श्रंगार - प्रेम >> धड़कनों के पार धड़कनों के पारप्रहलाद सिंह राठौड़
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बदलते सामाजिक मूल्यों और पनपती आधुनिकता के बीच सफर करती युवा पीढ़ी में प्यार का अपना दार्शनिक पहलू
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका से.....
समाज में फैली ऊँच-नीच की प्रवृत्ति के कारण उपजी संवेदना से इस उपन्यास
का खाका खींचकर कथाकार प्रहलादसिंह राठौड़ ने जीवन के प्रमुख अंग प्रेम की
बारीकियों को विस्तार प्रदान किया है, जिसमें संकीर्ण मानसिकता से उपज रहे
प्रसंगों का खुलासा है वहीं खोखले आदर्शों को लपेटे मूल्यहीन मानवीय
संवेदना से छिटकते परिवेश का यथार्थ चित्रण भी है। उपन्यास का मुख्य
ताना-बाना युवा पीढ़ी की सोच और उनमें पनप रही आधुनिक परम्परागत
सम्मिश्रित जीवन शैली के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई पड़ता है। जिसमें इस
पीढ़ी की कल्पनाशीलता का विशद् वर्णन तथा विकास के पथ पर वर्जनाओं को
तोड़कर आगे बढ़ मंजिल पर जाने की ललक का खुलासा किया है।
बदलते सामाजिक मूल्यों और पनपती आधुनिकता के बीच सफर करती युवा पीढ़ी में प्यार का अपना दार्शनिक पहलू है वहीं संस्कार के पल्लवित करते दायरों का दर्पण भी है। माता-पिता के अहम् और बच्चों पर थोपी गई स्वयं की मानसिकता से उपजे परिवेश का सटीक चित्रण इस उपन्यास में मिलता है।
बदलते सामाजिक मूल्यों और पनपती आधुनिकता के बीच सफर करती युवा पीढ़ी में प्यार का अपना दार्शनिक पहलू है वहीं संस्कार के पल्लवित करते दायरों का दर्पण भी है। माता-पिता के अहम् और बच्चों पर थोपी गई स्वयं की मानसिकता से उपजे परिवेश का सटीक चित्रण इस उपन्यास में मिलता है।
विजय जोशी
दो शब्द
मैंने जीवन के इस दौर में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, सुने-अनसुने, कहे-अनकहे
सामाजिक, पारिवारिक परिस्थितिजन्य संदर्भों के जो परिदृश्य देखे और
महसूसे। उन्हें कल्पना के सहारे पात्रों के माध्यम से इस कृति में
शब्दायित करने का प्रयास किया है। आधुनिक जीवन शैली की भावभूमि पर थिरकता
उपन्यास का घटनाक्रम दिखने-सुनने में जो सहज-सामान्य-सा लगता है, किन्तु
सामाजिक और पारिवारिक परम्पराओं, वर्जनाओं और गरीब-अमीर की थोथी संकीर्ण
मानसिकता से घनिभूत सोच ने इसे असामान्य बना दिया है। ऊंच-नीच और
गरीबी-अमीरी के मनोविकारी दायरों को लाँघकर बच्चे अपने निश्छल अबोध मन में
प्यार का बीज अंकुरित करते हैं। मनोवैज्ञानिक तरीके से वह समय के साथ
पल्लवित होता है। किन्तु नौकर और मालिक की हेय भावना के ताप का तीव्र
झोंका उस प्यार के पौधे को झुलसाने का निरन्तर प्रयास करता है। पनपने
बढ़ने से रोकने की चेष्टा करता है।....
किन्तु बच्चों का भी अपना एक अलग संसार होता है, भावनायें होती हैं, आकाँक्षाएँ होती हैं। वे उसी में जीना, खेलना और भोगना पसन्द करते हैं। अपनी इस नन्हीं-सी दुनिया में वे हर बात अपने नजरिए से देखना पसन्द करते हैं। उसे अपने ही मन से गुनते हैं। क्योंकि बच्चों का मस्तिष्क कल्पनाशील, विकासशील और जिज्ञासु होता है। हर बात को ग्रहण करने और जानने के लिए उत्सुक रहता है। हर विषय पर उनके मस्तिष्क में मंथन होता है और फिर वे अपनी कुशाग्र बुद्धि के सहारे अपने निश्चय पर आगे बढ़ते हैं। ऐसी अवस्था में वे अपनी स्वतंत्रता और क्रियाकलापों में किसी विशेष अथवा वर्जना को पसन्द नहीं करते। अगर उनकी भावनाओं के विपरीत उन्हें बंदिश में रखने की चेष्टा की जाती है, तो बालमन में आक्रोश और विद्रोह का अंकुर स्फुटित होने लगता है। उनके चेतन और विकासशील मस्तिष्क में अपनी इच्छाएँ, जिज्ञासाएँ और बाल सुलभ भावनाएं उन्हें उद्वेलित करने लगती हैं। किसी भी प्रकार की शक्ति वे अपनी इच्छाओं के सामने स्वीकार नहीं करते, और न पसन्द करते हैं। यह बच्चों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।...
मानवीय सोच की इसी भावभूमि पर आधारित इस उपन्यास के पात्र बाल्यावस्था की दोस्ती को जीवन में गहरे तक उतार लेते हैं और सफल होने तक अपने निश्चय पर अड़िग रहते हैं। संयोग से यहाँ गरीबी-अमीरी और ऊंच-नीच की सीमा रेखा उनके प्यार में बाधक बन जाती है। प्रकाश घरेलू नौकरानी का बेटा और टीना अमीर बाप की बेटी है। अकसर बच्चों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि बच्चा बच्चे की ओर ही आकर्षित होता है। साथ रहने, साथ खेलने और अपनी बाल-सुलभ अभिव्यक्ति का आदान-प्रदान करने को आतुर, उत्सुक और व्याकुल रहते हैं। यहाँ भी बंगले पर अकेली टीना अपनी नौकरानी के पुत्र के साथ बात करने और खेलने के लिए लालयित हो उठती है। किन्तु उसके अमीर माता-पिता को उनका यह मेल-मिलाप अपने सामाजिक स्टेट्स के खिलाफ महसूस होता है। उनके मना करने और रोकने पर यह क्रम चोरी छिपे शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे वय के साथ लगाव, झुकाव और चाहत विस्तार पाने लगती है। यह माता-पिता के लिए घोर चिन्ता का कारण बन जाता है। मान-सम्मान और ऊँच-नीच का यक्ष प्रश्न बनकर उनके हृदय को कचोटने लगता है। किन्तु इन सभी बाधाओं को पारकर अन्त में जीत बच्चों की ही होती है। बस यही इस उपन्यास का घटना क्रम है, जिसे मैंने अपनी शब्द शैली में विस्तार दिया है।...
उपन्यास ‘धड़कनों के पार’ बच्चों के प्यार की इन्हीं अवधाराणाओं को प्रतिपादित करती हुई कहानी है। जो आपको उत्सुक, आतुर और आशंकित करती हुई अन्त में सुख की अव्यक्त अनुभूति का ही अहसास कराएगी।....
उपन्यास के क्षेत्र में यह मेरी हिन्दी में प्रथम कृति है। मुझे आशा है मेरा यह उपन्यास आपकी भावनाओं के धरातल पर खरा उतेरगा। घटनाक्रम का फलक तो और अधिक विस्तार पा सकता था, किन्तु प्रकाशन सम्बन्धी विवशताओं के कारण इसे सीमित ही रखा है। मुझे विश्वास है कि कथानक का यह लघुतम रूप आपको मनोरंजन के साथ हृदय की अतल गहराई तक सुखान्तक अनुभूति का ही अहसास देगा। आशान्वित हूँ कि यह कृति आपको निराश नहीं करेगी।
किन्तु बच्चों का भी अपना एक अलग संसार होता है, भावनायें होती हैं, आकाँक्षाएँ होती हैं। वे उसी में जीना, खेलना और भोगना पसन्द करते हैं। अपनी इस नन्हीं-सी दुनिया में वे हर बात अपने नजरिए से देखना पसन्द करते हैं। उसे अपने ही मन से गुनते हैं। क्योंकि बच्चों का मस्तिष्क कल्पनाशील, विकासशील और जिज्ञासु होता है। हर बात को ग्रहण करने और जानने के लिए उत्सुक रहता है। हर विषय पर उनके मस्तिष्क में मंथन होता है और फिर वे अपनी कुशाग्र बुद्धि के सहारे अपने निश्चय पर आगे बढ़ते हैं। ऐसी अवस्था में वे अपनी स्वतंत्रता और क्रियाकलापों में किसी विशेष अथवा वर्जना को पसन्द नहीं करते। अगर उनकी भावनाओं के विपरीत उन्हें बंदिश में रखने की चेष्टा की जाती है, तो बालमन में आक्रोश और विद्रोह का अंकुर स्फुटित होने लगता है। उनके चेतन और विकासशील मस्तिष्क में अपनी इच्छाएँ, जिज्ञासाएँ और बाल सुलभ भावनाएं उन्हें उद्वेलित करने लगती हैं। किसी भी प्रकार की शक्ति वे अपनी इच्छाओं के सामने स्वीकार नहीं करते, और न पसन्द करते हैं। यह बच्चों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।...
मानवीय सोच की इसी भावभूमि पर आधारित इस उपन्यास के पात्र बाल्यावस्था की दोस्ती को जीवन में गहरे तक उतार लेते हैं और सफल होने तक अपने निश्चय पर अड़िग रहते हैं। संयोग से यहाँ गरीबी-अमीरी और ऊंच-नीच की सीमा रेखा उनके प्यार में बाधक बन जाती है। प्रकाश घरेलू नौकरानी का बेटा और टीना अमीर बाप की बेटी है। अकसर बच्चों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि बच्चा बच्चे की ओर ही आकर्षित होता है। साथ रहने, साथ खेलने और अपनी बाल-सुलभ अभिव्यक्ति का आदान-प्रदान करने को आतुर, उत्सुक और व्याकुल रहते हैं। यहाँ भी बंगले पर अकेली टीना अपनी नौकरानी के पुत्र के साथ बात करने और खेलने के लिए लालयित हो उठती है। किन्तु उसके अमीर माता-पिता को उनका यह मेल-मिलाप अपने सामाजिक स्टेट्स के खिलाफ महसूस होता है। उनके मना करने और रोकने पर यह क्रम चोरी छिपे शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे वय के साथ लगाव, झुकाव और चाहत विस्तार पाने लगती है। यह माता-पिता के लिए घोर चिन्ता का कारण बन जाता है। मान-सम्मान और ऊँच-नीच का यक्ष प्रश्न बनकर उनके हृदय को कचोटने लगता है। किन्तु इन सभी बाधाओं को पारकर अन्त में जीत बच्चों की ही होती है। बस यही इस उपन्यास का घटना क्रम है, जिसे मैंने अपनी शब्द शैली में विस्तार दिया है।...
उपन्यास ‘धड़कनों के पार’ बच्चों के प्यार की इन्हीं अवधाराणाओं को प्रतिपादित करती हुई कहानी है। जो आपको उत्सुक, आतुर और आशंकित करती हुई अन्त में सुख की अव्यक्त अनुभूति का ही अहसास कराएगी।....
उपन्यास के क्षेत्र में यह मेरी हिन्दी में प्रथम कृति है। मुझे आशा है मेरा यह उपन्यास आपकी भावनाओं के धरातल पर खरा उतेरगा। घटनाक्रम का फलक तो और अधिक विस्तार पा सकता था, किन्तु प्रकाशन सम्बन्धी विवशताओं के कारण इसे सीमित ही रखा है। मुझे विश्वास है कि कथानक का यह लघुतम रूप आपको मनोरंजन के साथ हृदय की अतल गहराई तक सुखान्तक अनुभूति का ही अहसास देगा। आशान्वित हूँ कि यह कृति आपको निराश नहीं करेगी।
प्रहलादसिंह राठौड़
‘धड़कनों के पार’ एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास
आधुनिक उपन्यास सार्थक साहित्य का एक अंग है। उपन्यासकार अपना अध्ययन
प्रकट करने के लिए कथानक का निर्माण करता है, नये पात्रों की सृष्टि करता
है, किन्तु उसकी गहरी दृष्टि अपने पात्रों की भावनाओं, कल्पनाओं,
मनोवांछाओं और गुप्त मन की धड़कनें कागज पर उतारने की रहती हैं। किसी
समस्या को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है विधा में ऐसी सामाजिक
वैयक्तिक और पारिवारिक समस्याएं प्रस्तुत कर अध्ययन करना जो पात्रों को
सत्यता प्रदान करता है। इस मानवीय अन्तर्द्वन्द्व को चित्रित करना,
हर्ष-विषाद, चिन्ता, पश्चाताप, वासना की भीषणता चित्रित करना लेखक की
सफलता है। मनोवैज्ञानिक या भौतिक सत्यों का उद्घाटन करने में मैं प्रस्तुत
उपन्यासकार की सफलता मानता हूँ।
श्री प्रहलादसिंह राठौड़ मनोवैज्ञानिक सत्यों, द्वन्द्वों को स्पष्ट करने, युवक युवतियों की सेक्स सम्बन्धी समस्याओं को उजागर करने में सफल हुए हैं। उनके पात्र हमारे रोजमर्रा के जीवन से ही चुने गये हैं, व इसी समाज की समस्याओं या वर्जनाओं रूढ़ियों से जूझते हैं, और हमारी सहानुभूति प्राप्त करते हैं। वे उन सब सामाजिक बन्धनों से जूझते हैं, पर लेखक की कुशलता यह है कि पात्रों की सफलताओं और विफलताओं में भी हमारी सहानुभूति खोजते हैं। यह मनोवैज्ञानिक अध्ययन ही इस उपन्यास की सफलता का आधार है। वे कला को कला के लिए न होकर जीवन के लिए मानते हैं। ऐसे सत्य का ही इस कृति में विशेष मूल्य है। इस उपन्यास में युवक युवतियों के यौन संबंधों को मर्यादा और शालीनता से प्रस्तुत किया गया है। उनका मनोविज्ञान युवक हृदयों की भीतरी सतहों तक प्रस्तुत करने की कोशिश करता है, उसका सम्बन्ध मनुष्य के अवचेतन से रहा है। प्रेमचन्द की तरह श्री प्रहलादसिंह राठौड़ में ऐसे विश्लेषणात्मक मनोवैज्ञानिक सत्य के उदाहरण मिलते हैं। उन्होंने अपने पात्रों के मन में झांककर कुशल कथाकार की तरह मानसिक स्थितियों को स्पष्ट किया है। उनकी इस कृति का स्थाई महत्त्व है।
श्री प्रहलादसिंह राठौड़ मनोवैज्ञानिक सत्यों, द्वन्द्वों को स्पष्ट करने, युवक युवतियों की सेक्स सम्बन्धी समस्याओं को उजागर करने में सफल हुए हैं। उनके पात्र हमारे रोजमर्रा के जीवन से ही चुने गये हैं, व इसी समाज की समस्याओं या वर्जनाओं रूढ़ियों से जूझते हैं, और हमारी सहानुभूति प्राप्त करते हैं। वे उन सब सामाजिक बन्धनों से जूझते हैं, पर लेखक की कुशलता यह है कि पात्रों की सफलताओं और विफलताओं में भी हमारी सहानुभूति खोजते हैं। यह मनोवैज्ञानिक अध्ययन ही इस उपन्यास की सफलता का आधार है। वे कला को कला के लिए न होकर जीवन के लिए मानते हैं। ऐसे सत्य का ही इस कृति में विशेष मूल्य है। इस उपन्यास में युवक युवतियों के यौन संबंधों को मर्यादा और शालीनता से प्रस्तुत किया गया है। उनका मनोविज्ञान युवक हृदयों की भीतरी सतहों तक प्रस्तुत करने की कोशिश करता है, उसका सम्बन्ध मनुष्य के अवचेतन से रहा है। प्रेमचन्द की तरह श्री प्रहलादसिंह राठौड़ में ऐसे विश्लेषणात्मक मनोवैज्ञानिक सत्य के उदाहरण मिलते हैं। उन्होंने अपने पात्रों के मन में झांककर कुशल कथाकार की तरह मानसिक स्थितियों को स्पष्ट किया है। उनकी इस कृति का स्थाई महत्त्व है।
-डॉ.रामचरण महेन्द्र
महेन्द्र साहित्य सदन
नयापुरा, कोटा (राज.)
महेन्द्र साहित्य सदन
नयापुरा, कोटा (राज.)
भूमिका
स्नेह का स्पन्दन-धड़कनों के पार
समय का चक्र अपनी निर्बाध गति से चलता हुआ युगों को समेटे इतिहास का गवाह
बनता हुआ समाज के समक्ष दस्तावेज रखता है। यही दस्तावेज हैं जिनमें
सामाजिक राष्ट्रीय धड़कनों के स्पन्दन का अहसास और घटित सन्दर्भों के
पृष्ठ खुले रहते हैं। इन्हीं अहसासों और पृष्ठों के मध्य व्यक्ति का जीवन
सफर आगे बढ़ता रहता है। बढ़ना विकास की प्रक्रिया का सूचक है। इसी
प्रक्रिया से गुजरते हुए व्यक्ति अपने भविष्य का साक्षात्कार करता है और
बीते समय की अनुभूतियों को आत्मसात कर वर्तमान को संवारता है।
अपनी जिम्मेदारियों का अहसास और कर्त्तव्य के पथ पर बढ़ते हुए व्यक्ति को उन तमाम दायरों से होते हुए जीवन के पड़ावों पर ठहरना होता है जहां उसे अनुभवों की पराकाष्ठा आगे के मार्ग को प्रशस्त करती है। अपने जीवन में घटित सन्दर्भों में सकारात्मक परिवेश के साथ व्यक्ति अपने स्नेहित पलों को पाने की कोशिश में मंजिल की ओर गतिमान रहता है। मंजिल की ओर ले जाते पथ में उसे समयानुरूप विभिन्न पड़ावों से होकर आगे जाना होता है, जहाँ उनका सामना घुटन, संत्रास, पीड़ा, दर्द, खुशी, गम, आश्चर्य, चमत्कार, होनी-अनहोनी जैसे कई सन्दर्भों से साक्षात्कार करना होता है।
साक्षात्कार के दौरान ही उसे स्नेहिल सन्दर्भों की पराकाष्ठा का अहसास भी होता है। प्यार के क्षणों में डूबकर व्यक्ति कई बार अपने मूल पथ से भटक कर घोर अवसादी हो जाता है तो कभी प्रेम के मूल स्वर को आत्मसात् कर समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता है। तथापि स्नेह की सरिता को निर्बाध रूप से कहने का बहाना भी होता है और गति अवरोध के पिरामिड भी। प्रेम की पवित्रता और अंधानुकरण की गन्दगी का साथ-साथ गतिमान होना कई बार पवित्रता का प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। प्रश्नों के जंगल में भेदभाव, ऊंचा-नीचा, बड़ा-छोटा और अमीरी-गरीबी जैसे न जाने कितनी वृक्ष प्रजातियों का अंकुरण फूटता है जो समय के साथ पल्लवित होकर सघनता का रूप ले लेती है। परन्तु विश्वास, तटस्थता और समर्पण की त्रिवेणी प्यार के सागर में सफलता की लहरों को चलायमान रखती है। हालांकि इन लहरों का उग्र रूप भी सामने आता है परन्तु धैर्य और अडिग सन्दर्भ उग्रता को धाराशायी कर देते हैं।
इन तमाम सन्दर्भों का दस्तावेज है वरिष्ठ कथाकार प्रहलादसिंह राठौड़ का यह उपन्यास ‘धड़कनों के पार’। जिसमें स्नेह का स्पन्दन है, समाज में फैली विषमताओं का खुलासा है और सहज रूप से अंकुरित प्रेम के प्रस्फुटन के साथ पल्लवित होते स्नेहिल परिवेश का दृष्टांत है। कहानीकार प्रहलादसिंह राठौड़ ने अपने रचना कर्म में उन तमाम दायरों को समेटने का प्रयास किया है जिनसे उनका साक्षात्कार तो हुआ ही है साथ ही भोगे हुए यथार्थ का प्रस्तुतिकरण भी सामने आया है और इसे अभिव्यक्त करने में वे सफल भी हुए हैं। फिर चाहे उनका शेष यात्रा, कहानी संग्रह हो या ‘मंथन’ कथा समुच्चय या आगे और आगे का कथा क्रम। कथाकार ने अपने परिवेश में पारित सन्दर्भों को उकेरने का सफल प्रयास किया है।
इस क्रम में कथाकार का प्रथम कहानी संग्रह ‘शेष यात्रा’ समूचे समाज की धड़कन है। यह कहानी संग्रह व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के बहुआयामी फलकों को दृष्यमान करता है। इसमें जीवन का खुलासा है, वहीं शेष यात्रा की जिज्ञासा भी है। इन कहानियों में समय के सच का खुलासा है वहीं संघर्ष, विसंगतियों और पीड़ा का खुला बयान भी है। इन कहानियों में कथाकार ने कहानी कहने को ही उजागर नहीं किया है वरन् मानवीय सत्ता के साथ-साथ मानवीय विकास की प्रक्रिया को भी गहनता के साथ विश्लेषित, विवेचित किया है। यही नहीं कथाकार ने जीवन के विभिन्न तथ्यों को ही कथाक्रम नहीं दिये बल्कि स्वतंत्र वैचारिक अभिव्यक्ति को भी व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। इसलिए ‘शेष यात्रा’ मानवीय संवेदनाओं तथा सामाजिक यथार्थ को उकेरती कथा यात्रा है।
अपनी जीवन यात्रा के विविध पड़ावों से गुजरते हुए कथाकार से शेष यात्रा को उजागर कर समाज के विविध दायरों को उद्घाटित किया है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शेष यात्रा के इन गलियारों में कथाकार ने चिन्तन-मनन किया और घटते हुए अंशों को मंथित कर ‘मंथन’ को सामने लाये। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, विसंगतियों, शहरीकरण, महानगरीय जीवन की त्रासदी, समाज में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों, अलगाव, अराजकता, निराशावाद, अवसाद, घृणा, और अनेकानेक ऐसे ही चरित्रों का खुलासा करती मंथन की कहानियाँ मानवीय रिश्तों, टूटते, गिरते-पड़ते संवरते पारिवारिक सम्बन्धों को प्रतिबिम्बित करती हैं। ‘मंथन’ कहानी संग्रह सम्पूर्ण विश्व की धड़कनों का मूल्यांकन है। यह मूल्यांकन है वैश्वीकरण, बाजारवाद से उपजी संस्कृति का, अपसंस्कृति से उपजी जीवन शैली का, साम्प्रदायिकता के परिवेश से उद्घाटित भय का शहरीकरण से उपजी मानसिकता का, गाँवों से पलायन होती मानवता का, अंधानुकरण से पनपी मन:स्थिति का, संवेदनहीन होती मानवता से उपजे घृणित पात्रों का और न जाने कितने ऐसे ही सन्दर्भों का जिसे आदमी दिन-रात भोगता है। इसीलिए मंथन की कहानियाँ मानवीय मूल्यों से स्पंदित और आदर्श मूलक प्रतिमानों को स्थापित करती है।
मंथन के उपरान्त की कहानियाँ कथाकार के सोच को विस्तृत फलक प्रदान करती है और आगे बढ़ती है। इस नाते ‘आगे और आगे’ का कथाक्रम बदलते परिदृष्य का सच्चा दस्तावेज है। इसमें कथाकार की गहरी संवेदना और अपने आस-पास के परिवेश में घटित सन्दर्भों को तलाशती तीक्ष्ण दृष्टि उजागर होती है। बदलते परिदृष्य और मूल्यों से व्यक्ति की सोच, उसके संस्कारों में परिलक्षित होती है, जिसे कथाकार ने बखूबी चित्रित किया है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय संस्कृति के आहत दायरों का खुलासा करती परिवारों में उपज रही वैमनस्यता को दर्शाती है। यही नहीं त्रस्त नारी जगत के यथार्थ का जमावड़ा भी इन कहानियों में दृष्टिगोचर होता है। वहीं आहत मानवता की सिसकियों अभाव से उपजे आक्रोश और शोषण से उपजे विरोध का स्वर भी इन कहानियों में मुखरित हुआ है। शोषण के विविध दायरों का खुलासा करती ये कहानियाँ ग्रामीण अँचल की सहजता, वैचारिक समन्वय और संस्कारवान होती पीढ़ी का सहज चित्रण है।
समाज के विविध पहलुओं और रचनाकार के समक्ष घटित प्रसंगों का ताना-बाना कथाकार की पैनी कलम से सामने आया है, इसमें कथाकार की संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति की शैली को उजागर करता है। रचनाकार की यह विशेषता भी होती है जिसे प्रहलादसिंह जी राठौड़ ने बखूबी निभाया है।
इन तमाम परिवेश से विलग प्रेमिल सन्दर्भों को अपनी लेखनी से शब्द प्रदान कर रचनाकार प्रहलादसिंह राठौड़ ने ‘धड़कनों के पार’ के यथार्थ को उकेरने की सफल पहल की है। अपनी सजग आँखों और संवेदनशील हृदय से उपजी अभिव्यक्ति की सहजता को उभारकर कथाकार ने स्नेहिल सन्दर्भों के साथ समाज में व्याप्त अराजकता और वैषम्यता को उकेरा है।
समाज में फैली ऊंच-नीच की प्रवृत्ति के कारण उपजी संवेदना से इस उपन्यास का खाका खींचकर कथाकार प्रहलादसिंह राठौड़ ने जीवन के प्रमुख अंग प्रेम की बारीकियों को विस्तार प्रदान किया है। जिसमें संकीर्ण मानसिकता से उपज रहे प्रसंगों का खुलासा है वहीं खोखले आदर्शों को लपेटे मूल्यहीन मानवीय संवेदना से छिटकते परिवेश का यथार्थ चित्रण भी है। उपन्यास का मुख्य ताना-बाना युवा पीढ़ी की सोच और उनमें पनप रही आधुनिक परम्परागत सम्मिश्रित जीवन शैली के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई पड़ता है। जिसमें इस पीढ़ी की कल्पनाशीलता का विशद् वर्णन तथा विकास के पथ पर वर्जनाओं को तोड़कर आगे बढ़ मंजिल पर जाने की ललक का खुलासा किया है।
बदलते सामाजिक मूल्यों और पनपती आधुनिकता के बीच सफर करती युवा पीढ़ी में प्यार का अपना दार्शनिक पहलू है वहीं संस्कार के पल्लवित करते दायरों का दर्पण भी है। माता-पिता के अहम् और बच्चों पर थोपी गई स्वयं की मानसिकता से उपजे परिवेश का सटीक चित्रण इस उपन्यास में मिलता है।
उपन्यास का कथानक बचपन में सहज रूप से उपजे स्नेहिल सन्दर्भों से प्रारम्भ होकर यौवन की हटता तक बढ़ता है। नायिका टीना अमीर माता-पिता क्रांति कुमार एवं विभा की बेटी है। नायक प्रकाश विधवा कुंती का बेटा है। कुंती, क्रांति कुमार के यहाँ पर नौकरानी का कार्य करती है तथा उन्हीं के यहाँ पर बने सर्वेन्ट क्वाटर्स में रहती है। कुंती जब भी काम पे जाती है तो अपने बेटे प्रकाश को भी ले जाती है। बाल सुलभ सहज प्रवृत्ति के कारण प्रकाश और टीना साथ-साथ खेलने लगते हैं। परन्तु बच्चों का यह चुहलपना क्रांतिकुमार और विभा को फूटी आँख नहीं सुहाता। उनमें अपने धनाड्यपन का अहम् सुरसा के मुँह की तरह फैलता रहता है। परन्तु नौकरानी कुंती का विराट हृदय और विस्तृत सोच के दायरे प्रकाश को समझाने में सफल नहीं होते। आखिर उसे अपने मालिक के तानों से घायल होना पड़ता है।
बाल्यावस्था का यह खेल प्रकाश व टीना के लिए यौवन काल में प्रेम का प्रस्फुटन करता है जिससे उसके माता-पिता चिंतित हो उठते हैं। वे कुंती को समझाते हैं। कुंती प्रकाश को समझाती है परन्तु युवा पीढ़ी की सोच अपने फिलोसोफियाना अंदाज में प्रभावित होती है। टीना को भी उसके माता-पिता समझाते-बुझाते हार जाते हैं। आखिर में क्रांति कुमार अपने जीवन में सुख-दुख की साथी नौकरानी को निकालने की योजना बनाते हैं। परन्तु कुछ मानवीय संवेदना के चलते उनका खोखला अहम् सुस्ता जाता है। वे प्रकाश का दाखिला डॉक्टरी में कराकर कुंती को उसके साथ भेज देते हैं। अपनी कूटनीति से स्थिति को सुलझाकर क्रांति कुमार का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा हो उठता है। परन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था।
विभा की तबियत खराब रहने लगती है। डॉक्टर उन्हें हवा पानी बदलने की सलाह देते हैं। क्रांति कुमार विभा को लेकर माउण्ट आबू चले जाते हैं। यहाँ उनका मित्र दीनानाथ मिलता है। वह डॉ. पी. वर्मा को दिखाने की बात कहता है। संयोग से डॉ. पी. वर्मा उसी कुंती का बेटा प्रकाश है जिसे कभी क्रांति कुमार ने घर से निकाल दिया था। प्रकाश भी विभा को देखकर चौंकता है। प्रकाश के इलाज से विभा के स्वास्थ्य में सुधार होने लगता है।
उपन्यास की कहानी का घटनाक्रम यहां पर फिर उसी उद्वेलन में उलझ जाता है। टीना व प्रकाश मिलते हैं तथापि नदी के दो किनारों की तरह। अभी भी क्रांति कुमार का ऊंच-नीच में उलझा घमंडी मन टीना की जिन्दगी से खिलवाड़ ही करता है। परन्तु समय की माँग और वस्तु-स्थिति से उपजे सन्दर्भों के सहारे वे मान जाते हैं। इधर प्रकाश का मित्र नीरज और प्रकाश के साथ कार्य करने वाली सविता की उपकथा का प्रादुर्भाव भी प्रेम, कर्त्तव्य और पारिवारिक सन्दर्भों का खुलासा करती है। अन्त में प्रकाश और टीना का तथा नीरज और सविता का रिश्ता हो जाता है।
प्यार की यह कहानी इतनी आसानी से खत्म नहीं होती। कथाकार ने पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में इस हेतु उत्पन्न उद्वेलन को बखूबी शब्द प्रदान किये हैं। यही नहीं नियति के परिणाम और प्रकृति की सहजता को भी उपन्यासकार ने दर्शाया है। मुख्य कथा के साथ अन्त: सलिला-सी बहती उपकथा प्रेमिल प्रसंगों को आगे बढ़ाती है। जिन्दगी की ऊहा पोह और झूठ दम्भ का खुलासा भी यत्र-तत्र दिखलाई पड़ता है।
समाज में व्याप्त ऊंच-नीच तथा जातिवाद की गहरी पैठ को उकेरता धड़कनों के पार उपन्यास में प्यार की टीस उभारी गई है। प्रकाश कुंती के संवाद, कुंती-विभा के संवाद, क्रांतिकुमार कुंती के संवाद और प्रकाश-टीना के संवाद ऊँच-नीच से उपजी संस्कृति और संवेदनशीलता और संवेदनहीनता से उभरे प्रसंगों का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हैं। तथापि भारतीय संस्कृति की बंदनवारे और आदर्शात्मक रूप का प्रतिपादन भी घटनाक्रमों में होता है।
बाल मनोवैज्ञानिक का कथाकार ने सटीक वर्णन किया है। बच्चों को मिलने से मना करना, खिलौनों से नहीं खेलने देना, बच्चों का बच्चों के प्रति सहज आकर्षण, मना करने पर ज्यादा करना, बालपन में अंकित स्मृति का स्थायी होना इत्यादि का सहज चित्रण उनके मनोवैज्ञानिक का भी सूक्ष्म अंकन किया गया है। जिसमें तर्क, जिद सकारात्मक सोच कुछ पाने की ललक, संस्काखान होते हुए कार्य की प्रगति इत्यादि को शब्दायीत किया गया है।
झूठे अहम् से उपजे प्रसंग और माता-पिता की सोच का बच्चों पर प्रक्षेपण का यथार्थ वर्णन कथाकार ने किया है। कूटनीति से वस्तु-स्थिति को सम्हालना भी रचनाकार के अनुभवों की पराकाष्ठा का द्योतक है। घटनाक्रम में कल्पना के साथ यथार्थ का समन्वयन भी लेखक की संवेदनशीलता को दर्शाता है।
उपन्यास की भाषा एवं शैली सहज, प्रवाहमान है। संवाद पात्रों की मन:स्थितिनुसार हैं, वे कहीं से भी थोपे हुए नहीं लगते। चरित्रांकन भी उपन्यासकार ने सटीक किया है। देश काल परिस्थिति का वर्णन भी अनुकूल है। मुहावरों एवं कहावतों का भी यदा-कदा प्रयोग भाषा की सौष्ठवता का प्रतीक है।
कुल मिलाकर पारिवारिक परिवेश और समाज में फैली ऊंच-नीच की जल कुंभी का ब्योरा देता यह उपन्यास संवेदनशील होते माता-पिता, खोखले अभिमान में मदमस्त व्यक्तियों का मार्ग प्रशस्त कर युवा पीढ़ी के लिए आदर्श स्थापित करता है।
अपनी जिम्मेदारियों का अहसास और कर्त्तव्य के पथ पर बढ़ते हुए व्यक्ति को उन तमाम दायरों से होते हुए जीवन के पड़ावों पर ठहरना होता है जहां उसे अनुभवों की पराकाष्ठा आगे के मार्ग को प्रशस्त करती है। अपने जीवन में घटित सन्दर्भों में सकारात्मक परिवेश के साथ व्यक्ति अपने स्नेहित पलों को पाने की कोशिश में मंजिल की ओर गतिमान रहता है। मंजिल की ओर ले जाते पथ में उसे समयानुरूप विभिन्न पड़ावों से होकर आगे जाना होता है, जहाँ उनका सामना घुटन, संत्रास, पीड़ा, दर्द, खुशी, गम, आश्चर्य, चमत्कार, होनी-अनहोनी जैसे कई सन्दर्भों से साक्षात्कार करना होता है।
साक्षात्कार के दौरान ही उसे स्नेहिल सन्दर्भों की पराकाष्ठा का अहसास भी होता है। प्यार के क्षणों में डूबकर व्यक्ति कई बार अपने मूल पथ से भटक कर घोर अवसादी हो जाता है तो कभी प्रेम के मूल स्वर को आत्मसात् कर समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता है। तथापि स्नेह की सरिता को निर्बाध रूप से कहने का बहाना भी होता है और गति अवरोध के पिरामिड भी। प्रेम की पवित्रता और अंधानुकरण की गन्दगी का साथ-साथ गतिमान होना कई बार पवित्रता का प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। प्रश्नों के जंगल में भेदभाव, ऊंचा-नीचा, बड़ा-छोटा और अमीरी-गरीबी जैसे न जाने कितनी वृक्ष प्रजातियों का अंकुरण फूटता है जो समय के साथ पल्लवित होकर सघनता का रूप ले लेती है। परन्तु विश्वास, तटस्थता और समर्पण की त्रिवेणी प्यार के सागर में सफलता की लहरों को चलायमान रखती है। हालांकि इन लहरों का उग्र रूप भी सामने आता है परन्तु धैर्य और अडिग सन्दर्भ उग्रता को धाराशायी कर देते हैं।
इन तमाम सन्दर्भों का दस्तावेज है वरिष्ठ कथाकार प्रहलादसिंह राठौड़ का यह उपन्यास ‘धड़कनों के पार’। जिसमें स्नेह का स्पन्दन है, समाज में फैली विषमताओं का खुलासा है और सहज रूप से अंकुरित प्रेम के प्रस्फुटन के साथ पल्लवित होते स्नेहिल परिवेश का दृष्टांत है। कहानीकार प्रहलादसिंह राठौड़ ने अपने रचना कर्म में उन तमाम दायरों को समेटने का प्रयास किया है जिनसे उनका साक्षात्कार तो हुआ ही है साथ ही भोगे हुए यथार्थ का प्रस्तुतिकरण भी सामने आया है और इसे अभिव्यक्त करने में वे सफल भी हुए हैं। फिर चाहे उनका शेष यात्रा, कहानी संग्रह हो या ‘मंथन’ कथा समुच्चय या आगे और आगे का कथा क्रम। कथाकार ने अपने परिवेश में पारित सन्दर्भों को उकेरने का सफल प्रयास किया है।
इस क्रम में कथाकार का प्रथम कहानी संग्रह ‘शेष यात्रा’ समूचे समाज की धड़कन है। यह कहानी संग्रह व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के बहुआयामी फलकों को दृष्यमान करता है। इसमें जीवन का खुलासा है, वहीं शेष यात्रा की जिज्ञासा भी है। इन कहानियों में समय के सच का खुलासा है वहीं संघर्ष, विसंगतियों और पीड़ा का खुला बयान भी है। इन कहानियों में कथाकार ने कहानी कहने को ही उजागर नहीं किया है वरन् मानवीय सत्ता के साथ-साथ मानवीय विकास की प्रक्रिया को भी गहनता के साथ विश्लेषित, विवेचित किया है। यही नहीं कथाकार ने जीवन के विभिन्न तथ्यों को ही कथाक्रम नहीं दिये बल्कि स्वतंत्र वैचारिक अभिव्यक्ति को भी व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। इसलिए ‘शेष यात्रा’ मानवीय संवेदनाओं तथा सामाजिक यथार्थ को उकेरती कथा यात्रा है।
अपनी जीवन यात्रा के विविध पड़ावों से गुजरते हुए कथाकार से शेष यात्रा को उजागर कर समाज के विविध दायरों को उद्घाटित किया है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शेष यात्रा के इन गलियारों में कथाकार ने चिन्तन-मनन किया और घटते हुए अंशों को मंथित कर ‘मंथन’ को सामने लाये। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, विसंगतियों, शहरीकरण, महानगरीय जीवन की त्रासदी, समाज में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों, अलगाव, अराजकता, निराशावाद, अवसाद, घृणा, और अनेकानेक ऐसे ही चरित्रों का खुलासा करती मंथन की कहानियाँ मानवीय रिश्तों, टूटते, गिरते-पड़ते संवरते पारिवारिक सम्बन्धों को प्रतिबिम्बित करती हैं। ‘मंथन’ कहानी संग्रह सम्पूर्ण विश्व की धड़कनों का मूल्यांकन है। यह मूल्यांकन है वैश्वीकरण, बाजारवाद से उपजी संस्कृति का, अपसंस्कृति से उपजी जीवन शैली का, साम्प्रदायिकता के परिवेश से उद्घाटित भय का शहरीकरण से उपजी मानसिकता का, गाँवों से पलायन होती मानवता का, अंधानुकरण से पनपी मन:स्थिति का, संवेदनहीन होती मानवता से उपजे घृणित पात्रों का और न जाने कितने ऐसे ही सन्दर्भों का जिसे आदमी दिन-रात भोगता है। इसीलिए मंथन की कहानियाँ मानवीय मूल्यों से स्पंदित और आदर्श मूलक प्रतिमानों को स्थापित करती है।
मंथन के उपरान्त की कहानियाँ कथाकार के सोच को विस्तृत फलक प्रदान करती है और आगे बढ़ती है। इस नाते ‘आगे और आगे’ का कथाक्रम बदलते परिदृष्य का सच्चा दस्तावेज है। इसमें कथाकार की गहरी संवेदना और अपने आस-पास के परिवेश में घटित सन्दर्भों को तलाशती तीक्ष्ण दृष्टि उजागर होती है। बदलते परिदृष्य और मूल्यों से व्यक्ति की सोच, उसके संस्कारों में परिलक्षित होती है, जिसे कथाकार ने बखूबी चित्रित किया है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय संस्कृति के आहत दायरों का खुलासा करती परिवारों में उपज रही वैमनस्यता को दर्शाती है। यही नहीं त्रस्त नारी जगत के यथार्थ का जमावड़ा भी इन कहानियों में दृष्टिगोचर होता है। वहीं आहत मानवता की सिसकियों अभाव से उपजे आक्रोश और शोषण से उपजे विरोध का स्वर भी इन कहानियों में मुखरित हुआ है। शोषण के विविध दायरों का खुलासा करती ये कहानियाँ ग्रामीण अँचल की सहजता, वैचारिक समन्वय और संस्कारवान होती पीढ़ी का सहज चित्रण है।
समाज के विविध पहलुओं और रचनाकार के समक्ष घटित प्रसंगों का ताना-बाना कथाकार की पैनी कलम से सामने आया है, इसमें कथाकार की संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति की शैली को उजागर करता है। रचनाकार की यह विशेषता भी होती है जिसे प्रहलादसिंह जी राठौड़ ने बखूबी निभाया है।
इन तमाम परिवेश से विलग प्रेमिल सन्दर्भों को अपनी लेखनी से शब्द प्रदान कर रचनाकार प्रहलादसिंह राठौड़ ने ‘धड़कनों के पार’ के यथार्थ को उकेरने की सफल पहल की है। अपनी सजग आँखों और संवेदनशील हृदय से उपजी अभिव्यक्ति की सहजता को उभारकर कथाकार ने स्नेहिल सन्दर्भों के साथ समाज में व्याप्त अराजकता और वैषम्यता को उकेरा है।
समाज में फैली ऊंच-नीच की प्रवृत्ति के कारण उपजी संवेदना से इस उपन्यास का खाका खींचकर कथाकार प्रहलादसिंह राठौड़ ने जीवन के प्रमुख अंग प्रेम की बारीकियों को विस्तार प्रदान किया है। जिसमें संकीर्ण मानसिकता से उपज रहे प्रसंगों का खुलासा है वहीं खोखले आदर्शों को लपेटे मूल्यहीन मानवीय संवेदना से छिटकते परिवेश का यथार्थ चित्रण भी है। उपन्यास का मुख्य ताना-बाना युवा पीढ़ी की सोच और उनमें पनप रही आधुनिक परम्परागत सम्मिश्रित जीवन शैली के इर्द-गिर्द घूमता दिखाई पड़ता है। जिसमें इस पीढ़ी की कल्पनाशीलता का विशद् वर्णन तथा विकास के पथ पर वर्जनाओं को तोड़कर आगे बढ़ मंजिल पर जाने की ललक का खुलासा किया है।
बदलते सामाजिक मूल्यों और पनपती आधुनिकता के बीच सफर करती युवा पीढ़ी में प्यार का अपना दार्शनिक पहलू है वहीं संस्कार के पल्लवित करते दायरों का दर्पण भी है। माता-पिता के अहम् और बच्चों पर थोपी गई स्वयं की मानसिकता से उपजे परिवेश का सटीक चित्रण इस उपन्यास में मिलता है।
उपन्यास का कथानक बचपन में सहज रूप से उपजे स्नेहिल सन्दर्भों से प्रारम्भ होकर यौवन की हटता तक बढ़ता है। नायिका टीना अमीर माता-पिता क्रांति कुमार एवं विभा की बेटी है। नायक प्रकाश विधवा कुंती का बेटा है। कुंती, क्रांति कुमार के यहाँ पर नौकरानी का कार्य करती है तथा उन्हीं के यहाँ पर बने सर्वेन्ट क्वाटर्स में रहती है। कुंती जब भी काम पे जाती है तो अपने बेटे प्रकाश को भी ले जाती है। बाल सुलभ सहज प्रवृत्ति के कारण प्रकाश और टीना साथ-साथ खेलने लगते हैं। परन्तु बच्चों का यह चुहलपना क्रांतिकुमार और विभा को फूटी आँख नहीं सुहाता। उनमें अपने धनाड्यपन का अहम् सुरसा के मुँह की तरह फैलता रहता है। परन्तु नौकरानी कुंती का विराट हृदय और विस्तृत सोच के दायरे प्रकाश को समझाने में सफल नहीं होते। आखिर उसे अपने मालिक के तानों से घायल होना पड़ता है।
बाल्यावस्था का यह खेल प्रकाश व टीना के लिए यौवन काल में प्रेम का प्रस्फुटन करता है जिससे उसके माता-पिता चिंतित हो उठते हैं। वे कुंती को समझाते हैं। कुंती प्रकाश को समझाती है परन्तु युवा पीढ़ी की सोच अपने फिलोसोफियाना अंदाज में प्रभावित होती है। टीना को भी उसके माता-पिता समझाते-बुझाते हार जाते हैं। आखिर में क्रांति कुमार अपने जीवन में सुख-दुख की साथी नौकरानी को निकालने की योजना बनाते हैं। परन्तु कुछ मानवीय संवेदना के चलते उनका खोखला अहम् सुस्ता जाता है। वे प्रकाश का दाखिला डॉक्टरी में कराकर कुंती को उसके साथ भेज देते हैं। अपनी कूटनीति से स्थिति को सुलझाकर क्रांति कुमार का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा हो उठता है। परन्तु नियति को कुछ और ही मंजूर था।
विभा की तबियत खराब रहने लगती है। डॉक्टर उन्हें हवा पानी बदलने की सलाह देते हैं। क्रांति कुमार विभा को लेकर माउण्ट आबू चले जाते हैं। यहाँ उनका मित्र दीनानाथ मिलता है। वह डॉ. पी. वर्मा को दिखाने की बात कहता है। संयोग से डॉ. पी. वर्मा उसी कुंती का बेटा प्रकाश है जिसे कभी क्रांति कुमार ने घर से निकाल दिया था। प्रकाश भी विभा को देखकर चौंकता है। प्रकाश के इलाज से विभा के स्वास्थ्य में सुधार होने लगता है।
उपन्यास की कहानी का घटनाक्रम यहां पर फिर उसी उद्वेलन में उलझ जाता है। टीना व प्रकाश मिलते हैं तथापि नदी के दो किनारों की तरह। अभी भी क्रांति कुमार का ऊंच-नीच में उलझा घमंडी मन टीना की जिन्दगी से खिलवाड़ ही करता है। परन्तु समय की माँग और वस्तु-स्थिति से उपजे सन्दर्भों के सहारे वे मान जाते हैं। इधर प्रकाश का मित्र नीरज और प्रकाश के साथ कार्य करने वाली सविता की उपकथा का प्रादुर्भाव भी प्रेम, कर्त्तव्य और पारिवारिक सन्दर्भों का खुलासा करती है। अन्त में प्रकाश और टीना का तथा नीरज और सविता का रिश्ता हो जाता है।
प्यार की यह कहानी इतनी आसानी से खत्म नहीं होती। कथाकार ने पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में इस हेतु उत्पन्न उद्वेलन को बखूबी शब्द प्रदान किये हैं। यही नहीं नियति के परिणाम और प्रकृति की सहजता को भी उपन्यासकार ने दर्शाया है। मुख्य कथा के साथ अन्त: सलिला-सी बहती उपकथा प्रेमिल प्रसंगों को आगे बढ़ाती है। जिन्दगी की ऊहा पोह और झूठ दम्भ का खुलासा भी यत्र-तत्र दिखलाई पड़ता है।
समाज में व्याप्त ऊंच-नीच तथा जातिवाद की गहरी पैठ को उकेरता धड़कनों के पार उपन्यास में प्यार की टीस उभारी गई है। प्रकाश कुंती के संवाद, कुंती-विभा के संवाद, क्रांतिकुमार कुंती के संवाद और प्रकाश-टीना के संवाद ऊँच-नीच से उपजी संस्कृति और संवेदनशीलता और संवेदनहीनता से उभरे प्रसंगों का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हैं। तथापि भारतीय संस्कृति की बंदनवारे और आदर्शात्मक रूप का प्रतिपादन भी घटनाक्रमों में होता है।
बाल मनोवैज्ञानिक का कथाकार ने सटीक वर्णन किया है। बच्चों को मिलने से मना करना, खिलौनों से नहीं खेलने देना, बच्चों का बच्चों के प्रति सहज आकर्षण, मना करने पर ज्यादा करना, बालपन में अंकित स्मृति का स्थायी होना इत्यादि का सहज चित्रण उनके मनोवैज्ञानिक का भी सूक्ष्म अंकन किया गया है। जिसमें तर्क, जिद सकारात्मक सोच कुछ पाने की ललक, संस्काखान होते हुए कार्य की प्रगति इत्यादि को शब्दायीत किया गया है।
झूठे अहम् से उपजे प्रसंग और माता-पिता की सोच का बच्चों पर प्रक्षेपण का यथार्थ वर्णन कथाकार ने किया है। कूटनीति से वस्तु-स्थिति को सम्हालना भी रचनाकार के अनुभवों की पराकाष्ठा का द्योतक है। घटनाक्रम में कल्पना के साथ यथार्थ का समन्वयन भी लेखक की संवेदनशीलता को दर्शाता है।
उपन्यास की भाषा एवं शैली सहज, प्रवाहमान है। संवाद पात्रों की मन:स्थितिनुसार हैं, वे कहीं से भी थोपे हुए नहीं लगते। चरित्रांकन भी उपन्यासकार ने सटीक किया है। देश काल परिस्थिति का वर्णन भी अनुकूल है। मुहावरों एवं कहावतों का भी यदा-कदा प्रयोग भाषा की सौष्ठवता का प्रतीक है।
कुल मिलाकर पारिवारिक परिवेश और समाज में फैली ऊंच-नीच की जल कुंभी का ब्योरा देता यह उपन्यास संवेदनशील होते माता-पिता, खोखले अभिमान में मदमस्त व्यक्तियों का मार्ग प्रशस्त कर युवा पीढ़ी के लिए आदर्श स्थापित करता है।
2/48, गणेश तालाब,
बसंत विहार,
कोटा-324009 (राज.)
दूरभाष-0744-2428499
बसंत विहार,
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दूरभाष-0744-2428499
-विजय जोशी
अधिष्ठाता कृति कला एवं समन्वयक-महासचिव
राष्ट्रीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान ‘साहित्य वितान’
अधिष्ठाता कृति कला एवं समन्वयक-महासचिव
राष्ट्रीय साहित्य एवं संस्कृति संस्थान ‘साहित्य वितान’
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