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नारी विमर्श >> पासंग

पासंग

मेहरुन्निसा परवेज

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :382
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5571
आईएसबीएन :81-8143-264-9

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औरत की व्यथा, दुःख, हताशा तथा उसके संघर्ष पर आधारित उपन्यास...

Pasang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कनी का कलेजा जोर से कबूतर की भांति फड़फड़ाया और फिर विचलित होकर गोल-गोल घूमकर चुप वहीं बैठा गया। क्या जीते जी मरना इसी को कहते हैं ? बानोआपा जीते जी मर गईं क्या ? तभी तो उनका चेहरा एकदम सफेद बेजान सा हो गया है। हिलती-डूलती भी नहीं जैसे साँस लेना भूल गई हों।
सच है, उस दिन दादी कह रहीं थीं कि एक पक्की ईट भी पानी में डाल दो तो वह थोड़े दिन बाद अपने आप धीरे-धीरे घुलने लगती है और एक दिन मिट्टी में बदल जाती है। ऐसे ही तो अच्छे से अच्छे लोग ज़िन्दगी के हादसों से परेशान होकर एक दिन तबाह हो जाते हैं, मिट जाते हैं। यह बात बानोआपा पर कितनी खरी उतरती थी। क्या बानोआपा भी एक दिन ऐसे ही मिट्टी का ढेर हो जायेंगी ? सब कुछ ध्वस्त हो चुका था। चारों ओर धुआँ-धुआँ सा था। धाँस से साँस लेना मुश्किल सा हो रहा था।

कितना विचित्र होता है न, जीवन में तब पहले चढ़ाई ही चढ़ाई नजर आती थी, सामने पहाड़ ही पहाड़ दिखते थे और अब ढलान ही ढलान दिखाई देती है। अब न वह ऊपर चढ़ना चाहती है और न नीचे उतरना चाहती है, बस चुप वहीं खडे़ रहना चाहती है। जीवन के हर गणित के जोड़ का उसे अब पता हो गया था। अब वह इसी ठहराव पड़ाव पर रूक जाना, थम जाना चाहती है। जीवन की हाट उठ गई थी। मूक- चलचित्र की तरह ज़िन्दगी की रील घूम रही थी, जिसमें कोई आवाज, आहट, संगीत, वार्तालाप नहीं था। वह ठूँठ की तरह मौन थी।
बेटी सिमाला को और उसकी नई पीढ़ी को अपना नया उपन्यास पासंग सौंपती हूँ। अपने लक्ष्य को जान लेना मात्र ही सफलता की कुंजी है। ज़िन्दगी को हमेशा एक मकसद बना कर जीना ही इन्सान को सिकन्दर बनाता है।

मेरी बात

अपनी बात को कहाँ से शुरू करूँ ? क्योंकि ज़िन्दगी को नापने और तौलने के लिए कभी कोई स्केल और तराजू नहीं होता, जिससे नाप कर या तौलकर उसका ही अन्दाजा लगाया जा सके। ज़िन्दगी तो हमेशा रेत की तरह फिसलती रहती है। रेतीली जमीन पर कभी पैर जम नहीं पाते। बस धँसते रहते हैं। ज़िन्दगी का भी यही विचित्र सा स्वभाव है।

जीवन एक नट द्वारा तानी गई एक रस्सी है, जिस पर पैर जमाकर चलना पड़ता है। अपने लक्ष्य को जानना और पहचानना ही सफलता की सीमा है। ज़िन्दगी की यह बारीकियाँ और बुनावट समझ में आ जाये तो हम सिकन्दर हैं, वरना शून्य हैं।
पासंग उपन्यास अपनी युवा पीढ़ी को सौंपना चाहती हूँ। औरत की व्यथा, दुःख हताशा तथा उसके संघर्ष को मैंने इस कथा में लिखा है। युवा पीढ़ी को शायद अपने उलझे प्रश्नों के उत्तर इसमें मिल जायेंगे। एक ही ऐसी कथा है, जिसे मैंने अपने बचपन के दिनों में देखा और समझा था। बरसों-बरसों यह कथा मेरे मन की गहराइयों में दबी छुपी थी, जिसे मैंने अपने दुःख से भारी-बोझिल-थके-दुर्दिन दिनों में अपने को व्यस्त करने तथा दुःख के दलदल से बाहर आने के लिए लिखी।
अपने जवान बेटे की मृत्यु के दुःख ने जहाँ मुझे अरबों के आँकड़े से शून्य में ला दिया। उस खालीपन, निराशा और दुःख की आँधी में अपने को साधन और नियत्रिंत करने का बस एक ही मन्त्र ने मुझे जीवित रखा और वह था-लेखन। ढेर सारे शब्दों की भीड़ ने मुझे डूबने से बचा लिया। यह नन्हे-नन्हे सहारे जिन्होंने मुझे बल और शक्ति दी। मेरे घाव और जख्मी पंखों को दोबारा उड़ने की शक्ति दी। शब्द के इस इल्म और तंत्र के रहस्य को मैंने अपने जीवन में जानना चाहती हूँ मेरी नई पीढ़ी भी इसे जाने।
पासंग उपन्यास की कनी, कुलसुम और बानोआपा जरूर आपके बीच भी होंगी। यह उन्हीं लोगों की कथा है।

मेहरुन्निसा परवेज

1


बस फर्राटे से सूनी-अँधेरी सड़क पर दौड़ रही थी। केसकाल का पहाड़ी इलाका था। चारों ओर जंगल ही जंगल नजर आ रहा था। जंगली फूलों की गन्ध, जंगली बूटियों और पत्तों की तीखी-सोंधी गन्ध, हवा में तैर रही थी। ठंडी हवा के स्पर्श से बस में बैठे थके लोग ऊँघने लगे थे।
रुकैया को शीतल ठंडी-हवा से बड़ा सुख, आराम और चैन मिल रहा था। लग रहा था जैसे बरसों बाद उसका थका-बोझिल मन आराम पा रहा था। वही परिचित जंगल की गन्ध थी, जिसे उसका रोम-रोम बचपन से जानता और पहचानता था। एक-एक पेड़, फूल और जड़ी-बूटियों की गन्ध को वह नजदीक से पहचानती थी। लगातार कई दिनों की वर्षा के कारण हवा में ठंडक और नमी उतर आई थी। बादलों ने अभी भी आकाश को घेर रखा था। एक भी तारा नजर नहीं आ रहा था। घने काले बादलों को देख लग रहा था कि वर्षा कभी भी हो सकती है। हवा भारी और ठंडक लिए थी।
क्वार का महीना अब लगभग समाप्ति पर था। क्वार के महीने में ही अक्सर बीमारी अपना आतंक फैलाती थी। मौसम अचानक घटता बढ़ता रहता था। कभी ठंडक, कभी वर्षा, कभी गर्मी अचानक हो जाती थी। तापमान के अचानक गिरते-उठते रहने से ही तरह-तरह के रोग फैलते थे।

बस के भीतर मौन पसरा था। रुकैया ने अपनी साड़ी के पल्लू से अपने को चारों ओर से लपेट लिया। बगल में बेटा गहरी नींद में खिड़की से टिका सो रहा था। शायद उसे सर्दी लग रही थी। रुकैया ने जल्दी से सीट के नीचे से बैग को खींचा और उसमें से एक शाल निकालकर बहेटे को उढ़ा दिया। अपना एक दुपट्टा निकाल कर बेटे के सर के नीचे रख दिया, ताकि सर खिड़की से न टकराये। पीठे मुड़कर उसने देखा। बस के लगभग सत्री यात्री अपनी सीट पर सो रहे थे। बस की बड़ी लाइटें बन्द कर दी गई थी। और छोटे बल्ब जल रहे थे। सीट बड़ी आरामदायक थी जो पीछे हो जाती थी और उस पर सुविधा से सोया जा सकता था।

रायपुर से जगदलपुर जाने वाली यह नाइट बस थी, जो एक्सप्रेस बस कहलाती थी। रास्ते में बस, एक या दो जगह ही रुकती थी। रामपुर से जगदलपुर जाने के लिए इतनी आरामदायक बस भी हो सकती है, यह बात बड़ी हैरानी वाली थी। इतना लम्बा सफर इतनी आसानी से कटेगा इसकी कल्पना नहीं थी, पहले तो बस्तर जाने के नाम से ही लोग डरते थे। पहले कोयला और पानी से सबसे पहले बस चलाई गई थीं, बाद में आनन्द ट्रांसपोर्ट की बसें चलने लगी थीं, जो कहीं भी खड़ी रहती थीं। यात्री परेशान होते थे। बाद में सरकारी बसों चलने लगीं।

बस्तर पहले मध्य प्रदेश में आता था। अब जब से मध्य प्रदेश के दो भाग हुए थे तब से वह सारा इलाका छत्तीसगढ़ में चला गया था। इन्द्रावती नदी जो उड़ीसा के कालाहाँड़ी पहाड़ से निकली थी उसने बस्तर को चारों ओर से घेर रखा था। इन्द्रावती नदी बस्तर और उड़ीसा की सीमा रेखा थी। अपनी मस्ती में उछलती कूदती, चौकड़ी भरती इन्द्रावती अपनी टेढ़ी-मेढ़ी गति से पहाड़ों को फाँदती बहती थी। चित्रकोट और तीरथगढ़ जैसे बड़े विशाल जलप्रपात इसी नदी पर थे।
बाहर का आदमी तो सोच भी नहीं पाता था इतनी लम्बी यात्रा, इतना घना और विशाल जंगल पार करने के बाद भी कोई दुनिया आती होगी ? सारा जंगल, सामने की सड़क सब अँधेरे में डूबे थे। बस की हेडलाइट जहाँ पड़ती थी, बस उतनी ही सड़क नजर आती थी। बाकी सब घुप्प-घोर अंधेरे मे डूबा था।

वैसे उन्हें बस के अन्तिम पड़ाव याने जगदलपुर में उतरना था, इसलिए भी उसके बेटे ने बस में बैठते ही समझाया था-‘‘मम्मी आराम से सो जाए, बस सुबह जगदलपुर पहुँचेगी, रात आप जागती हैं तो उसकी तबीयत हमेशा खराब हो जाती है।’’

बेटे के समझाने तथा हिदायत के बावजूद भी वह सो नहीं पा रही थी। अजीब उत्तेजना बेचैनी जिज्ञासा और पुरानी यादों ने उसे घेर रखा था बल्कि उसे अपने साथ जगा रखा था। वह कई बार सोने की कोशिश भी कर चुकी थी, पर ढेर सारी उथल-पुथल सोने नहीं दे रही थी। वह चाहती थी कि इनको परे सरकाकर थोड़ा आराम कर ले थोड़ी देर आँख बन्द भी कर लेती पर एक विचित्र सी बेचैनी आँखें खोल देती थी। कटु और वेदनापूर्ण स्मृतियों ने उसे घेर रखा था। अतीत की अँधेरी सुरंग में वह उतरना चाहती थी। बीती बातों हादसों को वह पकड़ना चाहती थी। मृत क्षणों को दोबारा जीवित देखना चाहती थी।

पूरे तीस बरस वह यहाँ आ रही थी। बच्चे तो चाहते थे कि वह न जाए। वह लोग ही जाकर सब कर लेंगे, पर वह नहीं मानी थी। अपनी जायदाद सम्पत्ति को बिकने के पहले वह अन्तिम बार देखना चाहती थी। खँडहर में तबदील हुए अपने अतीत को, बाड़े को, हवेली को देखना चाहती थी। आखिर ज़िन्दगी का एक लम्बा समय उसने यहाँ बिताया था। वह हवेली, उसके दरो दीवार हमेशा आ-आकर स्मृतियों में, सपनों में उसे तंग करते रहते थे। से लगने लगा था कि यदि वह अब भी नहीं जा पाई तो दादी की आत्मा उसे कभी भी क्षमा नहीं कर पाएगी। दादी की एकमात्र वारिस वही तो थी। अतीत की यादों में यह घर हमेशा साँप बनकर उसे डराता रहेगा।

रहमत चचा ने जब एक लम्बा पत्र लिखकर उससे पोती के ब्याह में तथा एक बार जायदाद को देखने का अनुरोध किया था, तब वह अपने को रोक नहीं पाई थी। उसने सोचा वह स्वयं जाकर जायदाद को बेचेगी। रहमत चचा दादी के रिश्तेदार थे, जिनका दूर का ही रिश्ता था, उन्हें वह बचपन से चचा ही कहती थी, वही अब सारी जायदाद की देखभाल करते थे। अब वह खुद भी बूढ़े हो गये थे। उनकी इच्छा पर ही वह अपनी जायदाद बेच रही थी। उनके बाद उसे कौन देखेगा ? बेचने के बाद सुना है यहाँ एक बहुत बड़ा अपार्टमेंट बनने वाला था। चचा के कारण ही बाड़ा बचा था, वरना लोग जायदाद हड़पने में लगे थे। चचा की पोती का ब्याह था, चचा चाहते थे वह ब्याह में भी आ जाए और जायदाद की भी रजिस्ट्री हो जाएगी। रुकैय्या दादी की इकलौती वारिस थी, याने दादी की एकमात्र वारिस। बहुत बड़ी हवेली और कई एकड़ों में फैला बड़ा बाड़ा-बगीचा था, जिसमें कई मोहल्ले आबाद हो सकते थे। रुकैया के ब्याह के बाद घर जायदाद की देखभाल के लिए दादी ने हैदराबाद से रहमत चचा को बुला लिया था।

दादी की क्या वह केवल जायदाद की ही मालकिन थी नहीं, जमीन जायदाद के साथ उसके हिस्से आए थे ढेर सारे दुःख दर्द कष्ट तकलीफें। वह क्योंकि दादी की अकेली वारिस थी, इसलिए दादी के साथ इन कष्टों को झेलना भी उसका कर्तव्य था। दादी ने रुकैया पर अपना कब्जा रखा था। दादी ने अपने खानदान के नाम पर, वारिसाने हक के तहत रुकैया को अपने पास रखा था। लाख कोशिशों के बावजूद भी कभी उसके होठ दादी के विरोध में नहीं खुले थे। उसने कभी विद्रोह भी नहीं किया था।

क्या मनुष्य केवल किसी की वंश-परम्परा या जायदाद का ही वारिस बनता है ? नहीं, बल्कि उसे वारिस के हक के साथ उसके तमाम दुःख कष्ट का भी हिस्सेदार बनना पड़ता है। ठीक अपने हिस्से की फसल के साथ उसे ज़िन्दगी के दुःख-सुख के, मौसम के अच्छे-बुरे प्रभाव को भी, झेलना पड़ता है। जिन्दगी में अधिकारों के केवल हीरे-मोती ही नहीं मिलते, बल्कि पत्थर काँटे, ठोकरें, चोटें, घाव भी मिलते हैं और उसे भी स्वीकारना ग्रहण करना पड़ता है।
भोर के उजाले के साथ उसने देखा उनकी बस जगदलपुर शहर में दाखिल हो रही थी। पूरा शहर सो रहा था गहरी नींद में, बस से कहीं-कहीं इक्के-दुक्के लोग दिख रहे थे। बस घूम-घूम कर चक्कर काट अपने जाने-पहचाने रास्ते से होती, जब बस स्टैंड पर रुकी तो उसने जल्दी से उतावली में बेटे को जगाया। हड़बड़ा कर बेटा आँखें मलता उठा और जल्दी-जल्दी जूते पहनने लगा, जो कि उसने उतार दिए थे। रुकैया ने दूर से ही बूढ़े रहमत चचा को पहचान लिया। उनकी झुकी कमर लाठी के सहारे टिकी खड़ी थी। उन्होंने काला कोट पहन रखा था, जो जगह-जगह से फटा था, उस पर अनगिनत पैबन्द लगे थे, फिर भी आदत के मुताबिक चचा अपना कोट पहन कर ही हमेशा निकलते थे। साथ में और भी एक-दो लोग आए थे। भौचक-सी वह रहमत चचा के सूखे हड्डी हो गये ढाँचे को देखती रही।

‘‘बेटा, देखो वह बूढ़े से जो खड़े हैं न, वहीं हैं मेरे रहमत चचा और तुम्हारे नाना उतर कर अदब से सलाम करना। तुम पहली बार ही उनसे मिलोगे’’, रुकैया ने बेटे को हिदायत-ताक़ीद करके सतर्क सा किया।
‘‘जी, पहचान लिया, वैसे मम्मी आप न भी बतातीं तो मैं नाना को पहचान लेता। यहाँ लेने आने वाले लोगों में अकेले वही तो दिख रहे हैं।’’

‘‘अब उतरो बेटा जल्दी’’, रुकैया ने उतावली घबराहट से बेचैन होते हुए कहा।
बेटा सामान लेकर नीचे उतरा। नीचे शायद काफी पानी गड्डों में भरा था। बेटे ने नीचे उतरकर वापस पीछे मुड़कर उसे बताया, ‘‘मम्मी सँभल कर उतरो, नीचे पानी भरा है, साड़ी खराब हो जाएगी।’
बेटे की ताकीदों के बावजूद जब वह नीचे उतरी तो उसकी साड़ी कीचड़ से खराब हो गई थी। बेटे ने हाथ बढ़ाकर उसे सहारा देना चाहा था, पर उसका ध्यान चचा पर था। ‘‘नहीं मैं उतर जाऊँगी’’, कहते वह खुद से नीचे गई। वह बिना सहारे के उतर सकती है। वह बुढ़ी कहाँ हुई है ? अभी तो वह मात्र नौ बरस की शोख चंचल कनी ही तो है। जोड़ों का दर्द, कमर का दर्द, पीठ का दर्द यह सब तो दादी को होता था। भला इस दर्द से उसका कैसा सरोकार ? वह तो दादी का मजाक उड़ाती थी। इन दर्दों को तो वह जानती भी नहीं, बेटे को क्या पता यहां का कण-कण उसे जानता है, हवा पहचानती है, यहाँ की हवा में जादू है। एक ठंडी हवा के झोंके ने उसका स्वागत किया और पूछा-‘‘कैसी हो ?’’

बस से भीड़ उतरकर जाने लगी। भीड़ की धक्का-मुक्की थोड़ी देर में ही कम हो गई। भीड़ देखते-देखते चली गई, जैसे सब उतावली में थे, उसे तो कोई उतावली नहीं है। वह आराम से धीरे-धीरे रहमत चचा की तरफ बढ़ी। चचा ने भी भोर के धुँधलके के बावजूद उसे पहचान लिया था। उसने सलाम किया। उसके सर पर हाथ फेरते चचा ने अपनी बूढ़ी जर्जर काया से उसे चिपका सा लिया। बेटे को भी अपने से चिपकाते चचा रो से उठे। उनकी आँखें डबडबाकर भीग गईं।
‘‘रुकैया, बेटा दोबारा तुम्हें देख पाऊँगा, यह मैंने कहाँ सोचा था ? बेटा तुम्हारी जायदाद तो मैं खुद ही बेच कर रकम भेज सकता था, पर बेटा यह बूढ़ी डूबती आँखें एक बार बन्द होने से पहले तुम्हें देखना भी तो चाहतीं थीं न ?’ चचा बोले तो रुकैया को अब अपने आँसू रोकना मुश्किल सा लग रहा था।

‘‘इसलिए तो चचा चली आई, बच्चे कितना मना करते थे, पर मैं एक बार आप सबको देखना चाहती थी, महसूसना चाहती थी, कि क्या मेरा अतीत अभी भी ज़िन्दा है ?’’
‘‘अच्छा किया बेटा, आ गईं, हमारी आँखें ठंडी हो गई, रूह को चैन मिल गया,’’ चचा बोले और अपने साथ आए दो लड़कों का परिचय देने लगे,’’ यह मेरे शेरु के दोनों बेटे हैं। तुम्हें किसी ने देखा नहीं था, सब देखने को तरसते थे। बेटा हमारी हैसियत इतनी नहीं न, कि इतना खर्च करके तुम्हारे यहाँ कभी आ पाते, सोचा पोती का ब्याह भी है इसलिए तुम्हें आने पर जोर दिया।’’
‘‘नहीं चचा, ऐसा मत बोलिए, मुझे भी तो आप सब बेहद याद आते थे। मेरे मायके वालों में अब आप ही तो मेरे अपने एक बचे हैं, बाकी तो सब मर खप गये।’’
‘‘चलो बेटा, जल्दी से रिश्ता बुलाओ ?’’ चचा ने अपने बेटों से कहा।

दिन अब पूरी तरह निकल आया था। सूरज छतों पर निकलने लगा था, गुनगुनी धूप पसरने लगी थी। बरसात के भीगे दिनों में धूप देखना कितना अच्छा लगता है। पक्षियों का कोलाहल गूँज रहा था। सितम्बर माह का अन्तिम सप्ताह था। सारे बस-स्टैण्ड को उसने आँख घुमा-घुमा कर देखा। बरसों बाद भी जगदलपुर का सब कुछ ज्यूँ-का-त्यूँ था। कुछ नहीं बदला था। संसार में तो कुछ नहीं बदलता, सब वैसा ही बना रहता है। वह धरती, वह आकाश वही पहाड़ नदी, नाले घर सब तो वही होता है लेकिन ज़िन्दगी का तो सारा जुगराफ़िया ही बदल जाता है। मौसम, हालात, रिश्ते सब कुछ तो बदले जाते हैं। यहाँ तक कि इंसान तक बदल जाते हैं। बच्चे जवान हो जाते हैं और जवान बूढ़े। चेहरों पर ढेरों झुर्रियाँ, बाल सफेद हो जाते हैं। ज़िन्दगी का पूरा का पूरा मौसम ही बदल जाता है। संसार में कुछ नहीं बदलता पर ज़िन्दगी में सब कुछ बदल जाता है। कितना विचित्र गणित है न ?

रिक्शा आ गया था। दो रिक्शों में सब लोग बैठ गये। रिक्शा जाने-पहचाने रास्ते पर दौड़ पड़ा। शहर जाग गया था। दिन की आमद के साथ ज़िन्दगी की हलचल शुरू हो गई थी। लोग घरों से बाहर आ गये थे। खपरैलों की छतों से धुआँ ऊपर उठने लगा था। साइकिलों पर लोग आ, जा रहे थे। आदिवासी औरतें सर पर टोकना रखे गाँव से दोना और जसवंत के फूल देने आती थीं। पूजा के लिए घर-घर फूल पहुंचाती थी। शाम को यही औरतें जूही, चमेली की लड़ियाँ लेकर घर पहुँचाने आती थी। हाथ से नाप-नाप कर बेचती हैं। बँधे हुए घर हैं। पहले वह छोटी थी, तो खरीद कर फूलों की लड़ियों को चोटियों में लगाकर खुश-खुश घूमती थी। केवड़ा के फूल भी यह बेचती थीं। केवड़ा का फूल दादी को बहुत पसन्द था। दादी केवड़ा का एक फूल खरीदकर अपने कमरे में रख लेती थीं। सारा घर महकता रहता था। जहाँ जाओ केवड़े की गन्ध पीछे-पीछे पकड़ने आती थी। सब कुछ वैसा ही था। सारे घर, पक्षी इंसान हवा पेड़ सड़के उसके स्वागत में दौड रहे थे, उससे लिपट रहे थे, चहक रहे थे। पूछ रहे थे-‘‘कहाँ चली गई थी ? क्यों ’’

रिक्शा उसी पुरानी-जानी-परिचित सड़क पर दौड़ रहा था। गिट्टी और मुरम से बनी वह सड़क आज भी ज्यूँ-की त्यूँ थी। इसी सड़क से तो वह दौड़कर भागकर बस स्टैण्ड आती थी। कुलसुम और वह दौड़कर अम्माँ को देखने तथा छोड़ने बस स्टैण्ड दादी की चोरी से आते थे। अम्माँ इसी बस स्टैण्ड से बस में बैठकर उड़ीसा के नगर कोटपाड़ जाती थीं।



2



रिक्शा जब रूका तो रुकैया को लगा जिस मौहल्ले को वह बरसों पहले छोड़ गई थी, उसका पुराना नक्शा अतीत कुछ भी शेष नहीं बचा था। सब बदल गया था। लोग चेहरे, मकान छतें बातावरण सब कुछ तो बदल चुका था। सारा कुछ अपरिचित सा लग रहा था। लग रहा था जैसे वह किसी अपरिचितों के मोहल्ले में आ गई है। मोहल्ले का नाम आज भी ज्यूँ का त्यूँ था-उडियापारा। वर्तमान में रहने वाले उड़ियापारा के लोगों को वह नहीं जानती थी और वह लोग भी उसके पुराने अतीत से परिचित नहीं दिखते थे। दिल जोर-जोर से बेचैन होकर धड़कने लगा। वह अपलक सबको देख रही थी। क्या कोई उसे पहचान पाएगा ?

सारी बातें जैसे किसी ग़ज़ल की भूले-बिसरे मिसरे की लाइनें थीं, जो कुछ तो याद आ रही थीं, और कुछ पकड़ में नहीं आ रहीं थीं। चाहकर भी जोर देने पर भी जैसे कुछ याद नहीं आ रहा था। अधूरे गीत, अधूरे बोल की तरह सब कुछ अधूरा लग रहा था। भूली कड़ियाँ थीं जो अब शायद किसी को याद नहीं थी। उसका यहाँ जन्म हुआ, यहाँ की धूल में दौड़-दौड़कर उसके नन्हें पैर जवान हुए थे, अब किसी को याद नहीं था।

रिक्शे से उतरने पर आसपास के घरों के लोगों ने उसे चौंककर देखा पर विशेष ध्यान नहीं दिया। सभी अपने सबेरे के घरेलू कार्यों में व्यस्त थे। कोई नहा रहा था, कोई बर्तन साफ कर रहा था, बच्चे स्कूल के लिए जा रहे थे। दो चार आवारा कुत्तों के टोल ने नये लोगों के आने पर थोड़ी सर्तकता दिखाई फिर वापस अपने पेट में मुँह गाड़ कर चुप धूप का आनन्द लेने लगे। वह चकित, स्तब्ध सबको तक रही थी। घर के सामने ब्याह का मंडप लगा था। घर में भीड थी। चहल-पहल से सारा घर गूंज रहा था। ढोलक भीतर बज रही थी बोल बाहर तक सुनाई दे रहे थे। रिक्शे से वह लोग उतर गये। सामने की जर्जर खँडहर होती बाड़ा हवेली खड़ी थी। हवेली की दीवार से लगकर ही चचा ने अपना घर बना लिया था। चचा का घर भी पुराना हो गया था, बस सामने का हिस्सा नया पक्का बन गया था। सामने दरवाजे पर परदे लटक रहे थे। रुकैया का सामान एक कमरे में रख दिया गया।
‘‘चलो पहले नहा-धोकर चाय-नाश्ता कर लो बाद में फिर हवेली की खैर-खैरियत लेने और अपनी देने जाना’’, चचा ने हिदायत दी।
रुकैया एकटक अपने ही घर को देख रही थी। चचा की बात से थोड़ी सर्तक हुई और चचा के घर में भीतर चली गई। किसनी नानी भी बहुत बूढ़ी हो गई थीं तख्त पर बैठी तसबीह फेर रही थीं, अब उन्हें आँखों से दिखता नहीं था। कानों से भी बहरी हो

गई थीं। लिथड़-खसीट कर धीरे-धीरे चलती थी।
‘‘लो रुकैया बीबी आ गईं है’’, चचा ने जोर से उनके कान में इत्तिला दी।
‘‘रुकैया बीबी आ गईं....मेरी बच्ची,’’ किसनी नानी ने अपने हाथों से अपनी अंधी आँखों को पोंछा और सर्तक होकर देखने की कोशिश करने लगीं।
‘‘आप बैठी रहिये नानी’’, कहते रुकैया उनसे लिपट गई। किसनी नानी की जर्जर हड्डियों वाली देह को देख रुकैया स्तब्ध हो गई। लगा वास्तव में समय बहुत बीत गया है।
‘‘देखो आस की डोर नहीं टूटती न, मुझे उम्मीद थी, बेटी एक दिन तुम आओगी, जरूर आओगीं। तुम्हें देखना था इसलिए देखो मौत भी नहीं आई न मुझे।’’
‘‘आप बहुत कमजोर हो गई नानी ?’’

‘‘मैं तो अब बेटा बूढ़ी हो गई, अपनी सुना, तू तो बेटी पीठ का फोड़ा हो गई दिखती ही नहीं ?’’
‘‘मैं भी तो बूढ़ी हो गई नानी,’’ रुकैया ने अपने बरसते आँसुओं को रोकते हुए कहा।
‘‘नहीं बेटी, तू कैसे बूढ़ी होगी ?’’ उसके चेहरे को टटोलते अपने बूढ़े हाथ फेरे, ‘‘तू तो जरा सी बच्चा है, भला तु कैसे बूढ़ी हो सकती है ?’’
रुकैय्या दंग रह गई। नानी की आँख में तो अभी भी उसका वही पुराना, बचपन का रूप बसा था। उनके लिए तो जैसे समय थम गया था। समय के कालचक्र को किसी ने जादू के जोर से जैसे जड़-पत्थर कर दिया था।
‘‘तू तो चाँद है चाँद, भला कभी चाँद बूढ़ा होता है।’’
‘‘चाँद भी तो घटता-बढ़ता है नानी,’’ रुकैया ने दुःखी होकर कहा।


 

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