लोगों की राय

कविता संग्रह >> पेड़ की छाया दूर है

पेड़ की छाया दूर है

अजय कुमार सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :73
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5598
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

395 पाठक हैं

नये उदीयमान कवियों की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह...

Ped Ki Chhaya Door Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय ज्ञानपीठ नयी साहित्यिक प्रतिभा को पहचानने और उसे प्रतिष्ठित करने में सदा प्रयत्नशील रहा है।। आज के अनेक वरिष्ठ लेखकों की प्रारम्भिक कृतियाँ ज्ञानपीठ से ही छपी थीं। अपनी इस परम्परा को सुदृढ़ करने के लिए हमने कुछ वर्ष पहले नयी पीढ़ी के लिए एक नया आयोजन आरम्भ किया था। यह आयोजन एक प्रतियोगिता-क्रम के रूप में है जिसमें प्रत्येक वर्ष किसी एक विधा को लेकर हम ऐसे लेखकों की पाण्डुलिपियाँ आमन्त्रित करते हैं जिनकी उस विधा की कोई पुस्तक प्रकाशित न हुई हो। इसमें सर्वप्रथम घोषित पाण्डुलिपि का प्रकाशन ज्ञानपीठ द्वारा होता है और युवा रचनाकार को लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकारों के समकक्ष ही रायल्टी दी जाती है। इस प्रकार की अब तक कहानी, कविता, हास्य-व्यंग्य तथा उपन्यास विधाओं में प्रतियोगिता हो चुकी हैं। उपन्यास प्रतियोगिता का परिणाम अभी हाल में ही घोषित किया गया है। उसे छोड़ अब तक अन्य चारों प्रतियोगिताओं में विजयी लेखकों की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। कि इन कृतियों का अच्छा स्वागत हुआ है। प्रथम दो कृतियों- ऋता शुक्ल का ‘क्रौंचवध’ (कहानी-संग्रह) और विनोद दास का ‘ख़िलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’ (कविता-संग्रह) के दूसरे संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। इससे स्पष्ट है कि भारतीय ज्ञानपीठ इन रचनाकारों के साहित्यिक विकास में भी सक्रिय सहयोग करता है।

लेकिन वर्ष में एक प्रतियोगिता के आधार पर एक पुस्तक का प्रकाशन नयी पीढ़ी के लेखकों के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। इसी को ध्यान में रखकर हम प्रतियोगिता के अतिरिक्त नये उदीयमान लेखकों की कृतियों को हिन्दी पाठकों को समय-समय पर समर्पित करते रहते हैं। नये लेखकों को प्रकाशन में कितनी कठनाई आ रही है। इसकी विस्तृत चर्चा करना आवश्यक नहीं। केवल इतना कहना चाहूँगा कि यदि नयी पीढ़ी को प्रोत्साहन देना है तो इनकी रचनाओं के प्रकाशन पर भी विशेष ध्यान देना होगा। इस सम्बन्ध में इनकी कठिनाइयाँ काफी दुखद हैं। यदि इनमें हम कुछ भी कमी ला सकें तो हमारे लिए प्रसन्नता की बात होगी। हमने हाल में ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के नये लेखकों की कृतियों का हिन्दी रूपान्तर प्रकाशित करना आरम्भ किया है। इस पृष्ठ भूमि में यह और भी युक्तिसंगत लगता है कि हिन्दी के ऐसे लेखकों का परिचय भी पाठकों को कराएँ। इसके सुव्यवस्थित ढंग से करने के लिए ‘नये हस्ताक्षर’ श्रृंखला का प्रकाशन आरम्भ किया जा रहा है जिसमें पहली तीन पुस्तकें-इन्दिरा मिश्र, अजय कुमार सिंह और महेन्द्र प्रसाद सिंह के कविता-संग्रह हैं।
मुझे आशा है कि हिन्दी में इन नये लेखकों की साहित्यिक सृजनात्मकता का उचित स्वागत होगा।

भूमिका

एक बार बहुत ज़ोरों की बारिश हुई। कई दिनों तक होती रही। कच्चे-पक्के मकान टूटने-रिसने लगे। बड़े-बड़े पेड़ उखड़ गये। गर्की से फसलें खराब होने लगीं। गाँव के भइया-चाचा-ताऊ-बाबा की आँखे भी लगातार नम-सी दिखने लगीं। मन मसोसने लगा। तब मैंने आठ-दस पंक्तियाँ लिखीं कविता के रूप में। अंग्रेज़ी में। कक्षा आठ में पढ़ता था तब।
उसके बाद यूँ ही अनायास कभी-कभी मन मसोसा करता था। एक अजीब सी सिहरन दिलो-दिमाग को गुदगुदाती थी। कभी-कभी तो यह सिहरन शारीरिक हो जाती थी। कभी तो गाँव के मजदूर-किसानों की गरीबी-असहायता देखकर। कभी होली-दिवाली, तीज-त्योहारों पर निश्छल खुशी में शामिल होकर कभी उमड़ते-घुमड़ते कजरारे बादलों के इशारों पर पेड़ों को बादल राग गाता सुनकर। कभी अथाह, निर्मल नीले आकाश में यूँ ही टकटकी लगाए देखते। कभी कोई किताब पढ़ते हुए। कभी बढ़ते-बदलते शरीर और मन के जाने-अनजाने उद्वेगों से। और कभी एकदम रहस्यमय, बिना कारण।
सो कभी कविताएं लिखता रहा, कभी डायरी, कभी पत्र और बाद में कुछ कहानियाँ भी। न तो ज्यादा लिखा और न जो कुछ लिखा उसके गुणों से अभीभूत होता रहा। पर लिखना मानों जरूरी हो गया था। उन्हीं दिनों बच्चन जी का एक लेख पढ़ा जिसमें उन्होंने साहित्य में रुची को एक नाजुक पौधा कहा था। कहा था कि इसकी देख-भाल बड़े जतन से करनी होती है। फिर महादेवीजी का भी एक लेख पढ़ा। उन्होंने कहा था-‘‘मार्ग चाहे जितना अस्पष्ट रहा, दिशा चाहे जितनी कुहराच्छन्न रही परन्तु भटकने, दिग्भ्रान्त होने और पश्चाताप करते हुए लौटने का अभिशाप मुझे नहीं मिला है। मेरी दिशा एक और पथ एक रहा है, केवल इतना ही नहीं वे प्रशस्ततर से प्रशस्ततर और स्वच्छ से स्वच्छतर होते गये हैं।’’ जो भी हो, सफर मैंने जारी रखा।
कक्षा बारह के बाद हिन्दी छोड़नी पड़ी। 1974 में जब भारतीय प्रशासनिक आदि सेवाओं के इम्तिहान के लिए अनमने भाव से बैठा तो हिन्दी का पर्चा ले लिया। खराब नम्बर मिले। बहरहाल भारतीय पुलिस सेवा के लिए चुन लिया गया और कर्नाटक आ गया। माहौल एकदम अलग। शादी हुई त्रिवेन्द्रम की तारा गोविन्दन से। अगस्त 1977 में सरकारी काम से इन्दौर जाना हुआ। मुक्तिबोध की ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ खरीदी। वापिस आकर जब किताब पढ़ी तो सच कहता हूँ कि घर में चहल-कदमी करता था। फिर बड़े भइया को चिट्ठी लिखी। फिराक, फैज, निराला, अज्ञेय हमेशा प्रभावित करते थे। ग़ालिब, प्रसाद को गा-गाकर पढ़ा जाता था। कामू-काफ्का पसन्द थे। कबीर से सगा-सा सम्बन्ध लगता था। पर मुक्तिबोध का असर ही कुछ और था।

एक तो अहिन्दीभाषी प्रान्त, ऊपर से पुलिस की नौकरी। कविता का व्याकरण कुछ ज्यादा न सीख सका। पढ़ता जरूर रहा जितना हो सका। देखता रहा। समझने की कोशिश करता रहा। कुछ सोचता रहा। और प्रेरणा मिलने पर कभी-कभार लिखता रहा। फिर धीरे-धीरे कन्नड़ के कुछ साहित्यकारों से जान-पहचान हुई। शिवप्रकाश की कविता से घनिष्ठ परिचय हुआ। उनकी और चन्द्रशेखर कम्बार और गोपाल कृष्ण अडिग की कविताओं का भी अनुवाद किया। मुक्तिबोध, शमशेर, केदारनाथ सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन की कविता के बारे में बातचीत हुआ करती थी। इन सबसे मुझे अपनी पगडण्डी पर चलते रहने की प्रेरणा मिली है, साहस मिला है।
सारी कठिनाइयों के बावजूद कोशिश यही रही है कि सीधा-सादा, सच्चा और ईमानदार जीवन व्यतीत हो सके। घटनाओं-समस्याओं को बिना किसी पूर्वाग्रह के देखा जाए। कौए को कौआ और कोयल को कोयल करके देख जान सकूँ। और कौए को कौआ और कोयल को कोयल कह सकूँ। मैंने चाहा है कि कविता मेरी सहायता कर सके। मेरे सरोकारों, मेरे विचारों, मेरे दृष्टिकोणों, मेरे कर्मों में स्पष्टता और दृढ़ता लाने की अपेक्षा की है मैंने कविता से। रीढ़ की हड्डी बचाए रखने में मैंने कविता से सहायता चाही है। अपमानों-असफलताओं को पचा लेने में मदद माँगी है। संघर्ष की अनिवार्यता को दिखाया है कविता ने मुझे। अपने को समाज और समाज को अपने में एक ठीक अनुपात में शामिल करना सीखा है मैंने। कोशिश रही है कि मेरा आशियाँ किसी शाखे-गुल पर बोझ न हो। जीवन-जगत के विविध पहलुओं से परिचय करना चाहा है। यह सबकुछ पूरी सफलतापूर्वक कर ही पाया हूँ, ऐसा भी कुछ गुमान नहीं। पर सौ-सवा-सौ कविताओं के बिना न जाने मैं क्या होता। कोशिश यही रही है कि ये मेरे दिमाग भर की उपज न हो, ये मेर व्यक्तित्व का अंग हों।
ऐसा नहीं कि छपने की इच्छा नहीं रही। पर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहने की अधिक कोशिश न कर सका। इक्का-दुक्का यहाँ-वहाँ ही। अब टण्डन साहब किताब छाप रहे हैं। देखिए।
डॉ. परमानन्द गुप्त और डॉ. हरीसिंह राणा को धन्यवाद।

पहला प्रश्न

केवल प्राण काफी न थे ?
किसने चेताई थी चेतना की मद्धिम आँच ?
और किसने भेज दिए संशयों के अंधड़ ?

सिन्दूरी साँझ

तुम्हारा धन्यवाद
ओ सिन्दूरी साँझ !

तुमने आकाश को दिया
अपने रंग से
उसके विस्तार का बोध
और विस्तार को
अपने रंग से
उसकी शू्न्यता का एहसास
पर समेट ली चुपके से
इन बोधों की व्याकुलता।

तुम्हारा रँग
औ, सिन्दूरी साँझ !
जैसे शान्ति की
मद्धिम सुलगती हवन सामग्री;
मुस्कराते एक निमिष में
उजागर कर दी तुमने
बडे-बड़े भेदों की
लघुता, कृत्रिमता और मूर्खता;
जीत के दंभ और
हार की उदासी और कुण्ठा को
पानी-पानी कर
एक झरना बना दिया
बहा दिए जिसमें
द्वन्द्वों के सूखे पत्ते;
सोख लिया कलुषों को तुमने
और प्राणों को बना दिया उत्स
सर्वतोन्मुखी निर्बाध अनन्त धवल नदी का;
तुम्हारी मुस्कराहट से बँध सूर्य

कल फिर आने को कह गया !

तुम्हारे मधुर स्पर्श की बाट

तुम्हारे मधुर स्पर्श की बाट जोहते-जोहते
कितने युग बीत गये !
पृथ्वी जब फूलों से लदी थी
और राकेश जब
मेघ शावकों से आँख-मिचौनी खेल रहा था
शीतल मन्द समीर जब
मनोभावों से स्नेहाचार कर रहा था,
मैंने अपनी त्वचा पर
तुम्हारा स्पर्श महसूस किया था।
पर किसने भेज दी थीं वे लूहें
जो सब कुछ झुलसा गयीं ?
किसने उलीच दी थी अग्नि
यत्र-तत्र ?
किसने इस मोहक संसार को
जलता हुआ लाख महल बना दिया ?
क्यों न तुमने एक
शाँतिमय-स्नेहमय आलाप को
कोलाहल में डूबने से बचा लिया ?
तुम्हारे रहते छिन्न-भिन्न हो रहा है, देखो
एक वासतेय कुटिया का सपना !
क्यों नहीं हृदयों से रिसते क्षीणकाय सोते
मिलकर एक महा नदी बना देते ?
कौन रोक रहा है तुम्हारा प्रवाह
अन्दर ही अन्दर ?

आने दो गगनचुंबी हिल्लोल !
बहा दो अजस्र सहस्त्र धारा !
तुम्हारे अखंड स्पर्श का आपेक्षी है
यह मरणासन्न जीवन

रात भर

हुई साँझ
घिर आए बादल
प्रथम पहर भर बरसा पानी

डूबी दूब पुन: इतराई
हुए पनाले फिर से शाँत
तेज दौड़ती नाली ठिठकी
मौन हुई उसकी पदचाप
गोता मार चाँद उतराया
चिकने मुख पर सूखा हास
गेंदा-गुड़हल शीश झुकाए
मौन ऊँघते क्यारी में

भीगे कपड़े मैंने बदले
सोने की तैयारी में

बरगद-इमली मुखर
रात भर बरसाते पानी
रात भर टपकाते पानी ।

गीली लकड़ियाँ

न हो सके पूरे मेरे संकल्प
मात्र कविता से
गो कि कविता में रहे मेरे प्राण
बहता रहा सुनहला रक्त
उसकी लय पर, ध्वनि पर
लय में ध्वनि में, अर्थ में, शब्दों के रूप में।

हालात की मार से
हो गया लहूलुहान
चिथड़ गए कपड़े
और
जिन्दगी को जीने की
नीम कुछ जरूरतें
पी गयीं मेरा रस बूँद-बूँद
हो गए कुछ समझौते
लाखों हीलोहवाला करते
और उनका क्षयरोग
उड़ा गया मेरा
बचा खुचा रक्त और रातों की नींद
बसा गया इस नर-कंकाल में
अनेकानेक व्याधियाँ।

संकल्प अब भी हैं
होंगे वे पूरे कब
होंगे वे पूरे कैसे
होंगे वे पूरे क्या
कहने से डरता हूँ
छुपाए लिए फिरता हूँ
नन्हीं-सी चिन्गारी
गीली कुछ लकड़ियाँ।

बँधे पाँव

अंतर्बाधव से बँधे हैं पाँव
जंजीर होती तो तुम काट सकते थे।
एक निर्णय है
है निर्णय की राह
राह चलने का सुख
और इस सुख की अभिलाषा;
साहस भी है
पर साहस को धैर्य
और धैर्य को उम्र
बहुत हुई।

एक शुरुआत का सवाल है, दोस्त !
एक शुरुआत की प्रतीक्षा है
है प्रतीक्षा का दंश
और दंश का जहर।
है एक घुटन
एक दबाव
एक तनावें
एक प्रस्फुटन।

तुम रुकना मत किसी ठाँव
मैं आऊँगा, ज़रूर !

दीपक

मैं एक मन्दिर का दीपक हूँ
एकाकी
उमर भर की स्मृति
जलने से परे नहीं
जलता हूँ
धर्म यही मेरा तो
जीता हूँ जलने में।
आगत को दिखलाने
अपने आलोक से
उसके विश्वास को
तिमिर की कालिमा में
मेरा प्रण है
मेरा अभीष्ट है
और मेरा सुख है।
कितनी बार आक्रांत हुआ हूँ !
बुझा नहीं लेकिन मैं
हाँ, आहत अवश्य हुआ हूँ।
कई बार पतंगों ने मेरे चक्कर लगाए हैं
हर बार
शीश हिलाकर कहता रहा हूँ
‘‘बन्धु, वृथा ही तू क्यों दहता ?’’

चाहे जितने भी अँधड़ आएँ
अपने शरीर की
अन्तिम तैल बूँद के
अशेष होने तक
जलता रहूँगा मैं
अपनी इसी मठिया में
आलोक भरने को,
लड़ने को,
मिटने को,
सूरज से मिलने को !

साहस दो

वह हँसता चाँद
वह उजली चाँदनी
वे शुभ्र मेघ-शावक
वह मुक्त नीलाभ गगन
वह सुखद संयत पवन

और चार दीवारों से घिरा
एक बन्द खिड़की
और एक बन्द दरवाजे के भीतर
दुहराता मिट्ठू-सा
घिसे-पिटे सूत्रों को
बसी हुई जिनमें है
बासीपन की गहरी बू।

गलियों में पहरा है
सैनिक-से टहल रहे
युग के प्रतिमान !

बने रहें संकल्प

घेरा है
पूनम के चन्दा को मेघों ने
पूरब के क्षितिज से पश्चिम के क्षितिज तक
और
उत्तर के क्षितिज से दक्षिण के क्षितिज तक
मेघावृत्त है आकाश
एक तार
जैसे समतल खेत में भरा खबीला पानी
नहीं चमकता एक तारा भी
पर रात नहीं है उतनी काली
जितनी कि अमावस्या की।

तेजस्वी का तेज
देता है प्रमाण
अपने अस्तित्व का
सप्तावरण भेदकर।
अँधेरी रात में
ठोस दीवार के उस पार का अँधेरा
चिढ़ाता रहता है
इस पार के उजाले को
और चिड़चिड़ाता रहता है उजाला
या यूँ भी
कि इस पार का उजाला
दिलाता रहता है याद
उस पार के अँधेरे को
अपने अस्तित्व की
मन्द-मन्द मुस्काता
मौन खड़ी रहती है
ठोस दीवार
असमर्थ !
(नहीं रोक सकता अँधेरा सूरज के उगने को नहीं टिक सकेगा सूरज सर्वत्र सर्वकाल में)

इस खबीले पानी से भरे खेत में
कहीं टीला है
चमक जाता है चाँद थोड़ा-सा
सिहरती चली जाती है ज़मीन
एक ओर से दूसरी ओर तक
जैसे आवरण आकाश पर नहीं
ज़मीन पर था !
तिलमिलाते हैं मेघ
(दिख जाती है उनकी चाल)
शायद ज़मीन से आवरण उठता देख
चोर अपने ही मन में है
डर स्वयं से है
अविश्वास खुद पर है
और ज़मीन फिर से आवृत्त हो जाती है।
इस क्षणिक आलोक में
देख पाता हूँ चाँद को हँसते
हँसने को प्रेरित करते
प्रतीक्षा करता हूँ मैं
चाँदनी में
इधर-उधर दृष्टि डालने की
चाँद को निहारने की
निहारते-निहारते कहीं खो जाने की।

न जाने कितनी बीत गयी थी रात
अचानक
आँख खुली
भीगा पड़ा था मैं
चाँदनी में सराबोर !
देखा तो
जहाँ तक नज़र जाती थी
अनावृत्त थी ज़मीन
खामोश था आसमान
और नहला रही थी चाँदनी
सबको समभाव से
बिना कुछ भी
जतलाए
मेरे देखते ही
मुस्करा उठा था चाँद।
आह ! बने रहें मेरे संकल्प !
न दिलाऊँ याद
अपने प्रिय पड़ोसी को
कुछ दिन पहले
कपड़े सीने की
सुई माँग ले जाने की !

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai