौ खेलैं होरी फाग रसिया मस्त महीना फागुन कौ’। पार्वती कमरे में मकरंद की प्रतीक्षा कर रही थी। प्रथम मिलन-यामिनी थी ये। पार्वती गुलाब कलिका सी सुंदर नयनों में मादकता, अधरों पर अरुणाभा और कलोपों पर मधुमास लिये सुहाग शय्या पर बैठी थी। जब मकरंद कक्ष में नहीं आया तो उसने अपने बड़े-बड़े नयनों से द्वार के बाहर देखा और देखा मकरंद को कक्ष की ओर आते। ऊपर राकेश चमक रहा था और नीचे धड़क रहा था प्रिय मिलन को आतुर पार्वती का हृदय।

कक्ष में दीप जल रहा था। मकरंद आया। तो पार्वती ने उसके चरण धूल को सिर से लगा लिया। बैठ गया सुहाग शय्या पर मकरंद। पूछने लगा ‘‘मैं तुम्हें कैसा लगा पार्वती ?’’ पार्वती ने झुकी निगाह से कहा बहुत अच्छा’’। ‘‘जीवन की वीथियों में मैं अकेला बहुत भटका हूँ पार्वती। माता-पिता अकाल ही असमय में चले गये। अकेला हूँ। तुम आ गई। मैं तुम्हारे सहारे से जीवन की नाव खे लूँगा। हाँ मुझे महादेव पर बहुत आस्था है। क्या तुम नित्य ही मेरे साथ मंदिर चल सकोगी ?’’ पार्वती ने स्वीकृति दी।

रात ज्यादा बीत चुकी थी प्रणय की प्रथम पर्व था पार्वती को बाँहों में समेट कर मकरंद कब सो गया यह उसको भी पता नहीं चला। बाँहों में पत्नी आँखों में चैन की नींद लिए दो हृदय एक बन कर सोते रहे। हाँ कभी–कभी गाँव के आवारा कुत्ते अवश्य भूँक उठते थे और घर के बाहर खड़ी गाय के गले में बँधी घंटी टनटना जाती थी। सब कुछ शांत विश्राम नीरवता और आनंद। दिन के आगमन की प्रतीक्षा करती रात। ऊषा के कपोलों की अरुणिमा निहारने को आतुर दिवस।

2


ऊषा के अरुण कलोपों की लाली कम होने लगी। पूर्व में आकाश लाल हो गया और भगवान भास्कर नीले आकाश की गलियों में उतर आये। पेड़ों के खौपटों से पक्षी निकल कर डालों पर चहचहाने लगे। तोतों के झुंड नीले-आकाश में चहचहाते हुए जा रहे थे। खेतों की ओर किसान हल कंधे पर रखे भजन गाते चल दिये। नौजवान किसान लड़के फगनौटी बयारों का आनंद लेते फाग गाते चल रहे थे। ग्वालियर में पहाड़ी पर बने किले की प्राचीरों पर सूर्य की किरणें बिखर रही गईं। किले के कंगूरों पर कबूतरों के झुंड बैठे गुटुरगूँ करने लगे। पहाड़ी पर उगे पेड़ों पर लगूँरों के दल डालों से झूला झूल रहे थे। कभी-कभी पेड़ से पत्ती तोड़ कर खा लेते।  किले के अंदर महल बना हुआ था। महल के बाहर हरी घास पर मोर नाच रहे थे और हिरन आनंद मनाते हुए चौकड़ी भरने लगे। महल के बाहर नंगी तलवार लिये। अश्वारोही घूम कर महल की चोकसी कर रहे थे। किले के नीचे घुड़सवार, पैदल सिपाही-हाथी और ढोल हाथों में लिए हाँके वाले शिकार पर जाने के लिए राजा मानसिंह तोमर की प्रतीक्षा कर रहे थे। तलवार, भाले-बरछे, धनुष, बल्लभ सभी सूर्य की रोशनी में चमचमा रहे थे। थोड़ी देर बाद सुन्दर हाथी पर बैठे युवा मानसिंह तोमर किले में उतरे। राजा की जय जय कार हुई। गुच्छेदार भँवर, काली मूँछें, सिर पर कीमती मोतियों और रत्नों से सजी पगड़ी, रेशमी अँगरखा जिस पर गले में झूमती हुई अनेक मणि मालायें। राजा मानसिंह तोमर ने हाथ उठाकर इशारा किया और बाजे तुरकी ढोल बजाता हुआ यह शिकारी काफिला शिवपुरी के घने जंगलों की ओर कूच कर गया।

दिन भर काफिला चलता रहा और दिन छिपने पर शिवपुरी पहुँचा। जंगल घना था। नीम, पीपल, बरगद, चीड, सागवान, शीशम और जामुन के वृक्षों से लदा जंगल था वो। जंगल में एक सुंदर झील थी जहाँ रात्रि में पशु पानी-पीने आते थे। जंगल में पहले से ही मचान बाँध दिये गये थे। नीचे जमीन साफ करके तम्बू गाड़े गये थे, जहाँ सिपाहियों को ठहराना था। राजा मानसिंह दिन भर यात्रा से थके हुए थे। हाथी से उतरे।, सोने की झारी से जल पिया और थोड़ी देर बाद भोजन करने बैठ गये। भोजन करके हाथ धो ही रहे थे कि जंगल में हाँके वालों की आवाज आना शुरू हो गया। घना जंगल और अँधेरी रात। दो हाँके वाले एक नाले के किनारे बैठे हुक्का पी रहे थे। नाले के उस पार से घने जंगल से शोर निकला और नाले के इस पार कूदा। अँधेरे में हाँके वाले कुछ देख नहीं पाये। शेर दोनों हाँके वालों के सिर पर गिरा और उसके वजन से दोनों के सिर धड़ में धँस गये। उसकी चीख सुनकर दूसरे पास घूम रहे लोग आये। राजा मानसिंह तोमर को सूचना दी और वो नंगी तलवार हाथ में लिए उस स्थान पर पहुँचे। वो बातें कर ही रहे थे कि क्रुद्ध शेरनी झाड़ी से निकलकर राजा पर टूट पड़ी। राजा ने पैतरा बदल कर शेरनी की कमर तलवार के एक ही वार में काट दी। परंतु शेरनी के पंजे राजा की उल्टी भुजा में लगे और भुजा से तेज खून जमीन पर टपकने लगा। बिजली की गति से बात जंगल में फैल गई। राज वैद्यों ने जड़ी-बूटियों से बना मलहम भुजा पर बाँध दिया।

शेर-शेरनी मार दिये गये। खुशी-खुशी राजा मानसिंह का काफिला दूसरे दिन ग्वालियर वापिस लौट आया।

दिन भर चलकर ये लोग ग्वालियर पहुँचे। रात के अँधेरे घिर आये थे। लोगों ने अपने घरों में दीपक जला दिये। किले पर मशालें जल गईं। अपने महल में बैठी रानी मृगनयनी कक्ष में इधर-उधर घूमने लगी। कक्ष में कई दीप जल रहे थे। एक ओर सुगन्धित धूप जला दी गई थी जिससे मृगनयनी का कक्ष महक रहा था। सोच में डूबी रानी मृगनयनी ने ताली बजाई और एक दासी ने आकर प्रणाम किया। ‘‘कोई समाचार आया पलल्वी ?’’ नहीं महारानी साहिबा।’’ ‘‘क्यों क्या बात हो गई ! महाराज  

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