लोगों की राय

बाल एवं युवा साहित्य >> दास्तान-ए-मुल्ला नसरुद्दीन

दास्तान-ए-मुल्ला नसरुद्दीन

धरमपाल बारिया

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5572
आईएसबीएन :81-8133-452-3

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

237 पाठक हैं

हंसी-हंसी में अनसुलझी गुत्थियों को सुलझानेवाले शख्स के मजेदार किस्से

Dastan-e-Mulla-Nasruddin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वह अमीरों के लिए सिरदर्द था। वह हमदर्द था भूखे-नंगे और व्यवस्था से दुखी लोगों का। वह सारे काम अपने तरीके से करता था-बिना किसी स्वार्थ के। वह मसखरा नहीं, एक फक्कड़ और नेकदिल इन्सान था। उसकी नजर में दुनिया भर में अगर कोई सबसे पाक था, तो वह था बुखारा-उसकी मातृभूमि।

दास्तान-ए-मुल्ला नसरुद्दीन


मुल्ला नसरुद्दीन का नाम जुबां पर आते ही हमारे दिल-दिमाग में एक मुस्कराता सा चेहरा उभर आता है। ज्यादातर लोग यही समझते हैं कि वह गुजरे जमाने का कोई मसखरा नहीं बल्कि एक फक्कड़ शख्स था, जो बुखारा की उस समय की अन्यायपूर्ण व्यवस्था का सबसे प्रबल विरोधी था।
वह सिरदर्द था अमीरों का क्योंकि वह अन्याय के खिलाफ लोगों में जागृति पैदा कर रहा था। वह दुश्मन था सूदखोरों का, जो जोंक की भांति गरीब रिआया का खून चूस रहे थे।
वह निःस्वार्थ परोपकारी था। अमीरों, सूदखोरों और भ्रष्ट राजदरबारियों को कंगाल करके वह उस दौलत को गरीबों में बांट दिया करता था।

वह भूखे-नंगे और व्यवस्था से दुखी लोगों का हमदर्द था और परोपकार के यह सारे कार्य वह हंसी-हंसी में अपनी तिकड़म से करता था। उसके व्यंग्य अत्याचारियों को तिलमिलाने पर मजबूर कर दिया करते थे।
उसकी बुद्धि इतनी तेज थी कि वह अपनी चतुराई से अमीरों के हरम में घुसकर उनकी बेगमों की आंख का काजल चुराकर रफूचक्कर हो जाता था, जब भेद खुलता कि वह तो मुल्ला नसरुद्दीन था, तब महल में हड़कम्प मच जाता।
सिपाही दौड़ाए जाते उसकी तालाश में जो कि नाकाम वापस लौट आते। मुल्ला कहां जा छिपता, कोई खोज न पाता, तब अपने सिपहसालारों की नाकामी और लापरवाही से खीझकर अमीर अपने बाल नोचने लगता और तब तक मुल्ला नसरुदीन कहीं-का-कहीं पहुंचकर किसी दरख्त की ठंडी छांव में अपने गधे के साथ आराम फरमा रहा होता।
अमीर के सिपाही सरायों, कहवाघरों और नानबाइयों के यहाँ उसे खोज रहे होते।
उसकी बदकारियों से तंग आकर अमीर ने उस पर हजारों तंकों का इनाम घोषित कर रखा था, मगर अवाम का प्यार और खुदा का वह नेक बन्दा निःस्वार्थ अपने कार्य में लगा था। उसके मामले में आवाम की भी राजशाही को कोई मदद हासिल न होती थी, क्योंकि मुल्ला नसरुद्दीन चाहे कुछ भी था, वह सारी प्रजा का हीरो था, नायक था।
उसकी कोई खास जगह मुकर्रर नहीं थी कि उसने कहां भलाई का बीज बोना है। वह हर उस जगह मौजूद रहता था जहां अन्याय होता था।
पिछले दस वर्षों से वह अपने हमसफर अपने गधे के साथ एक शहर से दूसरे शहर की खाक छानता फिर रहा था।
बगदाद, इस्ताम्बूल, बख्शी सराय, तेहरान, दमिश्क, तिफलिस, अखमेज और तबरेज कहां-कहां नहीं गया था वह ?
इसके अलावा भी बहुत से शहरों में उसके कदम पड़े थे।

वह जहां-जहां भी गया अपनी कभी न भुलाई जा सकने वाली यादें छोड़ आया।
और आज !
आज वह अपने शहर, अपने मादरेवतन, प्यारे शहर बुखारा लौटा रहा था। उसकी दृष्टि में संसार में सबसे पाक बुखारा, जहां वह कुछ दिनों तक आराम करना चाहता था।
वह चलते-चलते थक चुका था मगर मातृभूमि की सोंधी मिट्टी की सुगंध याद करके वह वहां पहुंचने को उतावला था।
यदि वह अकेला होता तो कहीं-न-कहीं धर लिया गया होता, इसलिए उसने व्यापारियों के एक काफिले का सहारा लिया था।
उसी काफिले के साथ उसने बुखारा की सरहद में दाखिला लिया और करीब आठ रोज चलने के बाद उसे अपने प्यारे शहर की ऊंची मीनारें दिखाई दीं।
उन्हें देखकर मुल्ला नसरुद्दीन के दिल में गुदगुदी-सी हुई।
उसे वैसी ही खुशी महसूस हुई जैसी खुशी किसी बच्चे को तब होती है जब उसकी मां उसे गोद में उठाने के लिए अपनी बाहें फैलाकर उसकी ओर बढ़ती है।
गरमी व प्यास से काफिला परेशान था। सभी देख रहे थे कि सूरज डूबने से पहले ही शहर में दाखिल हो जाएं।
ऊंट वालों ने प्यास से फटे जा रहे गलों से हांक लगाई, ऊंटों की रफ्तार में तेजी आ गई। वह फुर्ती से दौड़ाने लगे।
चारों ओर गर्द के गुब्बार उड़ने लगे।
अपने गधे पर नसरुद्दीन कारवां में सबसे पीछे रह गया।

वह गर्द से ढक गया था, हाल से बेहाल हो गया था, लेकिन अपने वतन की यह गर्द उसे बहुत प्यारी थी।
दुनिया के सभी देशों की मिट्टी की सुगंध से उसे अपने वतन की मिट्टी की सुगंध प्यारी थी।
वह छींकता, खांसता बराबर अपने गधे की हौसला अफजाई कर रहा था-‘बस बेटे ! बस, थोड़ा सब्र कर। आखिर हम अपने वतन आ ही पहुंचे। अल्लाह ने चाहा तो हमें कामयाबी और खुशियां हासिल होंगी।’
काफिला शहर की चारदीवारी तक पहुंचा तो पहरेदार फाटक बंद करने की तैयारी कर रहे थे।
काफिले के सरदार यह सब देखकर मोहरों की थैली हाथ में ऊपर उठाकर चिल्लाया-‘‘खुदा के वास्ते हमारा इन्तजार करो-रुको।’’
हवा के सांय-सांय में काफिले के सरदार की आवाज कहीं की कहीं जा पहुंची।
गर्द के कारण शायद पहरेदार वह थैली भी न देख पाए और फाटक बंद हो गया। अंदर से मोटी मोटी सांकलें लगा दी गईं।
पहरेदार बुर्जियों पर चढ़कर तोपों पर तैनात हो गए। हवा में और अधिक तेजी आ गई।
शाम का सुरमई रंग स्याह होने लगा तो आसमान पर दूज का चांद दिखाई देने लगा। सरदार के हुक्म से काफिले ने सुबह तक के लिए वहीं पड़ाव डाल लिया। तभी शहर की मीनारों से शाम की इबादत के लिए मुल्लाओं की आवाजें गूंजने लगीं।
काफिले के व्यापारी भी नमाज पढ़ने के लिए एक ओर एकट्ठा होने लगे, मगर मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक ओर को खिसक लिया।

चलते-चलते वह अपने गधे से कह रहा था-‘‘ऐ मेरे वफादार गधे ! इन व्यापारियों के पास तो कुछ है जिसके लिए वे खुदा का शुक्रिया अदा करें। दोपहर का खाना ये लोग खा चुके हैं और कुछ देर नमाज अदा करके रात का खाना खाएंगे, मगर मैं और तू तो अभी भूखे हैं। हमें न दोपहर का खाना मिला है और न रात का मिलेगा। यदि अल्लाह चाहता है कि हम भी उसका शुक्रिया अदा करें तो मेरे लिए पुलाव की तश्तरी और तेरे लिए एक गट्ठर हरी-हरी घास भिजवा दे।’
उसने अपने गधे को पगडंडी के किनारे एक पेड़ से बांध दिया। फिर पास से ही एक पत्थर उठाकर उसका सिरहाना बनाया और नंगी जमीन पर लेट गया।
सौदागर नमाज की रस्म अदा करने में व्यस्त थे।
नसरुद्दीन पीठ के बल लेटकर नीले आकाश को ताकने लगा जहां सितारों का जाल-सा बुना हुआ था। आकाश में चमकते सितारों से जैसे उसकी खासी पहचान हो गई थी।
पिछले दस सालों से वह उन्हें यूं ही निहारता आ रहा था।
हर रात वह एक-एक तारे का मुआयना करता था, कभी मिस्त्र से, कभी इस्ताम्बूल से और कभी दमिश्क से। सब जगह से आसमान एक सा ही दिखाई दिया था उसे। वही साफ शफ्फाक आसमान, वही सितारे। वह सब जगह से, सबके लिए एक थे। आसमान में सरहद का कहीं कोई बंधन नहीं था।

उसे लगता था कि हर रात के शान्त व पवित्र दुआ के घंटे उसे दुनिया के सबसे बड़े धनवान से भी धनवान बना देते थे। और वह धनवान महसूस भी क्यों न करे ? जो उसे हासिल था, वह दुनिया के बड़े-बड़े रईसों को भी हासिल नहीं था। अपना-अपना नसीब होता है। वह सोचता, पैसे वाले भले ही चांदी के बरतनों में कीमती और लजीज पकवान उड़ाएं, मगर उनको हर हाल में अपनी रात अपने घर के भीतर अपनी छत के नीचे ही गुजारनी थी। इस प्रकार नीले आसमान के नीचे नंगी जमीन पर लेट कल्पना की उड़ानें भरना उनके नसीब में कहां था ?
नमाज खत्म हो गई थी।
चारदीवारी के बाहर दुकानों व सराय वालों में हलचल शुरू हो चुकी थी।
बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी।
जिबह के लिए तैयार भेड़ें बुरी तरह मिमिया रही थीं।
कड़ाहों में मसाला भूने जाने की गंध हवा में तैरने लगी थी।
मुल्ला नसरुद्दीन ने हवा का रुख पहचाना, फिर उठकर उस स्थान पर जा लेटा, जिस ओर हवा का विपरीत रुख था ताकि खाने की ललचाने वाली गंध उसे परेशान न करे।
कहीं आंख न लग जाए, यही सोचकर उसने अपनी अंटी टटोली, उसमें वह हकीक-सी रकम मौजूद थी जो उसने बुखारा में अपने वतन के दाखिले के लिए बतौर टैक्स बचाकर रखी थी
वह जानता था कि इस रकम के बिना उसे दाखिला नहीं मिलेगा।

भले ही वह दस वर्षों से अपने वतन से दूर था, मगर रीति-रिवाज और कायदे कानून नहीं भूला था, फिर उड़कर इधर-उधर पहुंची खबरों के जेरेसाया भी वह काफी चाक-चौबंद था।
कुछ-कुछ देर बाद वह करवट बदल लेता था। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी और इसका कारण भूख नहीं बल्कि वह कड़वी कसैली यादें और विचार थे जो उसके जेहन में चकरा रहे थे। उसे अपने प्यारे वतन से प्यार था।
धूप से तपे, तांबे के रंग जैसे चेहरे पर छोटी-सी काली दाढ़ी और साफ-शफ्फाक आंखों में चालाकी भरी चमक लिए, खुशमिजाज, नसरुद्दीन को अपने वतन से प्यारा कुछ नहीं था।
पैबंद लगा कोट और तेल की चिकनाई से सनी पगड़ी व टूटे जूते पहने वह अपने वतन से जितनी दूर होता, उसके मन में अपने वतन के लिए उतना ही अधिक प्यार उमड़ता था। वह दुनिया के किसी कोने में होता, बुखारा की तंग गलियां उसे पुकारती-सी लगतीं।
उसे उन ऊंची मीनारों की याद आती, नक्काशीदार गुम्बदों पर सूरज अपनी छटा उगने से डूबने तक बिखेरे रखता था। चाय की दुकानों की गहमागहमी, ढाबों का गरम धुआं और खुशबू, बाजारों का शोरगुल सभी कुछ उसे जैसे पुकार रहा था कि नसरुद्दीन ! वापस आ जाओ। वह चाहे दमिश्क में रहा या बगदाद में, वहां से अपने वतन की बदहाली की खबरें उसे मिलती रहती थीं।

अपने हमवतनों को वह पगड़ी की बनावट से ही पहचान लेता था। फिर खोद-खोदकर उनसे अपने वतन के हालात मालूम करता। वहीं उसे पता चल चुका था कि बुखारा का पुराना अमीर गारत हो चुका है और पिछले आठ वर्षों से वहां नए अमीर का राज है। यह तो पहले अमीर से भी ज्यादा काइयां और संग दिल था। पिछले आठ सालों में उसने बुखारा को बरबाद करके रख दिया था।
सारी व्यवस्था तहस-नहस और चौपट हो चुकी थी।
गरीब आदमी का जीना मुहाल था और अमीर तथा सूदखोर लूट-खसोट में मसरूफ थे।
लोगों के भूखों मरने की नौबत आ गई थी।
खेत-खलिहान सूखकर जल चुके थे। धरती में दरारें पड़ गई थीं।
फकीर लोग सड़कों के किनारे खड़े होकर उन लोगों के आगे हाथ पसारते थे, जो खुद दाने-दाने को मोहताज थे। नए अमीर की तरफ से हर गांव कस्बे में सिपाहियों की टुकड़ियां भेजी गई थीं और उनके खाने पीने का इन्तजाम उन गांव वालों के सिर था जो खुद भूखे मर रहे थे।

इस पर भी उलटे-सीधे टैक्स लगाकर उन्हें लूटा-खसोटा जा रहा था।
सूदखोरों की पौ बारह थी। सूद की कमाई खा-खाकर वे गैंडे हुए जा रहे थे और आम आदमी का पेट पीठ से जा लगा था।
उनसे कभी मस्जिदों के नाम पर धन खसोटा जाता, कभी किसी दूसरी वजह से।
मस्जिदों का तो क्या बनाना था, सारा पैसा अमीर के औजड़े में जा रहा था।
यूं नया अमीर बड़ा ही धार्मिक था। वह वर्ष में दो बार पवित्र शेख बहाउद्दीन की दरगाह पर सिजदा करने जाता, जो बुखारा के निकट ही थी।
चार किस्म के कर तो पहले से ही लागू थे, उसने तीन नए कर जनता पर और लगा दिए थे।
पुलों पर चुंगी लगा दी थी।
व्यापार का टैक्स भी बढ़ा दिया था।
मस्जिदों की ताबीर के नाम पर अलग धन वसूला जा रहा था।
इस प्रकार अमीर ने काफी रकम जमा कर ली थी। दस्तकारियां समाप्त हो रही थीं। व्यापार लगातार घटता जा रहा था। मुल्ला ने सोचा, जब मैं बुखारा से गया था, तब यह बदतर था, आज तो हालत उससे भी अधिक बदतर है। उसने एक लम्बी सांस छोड़कर एक नजर अपने गधे पर डाली फिर करवट बदल ली।
सुबह की अजान के साथ ही पूरा कारवां उठ गया।

ऊंट वालों ने सामान ऊंटों पर लादना शुरू किया। सौदागर अपनी पगड़ियां दुरुस्त करने लगे।
नसरुद्दीन भी उठा, सबसे पहले अपनी अंटी में खुंसी थैली टटोली, वह सलामत थी, फिर अपने गधे के करीब आकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा-‘ऐ मेरे वफादार गधे ! चल, अपने मुल्क में दाखिल होने का मुबारक वक्त आ गया।’
ऊंटों के गले की घंटियां बज उठीं और कारवां फाटक की ओर बढ़ गया।
फाटक में दाखिल होकर सब एक ओर रुक गए। पूरी सड़क पहरेदारों ने घेरी हुई थी। सिपाहियों की तादाद काफी थी। कुछ तो कायदे से वर्दियां पहने थे, मगर कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके पास वर्दी पहनने का सलीका तक न था। अमीर की नौकरी में वे अभी नए थे और उन्हें रिश्वतखोरी का पूरा मौका नहीं मिला था। वे चीख चिल्ला रहे थे और उस लूट के लिए लड़ाई-झगड़ा और धक्का-मुक्की कर रहे थे जो उन्हें व्यापारियों से हासिल होने वाली थी।
फाटक के करीब ही एक चाय की दुकान थी।

वर्दी पहने अफसर-सा दिखाई देने वाला एक तुंदियल व्यक्ति बाहर आया। उसके पैरों में जूतियां थीं। उसके मोटे और थुलथुले चेहरे पर अय्याशी, बदकारी और जलालत के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।
उसने एक ललचाई नजर से व्यापारियों की ओर देखा, फिर बोला-‘‘ऐ सौदागरों ! बुखारा में तुम्हारा स्वागत है। खुदा करे तुम्हें अपने काम में..अपने इरादों में कामयाबी हासिल हो। ऐ व्यापारियों तुम्हें यह इल्म होना चाहिए कि अमीर का हुक्म है कि जो सौदागर अपने माल का मामूली-सा हिस्सा भी छिपाने की कोशिश करेगा, उसे बेंतें मार-मारकर जान से मार डाला जाएगा। क्योंकि यही हमारे रहम दिल सुल्तान-ए-बुखारा का हुक्म है।’’
यह सुनकर व्यापारी कुछ विचलित हुए और परेशानी की हालत में अपनी रंगी हुई दाढ़ियां सहलाने लगे। कर अधिकारी इतना स्थूलकाय था कि बड़ी मशक्कत के बाद वह पहरेदारों की ओर पलटा और बोला-‘‘ऐ बुखारा के वफादारों ! अपना काम शुरू करो।’’

आदेश पाते ही सिपाही इस प्रकार चीखते-चिल्लाते ऊंटों पर झपट पड़े, जैसे किसी लूट में शरीक हो रहे हों और अधिक-से-अधिक माल एक दूसरे से पहले लूट लेना चाहते हों।
सन के मोटे रस्से उन्होंने अपनी तलवारों से काट डाले और देखते ही देखते सामान की गांठें खोल दीं। सड़क पर कीमती सामान बिखरा दिखाई देने लगा, इसमें कीमती कपड़ों के थान, चाय, काली मिर्च, कपूर, गुलाब के इत्र की शीशियां, तिब्बती औषधियों के डिब्बे थे।
व्यापारी बेबस से खड़े सिपाहियों की लूट-खसोट देख रहे थे। जिसके मन में जो आ रहा था, वह एक दूसरे की नजर बचाकर अपनी जेब के हवाले कर रहा था।
 
केवल दो घड़ी। यह सिलसिला केवल दो घड़ी चला, फिर सभी सिपाही कर अधिकारी के पीछे जाकर खड़े हो गए। लूट के माल से भरी उनकी जेबें फटी जा रही थीं। फिर शुरू हुई शहर में आने और सामान लाने की वसूली।


गधे के रिश्तेदार



बुखारा में दाखिल होते समय व्यापार के लिए मुल्ला नसरुद्दीन के पास कोई सामान न था। उसे तो सिर्फ शहर में दाखिल होने का टैक्स अदा करना था।
अधिकारी ने पूछा-‘‘तुम कहां से आए हो और यहां आने का सबब क्या है ?’’
मुहर्रिर ने सींग में भरी स्याही में नेजे की कलम डुबोई और मुल्ला नसरुद्दीन का बयान दर्ज करने के लिए तैयार हो गया।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बताया-‘‘हुजूरे आला। मैं ईरान से आया हूँ। बुखारा में मेरे कुछ सम्बन्धी रहते हैं, उन्हीं से मिलने आया हूं।’’
यह सुनकर अधिकारी ने कहा-‘‘अच्छा, तो तुम अपने सम्बंधियों से मिलने आए हो, तुम्हें मिलने वालों का कर अदा करना पड़ेगा।’’

‘‘लेकिन हुजूर ! मैं उनसे मिलूंगा नहीं।’’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा-‘‘मैं तो एक जरूरी काम से यहां आया हूँ।’’
‘‘काम से आए हो ?’’ अधिकारी चीखा, उसकी आंखों में चमक उभर आई-‘‘ इसका मतलब, तुम अपने रिश्तेदारों से भी मिलोगे और काम भी निपटाओगे। तुम्हें कर अदा करने पड़ेंगे, मिलने वालों का भी और काम का भी। इसके अलावा अल्लाह के सम्मान में मस्जिदों की अराइश के लिए अतिया अदा करो, जिस अल्लाह ने रास्ते में डकैतों से तुम्हारी हिफाजत की।’’

मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा-‘‘मैं चाहता था कि वह अल्लाह इस समय मेरी हिफाजत करता, डकैतों से बचाव तो मैं खुद कर लेता।’ लेकिन वह खामोश ही रहा क्योंकि उसे मालूम था कि इस बातचीत के प्रत्येक शब्द का मूल उसे दस तंके देकर चुकाना पड़ेगा। उसने चुपचाप अपनी अंटी में से थैली निकालकर शहर में दाखिले का, रिश्तेदारों का, व्यापार का तथा मस्जिदों के निर्माण का कर अदा किया। सिपाही इस फिराक में आगे को झुक-झुककर देख रहे थे कि देखें, इसके पास कितनी रकम और है, मगर जब कर अधिकारी ने उन्हें सख्त निगाह से घूरा तो वे पीछे हट गए। मुहर्रिर की नेजे की कलम तेजी से रजिस्टर पर चल रही थी।

कर अदा करने के बाद भी नसरुद्दीन की थैली में कुछ तंके बच गए थे। कर अधिकारी की आंखों में वह तंके खटक रहे थे और वह तेजी से सोच रहा था कि वह तंके भी इससे कैसे हथियाए जाएं।
कर अदा करने के बाद मुल्ला नसरुद्दीन चलने को हुआ तो अधिकारी चिल्लाया-‘‘ठहरो !’’
मुल्ला नसरुद्दीन पलटकर कर उसका चेहरा देखने लगा।
‘‘इस गधे का कर कौन अदा करेगा ? जब तुम अपने रिश्तेदारों से मिलने आये हो तो जाहिर है कि तुम्हारा गधा भी अपने रिश्तेदारों से मिलेगा, इसका कर अदा करो।’’

मुल्ला नसरुद्दीन ने फिर अपनी थैली का मुंह खोला और बड़ी ही नम्रता से बोला-‘‘मेरे आका ! आपने बिल्कुल दुरुस्त फरमाया है। हकीकत में ही बुखारा में मेरे गधे के सम्बंधियों की तादाद बहुत ज्यादा है, वरना जैसे यहां काम चल रहा है, उसे देखते हुए तो तुम्हारे अमीर बहुत पहले ही तख्त से उतार दिए गए होते और मेरे हुजूर ! आप अपने लालच की वजह से न जाने कब के सूली पर चढ़ा दिए गए होते।’’

    

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book