सामाजिक >> गोमती गोमतीअखिलेश खारियान
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ग्रामीण अंचल पर आधारित उपन्यास..
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सारे गांव में यह सूचना आग की भांति फैल गयी कि गोमती माँ बनने वाली है।
जिसने भी सुना, उसे जी भरकर कोसा। न जाने कैसी-कैसी गालियाँ दी। बसेसर ने
सुना तो वह औधें मुँह पृथ्वी पर गिर पड़ा। गोमती ने उसके मुंह पर कालिख
पोत दी थी। फूलमती ने झंझा की तरह घर में प्रवेश करते ही बसेसर को खूब
धिक्कारा। हाथ नचाते हुए आँखें तरेरकर बोली-‘‘देखी बसेसर,
अपनी लाड़ली की करतूत। उसने जीने लायक छोड़ा है तुम्हें ! मैं पहले ही
कहती थी इसके लच्छन ठीक नहीं है। कोई ओना-पोना लड़का देखकर इसके पैरों में
जंजीर डाल दो। लेकिन तुम... तुम किसी की सुनते ही कहाँ थे। अब भुगतो। गाँव
और बिरादरी में नाट कट गयी। न ऊँची गरदन करके चल सकते हो, न बोल सकते हो।
सारे गाँव में थू-थू हो रही है।’’
औंधे पड़े बसेसर ने गरदन ऊपर उठाकर देखा। फूलमती बुआ दोनों हाथ चलाते हुए उसे खा जाने वाली दृष्टि से देख रही थी। बसेसर को चुप देखकर वह पुन: बोली, ‘‘सुन रहे हो, बसेसर ! अब कोई भी इस कुलच्छनी का हाथ नहीं थाम सकता। जीवनभर इसी द्वार पर बैठी तुम्हारी छाती पर मूँग दलती रहेगी। जात-बिरादरी वाले तुम्हारे नाम पर थूकेंगे। बिरादरी में हुक्का-पानी बंद हो जाएगा। आँखें फाड़कर मेरा मुँह क्या ताक रहे हो ? सच्ची बात कह रही हूँ-एकदम सच्ची। विश्वास न हो तो पूछ लो अपनी लाड़ली से जाकर। नासपीटी है। जन्म लेते ही अपनी माँ को खा गयी। अब तुम्हें भी जीवित नहीं छोड़ेगी।’’
‘‘बस करो, बुआ, बस।’’ कहते हुए बसेसर का गला अवरुद्ध हो गया। उसकी आंखों में आँसू निकल आये। कुछ देर पहले उसने भी कुछ ऐसा ही सुना था। वह इसे सत्य मानने को तैयार भी नहीं था लेकिन फूलमती का इतने जोर से कहना उसे अखरा अवश्य किन्तु इसमें कुछ सत्य है ऐसा आभास उसे होने लगा। बसेसर को चुप देखकर फूलमती चली गयी। लेकिन उसे एक ऐसी चिन्ता में डाल गयी जिससे मुक्त होना उसे कठिन लग रहा है। वातावरण शान्त था। एक अजीब-सी खामोशी चारों तरफ छाई है। उस शान्त वातावरण में बसेसर का मन दुख, ग्लानि और क्षोभ से भरा हुआ है। घर के अंदर से गोमती के सिसकने का स्वर आ रहा है, और सोच रहा है बसेसर, कितने अरमानों से पाल-पोसकर बड़ा किया था गोमती को। हाथों में फूलों की तरह संजोकर रखता था। स्वयं कष्ट सहे, निरन्तर पीड़ा भोगी, लेकिन गोमती को टीस का अहसास भी नहीं होने दिया। इसे आभास ही नहीं होने दिया कि वह बिन माँ की बच्ची है। बाप से ज्यादा ममता उसने उसे माँ की दी। यही फल मिला है इस सबका ! आज सोचता हूँ जन्म लेते ही इसका गला क्यों नहीं दबा दिया। ऐसी दुर्दशा तो न होती। शायद भाग्य में यही लिखा था ! अन्यथा विवाह के पश्चात् वे इसे क्यों छोड़ देते।
उनके परिवार में यह क्यों नहीं खप सकी ! शायद कुछ खोट भी इसमें रहा होगा। अकेले उन्हीं लोगों को दोष देना उचित नहीं है। ताली एक हाथ से नहीं, दोनों हाथों से बजती है। किन्तु गोमती के इस रूप की कल्पना तो कभी की ही नहीं थी। परित्यक्ता का जीवन कितनी सादगी से व्यतीत करती आ रही थी यह। किसने सोचा होगा कि चंद्रमा की किरणें भी कभी शरीर को झुलसा सकती हैं। सघन तिमिर भी भटकते हुए लोगों को पथ दिखा सकता है। उस समय यही फूलमती जो आज इतना वाक्-विष उगलकर गयी है, गोमती की प्रशंसा करते नहीं थकती थी। बहुत कहा करती थी, ‘कितनी सुशील लड़की है तेरी। सदगुण तो इसके रोम-रोम में बसे हुए हैं। सुंदर है चन्द्रमा की तरह। शीलवती है सीता की भाँति। गाँव ही नहीं अपितु पूरी बिरादरी में भी इसके जोड़ की लड़की नहीं है। नाम रोशन कर देगी तेरा।’ और आज क्या कुछ नहीं कह गयी। हाँ, एक बात तो सत्य है कि इसने मेरा नाम समाज की ठोकरों में उछाल दिया है और यह फूलमती अभी बेतार की तरह पूरे गाँव में इस खबर को फैला देगी नमक-मिर्च लगाकर। सोचते-सोचते बसेसर के सिर में दर्द होने लगा। असीम पीड़ा से व्याकुल होकर उसने आँखें बंद कर लीं और सिर को दोनों हाथों में थामकर बैठ गया।
जवान बेटी को क्या कहूँ ? कहीं और अनर्थ न कर बैठे। किसी तालाब अथवा कुएँ में डूब मरी लज्जावश, तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा। ममता की पीड़ा जैसे हृदय को कचोटने लगी। न-न, उसे कुछ नहीं कह सकता-कुछ कहना उचित ही नहीं है इस समय। आखिर वह भी तो एक मानव ही है-संवेदनशील और भावमती। कोई बुत तो है नहीं, जो महसूस करने की सामर्थ्य ही न रखती हो। अपने इस कर्म पर उसे भी लज्जा आ रही होगी। हाँ, मैं उसे कुछ नहीं कहूँगा। आज तक कुछ कह ही नहीं सका हूँ। सोचते-सोचते बसेसर उठ खड़ा हुआ। सोचा, एक बार उसे देख तो लूँ। अंदर जाकर देखा। फूल-सी कोमल गोमती चारपाई पर औंधी पड़ी सिसक रही थी। सहसा असीमित अव्यक्त वेदना उमड़ पड़ी बसेसर के हृदय में। कोई और अवसर होता तो घंटों उसे सीने से लगाकर उसकी पीठ थपथपाता रहता। साहस और धैर्य की शिक्षा देता। जीवन-संघर्ष की बारीकियों के बारे में समझाता। लेकिन अब कुछ भी तो नहीं कह सकता। दोष ही ऐसा है उसका। बसेसर ने जी कड़ा किया और वापस घूमकर घर से बाहर निकल आया। शायद वह अपनी उपस्थिति का ज्ञान गोमती को नहीं कराना चाहता था।
भगवतस्वरूप अपने आँगन में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। निकट आकर बसेसर ने कहा-‘‘राम-राम, सरपंच जी !’’
‘‘कौन ?... बसेसर। आओ-आओ। तुमसे कुछ बातें भी करनी हैं।’’
बसेसर नीचे जमीन पर बैठ गया। उसके पश्चात् भगवतस्वरूप ने हुक्के के दो-तीन लंबे-लंबे घूँट लिये। तत्पश्चात् बोला, ‘‘यह फूलमती बुआ क्या अनाप-शनाप कहती घूम रही है। अभी थोड़ी देर पहले यहाँ भी आई थी। जो कुछ वह कहकर गयी, क्या सत्य है ?’’ बसेसर आंखें नत किये सरपंच की बातें सुनता रहा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। शायद कुछ उत्तर उसे सूझा ही नहीं। बसेसर को चुप देखकर भगवतस्वरूप फिर बोला, ‘‘बसेसर, तुम्हारी चुप्पी कह रही है कि फूलमती ने असत्य कुछ भी नहीं कहा। अब इस विषय पर क्या सोचा है तुमने ? मैं कहता हूँ कि ऐसी सन्तान को गला दबाकर जमीन में गाड़ देना चाहिए। पुरखों की इज्जत धूल में मिला दी। तुम्हें पहले कुछ भनक नहीं लगी थी क्या ? मेरा मतलब, यह काम किस व्यक्ति का हो सकता है ?’’
बसेसर ने सोचा, जब यह सब कुछ जानता ही है और बुआ सब कुछ उगल ही गयी है तो अब गड़े मुर्दे उखाड़ने की बात क्यों ? क्या यह इस अनहोनी को मेरे मुँह से सुनना चाहता है ? शायद मेरे रिसते घाव पर और नमक लगाना बाकी होगा। इसलिए लगायेंगे ही। संसार की यही तो रीति है। रोकर पूछना और हँसकर उड़ाना। इनकी बातों का कितना मरहम मेरे घाव पर लगेगा, यह तो मैं घर में घुसते ही समझ गया था। कितनी विद्रूपता से आंखें फेर ली थीं। लेकिन अब....अब भी वही दो आंखें तीक्ष्ण शूलों की भाँति मेरी तरफ बढ़ी आ रही हैं। लगता है हृदय बेध ही देंगी। पीड़ा के तीव्र वेग को किसी तरह रोककर गरदन झुकाये बस वह इतना ही कह सका, ‘‘मैं कुछ नहीं जानता था, सरपंच जी।’’
‘अच्छा !’ भगवतस्वरूप ने आश्चर्ययुक्त स्वर में कहा। लेकिन बसेसर का मन खिन्न हो चुका था। वह थोड़ी देर पश्चात् ही वहाँ से चल पड़ा। अपने घर जाते समय जगह-जगह लोगों की बातें सुनकर उसका हृदय छलनी हो गया। लज्जावश उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसे जीवित ही पृथ्वी में गाड़ दिया गया हो।
बसेसर हरिजन है और अपनी जाति का मुखिया है। इसलिए गाँव के लगभग सभी व्यक्ति उसका सम्मान करते हैं। विधुर है, शायद गोमती के स्नेह के कारण वह दूसरी शादी नहीं कर सका था। गोमती लगभग दो मास की थी, जब उसकी माँ रुक्मणी रुग्ण शैया पर पड़ी पीड़ा से छटपटा रही थी। शायद जीवन के अन्तिम साँस ही गिन रही थी। रात्रि का समय था। चारों तरफ फैला अंधकार जैसे प्रकाश का मुँह चिड़ा रहा था। आकाश पर तारे छिटक रहे थे। वातावरण शान्त था। यदा-कदा ही कोई कुत्ता भौंक उठता था जिससे नीरवता भंग हो जाती थी। उस स्तब्ध वातावरण में रह-रहकर बसेसर का हृदय किसी अनजानी परछाईं को निहार कर भयभीत हो उठता था। घर में मिट्टी के तेल का दीया जल रहा था, जिसकी पीली, फीकी रोशनी में वह रुक्मणी के सिरहाने बैठा उसका माथा सहला रहा था। उधर गोमती अलग चारपाई पर लेटी किलक-किलकर खेल रही थी। कभी हाथ का अँगूठा चूसती थी, कभी पैर का। एक तरफ जीवन मोदमय होकर नृत्य करने में मग्न था, दूसरी तरफ मृत्यु का वीभत्स तांडव होने को आतुर।
जब रुक्मणी असहनीय पीड़ा से छटपटाती तो लगता जैसे अथाह रेगिस्तान में मीन को फेंक दिया गया हो। गोमती हर्षयुक्त स्वर में अस्पष्ट बोलने का प्रयत्न करती तो ऐसा प्रतीत होता मानो आम के बौर पर कोकिला कूक रही हो अथवा विकचते उपवन में अलि मधुरगान कर रहे हों। एक तरफ शान्त बहती सरिता की कल-कल, दूसरी तरफ बाढ़ से उफनती क्रूरनदी का शोर ! कितना प्रफुल्लित, कितना भयावह ! बाहर सघन तिमिर बढ़ता जाता था। बसेसर को लगा जैसे दीपक से सीमित प्रकाश के अतिरिक्त यहाँ से वहाँ तक अंधकार का ही साम्राज्य है। रुक्मणी की पीड़ा क्षण-क्षण बढ़ती जा रही थी। कभी वह कराहती थी तो कभी रो उठती थी और बसेसर के पास हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ नहीं था। प्राण निकलते समय की पीड़ा कितनी असहनीय होती है, इसका अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता। श्रमकणों से सम्पूर्ण कलेवर तर हो जाता है। लगता है निशीथ में दूर्वादल पर ओस छिटकी पड़ी हो, अथवा यह जीवन की अन्तिम निधि हो जिसे मानव अपने स्वजनों को थाती के रूप में सौंपकर जाना चाहता हो।
गोमती को देखकर बसेसर के एक नेत्र में जीवन का दु:खहरण नृत्य हो रहा था तो दूसरे नेत्र में रुक्मणी की तरफ से संसार भर की पीड़ा, अकेलापन सिमटकर रह जाना चाहता था। उसकी अवस्था देखकर विवश बसेसर की आँखों में आँसू छलक आये। कितनी वेदना थी जिसे वे दोनों एक-दूसरे से व्यक्त करना चाहते थे। बसेसर ने क्या कुछ नहीं लगा दिया था रुक्मणी के उपचार पर, लेकिन रुक्मणी एक बार गिरी तो हमेशा के लिए ही गिर गयी। अगर कोई वैद्य अथवा चिकित्सक बसेसर का जीवन लेकर भी रुक्मणी को ठीक कर देता तो वह सहर्ष स्वीकार कर लेता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पूरब में जब सूर्य ने अपनी लालिमायुक्त किरणों के द्वारा जगती-अंचल में बिछी तमपर्त को निगलना प्रारंभ किया तो उसी समय बसेसर के जीवन का अन्धकार बढ़ने लगा। वह इतना बढ़ा कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। जब रुक्मणी ने अन्तिम सांस हुचक कर ली, तब वह कितना फूट-फूटकर रोया था रुक्मणी के प्राणरहित शरीर से लिपटकर। जिस जीवनदायिनी मिट्टी ने उसे जन्म दिया था। आखिर उसी ने उसकी इतिश्री भी कर दी। यह उसके भाग्य की विडम्बना थी अथवा नियति का एक क्रूर मजाक अथवा संसार एवं जीवन का एक कठोर सत्य जिसको समझकर अनजान बनने का प्रयत्न हम करते रहते हैं। मृत्यु क्या है ?
संसार क्या है ? ऐसे प्रश्न इस समय बसेसर के मन को आलोड़ित कर रहे थे। कभी वह सोचता; जीवन श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा हम कुछ ऐसे कर्म करते हैं जिनसे हमें मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। हम इस भौतिक संसार में रहकर कुछ सत्कर्मों द्वारा इस आवागमन के फंदे से मुक्त हो सकते हैं। लेकिन गृहस्थ जीवन में ईश-वन्दन करने का समय ही कहाँ है ? मोहमाया के कठोर फन्दों में हम इस तरह बंधे हैं कि हमारे सोचने समझने का दायरा नितांत सीमित हो गया है। लाभ-हानि, ईर्ष्या-द्वेष एवं सांसारिक प्रपंचों के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं अथवा हम समझना ही नहीं चाहते। हां, यह सत्य है कि हम भिज्ञ होकर भी अनभिज्ञ बने रहते हैं। शायद उस समय अनभिज्ञ रहना ही उचित हो। ऐसी स्थिति में इस जीवन का लाभ ही क्या ? जिस सत्य को हम जानते हैं, उसे जीवन में नहीं अपना सकते। क्यों ? आखिर क्यों ? क्यों हम झूठ, मोह, लोभ, घृणा जैसी निकृष्ठ प्रवृत्तियों को जीवन में धारण करने में ही अपनी कुशलता समझते हैं ? ऐसी कौन–सी विवशता है जो हर क्षण हमारा रास्ता रोके रखती है ? लक्ष्यहीन जीवन मृत्यु से भी विद्रूप होता है। बसेसर ने जीवन को जीत लिया था। तब नन्ही गोमती के ममत्व से वह पराजित हो गया था। यों तो बसेसर ने इस लघु जीवन में कई बार मृत्यु पाई है, लेकिन आज...आज तो वह चाहकर भी नहीं मर सकता, जैसे मौत को ही बसेसर से घृणा हो चुकी है।
फूलमती बुआ की भी अजब कहानी है। आज से लगभग चालीस वर्ष पहले वह विधवा हुई थी। उस समय इसकी अवस्था सात वर्ष के लगभग थी। इसके पिताजी गाँव भर में पूजा हवन किया करते थे। ब्राह्मण जाति से सम्बद्ध जो ठहरे ! विधवा होकर फूलमती वापस गाँव में आ गयी थी। संयोगवश फूलमती अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थी, इसलिए इसके पिताजी स्नेहवश जहाँ भी जाते, फूलमती को साथ ले जाते। बारह वर्ष की अवस्था आते-आते इसकी माँ का स्वर्गवास हो गया। तब घर में ये दो ही प्राणी रह गये। माँ का साया सिर पर न रहने के कारण, कुछ पिताजी की स्नेहमयी पुत्री होने के कारण और कुछ नियति की मार के कारण फूलमती को पूरे गांव से अपार स्नेह प्राप्त हुआ, जिसके कारण यह शनै-शनै उच्छृंखल होती गयी। यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते ही पिताजी का भी स्वर्गवास हो गया। तब फूलमती बिलकुल अकेली रह गयी। संबंधों एवं उच्च जाति की होने के कारण लोग इसे बुआ का सम्बोधन देने लगे। धीरे-धीरे छोटे-बड़े सभी की फूलमती बुआ बन गयी। आज गाँव के इस छोर से उस छोर तक सभी समाचारों का आदान-प्रदान यही करती है। यह बात और है कि कुछ समाचार यह अपनी बृद्धि से जोड़ भी देती है, कुछ उनसे हटा भी लेती है। चापलूस किस्म के व्यक्ति उसकी इस आदत से प्रसन्न होते हैं तो भले लोग मन-ही-मन उसकी इस कलुषित विचारधारा को गालियाँ भी देते हैं। उसने यह नहीं सोचा कि गोमती किन परिस्थितियों की शिकार होकर इस दुखदायी मोड़ पर पहुंची है, बस उसे तो एक खबर मिल गयी कि गोमती माँ बनने वाली है-कुँआरी नहीं, बल्कि विवाहित ! अन्तर केवल इतना कि पिछले तीन वर्षों से यह परित्यक्ता का जीवन अपने पिताजी के घर में बिता रही है। इसीलिए उसने गोमती की माँ बनने वाली सूचना गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को चटखारे-ले लेकर सुनाई। स्वयं भी बसेसर और गोमती को गालियाँ दीं, लोगों से भी दिलवायीं।
गोमती घर के अंदर बैठी अपने भाग्य को कोस रही थी। अपने मन की पीड़ा वह किसी से भी व्यक्त नहीं कर सकती थी-अपने पिता बसेसर से भी नहीं। वह कैसे कहे कि उसने कोई पाप नहीं किया है। यह हम्ल जो सन्तान के रूप में उसके पेट में पल रहा है, किसी गैर का नहीं बल्कि उसके पति धन्नू का ही है। लेकिन कोई सबूत भी उसके पास नहीं। पता नहीं किन भावनाओं में बहकर वह यह अनर्थ कर बैठी। उसके पास माँ का साया भी नहीं जो इस विपत्ति में उसे अपने आंचल में छिपा सके, ले-देकर पिताजी हैं जिनसे वह ऐसी बातें नहीं कर सकती। उधर बसेसर भी आँगन में बैठा है-गुम-सुम। सूनी-सूनी आँखों से आकाश को निहार रहा है। सोच रहा है यह क्या हो गया ? बदनामी एवं लांछन की ऐसी मार से क्या वह जीवित बच सकेगा ? तभी आँगन में भगवानी ने कदम रखा, जो चुपचाप अंदर चली गयी। उसने देखा कि गोमती एवं बसेसर दोनों ही घुटनों में मुँह छिपाये रो रहे हैं।
गोमती के सिर पर हाथ फेरते हुए भगवानी ने कहा-‘‘बेटी, सब्र से काम लो, यों रोने-धोने से कुछ नहीं होगा। क्या तुम जानती नहीं कि फूलमती बुआ की कितनी गंदी आदत है, वह तो यूँ ही तिल का ताड़ बना देती है। कभी अपने गिरेबान में भी झाँककर देखा है उसने, कितने बीभत्स दाग लगे हैं, उसके आँचल पर।’’
‘‘चाची !’’ सिसकते हुए गोमती भगवानी के सीने से लिपट गयी। स्नेहवश भगवानी भी उसे पुचकारने लगी। सोचा, रोने से मन का गुबार निकल जायेगा। हृदय शान्त हो जायेगा। बोली कुछ भी नहीं। कुछ देर पश्चात् गोमती ने सिसकते हुए कहा, ‘‘चाची, मैं मर क्यों नहीं गयी ? मैं मर क्यों नहीं गयी ?’
‘मरें तुम्हारे दुश्मन ! मरे वह नीच फूलमती, जो इस फिसाद की जड़ है। तुम क्यों दुखी होती हो ?’’ भगवानी ने उसे बैठाते हुए कहा, ‘बेटी, मैं तेरी माँ नहीं, लेकिन सगी चाची तो हूँ। मुझे बता यह सब कैसे हुआ ? कौन है वो मुआ ? हम उसे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। क्या गरीबों की कोई इज्जत नहीं होती !’
‘‘चाची..नहीं, चाची, दोष उसका नहीं, दोष मेरा है। मैं किसी लायक होती तो तीन वर्ष से क्यों बाप की चौखट पर पड़ी रहती ? क्यों उन्हें, आपको ऐसी बेमौत मारती ?’’ रोती हुए गोमती ने भगवानी के दोनों हाथ पकड़कर अपने गले से लगाये और अपने ही हाथों उन्हें दबाते हुए बोली, ‘‘मेरा गला घोंट दो, चाची, मेरा गला घोंट दो। मैं जीवित रहने योग्य नहीं हूँ। मार दो मुझे, टुकड़े कर दो मेरे।’’
बाहर आँगन में बैठा बसेसर गोमती का विलाप सुन रहा था। तभी लच्छू आ गया। उसे देखकर बसेसर शर्म से धरती में गड़-सा गया। आँखें नीची किये चुपचाप बैठा रहा। निकट आकर लच्छू बोला-‘‘भइया, मैं यह क्या सुन रहा हूँ ? फूलमती क्या अनाप-सनाप बकती फिर रही है पूरे गाँव में !’’
लेकिन बसेसर कुछ नहीं बोला। उसे चुप देखकर और अंदर अपनी पत्नी भगवानी की आवाज़ सुनकर वह सीधा गोमती के पास चला आया। क्रोधित स्वर में बोला-‘‘गोमती क्या यह सच है ?’’
लच्छू को क्रोधित होते देखकर भगवानी ने कहा, ‘‘क्या सच है ? क्या तुम बुआ को नहीं जानते ? कैसी गन्दी आदत है उसकी, गरीब की बेटी समझकर कुछ भी कह लो, किसी ब्राह्मण या ठाकुर की बेटी के बारे में उसने ऐसा कहा होता तो अब तक उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये होते। लेकिन हम ठहरे हरिजन, उनकी रिआया, कुछ भी कह लो। चुपचाप सब सुनकर सब्र कर लेंगे। जाकर ये लाल-पीली आँखें उसे दिखाओ जो गाँव भर में बकती फिर रही है। क्या तुम अपनी बेटी को नहीं जानते ! कैसी आदत है इसकी, एक बार यह धरती भी बोल पडे़गी लेकिन तुमने गोमती को बोलते देखा है कभी।’’
‘‘तुम चुप रहो, मैं गोमती से पूछ रहा हूँ।’’ कुछ नम्र स्वर में बोला लच्छू, ‘बेटी, यह दुख तुम हमें नहीं बताओगी, तो किसे बताओगी। बोलो बेटी, वरना सारे गाँव में हमारी नाक कट जाएगी। तेरी ससुराल वाले भी हम पर थूकेंगे। उन्हें कौन-सा मुँह दिखायेंगे हम ! बताओ गोमती, क्या धन्नू तो कभी इधर नहीं आया था ?’’ लेकिन गोमती चुप रही। लच्छू पुन: बोला-‘‘सोचते थे, जात-बिरादरी वालों का दबाव डलवाकर तेरी ससुरालवालों को मना लेंगे। झगड़े-फसाद तो होते ही रहते हैं। बात बन ही जाएगी। लेकिन अब...अब किस मुँह से कहेंगे उनसे कि अपनी अमानत को ले जाओ। बेटी तो ससुराल में ही अच्छी लगती है। यों तो पूरन समझदार आदमी है परन्तु,....परन्तु।’’ कहते-कहते लच्छू की आवाज़ भर आयी।
‘‘चाचाजी, मैंने कोई गलत काम नहीं किया है।’’ भर्राये गले से गोमती इतना ही कह सकी ! क्योंकि बाहर किशना आ गया था जो बसेसर से कह रहा था-‘‘ताऊ, मैं ठाकुरों की तरफ से निकल रहा था, वहाँ मैंने गोमती को लेकर कुछ खुसर-पुसर होते सुनी तो यहाँ दौड़ा चला आया। वे कह रहे थे कि कल ही पंचायत बिठाकर इसका निर्णय कर लिया जाये कि गोमती किसके बच्चे की माँ बननेवाली है। यह क्या हो गया, ताऊ !’’
‘पंचायत’ शब्द सुनकर गोमती, भगवानी, लच्छू ने सहसा बाहर की तरफ देखा, लेकिन बसेसर ने गर्दन ऊपर नहीं उठायी। धीरे-धीरे चलकर किशना अंदर आया और एक क्षण उन तीनों को देखकर बोला, ‘‘चाचाजी, यह सब क्या है ? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।’’
‘‘बैठे पंचायत, गरीब की बेटी को लेकर ये ऊंच जात वाले लोग पंचायत ही बैठा सकते हैं।’’ भगवानी आँखें ततेरकर बोली, ‘‘वे भी अपने मन की कर लें, भगवान सबको देखता है। सबको देखता है वह। उसके यहाँ सच्चा न्याय होता है-दूध का दूध और पानी का पानी। लेकिन पंच भी तो परमेश्वर ही होता है। उसकी जवान में वही बोलती है। मेरी गोमती ने कोई पाप नहीं किया है। फिर उसे कैसी सज़ा मिलेगी-हाँ कैसी सज़ा ? मुझे मेरी बेटी पर पूरा यकीन है आखिर पंच कुछ हमसे भी तो पूछेंगे ही। यों ही अपना न्याय नहीं थोप देंगे हम पर। वे भी बेटी वाले हैं। पंचायत के सामने सभी बराबर है।’’
झुमरू महतो के आंगन में ठीक समय पर पंचायत बैठी। काफी बड़ा आँगन था। जामुन और नीम के वृक्षों की शाखाओं ने सम्पूर्ण आंगन की छत-सी बना रखी थी। एक तरफ गोबर के उपलों की आग सुलग रही थी ताकि पंच एवं एकत्रित व्यक्ति आराम से चिलम पी सकें। लहलहाते वृक्षों की शाखाओं पर बैठे सैकड़ों विहग इस पंचायत के निर्णय को सुनने के लिए एकत्रित हो गये। सारा आँगन गाँव के लोगों से खचाखच भरा था। लंबे-लंबे घूँघट निकाले स्त्रियाँ दीवार की ओट में एक तरफ बैठी अपनी-अपनी हांक रही थीं तो दूसरी तरफ पुरुष तरह-तरह की गप हाँक रहे थे। जब बसेसर पंचायत में आकर बैठा तो गाँव के सभी गणमान्य व्यक्ति विराजमान थे। ग्लानि, भय एवं आक्रोश के कारण उसका हृदय धक-धक कर रहा था। सचमुच गोमती ने उसके मुँह पर कालिख पोत दी थी। यह दिन देखने से पहले वह मर क्यों नहीं गया ? लेकिन उसका भाग्य इतना हीन है अथवा वह इतना निराश हो चुका है कि चाह कर मर भी नहीं सकता। सोचता, धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये। आकाश से बिजली गिर पड़े और वह उसे भस्म करे दे।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं होगा। धीरू महतो उसी के पास बैठा उसके मुखमण्डल पर आने-जाने वाली भावनाओं की आँधी को देख रहा था। उसकी आँखों में असीम दुख के कारण आँसू ढुलककर कपोलों पर उतर आये थे। लेकिन बसेसर को इसका भान कहां था। वह तो पुरुष जात था जो कठोर से कठोर आघात को अनायास सहन करने की क्षमता रखता है। लेकिन गोमती ! वह तो शायद मर ही जाये। कोमलांगी नारी जो ठहरी। परन्तु अगर गोमती मर ही जाती तो यह झंझट ही क्यों होता ? रात में सोती हुई की गर्दन ही दबा देता तो अब यहां पंचायत ही क्यों बैठती ! फाँसी ही तो होती, इतना अपमान तो सहन नहीं करना पड़ता। फिर अब भी वह कौन सा जीवित है। मर तो अब भी गया है एक तरह से। पग-पग पर मरने से तो एक बार की मृत्यु ही श्रेष्ठ है। वह बरबस रो उठा और घुटनों में अपना मुँह छिपा लिया। लेकिन स्वर इतना धीमा था कि निकट बैठा धीरू महतो ही उसे सुन सका। बोला, ‘‘बसेसर, धीरज क्यों खोता है भाई ! ईश्वर पर भरोसा रखो। गृहस्थी में ऐसी आपदाएँ तो आती ही रहती हैं। इसलिए बड़े-बड़े महात्माओं ने इस जीवन को संन्यासी जीवन से भी श्रेष्ठ कहा है। शान्त होकर बैठो। पंच की जिह्वा में परमेश्वर का वास होता है। किसी दूसरे का पाप कोई तुम्हारे गले नहीं मढ़ सकता। मुझे तो गोधूलि में पता चला, नहीं तो तुम्हारे पास आकर तुम्हें समझाता।’’
बसेसर ने डबडबाई आँखों से धीरू महतो को देखा। उसे लगा वह सच ही कह रहा है। कोई उससे भी तो सफाई में कुछ पूछेगा ही, यों ही तो अपना फैसला सुना नहीं देंगे। तभी उसे झुमरू महतो की आवाज़ सुनाई दी, वह कह रहा था, ‘‘भाइयों, आज हम एक गम्भीर समस्या के निदान हेतु यहाँ एकत्रित हुए हैं विस्तारपूर्वक आप सबको फूलमती बुआ बता देगी लेकिन उससे पूर्व एक मन्त्रणा मेरी भी है कि इस मामले का निर्णय स्पष्ट हो ताकि लोग सबक ले सकें अन्यथा पूरे गाँव की बहू-बेटियों की अस्मत सुरक्षित नहीं रह सकेगी।’’
फूलमती बुआ उठी। अजेय योद्धा की भांति एक विहंग दृष्टि वहां बैठी जमात पर डाली। लेकिन स्त्रियों के झुंड में उसे अपराधिनी गोमती दिखाई नहीं दी। वह क्षणिक हतोत्साहित हुई लेकिन सामने बैठे बसेसर पर नजर पड़ते ही उसका हृदय साहस से भर उठा। सामने बैठे सरपंच भगवतस्वरूप एवं प्रधान अलगू चौधरी को सिर झुकाकर प्रणाम किया। गम्भीर चाल से दोनों तरफ देखते हुए अजेय योद्धा की भांति लोगों के बीच से रास्ता बनाती हुई पंचों के सम्मुख आई जैसे महाभारत में सारथी कृष्ण को लेकर अर्जुन युद्धारम्भ से पूर्व दोनों सेनाओं के मध्य आये थे। आँखों ही आँखों में पंचायत में बैठे लोगों का वजन तोला और सगर्व गर्दन को कुछ ऊंचा उठाया। तभी लोगों में शोर होने लगा। सहसा लच्छू हरिजन उठा और आक्रोशपूर्ण शब्दों में बोला, ‘‘नहीं, झुमरू महतो। यह पुरुषों की पंचायत है...’’
उसकी बात बीच में काटकर झुमरू महतो बोला, ‘‘लेकिन दोषी तो एक नारी है और नारी के दोषों को नारी से बढ़कर कौन जान सकता है। फिर फूलमती बुआ का तो सारा गांव ही सम्मान..।’’
‘‘जब अपराध की स्वीकृति की बारी आयेगी, तब महिलाओं को भी पुकार लेंगे !
औंधे पड़े बसेसर ने गरदन ऊपर उठाकर देखा। फूलमती बुआ दोनों हाथ चलाते हुए उसे खा जाने वाली दृष्टि से देख रही थी। बसेसर को चुप देखकर वह पुन: बोली, ‘‘सुन रहे हो, बसेसर ! अब कोई भी इस कुलच्छनी का हाथ नहीं थाम सकता। जीवनभर इसी द्वार पर बैठी तुम्हारी छाती पर मूँग दलती रहेगी। जात-बिरादरी वाले तुम्हारे नाम पर थूकेंगे। बिरादरी में हुक्का-पानी बंद हो जाएगा। आँखें फाड़कर मेरा मुँह क्या ताक रहे हो ? सच्ची बात कह रही हूँ-एकदम सच्ची। विश्वास न हो तो पूछ लो अपनी लाड़ली से जाकर। नासपीटी है। जन्म लेते ही अपनी माँ को खा गयी। अब तुम्हें भी जीवित नहीं छोड़ेगी।’’
‘‘बस करो, बुआ, बस।’’ कहते हुए बसेसर का गला अवरुद्ध हो गया। उसकी आंखों में आँसू निकल आये। कुछ देर पहले उसने भी कुछ ऐसा ही सुना था। वह इसे सत्य मानने को तैयार भी नहीं था लेकिन फूलमती का इतने जोर से कहना उसे अखरा अवश्य किन्तु इसमें कुछ सत्य है ऐसा आभास उसे होने लगा। बसेसर को चुप देखकर फूलमती चली गयी। लेकिन उसे एक ऐसी चिन्ता में डाल गयी जिससे मुक्त होना उसे कठिन लग रहा है। वातावरण शान्त था। एक अजीब-सी खामोशी चारों तरफ छाई है। उस शान्त वातावरण में बसेसर का मन दुख, ग्लानि और क्षोभ से भरा हुआ है। घर के अंदर से गोमती के सिसकने का स्वर आ रहा है, और सोच रहा है बसेसर, कितने अरमानों से पाल-पोसकर बड़ा किया था गोमती को। हाथों में फूलों की तरह संजोकर रखता था। स्वयं कष्ट सहे, निरन्तर पीड़ा भोगी, लेकिन गोमती को टीस का अहसास भी नहीं होने दिया। इसे आभास ही नहीं होने दिया कि वह बिन माँ की बच्ची है। बाप से ज्यादा ममता उसने उसे माँ की दी। यही फल मिला है इस सबका ! आज सोचता हूँ जन्म लेते ही इसका गला क्यों नहीं दबा दिया। ऐसी दुर्दशा तो न होती। शायद भाग्य में यही लिखा था ! अन्यथा विवाह के पश्चात् वे इसे क्यों छोड़ देते।
उनके परिवार में यह क्यों नहीं खप सकी ! शायद कुछ खोट भी इसमें रहा होगा। अकेले उन्हीं लोगों को दोष देना उचित नहीं है। ताली एक हाथ से नहीं, दोनों हाथों से बजती है। किन्तु गोमती के इस रूप की कल्पना तो कभी की ही नहीं थी। परित्यक्ता का जीवन कितनी सादगी से व्यतीत करती आ रही थी यह। किसने सोचा होगा कि चंद्रमा की किरणें भी कभी शरीर को झुलसा सकती हैं। सघन तिमिर भी भटकते हुए लोगों को पथ दिखा सकता है। उस समय यही फूलमती जो आज इतना वाक्-विष उगलकर गयी है, गोमती की प्रशंसा करते नहीं थकती थी। बहुत कहा करती थी, ‘कितनी सुशील लड़की है तेरी। सदगुण तो इसके रोम-रोम में बसे हुए हैं। सुंदर है चन्द्रमा की तरह। शीलवती है सीता की भाँति। गाँव ही नहीं अपितु पूरी बिरादरी में भी इसके जोड़ की लड़की नहीं है। नाम रोशन कर देगी तेरा।’ और आज क्या कुछ नहीं कह गयी। हाँ, एक बात तो सत्य है कि इसने मेरा नाम समाज की ठोकरों में उछाल दिया है और यह फूलमती अभी बेतार की तरह पूरे गाँव में इस खबर को फैला देगी नमक-मिर्च लगाकर। सोचते-सोचते बसेसर के सिर में दर्द होने लगा। असीम पीड़ा से व्याकुल होकर उसने आँखें बंद कर लीं और सिर को दोनों हाथों में थामकर बैठ गया।
जवान बेटी को क्या कहूँ ? कहीं और अनर्थ न कर बैठे। किसी तालाब अथवा कुएँ में डूब मरी लज्जावश, तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा। ममता की पीड़ा जैसे हृदय को कचोटने लगी। न-न, उसे कुछ नहीं कह सकता-कुछ कहना उचित ही नहीं है इस समय। आखिर वह भी तो एक मानव ही है-संवेदनशील और भावमती। कोई बुत तो है नहीं, जो महसूस करने की सामर्थ्य ही न रखती हो। अपने इस कर्म पर उसे भी लज्जा आ रही होगी। हाँ, मैं उसे कुछ नहीं कहूँगा। आज तक कुछ कह ही नहीं सका हूँ। सोचते-सोचते बसेसर उठ खड़ा हुआ। सोचा, एक बार उसे देख तो लूँ। अंदर जाकर देखा। फूल-सी कोमल गोमती चारपाई पर औंधी पड़ी सिसक रही थी। सहसा असीमित अव्यक्त वेदना उमड़ पड़ी बसेसर के हृदय में। कोई और अवसर होता तो घंटों उसे सीने से लगाकर उसकी पीठ थपथपाता रहता। साहस और धैर्य की शिक्षा देता। जीवन-संघर्ष की बारीकियों के बारे में समझाता। लेकिन अब कुछ भी तो नहीं कह सकता। दोष ही ऐसा है उसका। बसेसर ने जी कड़ा किया और वापस घूमकर घर से बाहर निकल आया। शायद वह अपनी उपस्थिति का ज्ञान गोमती को नहीं कराना चाहता था।
भगवतस्वरूप अपने आँगन में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। निकट आकर बसेसर ने कहा-‘‘राम-राम, सरपंच जी !’’
‘‘कौन ?... बसेसर। आओ-आओ। तुमसे कुछ बातें भी करनी हैं।’’
बसेसर नीचे जमीन पर बैठ गया। उसके पश्चात् भगवतस्वरूप ने हुक्के के दो-तीन लंबे-लंबे घूँट लिये। तत्पश्चात् बोला, ‘‘यह फूलमती बुआ क्या अनाप-शनाप कहती घूम रही है। अभी थोड़ी देर पहले यहाँ भी आई थी। जो कुछ वह कहकर गयी, क्या सत्य है ?’’ बसेसर आंखें नत किये सरपंच की बातें सुनता रहा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। शायद कुछ उत्तर उसे सूझा ही नहीं। बसेसर को चुप देखकर भगवतस्वरूप फिर बोला, ‘‘बसेसर, तुम्हारी चुप्पी कह रही है कि फूलमती ने असत्य कुछ भी नहीं कहा। अब इस विषय पर क्या सोचा है तुमने ? मैं कहता हूँ कि ऐसी सन्तान को गला दबाकर जमीन में गाड़ देना चाहिए। पुरखों की इज्जत धूल में मिला दी। तुम्हें पहले कुछ भनक नहीं लगी थी क्या ? मेरा मतलब, यह काम किस व्यक्ति का हो सकता है ?’’
बसेसर ने सोचा, जब यह सब कुछ जानता ही है और बुआ सब कुछ उगल ही गयी है तो अब गड़े मुर्दे उखाड़ने की बात क्यों ? क्या यह इस अनहोनी को मेरे मुँह से सुनना चाहता है ? शायद मेरे रिसते घाव पर और नमक लगाना बाकी होगा। इसलिए लगायेंगे ही। संसार की यही तो रीति है। रोकर पूछना और हँसकर उड़ाना। इनकी बातों का कितना मरहम मेरे घाव पर लगेगा, यह तो मैं घर में घुसते ही समझ गया था। कितनी विद्रूपता से आंखें फेर ली थीं। लेकिन अब....अब भी वही दो आंखें तीक्ष्ण शूलों की भाँति मेरी तरफ बढ़ी आ रही हैं। लगता है हृदय बेध ही देंगी। पीड़ा के तीव्र वेग को किसी तरह रोककर गरदन झुकाये बस वह इतना ही कह सका, ‘‘मैं कुछ नहीं जानता था, सरपंच जी।’’
‘अच्छा !’ भगवतस्वरूप ने आश्चर्ययुक्त स्वर में कहा। लेकिन बसेसर का मन खिन्न हो चुका था। वह थोड़ी देर पश्चात् ही वहाँ से चल पड़ा। अपने घर जाते समय जगह-जगह लोगों की बातें सुनकर उसका हृदय छलनी हो गया। लज्जावश उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसे जीवित ही पृथ्वी में गाड़ दिया गया हो।
बसेसर हरिजन है और अपनी जाति का मुखिया है। इसलिए गाँव के लगभग सभी व्यक्ति उसका सम्मान करते हैं। विधुर है, शायद गोमती के स्नेह के कारण वह दूसरी शादी नहीं कर सका था। गोमती लगभग दो मास की थी, जब उसकी माँ रुक्मणी रुग्ण शैया पर पड़ी पीड़ा से छटपटा रही थी। शायद जीवन के अन्तिम साँस ही गिन रही थी। रात्रि का समय था। चारों तरफ फैला अंधकार जैसे प्रकाश का मुँह चिड़ा रहा था। आकाश पर तारे छिटक रहे थे। वातावरण शान्त था। यदा-कदा ही कोई कुत्ता भौंक उठता था जिससे नीरवता भंग हो जाती थी। उस स्तब्ध वातावरण में रह-रहकर बसेसर का हृदय किसी अनजानी परछाईं को निहार कर भयभीत हो उठता था। घर में मिट्टी के तेल का दीया जल रहा था, जिसकी पीली, फीकी रोशनी में वह रुक्मणी के सिरहाने बैठा उसका माथा सहला रहा था। उधर गोमती अलग चारपाई पर लेटी किलक-किलकर खेल रही थी। कभी हाथ का अँगूठा चूसती थी, कभी पैर का। एक तरफ जीवन मोदमय होकर नृत्य करने में मग्न था, दूसरी तरफ मृत्यु का वीभत्स तांडव होने को आतुर।
जब रुक्मणी असहनीय पीड़ा से छटपटाती तो लगता जैसे अथाह रेगिस्तान में मीन को फेंक दिया गया हो। गोमती हर्षयुक्त स्वर में अस्पष्ट बोलने का प्रयत्न करती तो ऐसा प्रतीत होता मानो आम के बौर पर कोकिला कूक रही हो अथवा विकचते उपवन में अलि मधुरगान कर रहे हों। एक तरफ शान्त बहती सरिता की कल-कल, दूसरी तरफ बाढ़ से उफनती क्रूरनदी का शोर ! कितना प्रफुल्लित, कितना भयावह ! बाहर सघन तिमिर बढ़ता जाता था। बसेसर को लगा जैसे दीपक से सीमित प्रकाश के अतिरिक्त यहाँ से वहाँ तक अंधकार का ही साम्राज्य है। रुक्मणी की पीड़ा क्षण-क्षण बढ़ती जा रही थी। कभी वह कराहती थी तो कभी रो उठती थी और बसेसर के पास हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ नहीं था। प्राण निकलते समय की पीड़ा कितनी असहनीय होती है, इसका अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता। श्रमकणों से सम्पूर्ण कलेवर तर हो जाता है। लगता है निशीथ में दूर्वादल पर ओस छिटकी पड़ी हो, अथवा यह जीवन की अन्तिम निधि हो जिसे मानव अपने स्वजनों को थाती के रूप में सौंपकर जाना चाहता हो।
गोमती को देखकर बसेसर के एक नेत्र में जीवन का दु:खहरण नृत्य हो रहा था तो दूसरे नेत्र में रुक्मणी की तरफ से संसार भर की पीड़ा, अकेलापन सिमटकर रह जाना चाहता था। उसकी अवस्था देखकर विवश बसेसर की आँखों में आँसू छलक आये। कितनी वेदना थी जिसे वे दोनों एक-दूसरे से व्यक्त करना चाहते थे। बसेसर ने क्या कुछ नहीं लगा दिया था रुक्मणी के उपचार पर, लेकिन रुक्मणी एक बार गिरी तो हमेशा के लिए ही गिर गयी। अगर कोई वैद्य अथवा चिकित्सक बसेसर का जीवन लेकर भी रुक्मणी को ठीक कर देता तो वह सहर्ष स्वीकार कर लेता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पूरब में जब सूर्य ने अपनी लालिमायुक्त किरणों के द्वारा जगती-अंचल में बिछी तमपर्त को निगलना प्रारंभ किया तो उसी समय बसेसर के जीवन का अन्धकार बढ़ने लगा। वह इतना बढ़ा कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। जब रुक्मणी ने अन्तिम सांस हुचक कर ली, तब वह कितना फूट-फूटकर रोया था रुक्मणी के प्राणरहित शरीर से लिपटकर। जिस जीवनदायिनी मिट्टी ने उसे जन्म दिया था। आखिर उसी ने उसकी इतिश्री भी कर दी। यह उसके भाग्य की विडम्बना थी अथवा नियति का एक क्रूर मजाक अथवा संसार एवं जीवन का एक कठोर सत्य जिसको समझकर अनजान बनने का प्रयत्न हम करते रहते हैं। मृत्यु क्या है ?
संसार क्या है ? ऐसे प्रश्न इस समय बसेसर के मन को आलोड़ित कर रहे थे। कभी वह सोचता; जीवन श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा हम कुछ ऐसे कर्म करते हैं जिनसे हमें मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। हम इस भौतिक संसार में रहकर कुछ सत्कर्मों द्वारा इस आवागमन के फंदे से मुक्त हो सकते हैं। लेकिन गृहस्थ जीवन में ईश-वन्दन करने का समय ही कहाँ है ? मोहमाया के कठोर फन्दों में हम इस तरह बंधे हैं कि हमारे सोचने समझने का दायरा नितांत सीमित हो गया है। लाभ-हानि, ईर्ष्या-द्वेष एवं सांसारिक प्रपंचों के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं अथवा हम समझना ही नहीं चाहते। हां, यह सत्य है कि हम भिज्ञ होकर भी अनभिज्ञ बने रहते हैं। शायद उस समय अनभिज्ञ रहना ही उचित हो। ऐसी स्थिति में इस जीवन का लाभ ही क्या ? जिस सत्य को हम जानते हैं, उसे जीवन में नहीं अपना सकते। क्यों ? आखिर क्यों ? क्यों हम झूठ, मोह, लोभ, घृणा जैसी निकृष्ठ प्रवृत्तियों को जीवन में धारण करने में ही अपनी कुशलता समझते हैं ? ऐसी कौन–सी विवशता है जो हर क्षण हमारा रास्ता रोके रखती है ? लक्ष्यहीन जीवन मृत्यु से भी विद्रूप होता है। बसेसर ने जीवन को जीत लिया था। तब नन्ही गोमती के ममत्व से वह पराजित हो गया था। यों तो बसेसर ने इस लघु जीवन में कई बार मृत्यु पाई है, लेकिन आज...आज तो वह चाहकर भी नहीं मर सकता, जैसे मौत को ही बसेसर से घृणा हो चुकी है।
फूलमती बुआ की भी अजब कहानी है। आज से लगभग चालीस वर्ष पहले वह विधवा हुई थी। उस समय इसकी अवस्था सात वर्ष के लगभग थी। इसके पिताजी गाँव भर में पूजा हवन किया करते थे। ब्राह्मण जाति से सम्बद्ध जो ठहरे ! विधवा होकर फूलमती वापस गाँव में आ गयी थी। संयोगवश फूलमती अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थी, इसलिए इसके पिताजी स्नेहवश जहाँ भी जाते, फूलमती को साथ ले जाते। बारह वर्ष की अवस्था आते-आते इसकी माँ का स्वर्गवास हो गया। तब घर में ये दो ही प्राणी रह गये। माँ का साया सिर पर न रहने के कारण, कुछ पिताजी की स्नेहमयी पुत्री होने के कारण और कुछ नियति की मार के कारण फूलमती को पूरे गांव से अपार स्नेह प्राप्त हुआ, जिसके कारण यह शनै-शनै उच्छृंखल होती गयी। यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते ही पिताजी का भी स्वर्गवास हो गया। तब फूलमती बिलकुल अकेली रह गयी। संबंधों एवं उच्च जाति की होने के कारण लोग इसे बुआ का सम्बोधन देने लगे। धीरे-धीरे छोटे-बड़े सभी की फूलमती बुआ बन गयी। आज गाँव के इस छोर से उस छोर तक सभी समाचारों का आदान-प्रदान यही करती है। यह बात और है कि कुछ समाचार यह अपनी बृद्धि से जोड़ भी देती है, कुछ उनसे हटा भी लेती है। चापलूस किस्म के व्यक्ति उसकी इस आदत से प्रसन्न होते हैं तो भले लोग मन-ही-मन उसकी इस कलुषित विचारधारा को गालियाँ भी देते हैं। उसने यह नहीं सोचा कि गोमती किन परिस्थितियों की शिकार होकर इस दुखदायी मोड़ पर पहुंची है, बस उसे तो एक खबर मिल गयी कि गोमती माँ बनने वाली है-कुँआरी नहीं, बल्कि विवाहित ! अन्तर केवल इतना कि पिछले तीन वर्षों से यह परित्यक्ता का जीवन अपने पिताजी के घर में बिता रही है। इसीलिए उसने गोमती की माँ बनने वाली सूचना गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को चटखारे-ले लेकर सुनाई। स्वयं भी बसेसर और गोमती को गालियाँ दीं, लोगों से भी दिलवायीं।
गोमती घर के अंदर बैठी अपने भाग्य को कोस रही थी। अपने मन की पीड़ा वह किसी से भी व्यक्त नहीं कर सकती थी-अपने पिता बसेसर से भी नहीं। वह कैसे कहे कि उसने कोई पाप नहीं किया है। यह हम्ल जो सन्तान के रूप में उसके पेट में पल रहा है, किसी गैर का नहीं बल्कि उसके पति धन्नू का ही है। लेकिन कोई सबूत भी उसके पास नहीं। पता नहीं किन भावनाओं में बहकर वह यह अनर्थ कर बैठी। उसके पास माँ का साया भी नहीं जो इस विपत्ति में उसे अपने आंचल में छिपा सके, ले-देकर पिताजी हैं जिनसे वह ऐसी बातें नहीं कर सकती। उधर बसेसर भी आँगन में बैठा है-गुम-सुम। सूनी-सूनी आँखों से आकाश को निहार रहा है। सोच रहा है यह क्या हो गया ? बदनामी एवं लांछन की ऐसी मार से क्या वह जीवित बच सकेगा ? तभी आँगन में भगवानी ने कदम रखा, जो चुपचाप अंदर चली गयी। उसने देखा कि गोमती एवं बसेसर दोनों ही घुटनों में मुँह छिपाये रो रहे हैं।
गोमती के सिर पर हाथ फेरते हुए भगवानी ने कहा-‘‘बेटी, सब्र से काम लो, यों रोने-धोने से कुछ नहीं होगा। क्या तुम जानती नहीं कि फूलमती बुआ की कितनी गंदी आदत है, वह तो यूँ ही तिल का ताड़ बना देती है। कभी अपने गिरेबान में भी झाँककर देखा है उसने, कितने बीभत्स दाग लगे हैं, उसके आँचल पर।’’
‘‘चाची !’’ सिसकते हुए गोमती भगवानी के सीने से लिपट गयी। स्नेहवश भगवानी भी उसे पुचकारने लगी। सोचा, रोने से मन का गुबार निकल जायेगा। हृदय शान्त हो जायेगा। बोली कुछ भी नहीं। कुछ देर पश्चात् गोमती ने सिसकते हुए कहा, ‘‘चाची, मैं मर क्यों नहीं गयी ? मैं मर क्यों नहीं गयी ?’
‘मरें तुम्हारे दुश्मन ! मरे वह नीच फूलमती, जो इस फिसाद की जड़ है। तुम क्यों दुखी होती हो ?’’ भगवानी ने उसे बैठाते हुए कहा, ‘बेटी, मैं तेरी माँ नहीं, लेकिन सगी चाची तो हूँ। मुझे बता यह सब कैसे हुआ ? कौन है वो मुआ ? हम उसे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। क्या गरीबों की कोई इज्जत नहीं होती !’
‘‘चाची..नहीं, चाची, दोष उसका नहीं, दोष मेरा है। मैं किसी लायक होती तो तीन वर्ष से क्यों बाप की चौखट पर पड़ी रहती ? क्यों उन्हें, आपको ऐसी बेमौत मारती ?’’ रोती हुए गोमती ने भगवानी के दोनों हाथ पकड़कर अपने गले से लगाये और अपने ही हाथों उन्हें दबाते हुए बोली, ‘‘मेरा गला घोंट दो, चाची, मेरा गला घोंट दो। मैं जीवित रहने योग्य नहीं हूँ। मार दो मुझे, टुकड़े कर दो मेरे।’’
बाहर आँगन में बैठा बसेसर गोमती का विलाप सुन रहा था। तभी लच्छू आ गया। उसे देखकर बसेसर शर्म से धरती में गड़-सा गया। आँखें नीची किये चुपचाप बैठा रहा। निकट आकर लच्छू बोला-‘‘भइया, मैं यह क्या सुन रहा हूँ ? फूलमती क्या अनाप-सनाप बकती फिर रही है पूरे गाँव में !’’
लेकिन बसेसर कुछ नहीं बोला। उसे चुप देखकर और अंदर अपनी पत्नी भगवानी की आवाज़ सुनकर वह सीधा गोमती के पास चला आया। क्रोधित स्वर में बोला-‘‘गोमती क्या यह सच है ?’’
लच्छू को क्रोधित होते देखकर भगवानी ने कहा, ‘‘क्या सच है ? क्या तुम बुआ को नहीं जानते ? कैसी गन्दी आदत है उसकी, गरीब की बेटी समझकर कुछ भी कह लो, किसी ब्राह्मण या ठाकुर की बेटी के बारे में उसने ऐसा कहा होता तो अब तक उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये होते। लेकिन हम ठहरे हरिजन, उनकी रिआया, कुछ भी कह लो। चुपचाप सब सुनकर सब्र कर लेंगे। जाकर ये लाल-पीली आँखें उसे दिखाओ जो गाँव भर में बकती फिर रही है। क्या तुम अपनी बेटी को नहीं जानते ! कैसी आदत है इसकी, एक बार यह धरती भी बोल पडे़गी लेकिन तुमने गोमती को बोलते देखा है कभी।’’
‘‘तुम चुप रहो, मैं गोमती से पूछ रहा हूँ।’’ कुछ नम्र स्वर में बोला लच्छू, ‘बेटी, यह दुख तुम हमें नहीं बताओगी, तो किसे बताओगी। बोलो बेटी, वरना सारे गाँव में हमारी नाक कट जाएगी। तेरी ससुराल वाले भी हम पर थूकेंगे। उन्हें कौन-सा मुँह दिखायेंगे हम ! बताओ गोमती, क्या धन्नू तो कभी इधर नहीं आया था ?’’ लेकिन गोमती चुप रही। लच्छू पुन: बोला-‘‘सोचते थे, जात-बिरादरी वालों का दबाव डलवाकर तेरी ससुरालवालों को मना लेंगे। झगड़े-फसाद तो होते ही रहते हैं। बात बन ही जाएगी। लेकिन अब...अब किस मुँह से कहेंगे उनसे कि अपनी अमानत को ले जाओ। बेटी तो ससुराल में ही अच्छी लगती है। यों तो पूरन समझदार आदमी है परन्तु,....परन्तु।’’ कहते-कहते लच्छू की आवाज़ भर आयी।
‘‘चाचाजी, मैंने कोई गलत काम नहीं किया है।’’ भर्राये गले से गोमती इतना ही कह सकी ! क्योंकि बाहर किशना आ गया था जो बसेसर से कह रहा था-‘‘ताऊ, मैं ठाकुरों की तरफ से निकल रहा था, वहाँ मैंने गोमती को लेकर कुछ खुसर-पुसर होते सुनी तो यहाँ दौड़ा चला आया। वे कह रहे थे कि कल ही पंचायत बिठाकर इसका निर्णय कर लिया जाये कि गोमती किसके बच्चे की माँ बननेवाली है। यह क्या हो गया, ताऊ !’’
‘पंचायत’ शब्द सुनकर गोमती, भगवानी, लच्छू ने सहसा बाहर की तरफ देखा, लेकिन बसेसर ने गर्दन ऊपर नहीं उठायी। धीरे-धीरे चलकर किशना अंदर आया और एक क्षण उन तीनों को देखकर बोला, ‘‘चाचाजी, यह सब क्या है ? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।’’
‘‘बैठे पंचायत, गरीब की बेटी को लेकर ये ऊंच जात वाले लोग पंचायत ही बैठा सकते हैं।’’ भगवानी आँखें ततेरकर बोली, ‘‘वे भी अपने मन की कर लें, भगवान सबको देखता है। सबको देखता है वह। उसके यहाँ सच्चा न्याय होता है-दूध का दूध और पानी का पानी। लेकिन पंच भी तो परमेश्वर ही होता है। उसकी जवान में वही बोलती है। मेरी गोमती ने कोई पाप नहीं किया है। फिर उसे कैसी सज़ा मिलेगी-हाँ कैसी सज़ा ? मुझे मेरी बेटी पर पूरा यकीन है आखिर पंच कुछ हमसे भी तो पूछेंगे ही। यों ही अपना न्याय नहीं थोप देंगे हम पर। वे भी बेटी वाले हैं। पंचायत के सामने सभी बराबर है।’’
झुमरू महतो के आंगन में ठीक समय पर पंचायत बैठी। काफी बड़ा आँगन था। जामुन और नीम के वृक्षों की शाखाओं ने सम्पूर्ण आंगन की छत-सी बना रखी थी। एक तरफ गोबर के उपलों की आग सुलग रही थी ताकि पंच एवं एकत्रित व्यक्ति आराम से चिलम पी सकें। लहलहाते वृक्षों की शाखाओं पर बैठे सैकड़ों विहग इस पंचायत के निर्णय को सुनने के लिए एकत्रित हो गये। सारा आँगन गाँव के लोगों से खचाखच भरा था। लंबे-लंबे घूँघट निकाले स्त्रियाँ दीवार की ओट में एक तरफ बैठी अपनी-अपनी हांक रही थीं तो दूसरी तरफ पुरुष तरह-तरह की गप हाँक रहे थे। जब बसेसर पंचायत में आकर बैठा तो गाँव के सभी गणमान्य व्यक्ति विराजमान थे। ग्लानि, भय एवं आक्रोश के कारण उसका हृदय धक-धक कर रहा था। सचमुच गोमती ने उसके मुँह पर कालिख पोत दी थी। यह दिन देखने से पहले वह मर क्यों नहीं गया ? लेकिन उसका भाग्य इतना हीन है अथवा वह इतना निराश हो चुका है कि चाह कर मर भी नहीं सकता। सोचता, धरती फट जाये और वह उसमें समा जाये। आकाश से बिजली गिर पड़े और वह उसे भस्म करे दे।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं होगा। धीरू महतो उसी के पास बैठा उसके मुखमण्डल पर आने-जाने वाली भावनाओं की आँधी को देख रहा था। उसकी आँखों में असीम दुख के कारण आँसू ढुलककर कपोलों पर उतर आये थे। लेकिन बसेसर को इसका भान कहां था। वह तो पुरुष जात था जो कठोर से कठोर आघात को अनायास सहन करने की क्षमता रखता है। लेकिन गोमती ! वह तो शायद मर ही जाये। कोमलांगी नारी जो ठहरी। परन्तु अगर गोमती मर ही जाती तो यह झंझट ही क्यों होता ? रात में सोती हुई की गर्दन ही दबा देता तो अब यहां पंचायत ही क्यों बैठती ! फाँसी ही तो होती, इतना अपमान तो सहन नहीं करना पड़ता। फिर अब भी वह कौन सा जीवित है। मर तो अब भी गया है एक तरह से। पग-पग पर मरने से तो एक बार की मृत्यु ही श्रेष्ठ है। वह बरबस रो उठा और घुटनों में अपना मुँह छिपा लिया। लेकिन स्वर इतना धीमा था कि निकट बैठा धीरू महतो ही उसे सुन सका। बोला, ‘‘बसेसर, धीरज क्यों खोता है भाई ! ईश्वर पर भरोसा रखो। गृहस्थी में ऐसी आपदाएँ तो आती ही रहती हैं। इसलिए बड़े-बड़े महात्माओं ने इस जीवन को संन्यासी जीवन से भी श्रेष्ठ कहा है। शान्त होकर बैठो। पंच की जिह्वा में परमेश्वर का वास होता है। किसी दूसरे का पाप कोई तुम्हारे गले नहीं मढ़ सकता। मुझे तो गोधूलि में पता चला, नहीं तो तुम्हारे पास आकर तुम्हें समझाता।’’
बसेसर ने डबडबाई आँखों से धीरू महतो को देखा। उसे लगा वह सच ही कह रहा है। कोई उससे भी तो सफाई में कुछ पूछेगा ही, यों ही तो अपना फैसला सुना नहीं देंगे। तभी उसे झुमरू महतो की आवाज़ सुनाई दी, वह कह रहा था, ‘‘भाइयों, आज हम एक गम्भीर समस्या के निदान हेतु यहाँ एकत्रित हुए हैं विस्तारपूर्वक आप सबको फूलमती बुआ बता देगी लेकिन उससे पूर्व एक मन्त्रणा मेरी भी है कि इस मामले का निर्णय स्पष्ट हो ताकि लोग सबक ले सकें अन्यथा पूरे गाँव की बहू-बेटियों की अस्मत सुरक्षित नहीं रह सकेगी।’’
फूलमती बुआ उठी। अजेय योद्धा की भांति एक विहंग दृष्टि वहां बैठी जमात पर डाली। लेकिन स्त्रियों के झुंड में उसे अपराधिनी गोमती दिखाई नहीं दी। वह क्षणिक हतोत्साहित हुई लेकिन सामने बैठे बसेसर पर नजर पड़ते ही उसका हृदय साहस से भर उठा। सामने बैठे सरपंच भगवतस्वरूप एवं प्रधान अलगू चौधरी को सिर झुकाकर प्रणाम किया। गम्भीर चाल से दोनों तरफ देखते हुए अजेय योद्धा की भांति लोगों के बीच से रास्ता बनाती हुई पंचों के सम्मुख आई जैसे महाभारत में सारथी कृष्ण को लेकर अर्जुन युद्धारम्भ से पूर्व दोनों सेनाओं के मध्य आये थे। आँखों ही आँखों में पंचायत में बैठे लोगों का वजन तोला और सगर्व गर्दन को कुछ ऊंचा उठाया। तभी लोगों में शोर होने लगा। सहसा लच्छू हरिजन उठा और आक्रोशपूर्ण शब्दों में बोला, ‘‘नहीं, झुमरू महतो। यह पुरुषों की पंचायत है...’’
उसकी बात बीच में काटकर झुमरू महतो बोला, ‘‘लेकिन दोषी तो एक नारी है और नारी के दोषों को नारी से बढ़कर कौन जान सकता है। फिर फूलमती बुआ का तो सारा गांव ही सम्मान..।’’
‘‘जब अपराध की स्वीकृति की बारी आयेगी, तब महिलाओं को भी पुकार लेंगे !
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