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पदचिह्न

सीताकान्त महापात्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5597
आईएसबीएन :8126311320

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**डॉ. सीताकांत महापात्र : 'पदचिह्न' – समय और शाश्वतता की काव्यात्मक खोज**

Padchinh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कविता, फिर एक बार

किसी को भी बचा नहीं पाई कविता
बारूद से, विस्फोट से
भाले की नोक से, बंदूक से
अग्नि से, असूया से
पत्थर से, पश्चात्ताप से
शेर के मुँह से या सामूहिक हिंसा से।

जानता हूँ शब्दों में कोई जादू नहीं होता
उससे नहीं गलती दाल तक।

चिलचिलाती दुपहरी में कौवा बोलता है
सहजन के पेड़ पर
कविता उसी उत्क्षिप्त अपराह्न का चेहरा है
उसी के कपटपासे का अंश-विशेष।

स्कूली बच्चों की किताब से
अधमरे चातक-सी ताकती रहती है कविता
उनके ऊँघते चेहरे
परीक्षा के समय की अद्भुत थकान
टिमटिमाती लालटेन की बगल में।

ठंडा खाना बनी पड़ी रहती है कविता
खाने की गंदी थाली में
विद्वान् आलोचकों के छुरी–काँटे पकड़े हाथों-तले।
कभी-कभी मन करता है समेटकर फेंक दूँ
इन सारे अर्थहीन, असमर्थ शब्दों को
इतिहास के कूड़ेदान में
वहीं खो जाएँ वे
मोहनजोदड़ों, मुगल साम्राज्य,
दादाजी की छड़ी, टूटे खड़ाऊँ और
दादी माँ की आँखों में एकाकार हो
विराजती केवल शब्दहीनता।

अग्नि-उत्सव में वे लोग
जलती सनई लिये
पूर्वजों को पुकारते थे :
आओ, अँधेरे में आओ
उजाले में लौट जाओ।

तुम जो कभी यहीं थे
इसी उजाड़ शहर में
इसी जले गाँव में
इसी जली फसल की क्यारियों की मेड़ पर
इस होमकुंड की अक्षम मुँडेर पर
यदि तुम्हारी आत्मा आज
इस घने अँधेरे में लौट आए
किसी की आतुर, निर्लज्ज पुकार से
तो फिर आज
ये चंद शब्द ही
सनई की आग बन
तुम्हारे लौट आने की राह को
किंचित् आलोकित करें।

 

मत पूछो मुझसे, प्रिय मित्र

 

 

मत पूछो मुझसे
सदी, तारीख और सन् की बात
मत पूछो सूर्यास्त, मेघ, ओस,
दोस्त, परिजन, देश, इतिहास की बात।

रास्ते-भर कबंध
सड़े-गले शव, खून से सने चाकू
रक्त का झरना खो जाता है कीचड़ में
टकराता है अंधे इतिहास और चट्टानों से
पूरे रास्ते रक्त की होली, रक्त की लहरें।

कल नहीं होता स्मृति बिना
कल नहीं आशा, स्वप्न,
आकांक्षा और प्रतीक्षा के बिना।

फिर भी मैं घर-घाट
सो रही पत्नी और पुत्र को
छोड़कर नहीं जा पाया हूँ घने अरण्य में
मेरी तपस्या है खिड़की के निरंजना-तट पर खड़े हो
चुपचाप आकाश की ओर देखना
कापुरुष अमृत-संतान मैं
रोया हूँ युगों से युगों तक।

बस इतने में
हिलकर उलट जाती है रात फिर एक बार
किस एकांत अनजाने स्वर से
फिर से डूब मरती है सत्ता मेरी
नई शब्दहीनता के अथाह जल में।

मत पूछो मुझसे
क्या है सुबह की प्रार्थना
या साँझ की बिदाई और और स्तुति;
मत पूछो
बसंत, आम्रमंजरी और कोयल
फिर से आ पहुँचे या नहीं;
हमारी निरंतरता का उद्घोष
फिर एक बार चैती हवा में
होती है या नहीं।

मत पूछो मुझसे, प्रिय मित्र !
दुःख का रंग है कैसा, लोहे का स्वर है क्या,
यंत्रणा का स्थापत्य है कैसा
कितने युगों, कितने मन्वंतरों से
सो रहे हैं मेरी हड्डियों में
सारे क्षोभ, सारे विषाद।

 

श्रुति

 

 

भगवान से बढ़कर हैं तेरे ख्याल,
माँ से बढ़कर है तेरा स्नेह।

तेरी प्रतीक्षा में है मेघमाला
तुझे भिगोने को, सिहराने को;
प्रतीक्षा में है चिलचिलाती दुपहरी का सूर्य
तुझे चमकाने को;
प्रतीक्षा में है सारे शिखर
तेरे पैर पड़ने को;
प्रतीक्षा में है तमाम महोदधि
मंथित होने का।

प्रतीक्षा में है माँ वसुधा
नदी-नाले, पशु-पक्षी, कीट-पतंग;
तरु-तला-गुल्म से भरपूर अपना घर
तेरे लिए ही खोल रखा है;
इतने सुन्दर, निष्पाप, निरपराध
घर के सारे कमरे, सारे आँगन
तेरे खेलने नाचने कूदने के लिए;
प्रतीक्षा कर रहे हैं
ग्रह-नक्षत्रों को जानेवाले यान
मेरे बचपन की बैलगाड़ी की तरह।
अरगनी में प्रतीक्षा कर रहे हैं
सूर्यास्त, सूर्योदय और ऋतुराज के
सभी रंगों का आवरण होने को,
असंख्य बेला
तेरे जूड़े में सजने को।

बहुत दिनों का रिहर्सल समाप्त कर
प्रतीक्षा में है पृथ्वी की सारी चिड़ियाँ,
सिर्फ एक संकेत से
तरह-तरह के नए सीखे
ऑर्केस्ट्रा, राग-संगीत तुझे सुनाएँगी,
प्रतीक्षा में है शरद-शशि, नक्षत्रमाता
तेरी आँखों से आँखें मिलाएँगी।

सबको करनी होगी प्रतीक्षा
अभी भी तो है तुझे तरह-तरह के काम :
थिरकते पैरों से, अस्थिर अँगुलियों से
सुनारी-फूल चुनना
गेंदे की एक-एक पंखुडी नोचना
उड़ती चिड़ियों को गर्दन घुमाकर देखते-देखते
कचाड़ खाकर गिर पड़ना,
बेचारी गुड़िया को
अहेतुक ही करुणा से सलाहकार
गोद में लिये जगह-जगह रखना
और दूसरे ही पल
किसी अनजान-सा फेंक देना।

भगवान से बढ़कर तू निर्माया है
भगवान से बढ़कर तेरी माया है।

 

शरद

 

 

साफ कर रहा है शरद
युद्धक्षेत्र का मटमैला पानी,
समाप्त हो रहा है युद्ध
समाप्त हो रहा है मंत्रपाठ
हो चुका है महिषासुर-वध
देवी की मर्त्य देह, मिट्टी-पुआल का ढाँचा
पड़ा है नदी किनारे-धूप में,
शांति-समझौते के स्वर मँडरा रहे हैं
पवन में, आकाश में,
काँस, फूल झूल रहे हैं आनंद से, आवेग से।

राह भूलना आसान है शरद में
सच है कि बादल नहीं आते अँधेरा करके
सच है कि धूप दाँय-दाँय नहीं जलती
किंतु राह नहीं दिखती
युद्धक्षेत्र की नई शब्दहीनता में
आत्मा के धुँधले प्रकाश में;
शरद में राह बदलकर नदी पाकर करते समय
दूर गाँव जाते साँझ के राहगीर-सा
राह पूछनी पड़ती है
नीले कोहरे की परतों से
निर्लिप्त रूप से उड़कर जाती चिड़ियों के समूह से
नदी की नन्हीं-नन्हीं असंख्य लहरों से
सीने की अबूझ धड़कनों से
अवर्तमान छायारूपिणी, भ्रांतिरूपिणी देवी से।

 

पुनर्जन्म

 

 

कल रात बारिश हो रही थी
कमरे की खिड़की खुली रख वह आदमी एकाकी
अँधेरे में बारिश देख रहा था।

सामने बगीचे के पेड़-पौधे
घनघोर बारिश में भीगे खड़े काँप रहे थे।
रह-रहकर बेसब्र बिजली की चमक में
दिख जाता था
आकाश का थुलथुला काला मुखड़ा।

घोर बारिश हो रही थी,
उस पर आदमी ने अपने बचपन के गाँव-किनारे
नदी पार करके स्कूल जाने के लिए
अकेले ही प्रचंड प्रवाह में नाव खोल दी,
बचपन की तरह
हाथ से उसके छूट गई पतवार,
प्रवाह के साथ
बह चली नाव उसकी।

नाव के इस छोर पर वह स्वयं और
दूसरे छोर पर
देवी-प्रतिमा नारी मुस्कुराते हुए
निहार रही थी उसकी ओर,
इसकी उसी मृदु मुस्कान में
बहा चला जा रहा था वह
जन्म-मृत्यु के अथाह सागर में,
अपने प्रथम यौवन के
कदंब, केतकी, बेला और हिना की सुगंध
एक-साथ पहचान रहा था वह।

बारिश हो रही थी
अँधेरे के अथाह जल में
एक नाव बही चली जा रही थी
निस्संग जीवन बन।
शेष हुई आरती
बुझे दिये की गंध ने
घेर रखा था उसे चारों ओर से
किंतु उठ बैठने के लिए
उसके बुढ़ापे का
नहीं था अब भरोसा।

सहसा नींद खुलने पर
अब भी हो रही थी बारिश-प्रलय-सी,
काँप रहे थे पेड़
पहले की तरह भीगे खड़े,
पर वह आदमी एकांत कमरे में
नहा चुका था पसीने से,
खुली थी खिड़की पहले-सी
अगले जन्म के लिए।

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