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ओशो साहित्य >> नव संन्यास क्या है

नव संन्यास क्या है

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5583
आईएसबीएन :81-7182-231-2

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ओशो के साथ सत्य, धर्म, मंदिर, तीर्थ, तिलक-टीके, मूर्ति-पूजा, जयोतिष एवं नव-संन्यास आंदोलनों पर विशद चर्चाएं

nav sanyas kya Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ओशो ने इंसानियत को भगवान-स्वरूप बना देने का गौरव प्रदान किया है। वे मानवता की कीर्तिकथा हैं। इस कर्मयोगी सिद्ध ने आदमी की पिच्छलग्गू प्रवृत्ति को ललकारा है और उसकी अदम्य, अनंत ऊर्जा शक्ति को उजागर करके उसे एक गौरव दिया है।
देवीशंकर प्रभाकर
(लेखक व फिल्म निर्माता)

नव-संन्यास क्या ?


ओशो के साथ सत्य धर्म मंदिर तीर्थ, तिलक-टीके मूर्ति-पूजा, ज्योतिष एवं ‘नव-संन्यास आंदोलन’ पर विशद एवं वृहत् चर्चाएं तथा अन्य विविध बिंदुओं पर अमृत प्रवचनों के मूल संकलन ‘मैं कहता आंखन देखी’ में से संकलित दस प्रवचन।


आमुख


एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्षों से प्रचलित है, जिससे हम सब भलीभांति परिचित हैं। उसका अभिप्राय कुल इतना है कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। वह संन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है-अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती थी। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए, उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त था। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की पूजा थी। वह संन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता ?

लेकिन जो लोग संसार से भागने की अथवा संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बंधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा, वे ऐसे संन्यासी की पूजा और सेवा करते रहे और संन्यास के नाम पर परनिर्भरता का यह कार्य चलता रहा : संन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसारी पर निर्भर रहा और तथाकथित त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा संन्यास आनंद न बन सका, मस्ती न बन सका। दीन-हीनता में कहीं कोई प्रफुल्लता होती है ? परजीवी कभी प्रमुदित हो सकते हैं ? धीरे-धीरे संन्यास पूर्णतः सड़ गया। संन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गए जो भगवान श्रीकृष्ण के समय कभी गूंजे होंगे-संन्यास के मौलिक रूप में। अथवा राजा जनक के समय संन्यास ने जो गहराई छुई थी, वह संसार में कमल की भांति खिल कर जीने वाला संन्यास नदारद हो गया।

वर्तमान समय में ओशो ने सम्यक संन्यास को पुनरुज्जीवित किया है। ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। संन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना आज ओशो के संस्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-संन्यास है। इस अनूठी प्रवचनमाला के माध्यम से संन्यास के अभिनव आयाम में आपको निमंत्रण है।


स्वामी चैतन्य कीर्ति
संपादक : ओशो टाइम्स इंटरनेशनल

1
नव-संन्यास का सूत्रपात



संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है-त्याग के अर्थों, में छोड़ने के अर्थों में-पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूँ पाने के अर्थ में।
निश्चित ही जब कोई हीरे जवाहरात पा लेता है तो कंकड़-पत्थरों को छोड़ देता है। लेकिन कंकड़-पत्थरों को छोड़ने का अर्थ इतना ही है कि हीरे-जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़-पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़ पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते हैं जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया।
संन्यास अब तक लेखा-जोखा रखता रहा उस सबका, जो छोड़ा जाता है। मैं संन्यास को देखता हूँ उस भाषा में, उस लेखे-जोखे में जो पाया जाता है।

निश्चित ही इसमें बुनियादी फर्क पड़ेंगे। यदि संन्यास आनंद है, यदि संन्यास उपलब्धि है, यदि संन्यास पाना है, विधायक है, पाजिटिव है, तो संन्यास का अर्थ विराग नहीं हो सकता, तो संन्यास का अर्थ उदासी नहीं हो सकता, तो संन्यास, का अर्थ जीवन का विरोध नहीं हो सकता। तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन में अहोभाव ! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, उदासी नहीं, प्रफुल्लता ! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन का फैलाव, विस्तार, गहराई, सिकोड़ना नहीं।
अभी तक जिसे हम संन्यासी कहते हैं वह अपने को सिकोड़ता है, सबसे तोड़ता है, सब तरफ से अपने को बंद करता है। मैं उसे संन्यासी कहता हूँ, जो सबसे अपने को जोड़े, जो अपने को बंद ही न करे, खुला छोड़ दे।
निश्चित ही इसके और भी अर्थ होंगे। जो संन्यास सिकोड़ने वाला है वह संन्यास बंधन बन जाएगा, वह संन्यास कारागृह बन जाएगा, वह संन्यास स्वतंत्रता नहीं हो सकता। और जो संन्यास स्वतंत्रता नहीं है वह संन्यास ही कैसे हो सकता है ? संन्यास की आत्मा तो परम स्वतंत्रता है।

इसलिए मेरे लिए संन्यास की कोई मर्यादा नहीं, कोई बंधन नहीं। मेरे लिए संन्यास का कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं। मेरे लिए संन्यास कोई डिसिप्लिन नहीं है, कोई अनुशासन नहीं है। मेरे लिए संन्यास व्यक्ति के परम विवेक में परम स्वतंत्रता की उद्भावना है। उस व्यक्ति को मैं संन्यासी कहता हूं जो परम स्वतंत्रता में जीने का साहस करता है। नहीं कोई बंधन ओढ़ता, नहीं कोई व्यवस्था ओढ़ता, नहीं कोई अनुशासन ओढ़ता।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह उच्छृंखल हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह स्वच्छंद हो जाता है। असलियत तो यह है कि जो आदमी परतंत्र है वही उच्छृंखल हो सकता है। और जो आदमी परतंत्र है, बंधन में बंधा है, वही स्वच्छंद हो सकता है। जो स्वतंत्रत है वह कभी स्वच्छंद होता ही नहीं। उसके स्वच्छंद होने का उपाय नहीं है। ऐसे अतीत से मैं भविष्य के संन्यासी को भी तोड़ता हूं। और मैं समझता हूं कि अतीत के सन्यास की जो आज तक व्यवस्था थी वह मरणशय्या पर पड़ी है, मर ही गई है। उसे हम ढो रहे हैं, वह भविष्य में बच नहीं सकती। लेकिन संन्यास ऐसा फूल है जो खो नहीं जाना चाहिए। वह ऐसी अदभुत उपलब्धि है जो विदा नहीं हो जानी चाहिए। वह बहुत ही अनूठा फूल है जो कभी-कभी खिलता रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि हम उसे भूल ही जाएं, खो ही दें। पुरानी व्यवस्था में बंधा हुआ वह मर सकता है। इसलिए संन्यास को नये अर्थ, नये उद्भाव देने जरूरी हो गए हैं। संन्यास तो बचना ही चाहिए। वह तो जीवन की गहरी से गहरी संपदा है। लेकिन अब वह कैसे बचाई जा सकेगी ? उसे बचाने के लिए कुछ मेरे खयाल मैं आपको कहता हूं।

पहली बात तो मैं आपसे यह कहता हूं कि बहुत दिन हमने संन्यासी को संसार से तोड़ कर देख लिया। इससे दोहरे नुकसान हुए। संन्यासी संसार से टूटता है तो दरिद्र हो जाता है, बहुत गहरे अर्थों में दरिद्र हो जाता है। क्योंकि जीवन के अनुभव की सारी संपदा संसार में है। जीवन के सुख-दुख का, जीवन की संघर्ष शांति का, जीवन की सारी गहनताओं का जीवन के रसों का, जीवन के विरस का सारा अनुभव तो संसार में है। और जब हम किसी व्यक्ति को संसार से तोड़ देते हैं तो वह हॉट हाउस प्लांट हो जाता है। वह खुले आकाश के नीचे खिलने वाला फूल नहीं रह जाता। वह बंद कमरे में, कृत्रिम हवाओं में, कृत्रिम गर्मी में खिलने वाला फूल हो जाता है-कांच की दीवारों में बंद ! उसे मकान के बाहर लाएं तो वह मुर्झा जाएगा, मर जाएगा।

संन्यासी अब तक हॉट हाउस प्लांट हो गया है। लेकिन संन्यास भी कहीं बंद कमरों में खिल सकता है ? उसके लिए खुला आकाश चाहिए, रात का अंधेरा चाहिए, दिन का उजाला चाहिए, चांद तारे चाहिए, पक्षी चाहिए, खतरे चाहिए, वह सब चाहिए। संसार से तोड़ कर हमने संन्यासी को भारी नुकसान पहुंचाया, क्योंकि संन्यासी की आंतरिक समृद्धि क्षीण हो गई।
यह बड़े मजे की बात है कि साधारणतः जिन्हें हम अच्छे आदमी कहते हैं उनकी जिंदगी बहुत रिच नहीं होती, उनकी जिंदगी में बहुत अनुभवों का भंडार नहीं होता। इसलिए उपन्यासकार कहते हैं कि अच्छे आदमी की जिंदगी पर कोई कहानी नहीं लिखी जा सकती। कहानी लिखनी हो तो बुरा आदमी पात्र बनाना पड़ता है। एक बुरे आदमी की कहानी होती है। अगर हम बता सकें कि एक आदमी जन्म से मरने तक बिलकुल अच्छा है, तो इतनी ही कहानी काफी है, और कुछ बताने को नहीं रह जाता।

संन्यासी को संसार से तोड़ कर हम अनुभव से तोड़ देते हैं। अनुभव से तोड़ कम हम उसे एक तरह की सुरक्षा तो दे देते हैं, लेकिन एक तरह की दरिद्रता भी दे देते हैं।
मैं संन्यासी को संसार से जोड़ना चाहता हूं। मैं ऐसे संन्यासी देखना चाहता हूं जो दुकान पर भी बैठे हों, दफ्तर में काम भी कर रहे हों, खेत पर मेहनत भी कर रहे हों। जो जिंदगी की पूरी सघनता में खड़े हों। भाग नहीं गए हों, भगोड़े न हों, एस्केपिस्ट न हों, पलायन न किया हो। जिंदगी के पूरे सघन बाजार में खड़े हों, भीड़ में, शोरगुल में खड़े हों-और फिर भी संन्यासी हों। तब उनके संन्यास का क्या मतलब होगा ?
अगर एक स्त्री संन्यासिनी होती है और पत्नी है, तो अब तक मतलब होता था कि वह भाग जाए जिंदगी से छोड़ कर बच्चों को, पति को। अगर पति है तो छोड़ जाए घर को, छोड़ कर भाग जाए।

मेरे लिए ऐसे संन्यास का कोई अर्थ नहीं है। मैं तो मानता हूं कि अगर एक पति संन्यासी होता है तो जहां है वहीं हो, भागे नहीं। संन्यास उसके जीवन में वहीं खिलने दे। लेकिन तब क्या करेगा वह ? भागने में तो रास्ता दिखता था भाग गए तो बच गए। अब क्या करेगा ? अब उसको करने का क्या होगा ? वह वह पति भी होगा, बाप भी होगा, दुकानदार भी होगा, नौकर भी होगा, मालिक भी होगा, हजार संबंधों में होगा। जिंदगी का मतलब ही अंतर्संबंधों का जाल है। वह यहां क्या करेगा ? भाग जाता था तो बड़ी सहूलियत थी, क्योंकि वह दुनिया ही हट गई जहां कुछ करना पड़ता था। अब वह बैठ जाता था एक कोने में-जंगल में एक गुफा में। सूखता था वहां, सिकुड़ता था वहां। यहां क्या करेगा ? यहां संन्यास का क्या अर्थ होगा ? अगर त्याग नहीं होगा, तो संन्यास का क्या अर्थ होगा ?
एक अभिनेता मेरे पास आया था। नया-नया अभिनेता है; अभी-अभी फिल्मों में आया है। वह मुझसे पूछने आया था कि मुझे कोई सूत्र मेरी डायरी पर लिख दें, जो मेरे काम आ जाए। तो उसे मैंने लिखा कि अभिनय ऐसे करो जैसे वह जीवन हो और जीओ ऐसे जैसे वह अभिनय हो।

संन्यासी का मेरे लिए यही अर्थ है। जीवन की सघनता में खड़े होकर अगर कोई संन्यास के फूल को खिलाना चाहता है, तो एक ही अर्थ हो सकता है कि वह कर्ता न रह जाए, भोक्ता न रह जाए, अभिनेता हो जाए, साक्षी हो जाए। देखे, करे, लेकिन कहीं भी बहुत गहरे में बंधे नहीं। गुजरे नदी से, लेकिन उसके पांव को पानी न छुए। नदी से गुजरना तो मुश्किल है कि पांव को पानी न छुए। लेकिन संसार से गुजरना संभव है कि संसार न छुए।

अभिनय को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। और आश्चर्य तो यह है कि जितना अभिनय हो जाए जीवन उतना कुशल हो जाता है, उतना सहज हो जाता है, उतना चिंतामुक्त हो जाता है। कोई मां अगर मां होने में कर्ता न बन जाए, साक्षी रह सके, और जान सके इतनी छोटी सी बात कि जिस बच्चे को वह पाल रही है वह बच्चा उससे आया तो जरूर है, लेकिन उसका ही नहीं है; उससे पैदा तो हुआ है, लेकिन उसी ने पैदा नहीं किया है; वह उसके लिए द्वार से ज्यादा नहीं थी, और जहां से वह आया है और जिससे वह आया है और जिसके द्वारा वह जीएगा और जिसमें वह लौट जाएगा, उसका ही है। तो मां, कर्ता होने की उसे अब जरूरत नहीं रह गई। अब वह साक्षी हो सकती है। अब वह मां होने का अभिनय कर सकती है।
कभी एक छोटा सा प्रयोग करके देखें। चौबीस घंटे के लिए तय कर लें कि चौबीस, घंटे मैं अभिनय करूंगा। जब कोई मुझेगाली देगा तो मैं क्रोध न करूंगा, क्रोध का अभिनय करूंगा। और जब कोई मेरी प्रशंसा करेगा तो मैं प्रसन्न न होऊंगा, प्रसन्न होने का अभिनय करूंगा। एक चौबीस घंटे का प्रयोग आपकी जिंदगी में नये दरवाजे खोल देगा। आप हैरान हो जाएंगे कि मैं नाहक परेशान हो रहा था। जो काम अभिनय से ही हो सकता था, उसमें मैं नाहक ही कर्ता बन कर दुख झेल रहा था। और जब सांझ आप दिन भर के अभिनय के बाद सोएंगे तो तत्काल गहरी नींद में चले जाएंगे। क्योंकि जो कर्ता नहीं रहा है उसकी कोई चिंता नहीं है, उसका कोई तनाव नहीं है, उसका कोई बोझ नहीं है। सारा बोझ कर्ता होने का बोझ है।

संन्यास को मैं घर-घर पहुंचा देना चाहता हूं। तो ही संन्यास बचेगा। लाखों संन्यासी चाहिए। दो-चार संन्यासियों से नहीं होगा काम। और जैसा मैं कह रहा हूं, उसी आधार पर लाखों संन्यासी हो सकते हैं। संसार से तोड़ कर आप ज्यादा संन्यासी नहीं जगत में ला सकते, क्योंकि कौन उनके लिए काम करेगा, कौन उनके लिए भोजन जुटाएगा ? कौन उनके लिए कपड़े जुटाएगा ? एक छोटी सी दिखाऊ संख्या पाली पोसी जा सकती है। लेकिन बड़े विराट पैमाने पर संन्यास संसार में नहीं आ सकता। तो कोई दो चार हजार संन्यासी एक मुल्क झेल सकता है। ये संन्यासी भी दीन हो जाते हैं, ये संन्यासी भी निर्भर हो जाते हैं, ये संन्यासी भी परवश हो जाते हैं, और इनका विराट, व्यापक प्रभाव नहीं हो सकता।
अगर जगत में बहुत व्यापक प्रभाव चाहिए संन्यास का-जो कि जरूरी है, उपयोगी है, अर्थपूर्ण आनंदपूर्ण है-तो हमें धीरे-धीरे ऐसे संन्यास को जगह देनी पड़ेगी जिसमें से तोड़ कर भागना अनिवार्यता न हो। जिसमें जो जहां है वह वहीं संनयासी हो सके। वहीं वह अभिनय करे और वहीं वह साक्षी हो जाए, वह जो हो रहा है उसका साक्षी हो जाए।
तो एक तो संन्यास को घर से, दुकान से, बाजार से जोड़ने का मेरा खयाल है। अद्भुत और मजेदार होगी वह दुनिया, अगर हम बना सकें, जहां दुकानदार संन्यासी हो।

स्वभावतः वैसा दुकानदार बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। जब अभिनय ही कोई कर रहा हो तो बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। और जब कोई साक्षी बना हो तो फिर बेईमान होने में बड़ी कठिनाई पाएगा। संन्यासी अगर दफ्तर में क्लर्क हो, चपरासी हो, डाक्टर हो, वकील हो, तो हम इस दुनिया को बिलकुल बदल डाल सकते हैं।
तो एक तो संन्यासी को तोड़ कर संन्यासी दीन हो जाता है; और संसार का भरी नुकसान होता है, संसार भी दीन हो जाता है। क्योंकि उसके बीच जो श्रेष्ठतम फूल खिल सकते थे वे हट जाते हैं, वे बगिया के बाहर हो जाते हैं, और बगिया उदास हो जाती है। इसलिए संन्यास का एक जगतव्यापी आंदोलन जरूरी है। जिसमें हम धीरे-धीरे घर में, द्वार में, बाजार में, दुकान में संन्यासी को...। वह मां होगी, पति होगा, पत्नी होगी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह जो भी होगा वही होगा। सिर्फ उसके देखने की दृष्टि बदल जाएगी, वह साक्षी रह जाएगा। उसके लिए जिंदगी अभिनय और लीला हो जाएगी, काम नहीं रह जाएगा। उसके लिए जिंदगी एक उत्सव हो जाएगी। और उत्सव होते ही सब बदल जाता है।
दूसरी एक मेरी और दृष्टि है वह आपको कहूं। वह मेरी दृष्टि है : पीरियाडिकल रिनन्सिएशन की, सार्वधिक संन्यास की। ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि कोई आदमी जिंदगी भर संन्यासी होने की कसम ले। असल में भविष्य के लिए कोई भी कसम खतरनाक है। क्योंकि भविष्य के हम कभी भी नियंता नहीं हो सकते। वह भ्रम है। भविष्य को आने दें, वह जो लाएगा हम देखेंगे।

जो साक्षी है वह भविष्य के लिए निर्णय नहीं कर सकता। निर्णय सिर्फ कर्ता कर सकता है। जिसको खयाल है कि मैं करने वाला हूँ वह कह सकता है कि मैं जिंदगी भर संन्यासी रहूंगा। लेकिन सच में जो साक्षी है वह कहेगा, कल का तो मुझे कुछ पता नहीं, कल जो होगा होगा ! कल जो होगा उसे देखूंगा और जो होगा होगा ! कल के लिए कोई निर्णय नहीं ले सकता हूं।
और इसलिए संन्यास की एक और कठिनाई अतीत में हुई, वह थी जीवन भर के संन्यास की, आजीवन संन्यास की। एक आदमी किसी भाव-दशा में संन्यासी हो जाए और कल किसी भाव-दशा में जीवन में वापस लौटना चाहे, तो हमने लौटने का द्वार नहीं छोड़ा है खुला। संन्यास में हमने एंट्रेंस तो रखा है, एक्जिट नहीं है। उसमें भीतर जा सकते हैं, बाहर नहीं आ सकते। और ऐसा स्वर्ग भी नरक हो जाता है जिसमें बाहर लौटने का दरवाजा न हो-परतंत्रता बन जाता है, कारागृह हो जाता है। आप कहेंगे, नहीं, कोई संन्यासी लौटना चाहे तो हम क्या करेंगे, लौट सकता है। लेकिन आप उसकी निंदा करते हैं, अपमान करते हैं, कंडेमनेशन है उसके पीछे।

और इसलिए हमने एक तरकीब बना रखी है कि जब कोई संन्यास लेता है तो उसका भारी शोरगुल मचाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत बैंडबाजा बजाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत फूलमालाएं पहनाते हैं। बड़ी प्रशंसा, बड़ा सम्मान, बड़ा आदर, जैसे कोई बहुत बड़ी घटना घट रही है, ऐसा हम उपद्रव करते हैं।
और यह उपद्रव का दूसरा हिस्सा है-वह उस संन्यासी को पता नहीं- कि अगर वह कल लौटा, तो जैसे फूलमालाएं फेंकी गईं वैसे ही पत्थर और जूते भी फेंके जाएंगे। और ये ही लोग होंगे फेंकने वाले, कोई दूसरा आदमी नहीं होगा। असल में इन लोगों ने फूलमालाएं पहना कर उससे कहा कि अब सावधान, अब लौटना मत ! जितना आदर किया है उतना ही अनादर प्रतीक्षा करेगा।

यह बड़ी खतरनाक बात है। इसके कारण न मालूम कितने लोग जो संन्यास का आनंद ले सकते हैं, वे नहीं ले पाते। वे कभी निर्णय ही नहीं कर पाते कि जीवन भर के लिए ! जीवन भर का निर्णय बड़ी मंहगी बात है, बड़ी मुश्किल बात है ! फिर हकदार भी नहीं हैं हम जीवन भर के निर्णय के लिए।
तो मेरी दृष्टि है कि संन्यास सदा ही सावधिक है। आप कभी भी वापस लौट सकते हैं। कौन बाधा डालने वाला है ? संन्यास आपने लिया था। संन्यास आप छोड़ दें। आपके अतिरिक्त इसमें कोई और निर्णायक नहीं है। आप ही डिसीसिव हैं। आपका ही निर्णय है। इसमें दूसरे की न कोई स्वीकृति है, न दूसरे का कोई संबंध है। संन्यास निजता है, मेरा निर्णय है। मैं आज लेता हूं, कल वापस लौटता हूं। न तो लेते वक्त आपकी अपेक्षा है कि आप सम्मान करें, न छोड़ते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप इसके लिए निंदा करें। आपका कोई संबंध नहीं है।

संन्यास को बड़ा गंभीर मामला बनाया हुआ था, इसलिए वह सिर्फ रुग्ण और गंभीर लोग ही ले पाते थे। संन्यास को बहुत गैर-गंभीर, खेल की घटना बनाना जरूरी है। आपकी मौज है, संन्यास ले लिया है। आपकी मौज है, आप कल लौट जाते हैं। नहीं मौज है, नहीं लौटते हैं, जीवन भर रह जाते हैं, वह आपकी मौज है। इससे किसी का कोई लेना-देना नहीं है।
फिर इसके साथ यह भी मेरा खयाल है कि अगर संन्यास की ऐसी दृष्टि फैलाई जा सके तो कोई भी आदमी जो वर्ष में एकाध दो महीने के लिए संन्यास ले सकता है वह एकाध दो महीने के लिए ले ले। जरूरी क्या है कि वह बारह महीने के लिए ले। वह दो महीने के लिए संन्यासी हो जाए, दो महीने संन्यास की जिंदगी को जीए, दो महीने के बाद वापस लौट जाए। यह बड़ी अद्भुत बात होगी।

एक फकीर हुआ, उस फकीर के पास एक सम्राट गया। सूफी फकीर था। उस सम्राट ने कहा कि मुझे भी परमात्मा से मिला दो। मैं भी बड़ा प्यासा हूं। उस फकीर ने कहा, तुम एक काम करो। कल सुबह आ जाओ। तो वह सम्राट कल सुबह आया। और उस फकीर ने कहा, अब तुम सात दिन यहीं रुको। यह भिक्षा का पात्र हाथ में लो और रोज गांव में सात दिन तक भीख मांग कर लौट आना, यहां भोजन कर लेना, यहीं विश्राम करना। सात दिन के बाद परमात्मा के संबंध में बात करेंगे।
सम्राट् बहुत मुश्किल में पड़ा। उसकी ही राजधानी थी वह। उसकी अपनी ही राजधानी में भिक्षा का पात्र लेकर भीख मांगना। उसने कहा कि अगर किसी दूसरे गांव में चला जाऊं ? तो उस फकीर ने कहा, नहीं गांव तो यही रहेगा। अगर सात दिन भीख न मांग सको तो वापस लौट जाओ। फिर परमात्मा की बात मुझसे मत करना। सम्राट झिझका तो जरूर, लेकिन रुका। दूसरे दिन भीख मांगने गया बाजार में। सड़कों पर, द्वारों पर खड़े होकर उसने भीख मांगी। सात दिन उसने भीख मांगी।

सात दिन के बाद फकीर ने उसे बुलाया और कहा, अब पूछो। उसने कहा, अब मुझे कुछ भी नहीं पूछना। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि यह सात दिन भिक्षा का पात्र फैला कर मुझे परमात्मा दिखाई पड़ जाएगा। फकीर ने कहा, क्या हुआ तुम्हें ? उसने कहा, कुछ भी नहीं हुआ। सात दिन भीख मांगने में मेरा अहंकार गल गया और पिघल गया और बह गया। मैंने तो कभी सोचा ही नहीं था कि जो सम्राट् होकर न पा सका, वह भिखारी होकर मिल सकता है। और जिस क्षण विनम्रता का भीतर जन्म होता है, ह्युमिलिटी का, उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं।
अब यह अद्भुत अनुभव की बात होगी कि कोई आदमी वर्ष में एक महीने के लिए, दो महीने के लिए संन्यासी हो जाए, फिर वापस लौट जाए अपनी दुनिया में। इस दो महीने में संन्यास की जिंदगी के सारे अनुभव उसकी संपत्ति बन जाएंगे। वे उसके साथ चलने लगेंगे। और अगर एक आदमी चालीस-पचास साल, साठ साल की जिंदगी में दस बीस बार थोड़े थोड़े दिन के लिए संन्यासी होता चला जाए, तो फिर उसे संन्यासी होने की जरूरत नहीं रह जाएगी, वह जहां है वहीं धीरे-धीरे संन्यासी हो जाएगा।

ऐसा भी मैं सोचता हूं कि हर आदमी को मौका मिलना चाहिए कि वह कभी संन्यासी हो जाए।
और दो चार बातें, फिर आपको कुछ इस संबंध में पूछना हो तो आप पूछ सकेंगे।
अब तब जमीन पर जितने संन्यासी रहे वे किसी धर्म के थे। इससे बहुत नुकसान हुआ है। संन्यासी भी और किसी धर्म का होगा, यह बात ही बेतुकी है। कम से कम संन्यासी तो सिर्फ धर्म का होना चाहिए। वह तो जैन न हो, ईसाई न हो, हिंदू न हो। वह तो सिर्फ धर्म का हो। वह तो कम से कम सर्व धर्मान् परित्यज्य, वह तो कम से कम सब धर्म छोड़ कर, वह निपट धर्म हो जाए, यह बड़े मजे की बात होगी कि हम इस पृथ्वी पर एक ऐसे संन्यास को जन्म दे सकें जो धर्म का संन्यास हो, किसी विशेष संप्रदाय का नहीं। वह संन्यासी मस्जिद में भी रुक सके, वह मंदिर में भी रुक सके, वह गुरुद्वारे में भी ठहर सके। उसके लिए कोई पराया न हो, सब अपने हो जाएं।

साथ ही ध्यान रहे, अब तक संन्यास सदा ही गुरु से बंधा रहा है-कोई गुरु दीक्षा देता है।
संन्यास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। संन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई भी नहीं। या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवाय और कौन दे सकता है संन्यास ? अगर ऐसे पास कोई आता है और कहता है कि मुझे दीक्षा दे दें, तो मैं कहता हूं, मैं कैसे दीक्षा दे सकता हूं। मैं सिर्फ गवाह हो सकता हूं, विटनेस हो सकता हूं। दीक्षा तो परमात्मा से ले लो, दीक्षा तो परम सत्ता से ले लो, मैं गवाह भर हो सकता हूं, एक विटनेस हो सकता हूं, कि मैं मौजूद था, मेरे सामने यह घटना घटी। इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं होता।

गुरु से बंधा हुआ संन्यास सांप्रदायिक हो ही जाएगा। गुरु से बंधा हुआ संन्यास मुक्ति नहीं ला सकता, बंधन ले आएगा।
फिर यह संन्यासी करेगा क्या ? ये संन्यासी तीन प्रकार के हो सकते हैं। एक वे जिन्होंने सर्वाधिक संन्यास लिया है, जो एक अवधि के लिए संन्यास लेकर आए हैं। जो दो महीने, तीन महीने संन्यासी होंगे, साधना करेंगे, एकांत में रह सकते हैं। फिर वापस जिंदगी में लौट जाएं। दूसरे वे संन्यासी हो सकते है जो जहां हैं वहां से इंच भर नहीं हटते, क्षण भर के लिए नहीं हटते, वहीं संन्यासी हो जाते हैं। और वहीं अभिनय और साक्षी का जीवन शुरू कर देते हैं। तीसरे वे भी संन्यासी होंगे जो संन्यास के आनंद में इतने डूब जाते हैं कि न तो लौटने का उन्हें सवाल उठता, न ही उनके ऊपर कोई जिम्मेदारी है ऐसी जिसकी वजह से उन्हें किसी घर में बंधा हुआ रहना पड़े, न उन पर कोई निर्भर है, न उनके यहां-वहां हट जाने से कहीं भी कोई पीड़ा और कहीं भी कोई दुख और कहीं भी कोई अड़चन आती है। ऐसा जो तीसरा वर्ग होगा संन्यासियों का, यह तीसरा वर्ग ध्यान में जीए, ध्यान की खबरें ले जाए, ध्यान को लोगों तक पहुंचाए।

 

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