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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (मनोहर श्याम जोशी)

मनोहर श्याम जोशी

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5577
आईएसबीएन :978-81-89859-31

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प्रस्तुत हैं मनोहर श्याम जोशी की दस प्रतिनिधि कहानियाँ

das pratinidhi kahaniyan (manohar shyam joshi)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक लोकप्रिय कथा-योजना है, जिसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
आधुनिक हिंदी कथा-साहित्य के सर्वाधिक चर्चित लेखक मनोहर श्याम जोशी की प्रतिनिधि कहानियों का यह संकलन उनके जीवनकाल में न आ सका, इस बात का हमें गहरा अफसोस है। अपनी प्रतिनिध कहानियों की भूमिका में वह स्वयं क्या स्थापति-विस्थापित करते, यह अनुमान तक कर पाना असंभव है। मगर उन्होंने अपने कथा-साहित्य में सचमुच क्या कर दिखाया है-इसकी रंग-बिरंगी झलक दिखाई देगी पुस्तक में लिखी मर्मज्ञ आलोचक आचार्य डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल की भूमिका से।

किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए यशस्वी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। प्रस्तुत संकलन में मश्जो की जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया गया है, वे हैं : ‘सिल्वर वेडिंग’, ‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’, ‘शक्करपारे’, ‘ज़िंदगी के चौराहे पर’, ‘उसका बिस्तर, ‘मैडिरा मैरून’ ‘धरती, बीज और फल’, ‘गुड़िया’, ‘धुआँ’ तथा ‘कैसे हो माट्साब आप ?’
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक मनोहर श्याम जोशी की प्रतिनिधि कहानियों को एक साथ पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।


अभ्यासजड़ फॉर्मूलों को ध्वस्त करती कहानियाँ

कृष्णदत्त पालीवाल

मनोहर श्याम जोशी उर्फ़ मश्जो की कहानियाँ प्रचलित बासी कहानी कला के अभ्यासजड़ फ़ॉर्मूलों को ध्वस्त करती हैं और प्रगति-प्रयोग की व्यंग्य-कथा के लिए नई राहों की तलाश। कथानक और कथ्य दोनों को कपट और कमीनापन से मुक्त करते हुए समय-समाज और इतिहास की धड़कनों से जोड़नेवाले आख्यान, प्रकरण, वर्णन, वार्ता संवाद, श्रुति सब कुछ को एक मार्मिक गल्प में बदलने वाली कहानियाँ। हिंदी में नई कहानी के आंदोलन में ‘निर्मल वर्मा, कमलेश्वर शिवप्रसाद सिंह, मोहन राकेश के साथ मनोहर श्याम जोशी को भी भुलाया नहीं जा सकेगा। भुलाया इसलिए नहीं जा सकेगा कि उनकी कहानियों का रूप-रंग, लहजा, वक्रोक्तिपन अपने समवयसी कहानीकारों से एकदम अलग, अपूर्व धारदार और सच की असह्य दीप्ति से आलोकित है। आधुनिकता की मार से निरंतर बदलता मनुष्य इन कहानियों का पाठ बना है और इस पाठ का भाष्य-पुनर्भाष्य अर्थ व्यंजकता की स्मृति वेदना में भिदे जीवन-जगत् का यथार्थ गतिमय मानव संबंधों का यथार्थ। जैनेन्द्र कुमार और अज्ञेय के चिंतन-यथार्थ को आगे बढ़ानेवाला और उनसे ज़्यादा अपने स्रोतों से बोलता बतियाता समय का मूलगामी सच। समाज, समकालीनता, नैतिकता, दार्शनिकता और यौनता के जो प्रश्न जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय और अमृतलाल नागर की नींद हराम किए रहे हैं, वे प्रश्न मनोहर श्याम जोशी को परेशान नहीं करते।

मनोहर श्याम जोशी के सामने समस्याओं की सुलगती टहनियाँ कितनी ही लपटें छोड़ रही हों, उनके चिंतन के औज़ार ऐसे हैं कि वे उनके सोचने का ढंग, विचारों की प्रक्रिया और अर्थ-संदर्भ को बदल देते हैं। सोच की गहन-सूक्ष्म व्यंग्य वक्रोक्ति विडंबना में समाया होकर समय समाज की पीड़ाओं, यातनाओं, प्रश्नाकुलताओं पर समाज-तथ्यों को बटोरकर चौकन्ना सजग और प्रबुद्ध हो जाता है। मनोहर श्याम जोशी की कहानियों का सृजन-संघर्ष केवल कथ्य और संवेदना, ज्ञान और कर्म से जुड़े विचारों से ही नहीं, भाषा-शब्द, अर्थ-बिंब, चरित्र, संवाद-सभी को तकनीक में बाँधकर जुड़ा रहता है। कहानी की यथार्थ व्यंग्य कला, गल्प तकनीक के प्रति मश्जो जितने सचेत रहे हैं, शायद उनकी पीढ़ी के अन्य कथाकार नहीं। यह बात इसलिए भी यहाँ उल्लेखनीय है कि उन जैसे उपन्यास कहानी निबंध रिपोर्ताज़, संस्मरण जैसे लीक तोड़कर किए गए प्रयोग और प्रयोगों के भीतर प्रयोग इस दौर में मिलते कहाँ हैं ? मश्जो ने अपनी मीडिया-तकनीकों की जानकारी से हिंदी के कथा-साहित्य का पूरा इतिहास, भूगोल गणित तर्क सब कुछ बदलकर रख दिया है। अज्ञेय के प्रति प्रश्नों का आकर्षण प्रयोग के क्षेत्र में नए से नए प्रयोग-रंग लाया और रघुवीर सहाय की कविता के कथ्य की नोकदार भंगिमाएँ, वक्रताएँ और विचार में मग्न ख़बरदार करती यातनाएँ। अपनी मानसिक संरचना में मश्जो उन तर्क-कर्कश, कटु तिक्त आधुनिक बुद्धिजीवियों के सच्चे उत्तराधिकारी दिखाई देते हैं, जो सजावटी चिंतन की खुली मज़ाक बनाता है।

न वह रेडिकल है, न छद्म और पाप में डूबा मार्क्सवादी, न पुण्यात्मा बननेवाला हिंदू ढोंगी, न नेहरूवाद का दलाल; केवल लोकतंत्र की मान्यताओं को मानने वाला व्यंग्य-कथाकार। भीतर की वैयक्तिक स्वतंत्रता को सर्वाधिक सम्मान देनेवाला निर्भय चिंतक, स्वाधीन मनुष्य। पश्चिमी भावबोध की जूठन को हिकारत की दृष्टि से हटानेवाला रचनाकार। पंचतंत्र हितोपदेश, कथा-सरित्सागर, बेताल पचीसी की भारतीय पंरपरा का अपनी शर्तों पर उद्धार करता क़िस्सागो। यही है न ‘कैसे क़िस्सागो’ की रचना प्रक्रिया का रहस्य-रूपक, नास्टेज्लिया, फंतासी जाल। इसी फंतासी जाल के भीतर से ‘सिल्वर बेडिंग’, ‘एक दुर्लभ व्यक्तिव’, ‘शक्करपारे’, ज़िंदगी के चौराहे पर’, ‘उसका बिस्तर’ जैसी कहानियाँ फूट-फटकर निष्पत्ति पा सकी हैं। मश्जो ने एक अद्भुत जीवन-साक्षात्कार ‘धरती, बीज और फल, जैसी कहानियाँ लिखकर किया। ‘गुड़िया’ की पीड़ा में समाया अभावों का बचपन, पूरा मोहभंग है तो ‘धुआँ, का काला जीवन। शायद इन्हीं सिसकियों से घबराकर दालान में खूँटे से बँधी बकरी-सी मिमियाती ज़िंदगी का दर्द है।

नज़रबंद झोंपड़ी की कराह-कथा का मौन चीत्कार और पिछवाड़े बहती शहर की गंदगी के भार से दबी हुई नाली की हल्की-सी कल-कलकी आवाज़ में दुखियारी स्त्रियों की सिसकियों का दहाड़ता आतंक। आतंक और गंदगी में बकरीनुमा नारी कष्ट, मुर्गियों की चोंच के कड़े प्रहार। इन प्रहारों के नीचे दबा क्षत-विक्षत दलितों, स्त्रियों, अनगिनत हीराओं (भंगियों) का परिवार और संध्या की नीरवता में धुएं का थमा-थका स्तब्ध रूपाकार। कुछ देर में न जाने कितना समाया समय और नवजात शिशु की मृत्यु का हाहाकार। समाज की हाय-हाय हें-हें, हो-हो हरक़तों का जोकर नशा। बदरंग-शैतान काली बिल्ली के पंजों से अपनी आँखें निकलवाने की सज़ा। झोंपड़ियों के अंदर से टाट की ओट से निकली औरत की ओफीलियायी चीख। और अंत में 1904 में ‘नया ज्ञानोदय’ में छपी लंबी कहानी ‘कैसे हो माट्साब आप ?’ का पसरा जानवरी जगत्। नक्लवादी हिंसावाद को गोदी में खिलाता माट्साब का गांधीवाद। आज की गांधीगीरी का नया ‘डिस्कोर्स’। डिस्कोर्स का अवसरवादी मिर्च-मसाला। चुनाव की चुड़ैलों का नंगा नाच। सभास्थल पर एक राउंड मारती नैली मैडम का कल्चरल ड्रामा। प्यार और फटकार से भरा भालू उर्फ़ भोलू का, भोलू डार्लिंग का सरपटी माट्साब से प्यार-घृणा, बहस-बहक-ठसक। इधर के उत्तर आधुनिकतावादी मनुष्य का कपटी-लंपटी छिछोरापन।

मनोहर श्याम जोशी के संपूर्ण कथा-जगत् में एक यक्ष प्रश्न बबूल के काँटे की तरह बिंधा हुआ है, जिसका घायलपन भीतर तक दबाए वे ज़िंदगी-भर शहरों की सड़कों पर अटकते-भटकते रहे। यह भटकन छोटी न थी, अनंत तक फैली क्रूर व्यथा कथा की तरह कसैली। भारत की शहरी-क़स्बाई दरिद्रताओं, यातनाओं, दिमाग़ चीरती चिंताओं, पश्चिमी आधुनिकताओं से उपजी विद्रूपताओं के बीच से उभरी आत्मनिर्वासन की छलनाएँ थीं-जिसमें न शहर का आभिजात्य था न कुकर्मों की कंस-कथा को सुनने का धीरज। दम तोड़ती भारतीय परंपराओं की बेचैनी में फँसी ज़िंदगी ‘सिल्वर वेडिंग’ तो बनती है, पर उसकी कीमत अदा करने में आदमी स्वयं चुक जाता है। सेक्शन ऑफ़िसर वाई.डी. उर्फ़ यशोधर पंत की ज़िंदगी का क्रूर अध्याय। हर घटना, हर चीज़ हर बदलाव उनके के लिए ‘समहाउ इम्प्रॉपर’ क्यों बन जाता है ? ‘हम पुरानी चाल के, हमारी घड़ी पुरानी चाल की।’ यह क्या कम है कि राइट टाइम चल रही है घड़ी। इस पुराने यथास्थितिवादी यशोधर पंत में कृष्णानन्द साहब के संस्कार बस गये हैं। कुँआरे कृष्णानन्द के आश्रम में पले बढ़े यशोधर पंत के लिए ‘स्मृति-भंडार’। इस ‘स्मृति-भंडार’ में खलल डालती पत्नी और बच्चे पश्चिमी रंगत में बदल रहे हैं। धोती कुर्ता को हर जगह कोट-पैंट, टाई, शराब पार्टी, बर्थ डे पार्टी पछाड़ रही है। कचूमर निकाल दिया है।

परंपरावादी समाज का नई पश्चिमी आधुनिकता में फिसलती किलकती नई पीढ़ी ने। बॉसों को पटाकर ऊँची नौकरी पाने की जादुई कला का कमाल नई तमीज़ का पर्याय। हिंदी के वाक्यों पर अंग्रेज़ी का चमकीला बर्क। लकदक सभ्यता-संस्कृति का नशा और फ़ैशन पुरानी पीढ़ी लाचार होकर नयी पीढ़ी के साथ बदल रही है। बच्चों की माताएँ बच्चों की तरफ़दारी में ‘माड’ बन रही हैं-जबकि मूल संस्कारों से किसी भी तरह ‘आधुनिका’ नहीं। यशोधर पंत का पत्नी बच्चों से हर छोटी से छोटी बात पर मतभेद, फिर झक मारकर समझौता। धर्म कर्म, कुल परंपरा सभी को ढोंग कहकर हिकारत की निगाह से देखनेवाली युवा पीढ़ी का यथार्थ है-देहवाद भोगवाद और सुविधाओं के पीछे भागता अवसरवाद। कृष्णनानन्द या किशन दा की विरासत पर बैठे यशोधर पंत के जड़ परंपरावादी संस्कारों की ऐसी तैसी उनके बच्चे कर देते हैं। पुरानी पीढ़ी के हाथों से निकलती नई पीढ़ी का अनियंत्रित महत्त्वाकांक्षी संसार, जिसमें पश्चिमी अनुकरण ही आधुनिकता का पर्याय है। अनेक हिंदी लेखकों ने तड़पती-मचलती शहरी आधुनिकता की बेचैनी और निरर्थकता पर लिखा है, किंतु मश्जो इस पीढ़ी के अकेले ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने भारतीय आम आदमी की संकटग्रस्त अस्मिता, घायल सभ्यता, फ़ैशनी संस्कृति, बँदरिया छाप परंपरा की रूढियों, आत्म कुंठाओं, संस्कारबद्ध भ्रांतियों और पागलपन-भरे दुःस्वप्नों को लेकर कहानियाँ, उपन्यास, निबंध, धारावाहिक आदि लिखे हैं।

इसलिए मश्जो की इन कहानियों में सिर्फ मानव की भीतरी कुंठा-घुटन, भ्रांति-भूख, सेक्स-चीत्कार का अनुभव भरा यथार्थ मात्र नहीं है, बल्कि भारतीय समाज की अंतरंग आत्मा का सच है। यही एक कारण है कि हम मश्जो की कहानियों उपन्यासों निबंधों संस्मरणों के बीच कोई विभाजन की रेखा नहीं खींच सकते। क्यों नहीं खींच सकते ? मश्जो का गद्य परंपरागत गद्य की सर्जनात्मकता को धोबी पछाड़ देकर आगे बढ़ता है और इस ताक़त के साथ तगड़ा पड़ता जाता है कि परंपरागत विधाओं को भेदता-छेदता रौंदता-कूदता हुआ एक नुकीला, यातनामय सोच बन जाता है। यह सोच ही विधाओं की सभी भित्तियों को ढहा देता है।

यह नहीं है कि मश्जो अनुभव और अनुभूति का खमीर उठाकर कहानी में ठहर जाते हैं या कोरे अनुभव-यथार्थ की गरिष्ठ रबड़ी खिलाकर पाठक का पेट ख़राब कर देते हैं, बल्कि वे कथानुभूति को संवेदना की गप्प बनाते हैं। गप्प या गल्प का मज़ा आत्मपरक मैं शैली के निराले अंदाज में बाहरी अनुभव को भीतरी अनुभव में फेंटकर इकसार कर देता है। मश्जो के रचनाकार को पता है कि सर्जन को चाक पर चढ़ाने से पहले यथार्थ की मिट्टी को कितना फेंटकर कूट-पीटकर चिकना करना है। इसलिए मश्जो के यथार्थ का भाव बोध मूर्त भावों का बोलता सच है। वह फफुँदियाता, पपड़ियाता, रिरियाता, खींसे काढ़ता अवसरवादी सच नहीं है। ‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’ कहानी का सच जीवन के आउट का नहीं जीवन के ‘इन’ का सच है-धूप की तरह उजला करारा खरा सच। रोशनलाल शर्मा, डिप्टी डायरेक्टर इंडस्ट्रीज़ का सच। वह सच जो ‘मॉर्निंग वॉक’ से जुड़ा है और रायबहादुर द्वारकाप्रसाद शर्मा बार-एट-लॉ के पुत्र, इकलौते, बेटे रोशन से आजीवन नाख़ुश रहनेवाला सच। सिर चढ़ाए चिंरजीव के औरताना बल्कि बचकाना अहम् से पटरी न बैठे पाने की मुश्किल का संकट-सौंदर्य-भरा विश्व है।

मनोहर श्याम जोशी ने पोर्नोग्राफ़ी और साइकोएलासिस का अध्ययन बहुत गहराई से किया था। इस ज्ञान का प्रयोग वे नेता, अफसर, उद्योगपति आदि बड़े कहे जाने वाले व्यक्तियों में पूरी पैठ से करते हैं। काम-कुंठाओं का कामशास्त्र, कोकशास्त्र रचनाओं में रंग लाता है। ‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’ कहानी का मांसल-सेन्सुअस संसार बीमारी को अँगूठा दिखाकर रोशनलाल शर्मा की अकड़-धकड़ के भीतर से फूटकर कभी तो सचिव की पत्नी श्रीमती मनोरमा खन्ना उर्फ मुट्टो में रमता है, कभी कविता के कल्पनामय संसार में। लेकिन कामिनी कम्मो में ग़र्क़ हो जाता है। कई संश्लिष्ट विधाओं की तकनीक से कहानी में कामिनी का रेखाचित्र चलचित्री भाषा में उभरता मिलता है। चाणक्य की औलाद की कठोरता गलकर कामिनी का फूल बन जाती है। जैसे धुआँ छोड़ते हुए उन्होंने मन ही मन वह भूला-बिसरा सम्बोधन दोहराया-कम्मो।

कामिनी विधवा की बेटी थी-ऐसी विधवा की बेटी, जिसने रजिस्टरशुदा दाई का धंधा अपनाकर क़स्बे में सर्वसम्मति से चुड़ैल का ख़िताब पाया था। चुड़ैल की बेटी छिनाल, हठीली चाल गठीले अंग, खिलता हुआ रंग, खिलखिलाती हुई-सी कंजी आँखें, टेढ़ी माँग और बाँकी पत्तियाँ कुल मिलाकर क़स्बे के पौरुष को एक खुली चुनौती थी। भावना शायद शर्मीले आदमी की वासना का ही रूप हो। रोशन जब धड़कते हुए दिल से मंज़िले-मकसूद पर पहुँचे तो पाया कि जिसे विकार का ज्वार समझे बैठे थे, वह तो निरा प्यार का खुमार है। एलान कर दिया कि कामिनी से शादी करेंगे। पिताजी ने इस रोमांस की व्याख्या अमीर आदमी के इकलौते लड़के के फँसाए जाने के संदर्भ में की। उधर रोशन के लिए कामिनी से अपनी शादी और ब्रिटिश राज से भारत की आज़ादी-एक ही तसवीर के दो पहलू बन गए। इस दौर में उन्होंने कांग्रेसियों से मेलजोल बढ़ाया और उससे भी आगे बढ़कर आतंकवाद को गले लगाने की योजनाएं बनाईं।

कामिनी को लेकर कंपनी बाग में बैठने चौराहे पर रखे टोटके को लात मारने और मुसलमानों के घड़े से सरेआम पानी पीने जैसे अनेक साहसिक कार्य उन्होंने कर दिखाए। फिर पिता जी ने इस छोकरी छिनाल प्रसंग को रक़म और रुतबे से एक ही बार में खत्म कर दिया। रोशन ने छोकरी के लिए देशभक्ति का बलिदान दे दिया। पिता को आत्महत्या कर लेने की धमकी दी और आत्महत्या का घोषणा-पत्र जीता जागता परिहास। प्रेम नाटक का सुखांत अंत। डियर से डार्लिंग बनने को तरसते रोशन शर्मा का ऐसा उल्लू अंत। प्रेमी उल्लू न हो तो प्रेमी कैसा ! डार्लिंगजी, डार्लिंग साहब बनने का अद्भुत मज़ा। अंग्रेज़ी में सेक्स कला पर कामिनी भाष्य। सदाबाहर और सदैव जीनेवाली सर्नात्मकता काव्यात्मकता का लुच्चा-लफंगा संसार। नारी के उठते घाघरे का आधुनिक देवी यज्ञ। यही प्रेम की ब्रह्मगाँठ मश्जो के उपन्यासों में खोलता है। प्रेम की संडास में कामना का लीला-कमल खिलाता है आधुनिकता में गर्क युवक। मश्जो का यह प्रेम यथार्थवाद अब सिद्धांत नहीं है-थियरी है। प्रेम थियरी में थिरकती कामिनी की काम क्रीड़ा का उत्तर आधुनिक परिदृश्य। कोई वर्जना नहीं। केवल प्रेम के अनेक ध्वनि व्यंग्य रूप। ज़िंदगी के कथानक और कथ्य को सेक्स का तड़का देते हैं-मश्जो।

इसलिए वह दिलचस्प और ज़ायकेदार रचनाकार हैं-हर तरह के ढोंग और पवित्रतावाद से दूर। व्यावसायिक पत्रकार, पटकथा लेखक तथा मानव मनोविज्ञान से लैस व्यावहारिक प्राणी मश्जो ने ज़िंदगी को पर्त-दर-पर्त उधेड़कर देखा है। यह अमेरिकीवाद का नारा ‘बेपर्दा हम सब होंगे, करेंगे सबको बेपर्दा’ का अर्थ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समस्त संसार ने जाना और माना। आधुनिकता ने वैयक्तिकता को रोपकर, गाँव-क़स्बे उजाड़कर शहर बसाए और सभी को अजनबी बना दिया। हरामखोर ‘ग्लोबल गाँव’ ग्लोबल संस्कृति के साथ भाँवरे डालकर चल बसा। फिर पनपा ग्लोबल मीडिया, जिसने यथार्थ को भ्रांति-फरे सपनों में बदल दिया। मीडिया ने महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के जीवन को-निजी जीवन को-सर्वसाधारण बनाकर साधारण के भीतर ‘इंजेक्ट’ कर दिया ताकि वे महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को अपना अंतरंग मानकर उनका ऊदबिलाव जीवन जी सकें। ऐसा क्यों हुआ ? इन सभी का काफ़ी दूर तक उत्तर देता है। मश्जो का कथा साहित्य।

‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’ के रोशनलाल शर्मा घर-बाहर चरचैत बने। किसी भी तरह से चर्चा का विषय बनना ‘सेलिब्रिटी’ होना है। इक्कीसवीं शताब्दी के उफनते संसार में चरचैत होना ही महत्त्वपूर्ण होना है-सो ऐसे ही चर्चा का विषय बने रोशनलाल शर्मा। उनकी ब्रह्मगाँठ कामिनी ने काटी। कमसिन हसीना का यौन यज्ञ पंडित को पवित्र कर गया। कितनी सुखद स्थिति है कि मश्जो की कहानियाँ उनकी जादुई तकनीक और अक्खड़ी-फक्कड़ी अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों के साथ कहीं भी फीकी-बेस्वाद, बेअसर और अनर्गल नहीं ठहरतीं और न ही अपने समकालीनों के सामने कम जवान। जगी जवानी के जोश की ठसक से भरी कहानियाँ। अपनी कथा और कथ्य की संवेदना अनुभूति, तराश और जुड़ाव की अंतर्योजना और रूपान्वित में अद्वितीय। क़िस्सागोई कहीं प्रवाहपतित नहीं होती। पहाड़ी झरने की तरह सतत प्रवाह का मीठा रस इनमें नया स्वाद और सौंदर्य भर देता है। उनके कहानी-संग्रह ‘कैसे क़िस्सागो’ की कहानियाँ ईस्टर्न मीडिया सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली के विभाग सातवाहन पब्लिकेशंस, नई दिल्ली-65 के द्वारा 1983 में प्रकाशित हुई थीं। प्रकाशित होते ही इन कहानियों ने ऐसी धमाचौकड़ी मचा दी कि जड़ सौंदर्याभिरुचियों पर सहज ही प्रहार हुआ है। इस प्रहार ने हिंदी पाठक की अभिरुचि को बदला और कहानियों के नए सौंदर्य लोक की झाँकी प्रस्तुत की है।

नई कहानी के प्रबुद्ध-जागरूक पाठकों ने इन कहानियों के ‘पाठ’ में अपने जीवन का अर्थ-संदर्भ पाया है। पाठ से पाठक का यह अंतरंग संबंध नए अर्थों के सृजन में सहायक बना है। पाठ ने पाठक को जगाया-चेताया और पाठक ने पाठ को। इस तरह निजमोह संकट निवारण से दूर होकर पाठक ने इस पाठ का इस ढंग से साधारणीकरण किया है कि संप्रेषणीयता का संकट ही कट गया। इन कहानियों की लोकप्रियता का आकाश इतना व्यापक होता चला गया कि पाठक ने हिंदी में फिर एक नई तरह के प्रेमचन्द की उपस्थिति दर्ज की है। इस नए प्रेमचन्द ने मीडिया-तकनीक से कहानी कला के ‘वर्णन’, ’विवरण’, ‘संकेत’, ‘प्रकरण’, ‘आख्यान-प्रसंग’ आदि का नया संसार ही निर्मित कर डाला। कैसे क़िस्सागो की कई कहानियाँ वर्षों पूर्व छपे एक कहानी संग्रह ‘एक दुर्लभ व्यक्तित्व’ में प्रकाशित हुई थीं। फिर ध्यान आया, प्रभु, तुम, कैसे क़िस्सागो ? परंपरा के मूर्तिभंजक और रघुवीर सहाय के भावलोक की तरह के विद्रोही रचनाकार।

मश्जो ने अपने को टटोलते-छीलते हुए लिखा, ‘आप तो जानते ही हैं कि ख़ासा क़िस्सागो हूँ मैं और यह भी कि आपकी आधुनिक चेतना ने मुझे इस क़िस्सागोई से परहेज करना सिखाया है। क़िस्सागोई की कैद से छूटने के लिए भोगे गए यथार्थवाला नुस्ख़ा मेरे सामने रखा गया था। लेकिन भुक्तभोगी यथार्थवादियों को बाद में कहानी लिखते समय यथार्थ को भोग्य रूप देने के लिए मिस पाल के असली सवाल को टालने के लिए विकट कष्ट उठाते देख मुझे वितृष्णा हुई। यथार्थ को यथार्थ कह देने की भी मैंने ठानी, लेकिन उससे सतही पत्रकारिता का इल्जाम लगता दीखा। फंतासी के फन की ओर भी यह मन लपका, लेकिन जब भी क़लम उठाई, तिलचट्टा याद आया।’ क्यों याद आया तिलचट्टा दर्शन और उसका सोच ? कथाहीनता का कल्प गुजारने का संकल्प फिर। संशय-तत्त्व से उभरा, द्वंद्व तनाव का फन फटकता साँप, जिसने प्रेम को प्रेम मानने से इनकार कर दिया-प्रेम के फल में वासना के कीड़े। कीड़े ही कीड़े और पूरा समाज इन कीड़ों की चपेट में। सर्जना के अहंकार में आत्मदान, आत्मसमर्पण का भाव-विभाव जगत् ! लेकिन मश्जो को ऐसे कथा-प्रयोग करने पड़े, जिनके जिस्म और जिगर में विख्यात उपन्यासकार टामस मान का अँधेरा हो। कामू, सार्त्र का उबकाई से भिनकता भाव और संत्रास, काफ्का का पेट-फाड़ नौसिया और चेखव का असली लुत्फ हो। असली चुनौती तो यही थी और असली लुत्फ भी तभी था, कि एक पाँव क़िस्सागोई की जमीन पर मजबूती से जमाकर, दूसरा आसमान में परवरदिगार के सिर पर धरकर दिखाया जाए।’ हिंदी का कथा-साहित्य साक्षी है कि मश्जो ने परवरदिगार के सिर पर खड़े होकर कला के नए करतब दिखाए। इन करतबों में नये प्रयोग किए, किन्तु रीतिवाद-कलावाद-चमत्कारवाद को पास नहीं फटकने दिया।

‘अध्यात्म’ की शरण नहीं ली और न कला-करतब में सत्ता का कीर्तन किया। आधुनिक-नायिकाओं ने मश्जों को सस्ता ‘स्नो’ लगाकर कहा-‘चलने का है।’ और वे चल पड़े। निहायत ही ठंडेपन से क्लासिकल गरिमा के साथ एक शंकालु दूरी उनसे बनाकर। लेकिन जब उसके पास लपका तो उससे झल्लाहट-कल्लाहट ही पाई। साहित्य का रचनाकार नायिका के लिए नकली सेठ बना। इस सेठ ने नायिका को नायिका नहीं रहने दिया। खलनायिका बनाया। स्वयं खलनायक बनकर मनोहर श्याम जोशी के तीन टुकड़े कर दिए। मनोहर बना रचना का रम्यरमा कथ्य, श्याम बना कृष्णभाव से राधा (कलाकृति) को रचने-पाने की कला का हुनर और जोशी बना रचना का सर्जक या प्रभु। इस तरह कलाकृति के पतुरिया नाच में ‘सब चलता है’ का उत्तर आधुनिक बोध परोसा गया। इसी पतुरिया नृत्य पर साहित्य कला का बाज़ारवाद फिदा होकर सौ-सौ के नोट बरसाने लगा। फिर क्या हुआ ? वही हुआ जो नव्यपूँजीवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति में होता है-‘नोट लेते हुए उसने बहुत कृतज्ञता से कहा, मेरा नाम तारा है सेठ। मैं मरैठी नहीं, मैं तो धारवाड़ साइड का, तुम मेरीवाली खोली में चलो सेठ, उधर ही चार और छोकरी लोक को लाती मैं।’ साहित्य का सेठ इन्हीं छोकरियों के साथ वाटर डांस में मस्त है।

उसका आधुनिक कबीराई मस्त ताना-बना गाना। पूरा कार्यक्रम चकला मालकिन की चाय पार्टी के ‘कल्चरल शो’ में बदल गया है। भारतीय संस्कृति एक चकला मालकिन के फेर में ‘मॉर्डन’ बन रही है-‘प्रगति’ कर रही है-‘विकास’ के नए से नये शिखरों को छू रही है। इस धंधे में सुडौल, संस्कारी, सुसंस्कृत सुंदर, पवित्र का क्या काम ! ख़ासी फूहड़, भद्दी जंघा उघाड़ू, अंडरवियर-बिकनी धारण करने वाली नायिकाएँ सरपट दौड़ेंगी। हाँ, इनमें अभिजात सौंदर्य का फ़ैशनेबल माल और सेक्स का मर्दमार छौंक दिए बिना तड़के का स्वाद नहीं उठेगा। मांसल देह का संगीत और कमर मटकाऊ लय की ‘जगदीश हरे धुन।’ इसी समय-सत्ता-समाज-संस्कृति और राजनीति की आंतरिक लय को पकड़कर मश्जो ने कहानियों और उपन्यासों में आधुनिक संवेदना की, चित्त चेतना की, चित्त-एकाग्रता की पुनर्नवा निष्पत्ति की। कला का छोकरीवाद मुरलीवाले मालिक को ‘बाज़ार’ देता है-कला का यह नया समाजशास्त्र गोल्डमान और ल्योतार की बाछें खिला रहा है। व्यर्थता के बोध की जगह व्यय बोध के अर्थशास्त्र को मिली है तो ग्रेशम का खोटे सिक्केवाला सिद्धांत चमक उठा है। भावुकता-कल्पना-फंतासी पर कामुकता की ऐसी रंगीन जिल्द मश्जो ने अपने कथा-साहित्य पर चढ़ा दी है कि झूठ की नाक बढ़ानेवाली ‘पेनोकियों थियरी’ पर हिंदी साहित्य का रुखा-सूखा पाठक फ़िदा हो गया है।

मश्जो ने कला के कमाल की यह प्रेरणा ‘चंद्रकांता संतति’ से नहीं पाई। यह प्रेरणा उसने ज्वायस कैरी के ‘हार्सिज माउथ’ से पाई और हृदय में धारण कर ली। फिर किया कहानी-उपन्यास-निबंध में ‘हृदय संवाद’। इस तरह ज्वायस और जोशी एक हुए। आधुनिक चेतना में काम-कामिक्स और छोकरीवाद-सभी को पीसकर नया स्वाद उठाया। मश्जो ने पाया प्रयोगधर्मा नए साहित्यिक व्यापार में सावित्री-सती का क्या काम ! पुराना ज़माना गया। नया ज़माना मेडौना जैक्सन का है। जोशीजी ने ‘उस देश का यारो क्या कहना’ में इसी विचार चेतना के व्यंग्य लेख लिखे हैं। चकला मालकिन की महफ़िल में सावित्री ने आने से इनकार कर दिया उसे खलनायक के साथ नाचना नहीं आता। लेकिन ऐयाश राजनीति और पुलिस अधिकारी सावित्री के रूप-दर्शन पर टकटकी लगाकर उसे फँसाना चाह रहे हैं। ‘बनिए सीता-पढ़िए गीता’ का कोई अर्थ नहीं है। रघुवीर सहाय का पलीता-दर्शन मश्जो को भीतर तक लुभाता है। अज्ञेय से लेकर रघुवीर सहाय तक की अंतर्यात्रा की डी कंस्ट्रक्ट कीजिए। अर्थ को स्थापित-विस्थापित कीजिए और बहुलार्थकता की नई चाब से पाठ का ताला खोलिए। अपनी शरारतों का बाल-स्वभाव, खिलौना तोड़नेवाला मन मश्जो के पास कब नहीं रहा ?

कथाभूमि से शरत्-चन्द्र की भावुकता, कुप्रिन का यथार्थवाद, जैनेन्द्र का संशयवादी अमूर्तवाद और हेनरी मिलर का भदेसपन-सबकी चटनी बनाकर मश्जो कथा प्रयोग में प्रवृत्त हुए। हिंदी के साथ अंग्रेज़ी, पंजाबी, गुजराती, राजस्थानी, मराठी न जाने कितनी भाषाओं पर मनोहर श्याम जोशी का अधिकार रहा है। कहानी हो या उपन्यास, कुमाऊँनी के साथ अनेक भाषाओं का प्रयोग या चक्कर उनके पात्र चलाते हैं। कथा-क्षेत्र में शायद ही हिंदी के किसी रचनाकार को भाषा प्रयोगों की ऐसी विविध छवियों से भरी पारंगता प्राप्त हो। बोली-बानी लहजा-ध्वनि सभी पात्रों के व्यक्तित्व में भाषा में अनेकारूपता के साथ एक भरोसे का सर्जन-व्यापार प्रस्तुत करते हैं। भाषा की लतीफ़ लफ़्फ़ाज़ी का खिलंदड़ापन मश्जो से सीखने की चीज़ है। गंदी-घिनौनी कथा भूमि के कीचड़ की दुर्गंध से गंधाती नायिकाएँ-नायक ‘आधुनिक मानस के नरक’ को उजागर करते हैं। व्यंग्य ? विडंबना ? विद्रोह ? फुहड़पन ? यौन क्रांति ? जीभ जंघाओं का भूगोल ? राजनीति धर्म का चरित्र ? पुरानी परंपरा और सभ्य आधुनिकता से क्या व्यक्त किया जा सकता है या था ? उद्देश्यहीनता का उद्देश्य चालू लटके और आधुनिक वक्तव्य झेल नहीं पाते हैं।


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