कविता संग्रह >> धरती का आर्तनाद धरती का आर्तनादशीला गुजराल
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इस संग्रह की रचनाएँ यथार्थ का सीधा-सच्चा बयान हैं
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जीवन की समग्रता समेटती कविताएँ
श्रीमती शीला गुजराल देश की ऐसी रचनाकार हैं
जिनकी रचनाओं
में पाठकों को एक घरेलू निजता और आत्मीयता का एहसास मिलता है। वे जीवन को
उसके समूचे वैविध्य में खुली आँखों देखती और उस पर अपने मन में उभरते
बिम्बों को चस्पाँ करती हैं। आप उनकी हिन्दी कविताएँ पढ़ें अथवा अँग्रेजी
की रचनाएँ पढ़ें, उनमें अपना परिवेश ऐसे बुना हुआ मिलता है जैसे वह उनके
वजूद का हिस्सा हो। वैचारिक स्फुलिंग ऐसे उठते हैं जैसे निरन्तर प्रवहमान
झरने से छिटक-छिटक कर जल की शीतल बूँदें बाहर आती हैं। उनकी कविताओं के
बारे में ब्रिटेन की सुविख्यात चिन्तक कवि कैथलीन रेन ने इसी अर्थ में कहा
है कि ‘‘शीला गुजराल की कविताएँ जिन्दगी के जादुई
क्षणों की
आभा हैं।’’ वे इन जादुई क्षणों का चुनाव अपने आसपास
से करती
हैं और उन्हें चिन्तन की आभा से मण्डित करती हैं। यह चिन्तन किसी बौद्धिक
व्यायाम का एहसास नहीं देता, सहज मानवीय प्रतिक्रियाओं का प्रतिफलन मालूम
होता है। प्रकृति उनकी रचनात्मकता का बुनियादी उत्स है। वे प्रकृति को
बड़ी बारीक निगाहों से निहारती हैं। उससे बातें करती हैं, उसके लिए
उद्विग्न होती हैं। उसकी सहचारी बनकर उसे अपनी आत्मीयता देती हैं।
वातावरण और प्रकृति-परिवेश शीला जी के काव्य-संसार में जीवन्त मानवीय बिम्बों में उभरता है। पहाड़ के आँचल में गंगा नवजात शिशु की तरह सुकोमल लगती है तो वही गंगा मैदान का स्पर्श करते ही अल्हड़ युवती बन चंचल हिरनी की तरह अठखेलियाँ करती दिखाई देने लगती है। प्रकृति के विभिन्न व्यापारों में वे मानवीय वृत्तियों की छाया सहज देख लेती हैं और उन व्यापारों में मानवीय व्यवधान को वे बाखूबी रेखांकित करती हैं। प्रकृति के साथ हो रहे बलात्कार को वे चीत्कार की तरह सुनती हैं और व्यग्र होती हैं। प्रकृति के शान्त-स्निग्ध वातावरण में आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाओं के परिवेश ने किस तरह हवाओं को आहत किया है, झरनों को चोट पहुँचाई है, पक्षियों को देश निकाला दिया है, वृक्षों, द्रुमों और लताओं को झुलसकर खत्म हो जाने को मजबूर किया है, यह सब उनकी कविता ‘डंक’ में जीवन्त देखने को मिल जाता है। शीला जी प्रकृति की आत्मीय होकर उसका दुख-सुख बाँटती हैं और उसे अपनी संवेदना के स्पर्श से सहलाती हैं। उन्हें धरती, ‘माँ’ की प्रतिमूर्ति लगती है। उसके आँचल को झुलसाती हिंसा और उग्रवाद की लपटें उन्हें बेचैन करती हैं। वे राह से भटके हुए नौजवानों को सम्बोधित कर कहती हैं :
वातावरण और प्रकृति-परिवेश शीला जी के काव्य-संसार में जीवन्त मानवीय बिम्बों में उभरता है। पहाड़ के आँचल में गंगा नवजात शिशु की तरह सुकोमल लगती है तो वही गंगा मैदान का स्पर्श करते ही अल्हड़ युवती बन चंचल हिरनी की तरह अठखेलियाँ करती दिखाई देने लगती है। प्रकृति के विभिन्न व्यापारों में वे मानवीय वृत्तियों की छाया सहज देख लेती हैं और उन व्यापारों में मानवीय व्यवधान को वे बाखूबी रेखांकित करती हैं। प्रकृति के साथ हो रहे बलात्कार को वे चीत्कार की तरह सुनती हैं और व्यग्र होती हैं। प्रकृति के शान्त-स्निग्ध वातावरण में आधुनिक जीवन की सुख-सुविधाओं के परिवेश ने किस तरह हवाओं को आहत किया है, झरनों को चोट पहुँचाई है, पक्षियों को देश निकाला दिया है, वृक्षों, द्रुमों और लताओं को झुलसकर खत्म हो जाने को मजबूर किया है, यह सब उनकी कविता ‘डंक’ में जीवन्त देखने को मिल जाता है। शीला जी प्रकृति की आत्मीय होकर उसका दुख-सुख बाँटती हैं और उसे अपनी संवेदना के स्पर्श से सहलाती हैं। उन्हें धरती, ‘माँ’ की प्रतिमूर्ति लगती है। उसके आँचल को झुलसाती हिंसा और उग्रवाद की लपटें उन्हें बेचैन करती हैं। वे राह से भटके हुए नौजवानों को सम्बोधित कर कहती हैं :
‘‘भ्रमजाल में जकड़े
पथ भ्रष्ट बच्चों !
आँखें खोलो
अधोपतन का मार्ग त्याग
भाईचारे का पथ अपनाओ
साँझे प्रयास से समूचे विश्व की
लाज बचाओ !’’
पथ भ्रष्ट बच्चों !
आँखें खोलो
अधोपतन का मार्ग त्याग
भाईचारे का पथ अपनाओ
साँझे प्रयास से समूचे विश्व की
लाज बचाओ !’’
ऐसे सम्बोधनों में उनकी कविता अभिधात्मक
विवरणों का सहारा
लेकर सम्बोधन को सुबोध बनाती है। शीला जी नहीं चाहतीं कि ऐसे क्षणों में
भाषा का अलंकरण, प्रतीकों और बिम्बों की गुंजलक अभिप्राय की अनिवार्यता को
कहीं से भी धूमिल होने दे। वे समाज में फैली उन तमाम क्रूर परम्पराओं पर
उसी अभिधात्मक लहजे से चोट करती हैं और चेतावनी देती हैं :
‘‘मानवता का दामन छोड़
जातिवाद के चक्कर में पड़े हो
धर्मनिरपेक्षता का संकल्प भूल
मृत्युकाण्ड रचने पर तुले हो
स्त्रीशक्ति का हनन करने की
तुमने नयी युक्तियाँ सोची-
भ्रूण-हत्या बलात्कार
बहू-शोषण दहेज की माँग
नारी सम्पत्ति पर अधिकार जमाने के
नित नये हथियारों की खोज
तुम क्यों करते जा रहे हो ?’’
जातिवाद के चक्कर में पड़े हो
धर्मनिरपेक्षता का संकल्प भूल
मृत्युकाण्ड रचने पर तुले हो
स्त्रीशक्ति का हनन करने की
तुमने नयी युक्तियाँ सोची-
भ्रूण-हत्या बलात्कार
बहू-शोषण दहेज की माँग
नारी सम्पत्ति पर अधिकार जमाने के
नित नये हथियारों की खोज
तुम क्यों करते जा रहे हो ?’’
ऐसे में उनकी कविता महामनवों के प्रति
श्रद्धा-सुमन भी
चढ़ाती हैं और वर्तमान में उनकी जरूरत का अहसास भी कराती हैं।
‘गुरुवर’ को सम्बोधित कर वे कहती हैं:
‘‘रुको, तनिक रुको
मृत्युलोक से विमुक्त हो
अमरलोक जाने का विचार स्थगित करो
अभी तो सत्य और मानवता का पथ
जो स्वयं अपनाया है
जनता को दर्शाना है,
भाईचारे का सन्देश
घर-घर पहुँचाना है।
हठ न करो, गुरुवर
अमर ज्योतिपुंज में समोने का विचार
अभी छोड़ दो।’’
मृत्युलोक से विमुक्त हो
अमरलोक जाने का विचार स्थगित करो
अभी तो सत्य और मानवता का पथ
जो स्वयं अपनाया है
जनता को दर्शाना है,
भाईचारे का सन्देश
घर-घर पहुँचाना है।
हठ न करो, गुरुवर
अमर ज्योतिपुंज में समोने का विचार
अभी छोड़ दो।’’
उन्हें रह-रहकर याद आते हैं राष्ट्रपिता
गाँधी के आदर्श,
उनके उसूल और उनको भुलाकर अन्याय और शोषण पद पनपनेवाले नेताओं के खोखले
वादे और नारे। समाज को सही दिशा में प्रेरित करने के लिए वे कविता को एक
उत्प्रेरक का काम करते पाती हैं और कहती हैं :
‘‘मन के उद्गार
कविता में ढाल
जब मैं उन्मुक्त स्वर से गाती हूँ
तो सोचती हूँ-
शायद मेरी नव-रचित कविता
कर्मठ स्वयंसेवकों को
संशय की छाया से मुक्ति दिला
देश भर में नव-चेतना लाने
अमन का वातावरण बनाने
अपनी तुच्छ भूमिका
निभा पाये !’’
कविता में ढाल
जब मैं उन्मुक्त स्वर से गाती हूँ
तो सोचती हूँ-
शायद मेरी नव-रचित कविता
कर्मठ स्वयंसेवकों को
संशय की छाया से मुक्ति दिला
देश भर में नव-चेतना लाने
अमन का वातावरण बनाने
अपनी तुच्छ भूमिका
निभा पाये !’’
ऐसे में वे शब्दों से समाज सुधार का काम लेने
वाली एक
सन्धिका का रूप लिये दिखती हैं। लेकिन उनका रचनाकार मन समाज-सुधार में ही
टिका नहीं रहता, मन के स्वच्छन्द विचरण के लिए कल्पना की गलियों में उनकी
आवाजाही बढ़ जाती है। लेकिन इस आवाजाही में संवेदना का ज्वर सिसकने, रोने
या थककर सोने न लग जाए, इसके लिए वे सतत प्रयत्नशील दिखती हैं। यह
प्रयत्नशीलता भी सहजता में लिपटी हुई रहती है, किसी बौद्धिक सघनता के
कुहासे में से नहीं गुजारती। भले ही उनका भापागत रचाव समसामयिक मुहावरे को
पकड़ने में थोड़ा पीछे रह जाता है, मगर भावों का रेला उसे बहुत आगे धकेल
ले जाता है।
शीला गुजराल की कविता यथार्थ का सीधा-सच्चा बयान है तो कल्पना के पंख लगाकर ऊँचे उड़ती यथार्थ की परछाइयों का आख्यान भी। वे इतिहास के खण्डहरों के बीच भी जीवन की धड़कती हुई तस्वीरें देखने में विश्वास करती हैं। इसीलिए रणम्भोर किले की झुर्रीदार काया से भी उन्हें मुस्कानों के मोती बिखरते दिखाई देते हैं। मगर जो सबसे अधिक आकर्षक और उत्प्रेरक बात उनकी कविताओं में दिखती है वह है अपने देश और समाज के सुनहरी भविष्य की आशा। वे एक राजनीतिक चेतना वाले प्रसिद्ध गुजराल परिवार का अंग जरूर हैं लेकिन उनकी चेतना पर किसी पार्टी विशेष का पर्दा नहीं पड़ा है। वे किसी रंग की तरफदार नहीं हैं। तरफदार हैं तो मानवता की। उन्हें क्षितिज पर मँडराता सुनहरा भविष्य ओझल होता दिखता है तो उन्हें लगता है कि :
शीला गुजराल की कविता यथार्थ का सीधा-सच्चा बयान है तो कल्पना के पंख लगाकर ऊँचे उड़ती यथार्थ की परछाइयों का आख्यान भी। वे इतिहास के खण्डहरों के बीच भी जीवन की धड़कती हुई तस्वीरें देखने में विश्वास करती हैं। इसीलिए रणम्भोर किले की झुर्रीदार काया से भी उन्हें मुस्कानों के मोती बिखरते दिखाई देते हैं। मगर जो सबसे अधिक आकर्षक और उत्प्रेरक बात उनकी कविताओं में दिखती है वह है अपने देश और समाज के सुनहरी भविष्य की आशा। वे एक राजनीतिक चेतना वाले प्रसिद्ध गुजराल परिवार का अंग जरूर हैं लेकिन उनकी चेतना पर किसी पार्टी विशेष का पर्दा नहीं पड़ा है। वे किसी रंग की तरफदार नहीं हैं। तरफदार हैं तो मानवता की। उन्हें क्षितिज पर मँडराता सुनहरा भविष्य ओझल होता दिखता है तो उन्हें लगता है कि :
‘‘हमारी पचास वर्ष की
लम्बी यात्रा निष्फल रही,
काश, कोई गाँधी जैसा साहसी नेता,
गर्त की तहें चीरता, आगे आए
देश को बचाए।’’
वे राजनीति के भ्रष्ट आधुनिक स्वरूप पर चटखारे भी लेती हैं :
‘‘निम्न वर्ग में जनमा
माया के आँचल में चिपटा
असीम आकाश के सपने लेता
सहज उड़ाने भरता हूँ
भाईचारे की माला जपता
चेतनता के नारे रटता
नेताओं के तलवे चूम
सत्ता की मदिरा में झूम
राजनीति के दुर्गम पथ पर
खूब मजे से बढ़ता हूँ।’’
काश, कोई गाँधी जैसा साहसी नेता,
गर्त की तहें चीरता, आगे आए
देश को बचाए।’’
वे राजनीति के भ्रष्ट आधुनिक स्वरूप पर चटखारे भी लेती हैं :
‘‘निम्न वर्ग में जनमा
माया के आँचल में चिपटा
असीम आकाश के सपने लेता
सहज उड़ाने भरता हूँ
भाईचारे की माला जपता
चेतनता के नारे रटता
नेताओं के तलवे चूम
सत्ता की मदिरा में झूम
राजनीति के दुर्गम पथ पर
खूब मजे से बढ़ता हूँ।’’
यही नहीं, उनकी नजर राजनीति के उतार-चढ़ाव के
उस मक़ाम पर
भी रहती है जहाँ विडम्बनाएँ अपने विरोधाभासी स्वरूप में आर्शीवाद बाँट रही
होती हैं। गवाह हैं ये पंक्तियाँ :
‘‘आज पन्द्रह वर्ष
पश्चात
सफलता के सोपान पर पहुँचा
वही परोपकारी नेता
जब मंच पर विराजमान
जयजयकार के नारों से प्रसन्न
मन्द-मन्द मुस्करा रहा है
तो पिछली कतार में खाँसता बूढ़ा
ममता के आँसू बहाता
आसीसों की बरखा करता
मंगल-कामना की सुगन्ध फैला रहा है।’’
सफलता के सोपान पर पहुँचा
वही परोपकारी नेता
जब मंच पर विराजमान
जयजयकार के नारों से प्रसन्न
मन्द-मन्द मुस्करा रहा है
तो पिछली कतार में खाँसता बूढ़ा
ममता के आँसू बहाता
आसीसों की बरखा करता
मंगल-कामना की सुगन्ध फैला रहा है।’’
राजनीति ही नहीं शीलाजी की निगाह अपने आसपास
बिखरे मानवभक्षी देवों को भी
देखती है और उनका चेहरा उजागर करती है।
एक संवेदनशील नारी होने के नाते शीलाजी ने नारी के अनगिनत रूप समाज में देखे और उनपर अपनी चेतना का रंग चढ़ाया है। एक ओर जहाँ वे समाज में नारी उत्पीड़न से आहत और परेशान हैं वहीं अत्याधुनिकता की चकाचौंध में फँसी हुई नारी शक्ति को चेतावनी भी देती हैं :
एक संवेदनशील नारी होने के नाते शीलाजी ने नारी के अनगिनत रूप समाज में देखे और उनपर अपनी चेतना का रंग चढ़ाया है। एक ओर जहाँ वे समाज में नारी उत्पीड़न से आहत और परेशान हैं वहीं अत्याधुनिकता की चकाचौंध में फँसी हुई नारी शक्ति को चेतावनी भी देती हैं :
प्रतिस्पर्धा की बीन बजाती
केवल अपना ध्वज फैलाती
द्रुत कदमों से दौड़ लगाती
यूँ न बढ़ो, चलो जरा धीमे चलो
केवल अपना ध्वज फैलाती
द्रुत कदमों से दौड़ लगाती
यूँ न बढ़ो, चलो जरा धीमे चलो
वे चाहती हैं कि ये द्रुतगति से भागती हुई
युवतियाँ पीछे
मुड़कर देखें कि उनके पीछे अन्ध-विश्वासों में पिसती परम्पराओं के नीचे
दबी नारियों की अपार भीड़ हैं। वे चाहती हैं कि द्रुतगति से भागती हुई ये
युवतियाँ उन्हें सधे कदमों बढ़ने की युक्ति सिखा साथ चलने को प्रेरित
करें। शीलाजी की सामाजिक चेतना का यह बुनियादी रंग उनकी प्रकृति चेतना पर
भी हावी दिखता है।
उनकी प्रकृति को देखने की दृष्टि समाजवादी चेतना में बदल जाती है। वे सूर्य के आक्रोश में जलती हुई धरा को सन्तप्त देखने के बजाय बादलों की छाँव में शीतल देखना चाहती हैं। उनकी यह चेतना केवल धरा, गगन, सूर्य और मेघ तक ही सीमित नहीं है वे मनुष्य मात्र के सर्वांगीण विकास के पक्षधर रचनाकार हैं। उसी स्वर को पकड़ने में वे कविता के उत्स भी देखती हैं और मानती हैं कि कविता दिमाग के तहखानों में दुबके शब्दों की फौज को सहेजने से बनती है और वह विप्लव गान भी बन जाती है।
शीला जी की ये कविताएँ सामाजिक परिवर्तन के लिए हुंकार नहीं मचातीं, एक मृदुचेतना जगाती हैं, आक्रोश की ज्वाला को रचनात्मक ऊर्जा में बदलने का उपक्रम करती हैं। छोटे-छोटे कलेवर वाली शिल्प-रचना में सरोकारों का व्यापक आयाम बुनती हैं ! उनमें मिथकों का कहीं कोई इस्तेमाल नहीं है लेकिन मिथकीय आभा विद्यमान है।
मैं आशा करता हूँ, पाठकों को उनकी ये कविताएँ सोचने और गुनगुनाने का पर्याप्त आधार बनेंगीं !
उनकी प्रकृति को देखने की दृष्टि समाजवादी चेतना में बदल जाती है। वे सूर्य के आक्रोश में जलती हुई धरा को सन्तप्त देखने के बजाय बादलों की छाँव में शीतल देखना चाहती हैं। उनकी यह चेतना केवल धरा, गगन, सूर्य और मेघ तक ही सीमित नहीं है वे मनुष्य मात्र के सर्वांगीण विकास के पक्षधर रचनाकार हैं। उसी स्वर को पकड़ने में वे कविता के उत्स भी देखती हैं और मानती हैं कि कविता दिमाग के तहखानों में दुबके शब्दों की फौज को सहेजने से बनती है और वह विप्लव गान भी बन जाती है।
शीला जी की ये कविताएँ सामाजिक परिवर्तन के लिए हुंकार नहीं मचातीं, एक मृदुचेतना जगाती हैं, आक्रोश की ज्वाला को रचनात्मक ऊर्जा में बदलने का उपक्रम करती हैं। छोटे-छोटे कलेवर वाली शिल्प-रचना में सरोकारों का व्यापक आयाम बुनती हैं ! उनमें मिथकों का कहीं कोई इस्तेमाल नहीं है लेकिन मिथकीय आभा विद्यमान है।
मैं आशा करता हूँ, पाठकों को उनकी ये कविताएँ सोचने और गुनगुनाने का पर्याप्त आधार बनेंगीं !
दो शब्द
व्यस्त और व्याधिग्रस्त जीवन में कविता एक
ऐसी संजीवनी है
जो मुझे हरदम प्रोत्साहित करती है। कभी हिन्दी, कभी पंजाबी, और कभी
अँगरेजी की पोशाक ओढ़कर जब वह अचानक मेरी कल्पना के आहते में झाँकती है तो
मैं उसे तुरन्त रेखांकित करने को प्रेरित हो उठती हूँ। वह मन चली जब चाहे
किसी रूप में प्रकट हो सकती है ! अक्सर ऐसा हुआ है कि कभी सुबह भ्रमण करते
पंजाबी पहनावा ओढ़कर आ टपकती है और कभी रात को अँगरेजी में मेरी नींद का
द्वार खटखटाती है। कई बार तो दिन-प्रतिदिन सजीली शुद्ध हिन्दी को अपनाने
में व्यस्त हो जाती है। मैं तो अपनी ओर से कोई नियन्त्रण लगाने की चेष्ठा
नहीं करत। कभी महीनों, कभी बरसों, किसी एक भाषा मे दर्शन कम देती है और
समूहित रूप में उसका छवि-चित्र पाठकों तक पहुँचाने में विलम्ब हो जाता है;
और कभी ऐसे वेग में उमड़ती है कि एक ही पहनावे में मैं उसे बार-बार पाठकों
तक पहुँचाती हूँ।
पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी शायद मुझसे रूठ गयी थी। जैसे-तैसे मैंने कुछ-एक कविताओं की पाण्डुलिपि तैयार की तो उसने पुनः मुझे अपनाया। इस बीच छुटपुट हिन्दी कविताएँ लघु पत्रिका में भी छपीं।
देर पर दुरुस्त। ‘ज्ञानपीठ’ द्वारा प्रकाशित मेरी पुस्तकों की साज-सज्जा, सम्पादन सभी कुछ हमेशा ही सराहनीय रहा है। यह केवल मेरा निजी ही नहीं, बल्कि सभी लेखक-लेखिकाओं का अनुभव है।
इस संग्रह में विविध विषयों पर हिन्दी में लिखी मेरी लगभग सभी कविताएँ प्रस्तुत हैं। अधिकांश मानव-मूल्यों का पतन, समूचे वातावरण का निरन्तर क्षरण जैसे विषयों को प्रतिबिम्बित करती हैं। आँकड़ों में आर्थिक विकास अवश्य है, लेकिन निम्न वर्ग की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। समाज-सुधार, नारी-उत्थान और बाल-कल्याण के नारे तो बहुत सुनने में आते हैं पर नारी-शोषण, बलात्कार, भेद-भाव और जातिवाद उग्र रूप में ताण्डव नृत्य दिखा रहा है। सामाजिक और पर्यावरण-प्रदूषण न केवल भारत के लिए बिल्क विश्व भर के लिए एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है।
‘धरती का आर्तनाद’ अपना करुण स्वर पाठकों तक पहुँचाने के लिए मुझे निरन्तर झकझोरता है।
कई मित्रों ने समय-समय पर इस कविता संग्रह के विभिन्न अंश पढ़े और अपने अमूल्य सुझाव दिये। कुछेक पाठकों ने चन्द पत्रिकाओं में पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया भेजने का कष्ट किया। इस आशंका में कि इनमें से कोई नाम छूट न जाए, मैं सभी को सम्मान्य रूप में आभार व्यक्त करती हूँ।
नन्दन जी को कैसे आभार प्रगट करूँ, इसके लिए तो मैं शब्द ही नहीं जुटा पाती। अधूरे संग्रह को देखकर उन्होंने मुझे इतना प्रोत्साहित किया कि मेरी अवरुद्ध लेखनी का प्रवाह पूरे वेग से बढ़ने लगा।
भारतीय ज्ञानपीठ विशेष कर श्रोत्रिय जी की मैं विशेष आभारी हूँ कि उन्होंने सम्पादन और प्रकाशन इतनी कुशलता से किया है कि एक बार पाण्डुलिपि उनके हाथों निमित्त कर मेरे कन्धों का सारा बोझ उतर गया।
पाठकगण इस संग्रह में अपने अरमानों की तनिक-सी भी झलक पाएँ तो मैं अपनी साधना सफल समझूँगी।
पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी शायद मुझसे रूठ गयी थी। जैसे-तैसे मैंने कुछ-एक कविताओं की पाण्डुलिपि तैयार की तो उसने पुनः मुझे अपनाया। इस बीच छुटपुट हिन्दी कविताएँ लघु पत्रिका में भी छपीं।
देर पर दुरुस्त। ‘ज्ञानपीठ’ द्वारा प्रकाशित मेरी पुस्तकों की साज-सज्जा, सम्पादन सभी कुछ हमेशा ही सराहनीय रहा है। यह केवल मेरा निजी ही नहीं, बल्कि सभी लेखक-लेखिकाओं का अनुभव है।
इस संग्रह में विविध विषयों पर हिन्दी में लिखी मेरी लगभग सभी कविताएँ प्रस्तुत हैं। अधिकांश मानव-मूल्यों का पतन, समूचे वातावरण का निरन्तर क्षरण जैसे विषयों को प्रतिबिम्बित करती हैं। आँकड़ों में आर्थिक विकास अवश्य है, लेकिन निम्न वर्ग की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। समाज-सुधार, नारी-उत्थान और बाल-कल्याण के नारे तो बहुत सुनने में आते हैं पर नारी-शोषण, बलात्कार, भेद-भाव और जातिवाद उग्र रूप में ताण्डव नृत्य दिखा रहा है। सामाजिक और पर्यावरण-प्रदूषण न केवल भारत के लिए बिल्क विश्व भर के लिए एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है।
‘धरती का आर्तनाद’ अपना करुण स्वर पाठकों तक पहुँचाने के लिए मुझे निरन्तर झकझोरता है।
कई मित्रों ने समय-समय पर इस कविता संग्रह के विभिन्न अंश पढ़े और अपने अमूल्य सुझाव दिये। कुछेक पाठकों ने चन्द पत्रिकाओं में पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया भेजने का कष्ट किया। इस आशंका में कि इनमें से कोई नाम छूट न जाए, मैं सभी को सम्मान्य रूप में आभार व्यक्त करती हूँ।
नन्दन जी को कैसे आभार प्रगट करूँ, इसके लिए तो मैं शब्द ही नहीं जुटा पाती। अधूरे संग्रह को देखकर उन्होंने मुझे इतना प्रोत्साहित किया कि मेरी अवरुद्ध लेखनी का प्रवाह पूरे वेग से बढ़ने लगा।
भारतीय ज्ञानपीठ विशेष कर श्रोत्रिय जी की मैं विशेष आभारी हूँ कि उन्होंने सम्पादन और प्रकाशन इतनी कुशलता से किया है कि एक बार पाण्डुलिपि उनके हाथों निमित्त कर मेरे कन्धों का सारा बोझ उतर गया।
पाठकगण इस संग्रह में अपने अरमानों की तनिक-सी भी झलक पाएँ तो मैं अपनी साधना सफल समझूँगी।
धरती का आर्तनाद-1
सुनो,
मेरी कोख जाये बच्चो, सुनो।
माया के भ्रमजाल में पड़कर
सृष्टि का संहार क्यों कर रहे हो ?
भौतिकवाद की होड़ लगा
मानव का गला क्यों दबोच रहे हो ?
तुम्हारी धन-पिपासा ने
गम्भीर सागर को कुपित किया,
लहरों में ऐसी उथल-पुथल मचायी
कि भयंकर बाढ़
सैकड़ों बस्तियों को लीलती जा रही है;
गंगा के निर्मल पावन जल में मल-मूत व
कचरा फेंक,
अपभ्रष्ट किया,
नदियों में दूषित रासायनिक पदार्थ उड़ेल,
ऐसा विषमय बनाया
कि छटपटाती मछलियाँ भारी मात्रा में
मौत के घाट उतरने लगीं,
शेष जहरीली मछलियाँ
उपभोक्ताओं को भी उसी दिशा में धकेलने लगीं।
लोलुपता में मदहोश मूर्खों !
तुम निरन्तर ठोस चट्टानें, अमूल्य खनिज-पदार्थ
खोद-खोदकर मेरी छाती खोखली करते जा रहे हो
मेरी देह पर वार कर
घने जंगलों को काट
‘कांक्रीट’ के दमघोंटू जंगल बनाये जा रहे हो
‘नीओन लाईट’ से चकाचौंध सड़कों पर
धूल बिखेरती, धुआँ उगलती
चमचमाती गाड़ियों की कतारें लगा
दौलत की प्रदर्शनी तो कर रहे हो
पर जानते हो इसका परिणाम ?
सड़कों पर उड़ती धूल
मोबिल आयल, पेट्रोल द्वारा प्रदूषित हवा
तुम्हारे फेफड़ों में पहुँच
तुम्हें दमे का शिकार बना रही है।
मेरे तन को छलनी कर
लाखों पेड़-पौधों को उखाड़ते
किसानों का रोजगार ही नहीं छीनते,
शेष धरा की उर्वरता भी करते हो क्षीण।
पेड़ों से गिरते धराशायी सूखे पत्ते
कभी मेरा स्वास्थ्यवर्धक भोजन थे,
अब रासायनिक खाद पर हैं निर्भर,
मैं बनती जा रही हूँ बंजर
तभी तो गरीब जनता का पौष्टिक आहार
प्रोटीनयुक्त दालें तथा विभिन्न भोज्य तेल
जो कभी भारत से निर्यात होते थे
अब विदेशों से मँगवाकर
महँगे दामों बेचे जा रहे हैं
गाय का दूध, शिशुओं का सम्पूर्ण आहार
वह भी तो विषैले रसायनों से भरपूर !
माँ के दूध में वही दोष
उसका भोजन भी तो जहरीले तत्त्वों का मिश्रण।
तुम तो वही आधुनिकता की होड़ लगाते
वातावरण में उथल-पुथल मचा
सौर किरणों से रक्षा प्रदान करते
मेरे कवच को भी छेदने पर तुले हो !
वैज्ञानिक होड़ लगा,
परस्पर जासूसी करने अन्तरिक्ष में भेजे उपग्रह
नये संकट पैदा कर युद्ध का न्यौता दे रहे हैं।
विश्वव्यापी आतंकवाद की समस्या
आज विश्व भर के लिए जानलेवा बनी हुई है,
परस्पर सहयोग से शीघ्र ही सुलझ सकती है।
सभी प्राणघातक उपकरणों पर नियन्त्रण लगा
एटम-कण की क
आयुर्विज्ञान में ढाल
मानसिक और शारीरिक
असंख्य रोगों से पीड़ित
हर जीव-जन्तु को राहत पहुँचा
मानव-कल्याण निमित्त विज्ञान
का सही प्रयोग कर
प्रलय-काण्ड से सृष्टि बचा सकते हो।
मेरी कोख जाये बच्चो, सुनो।
माया के भ्रमजाल में पड़कर
सृष्टि का संहार क्यों कर रहे हो ?
भौतिकवाद की होड़ लगा
मानव का गला क्यों दबोच रहे हो ?
तुम्हारी धन-पिपासा ने
गम्भीर सागर को कुपित किया,
लहरों में ऐसी उथल-पुथल मचायी
कि भयंकर बाढ़
सैकड़ों बस्तियों को लीलती जा रही है;
गंगा के निर्मल पावन जल में मल-मूत व
कचरा फेंक,
अपभ्रष्ट किया,
नदियों में दूषित रासायनिक पदार्थ उड़ेल,
ऐसा विषमय बनाया
कि छटपटाती मछलियाँ भारी मात्रा में
मौत के घाट उतरने लगीं,
शेष जहरीली मछलियाँ
उपभोक्ताओं को भी उसी दिशा में धकेलने लगीं।
लोलुपता में मदहोश मूर्खों !
तुम निरन्तर ठोस चट्टानें, अमूल्य खनिज-पदार्थ
खोद-खोदकर मेरी छाती खोखली करते जा रहे हो
मेरी देह पर वार कर
घने जंगलों को काट
‘कांक्रीट’ के दमघोंटू जंगल बनाये जा रहे हो
‘नीओन लाईट’ से चकाचौंध सड़कों पर
धूल बिखेरती, धुआँ उगलती
चमचमाती गाड़ियों की कतारें लगा
दौलत की प्रदर्शनी तो कर रहे हो
पर जानते हो इसका परिणाम ?
सड़कों पर उड़ती धूल
मोबिल आयल, पेट्रोल द्वारा प्रदूषित हवा
तुम्हारे फेफड़ों में पहुँच
तुम्हें दमे का शिकार बना रही है।
मेरे तन को छलनी कर
लाखों पेड़-पौधों को उखाड़ते
किसानों का रोजगार ही नहीं छीनते,
शेष धरा की उर्वरता भी करते हो क्षीण।
पेड़ों से गिरते धराशायी सूखे पत्ते
कभी मेरा स्वास्थ्यवर्धक भोजन थे,
अब रासायनिक खाद पर हैं निर्भर,
मैं बनती जा रही हूँ बंजर
तभी तो गरीब जनता का पौष्टिक आहार
प्रोटीनयुक्त दालें तथा विभिन्न भोज्य तेल
जो कभी भारत से निर्यात होते थे
अब विदेशों से मँगवाकर
महँगे दामों बेचे जा रहे हैं
गाय का दूध, शिशुओं का सम्पूर्ण आहार
वह भी तो विषैले रसायनों से भरपूर !
माँ के दूध में वही दोष
उसका भोजन भी तो जहरीले तत्त्वों का मिश्रण।
तुम तो वही आधुनिकता की होड़ लगाते
वातावरण में उथल-पुथल मचा
सौर किरणों से रक्षा प्रदान करते
मेरे कवच को भी छेदने पर तुले हो !
वैज्ञानिक होड़ लगा,
परस्पर जासूसी करने अन्तरिक्ष में भेजे उपग्रह
नये संकट पैदा कर युद्ध का न्यौता दे रहे हैं।
विश्वव्यापी आतंकवाद की समस्या
आज विश्व भर के लिए जानलेवा बनी हुई है,
परस्पर सहयोग से शीघ्र ही सुलझ सकती है।
सभी प्राणघातक उपकरणों पर नियन्त्रण लगा
एटम-कण की क
आयुर्विज्ञान में ढाल
मानसिक और शारीरिक
असंख्य रोगों से पीड़ित
हर जीव-जन्तु को राहत पहुँचा
मानव-कल्याण निमित्त विज्ञान
का सही प्रयोग कर
प्रलय-काण्ड से सृष्टि बचा सकते हो।
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