जीवनी/आत्मकथा >> गुजरा कहाँ कहाँ से गुजरा कहाँ कहाँ सेकन्हैयालाल नंदन
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प्रस्तुत है कन्हैयालाल की आत्मकथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस आत्मकथा में नंदन जी ने एक ऐसा मानचित्र खोज लिया है जो कि आत्मकथाओं
में प्रायः नहीं होता। आत्मगोपन को अनावृत होते देखना इस आत्मकथात्मक लेखन
के पाठक को अतिरिक्त उपहार के रूप में उपलब्ध कराया गया है। सोने पर
सुहागा यह कि नंदन जी का जीवन तो काव्य-परिवेश, प्रोफेसरी, पत्रकारिता,
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और ललित कलाओं की अद्यतन हलचलों के बीच ही व्यतीत हुआ
है मगर जीवन के वैदिक छंदों में ही उनका मन रमा। किसी सामान्य से
दिखनेवाले सहयोगी को अपना रचयिता बताने में वह कंजूसी नहीं बरतते, इसीलिए
यह आत्मकथा मानवीय पक्षों की भावी उर्वराभूमि भी है, जहाँ आज के सौदागरी
समय में भी, संबंधों की फसल लहलहाने की संभावनाएं मौजूद हैं।
जीवन की यथास्थितियों की भूलभुलैया से गुज़रने का रोमांच देती आत्मकथा है:
‘गुज़रा कहां-कहां से’
जीवन की यथास्थितियों की भूलभुलैया से गुज़रने का रोमांच देती आत्मकथा है:
‘गुज़रा कहां-कहां से’
भूमिका जैसा कुछ...
यानी
जब चल पड़े सफ़र को...!
मुंबई की प्रोफेसर राजम् पिल्लै मेरे ऊपर एक ग्रंथ ‘बेचैन रूह
का
परिन्दा’ प्रकाशित कर रही थीं तो उन्होंने स्पष्ट कहा था कि यह
नन्दन जी का अभिनन्दन ग्रंथ नहीं है, उन्हें निकट से जानने समझने वाले
लोगों के संस्मरणों का संचयन है। उसी तरह मैं अपनी इस पुस्तक
‘गुज़रा कहां कहां से’ के बारे में कहना चाहता हूँ कि
यह मेरे
आत्मकथात्मक संस्मरणों का एक संचयन है। इनमें मेरी उपस्थिति हर जगह ज़रूर
है। और अपने पूरे सुख-दुख के साथ है इसलिए यह आत्मकथा तो है ही, लेकिन
इसमें मेरे साथ मेरे समय की भागीदारी करने वाले और लोग भी हैं। मैंने उनके
साथ और उन्होंने मेरे साथ क्या व्यवहार किया और किन संदर्भों में किया, यह
सब भी है। आज मैं जैसा हूँ, वैसा बनाने वाले जो लोग मेरे जीवन में आये,
उनकी स्मृतियों को मैंने अपनी पूरी ईमानदारी के साथ सहेजने की कोशिश की
है। उनमें से कुछ अभी जीवित हैं और कुछ अब स्मृतिशेष हैं। लेकिन इस नमन
में इस बात की कोशिश हमेशा रही है कि जो घटनाएँ जिस तरह घटित हुई हैं
उन्हें पूरी ईमानदारी के साथ उकेर दिया जाये। मसलन् मुझे मेरे जन्म की
निश्चित तिथि और समय का पता नहीं है तो बता दिया कि पता नहीं है।
इसका यह मतलब नहीं है कि यदि मेरी कुंडली सही नहीं बन सकी, तो मेरा भविष्य बिल्कुल अनिश्चय की गुफ़ाओं में ही सोया रहा। उसे पढ़ने वाले भी कुछ लोग थे। इसी तरह मेरी क्षमताओं पर अगर अगाध विश्वास करने वाले भी लोग थे तो मेरे बारे में आशंकाओं का जंगल पालकर चलने वाले लोग भी थे। और वे सब अपनी पूरी पूरी मानवीय खूबियों और ख़ामियों के साथ थे। यह उन्हें उनकी संपूर्णताओं में देखने की कोशिश है।
इन संस्मरणों में तिथिक्रम का कोई चक्कर नहीं है। तिथियों के होने न होने का कोई बहुत बड़ा प्रभाव या व्यतिक्रम इनके घटनाक्रम में आया हो, ऐसा भी नहीं है। उदाहरण के लिए मुंशी महावीर प्रसाद जी जैसे अध्यापक मेरे जीवन में किस तारीख़ को आये इसका कोई खास महत्त्व नहीं है, महत्त्व इस बात का है कि ऐसे अध्यापक आज भी इस संसार में है जो अपने जीवन का एकमात्र ध्येय अपने ज्ञान का कोष अपने विद्यार्थियों में बाँटने में केंद्रित समझते हैं। ऐसे प्रिंसिपल आज भी हैं जो अपने मातहत अध्यापकों की खुशहाली के लिए अपने कॉलेज की फैकल्टी को उजाड़ने का ख़तरा उठाने में संकोच नहीं करते। आखिर प्रिंसिपल ए.बी. शाह अथवा याज्ञिक की वंश-परंपरा उन्हीं के साथ समाप्त नहीं हो गयी।
हाँ, कुछ लोगों का मेरे जीवन में सामान्य से ज्यादा दखल रहा है। जैसे कि मेरे शुरुआती दिनों में मेरे अग्रज और सगे संबंधी स्व. श्री रामावतार चेतन हैं या फिर मेरे बम्बई प्रवास में, खासकर टाइम्स ऑफ इंडिया, बम्बई के मेरे कार्यकाल में डॉ. धर्मवीर भरती हैं। धर्मवीर भारती मुझे विश्वविद्यालय की अध्यापकी से पत्रकारिता की राह पर घसीट ले जाने वाली प्रेम की मजबूत डोर थे तो धर्मवीर भारती की वही डोर मेरे गले में फंदे की तरह कसती जाने वाली रस्सी भी साबित होती रही। लगभग ग्यारह वर्षों की मेरी टाइम्स की बम्बइया दिनचर्या पर भारती जी का भला-बुरा साया धुआँ बनकर मेरे आसमान पर हमेशा छाया रहा। उन यादों को कागज़ पर उतारने में मैंने अतिरिक्त सावधानी बरती है ताकि उनको केन्द्र में रखकर चलने वाली घटनाएँ अपनी पूरी शिद्दत और सच्चाई के साथ सामने आ सकें, मगर उनमें मेरे तल्ख़ अनुभवों से पैदा मानवीय स्वभावगत अतिरंजना की छौंक न लगने पावे। खासकर इसलिए कि इन्हें तब लिखा गया जब डॉ. भारती नहीं रहे। लेकिन उन घटनाओं से जुड़ें हुए और उनकी अंतरंग जानकारी रखने वाले तमाम लोग अभी ताईद करने के लिए हमारे बीच हैं। डॉ. राम तरनेजा, श्री कमलेश्वर, श्री अरविन्द कुमार, रवीन्द्र कालिया, मनमोहन सरल योगेन्द्र कुमार लल्ला, विश्वनाथ सचदेव, सुरिन्दर सिंह, प्रो. डॉ. महीप सिंह और डॉ. इंदु प्रकाश पांडेय उनमें प्रमुख हैं।
उन तमाम संस्मरणों को तरतीब देना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है। अब अपने अग्रज कवि स्व. रमानाथ अवस्थी के शब्दों में कहूँ तो ‘जैसा भी हूँ वैसा ही हूँ समय के सामने।’’ समय ने मेरे साथ जब जैसा सलूक़ किया, उसे जैसा का तैसा पाठकों के सामने रखने का सुख मैंने लिया है।
मेरे जीवन के घटनाक्रम, मेरे विचार, मेरी मान्यताएँ यदि पाठकों को अपना जीवनक्रम सँवारने में ज़रा भी मदद करेंगे तो मैं इस आत्मकथात्मक संस्मरणमाला के लिपिबद्ध किये जाने को सार्थक मानूँगा।
इन संस्मरणों में बचपन, मेरा गाँव, मेरा शहर कानपुर और मेरे साहित्य-संस्कार का शहर इलाहाबाद और फिर मेरे कार्यकारी जीवन का प्रारंभिक काल जो बम्बई में बीता, उसे समाहित किया गया है यानी मेरे ‘धर्मयुग’ में जाने से पहले तक का जीवनक्रम इन संस्मरणों में समाहित है। ‘धर्मयुग’ के ग्यारह सालों को मैंने कैसे जिया, ‘धर्मयुग’ का पत्रकारिता में क्या स्थान रहा, वहाँ से मैं दिल्ली कैसे आया, दिल्ली ने मेरे जीवनक्रम में जो उछाल पैदा की, जो नये आसमान मैंने अपने कार्यकारी जीवन में यहाँ नापे, अनुभवों की जो फसल मैंने दिल्ली में काटी, पत्रकारिता और लेखन में जिन नये क्षितिजों की तलाश की और वहाँ तक पहुँचने में जिस ‘कसरत’ से काम लेना पड़ा और अनेकानेक विवादों में उलझना पड़ा उसका विवरण संस्मरणों की अगली पोथी में करूँगा।
मैं ऐसा मानता हूँ कि ‘धर्मयुग’ से पहले का मेरा जीवन, जो वर्तमान पोथी का अंग है, संघर्षों का अनवरत सिलसिला रहा है। लेकिन मज़ा इसमें यह था कि यह सारा संघर्ष मुझे एक सामान्य जीवन के अनिवार्य अंग के रूप में ही लगता रहा। कोई अतिरिक्त शहादत का भाव लेकर मैंने इस संघर्ष को नहीं जिया। हमेशा यही मानता रहा और आज भी मानता हूँ कि
इसका यह मतलब नहीं है कि यदि मेरी कुंडली सही नहीं बन सकी, तो मेरा भविष्य बिल्कुल अनिश्चय की गुफ़ाओं में ही सोया रहा। उसे पढ़ने वाले भी कुछ लोग थे। इसी तरह मेरी क्षमताओं पर अगर अगाध विश्वास करने वाले भी लोग थे तो मेरे बारे में आशंकाओं का जंगल पालकर चलने वाले लोग भी थे। और वे सब अपनी पूरी पूरी मानवीय खूबियों और ख़ामियों के साथ थे। यह उन्हें उनकी संपूर्णताओं में देखने की कोशिश है।
इन संस्मरणों में तिथिक्रम का कोई चक्कर नहीं है। तिथियों के होने न होने का कोई बहुत बड़ा प्रभाव या व्यतिक्रम इनके घटनाक्रम में आया हो, ऐसा भी नहीं है। उदाहरण के लिए मुंशी महावीर प्रसाद जी जैसे अध्यापक मेरे जीवन में किस तारीख़ को आये इसका कोई खास महत्त्व नहीं है, महत्त्व इस बात का है कि ऐसे अध्यापक आज भी इस संसार में है जो अपने जीवन का एकमात्र ध्येय अपने ज्ञान का कोष अपने विद्यार्थियों में बाँटने में केंद्रित समझते हैं। ऐसे प्रिंसिपल आज भी हैं जो अपने मातहत अध्यापकों की खुशहाली के लिए अपने कॉलेज की फैकल्टी को उजाड़ने का ख़तरा उठाने में संकोच नहीं करते। आखिर प्रिंसिपल ए.बी. शाह अथवा याज्ञिक की वंश-परंपरा उन्हीं के साथ समाप्त नहीं हो गयी।
हाँ, कुछ लोगों का मेरे जीवन में सामान्य से ज्यादा दखल रहा है। जैसे कि मेरे शुरुआती दिनों में मेरे अग्रज और सगे संबंधी स्व. श्री रामावतार चेतन हैं या फिर मेरे बम्बई प्रवास में, खासकर टाइम्स ऑफ इंडिया, बम्बई के मेरे कार्यकाल में डॉ. धर्मवीर भरती हैं। धर्मवीर भारती मुझे विश्वविद्यालय की अध्यापकी से पत्रकारिता की राह पर घसीट ले जाने वाली प्रेम की मजबूत डोर थे तो धर्मवीर भारती की वही डोर मेरे गले में फंदे की तरह कसती जाने वाली रस्सी भी साबित होती रही। लगभग ग्यारह वर्षों की मेरी टाइम्स की बम्बइया दिनचर्या पर भारती जी का भला-बुरा साया धुआँ बनकर मेरे आसमान पर हमेशा छाया रहा। उन यादों को कागज़ पर उतारने में मैंने अतिरिक्त सावधानी बरती है ताकि उनको केन्द्र में रखकर चलने वाली घटनाएँ अपनी पूरी शिद्दत और सच्चाई के साथ सामने आ सकें, मगर उनमें मेरे तल्ख़ अनुभवों से पैदा मानवीय स्वभावगत अतिरंजना की छौंक न लगने पावे। खासकर इसलिए कि इन्हें तब लिखा गया जब डॉ. भारती नहीं रहे। लेकिन उन घटनाओं से जुड़ें हुए और उनकी अंतरंग जानकारी रखने वाले तमाम लोग अभी ताईद करने के लिए हमारे बीच हैं। डॉ. राम तरनेजा, श्री कमलेश्वर, श्री अरविन्द कुमार, रवीन्द्र कालिया, मनमोहन सरल योगेन्द्र कुमार लल्ला, विश्वनाथ सचदेव, सुरिन्दर सिंह, प्रो. डॉ. महीप सिंह और डॉ. इंदु प्रकाश पांडेय उनमें प्रमुख हैं।
उन तमाम संस्मरणों को तरतीब देना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है। अब अपने अग्रज कवि स्व. रमानाथ अवस्थी के शब्दों में कहूँ तो ‘जैसा भी हूँ वैसा ही हूँ समय के सामने।’’ समय ने मेरे साथ जब जैसा सलूक़ किया, उसे जैसा का तैसा पाठकों के सामने रखने का सुख मैंने लिया है।
मेरे जीवन के घटनाक्रम, मेरे विचार, मेरी मान्यताएँ यदि पाठकों को अपना जीवनक्रम सँवारने में ज़रा भी मदद करेंगे तो मैं इस आत्मकथात्मक संस्मरणमाला के लिपिबद्ध किये जाने को सार्थक मानूँगा।
इन संस्मरणों में बचपन, मेरा गाँव, मेरा शहर कानपुर और मेरे साहित्य-संस्कार का शहर इलाहाबाद और फिर मेरे कार्यकारी जीवन का प्रारंभिक काल जो बम्बई में बीता, उसे समाहित किया गया है यानी मेरे ‘धर्मयुग’ में जाने से पहले तक का जीवनक्रम इन संस्मरणों में समाहित है। ‘धर्मयुग’ के ग्यारह सालों को मैंने कैसे जिया, ‘धर्मयुग’ का पत्रकारिता में क्या स्थान रहा, वहाँ से मैं दिल्ली कैसे आया, दिल्ली ने मेरे जीवनक्रम में जो उछाल पैदा की, जो नये आसमान मैंने अपने कार्यकारी जीवन में यहाँ नापे, अनुभवों की जो फसल मैंने दिल्ली में काटी, पत्रकारिता और लेखन में जिन नये क्षितिजों की तलाश की और वहाँ तक पहुँचने में जिस ‘कसरत’ से काम लेना पड़ा और अनेकानेक विवादों में उलझना पड़ा उसका विवरण संस्मरणों की अगली पोथी में करूँगा।
मैं ऐसा मानता हूँ कि ‘धर्मयुग’ से पहले का मेरा जीवन, जो वर्तमान पोथी का अंग है, संघर्षों का अनवरत सिलसिला रहा है। लेकिन मज़ा इसमें यह था कि यह सारा संघर्ष मुझे एक सामान्य जीवन के अनिवार्य अंग के रूप में ही लगता रहा। कोई अतिरिक्त शहादत का भाव लेकर मैंने इस संघर्ष को नहीं जिया। हमेशा यही मानता रहा और आज भी मानता हूँ कि
‘एक तेरी ही नहीं, सुनसान राहें और भी हैं।
कल सुबह की इंतज़ारी में, निगाहें और भी हैं।’’
कल सुबह की इंतज़ारी में, निगाहें और भी हैं।’’
उन्हीं, सुबह का इंतज़ार करने वाली निगाहों को थोड़ा सम्बल इन संस्मरणों
से मिले, यही अभिप्रेत है।
इन संस्मरणों के लिखने का क्रम एक साथ नहीं चला, अलग समयों में अलग बैठकों में इन्हें लिखा गया है इसलिए अनजाने में कुछ घटनाओं की पुनरावृति का बोझ भी पाठकों को उठाना पड़ सकता है। भरसक कोशिश रही है कि ऐसा न हो। लेकिन फिर भी कहीं घटनाक्रम का दोहराव पाठक-मन को आहात करे तो उसके लिए मुझे क्षमा किया जाये। एक साँस में लगातार उन्हें लिखा जाता तो ऐसे दोहराव की आशंका भी न होती।...अब मेरा जीवन मेरा समय, मेरे लेग, मेरा परिवेश जैसा भी था, उसे दुबारा जी कर अपने पाठकों के सामने परोसा है। कम कठिन होता तमाम त्रासद स्थितियों से एक बार फिर अपने को गुज़ारना, लेकिन
इन संस्मरणों के लिखने का क्रम एक साथ नहीं चला, अलग समयों में अलग बैठकों में इन्हें लिखा गया है इसलिए अनजाने में कुछ घटनाओं की पुनरावृति का बोझ भी पाठकों को उठाना पड़ सकता है। भरसक कोशिश रही है कि ऐसा न हो। लेकिन फिर भी कहीं घटनाक्रम का दोहराव पाठक-मन को आहात करे तो उसके लिए मुझे क्षमा किया जाये। एक साँस में लगातार उन्हें लिखा जाता तो ऐसे दोहराव की आशंका भी न होती।...अब मेरा जीवन मेरा समय, मेरे लेग, मेरा परिवेश जैसा भी था, उसे दुबारा जी कर अपने पाठकों के सामने परोसा है। कम कठिन होता तमाम त्रासद स्थितियों से एक बार फिर अपने को गुज़ारना, लेकिन
‘‘जब चल पडे़ सफ़र को तो क्या मुड़ के देखना।
कश्ती भँवर में अपनी खुशी से उतार दी।’’
कश्ती भँवर में अपनी खुशी से उतार दी।’’
...उस खुशी को अपने परिवार और मित्रों के साथ हमने जमकर जिया और खूब मज़े
लिये। अब आप लीजिए।
अथ शीर्षक-कथा
उर्फ
गुज़रा कहां-कहां से
मैं कन्हैयालाल तिवारी उर्फ कन्हैयालाल नन्दन वल्द यदुनंदन, साकिन मौजा
परसदेपुर, परगना बिंदकी, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) आज की तारीख में
बड़ी मुहिम पर निकलने की कोशिश कर रहा हूँ और मुहिम यह कि अपने जीवन को,
व्यक्तियों, घटनाओं और खुशियों और ग़मों के बीच से गुज़रकर याद करते हुए,
देख सकूँ कि आख़िर क्या खोया क्या पाया। बहुत बार सोचा कि आपने बारे में
लिखने के लोगों के आग्रह की रक्षा करूँ और कुछ लिखूँ। और उस
इरादे
से कई बार कोशिश भी की। मगर हमेशा असमंजस यह रहा कि कहाँ से शुरू करूँ और
क्यों ? बारंबार बच्चन जी का उद्धृत किया हुआ फ्रांसीसी लेखक मोंतेन का यह
वाक्य अपने लिए याद कर लेता कि ‘मैंने जो टिप्पणियाँ, संस्मरण,
कविताएँ, यात्रा-कथाएँ, अंतर्वार्ताएँ, यहाँ तक की निबंध भी, यानी जो कुछ
लिखा वह सब ‘आत्मकथा’ ही तो था, उन सब में मेरा ही
जीवन तो
पिरोया हुआ था। तब फिर कुछ अतिरिक्त लिखने की जरूरत क्या है
?’’
एक दिन मेरा यह असमंजस कमलेश्वर जी के सामने जा हाज़िर हुआ वे अपनी आत्मकथात्मक तीन पुस्तकें हिन्दी को दे चुके थे। कमलेश्वर जी ने कहा कि ‘‘नन्दन, तुम्हारे सच को तो सामने आना ही चाहिए। रचनाओं में पिरोया हुआ सच कई बार इतना गूढ़ और रहस्यमय होता है कि वह लोगों की पकड़ में नहीं आता, इसलिए तुम्हें अपने संस्मरण ज़रूर लिखने चाहिए।’’
उनके इस कथन में उनका देखा-समझा मेरे जीवन का वह अंश भी लक्ष्य में था जिसको उन्होंने मेरे मुम्बई प्रवास में मुझे ‘धर्मयुग’ में काम करते हुए अनुभव किया था।
कमलेश्वरजी का मेरे जीवन में एक अहम मुकाम है। उनकी कही बात पर मैं लगातार ग़ौर करता रहा और एक दिन यह तय कर लिया कि अब मैं संस्मरण लिखूँगा। मुझे याद है जब मैं मुम्बई से दिल्ली आया था, तब वाराणसी के किसी सज्जन ने डॉ. धर्मवीर भारती पर एक पुस्तक निकालने की योजना पर मुझसे चर्चा की थी। उनका सही वाक्य तो याद नहीं रहा, लेकिन उनका आशय यह था कि ‘यदि इस पुस्तक में आपका लेख नहीं होगा, तो यह पुस्तक अधूरी रहेगी, इसलिए आप अपने भारती जी संबंधी संस्मरण लिखने की प्रार्थना जरूर स्वीकार कीजिये। आपके लिखे बिना पुस्तक अधूरी रहेगी।’
मेरा उनसे कहना था कि ‘‘आपको जिसने भी यह राय दी है कि मेरे संस्मरण के बिना भारतीजी पर लिखी हुई पुस्तक अधूरी रहेगी, यह बात तो पूरी तरह सच है, लेकिन मैं शायद अभी ही भारतीजी के अधीनत्व से बरी हुआ हूँ अभी उसमें अतीत की कुछ तल्ख़ यादें उनके निथरे हुए सच को ढंक सकती हैं, इसलिए उन्हें अभी थोड़ा विराम देना चाहिए।’’
कुछ इसी ऊहापोह में था एक दिन सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मेरे कमरे में आये और बोले कि ‘नंदन, तुमको भारतीजी पर जमकर संस्मरण लिखना चाहिए।’ बनारस वाले इन सज्जन की यह योजना बहुत मज़बूत योजना है, इसमें तुम्हें ज़रूर लिखना चाहिए।’ मुझे सर्वेश्वर जी के कहने पर एक ध्वनि यह भी मिली की जैसे ये भारतीजी जी के सारे पुराने दोस्त मेरे माध्यम से भारतीजी की फज़ीहत देखने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं और मैं उनमें उनका ‘टूल’ बन सकता हूँ। बस, इस भावना ने मेरे अंदर यह विचार पैदा कर दिया कि ‘मैं किसी के कहने पर भारतीजी पर कोई संस्मरण नहीं लिखूँगा।’ मैंने सर्वेश्वरजी से सिद्धांत बघारते हुए कहा कि ‘लिखूँगा ज़रूर कभी न कभी, अपना जीवन संस्मरणों में उतारने की कोशिश करूँगा, अपने अंदर झाँकूँगा, लेकिन सर्वेश्वरजी, किसी के उकसाने में आकर कभी कुछ नहीं लिखना चाहिए।’
सिद्धांत तो बघार दिया, यह भूल गया कि सर्वेश्वरजी पर इसका क्या असर होगा। सर्वेश्वरजी आदमी अक्खड़ थे। उन्हें यह बात नागवार गुज़री। ख़ैर नागवार तो उनको मेरी बहुत-सी बातें गुज़री थीं, जिनके लिए कहीं से भी मैं कभी ज़िम्मेदार ही नहीं था। जैसे कि मेरा संपादक बनाया जाना और उनका मेरे मातहत काम करने को विविश होना। इसके उपलक्ष्य में वे मेरा अपमान करने का अवसर ढूँढ़ते
रहते थे। मेरे इस कथन को सुनकर उस समय वे अपना-सा घूँट पीकर भले चले गए, लेकिन मेरे मन को यह संकल्प जरूर छोड़ गए कि ‘मैं किसी के उकसावे में आकर कुछ नहीं लिखूँगा।’ लेकिन इसके बावजूद कमलेश्वर जी का आत्मीयता से भरा यह वाक्य कि ‘नंदन, तुम्हारे सच को सामने ज़रूर आना चाहिए’। मुझे पिछले दिनों बारबार याद आता रहा और बड़े दिन की इस पूर्व-संध्या पर यह संकल्प बन कर बैठ गया कि मैं अपने संस्मरणों को तरतीब दूँ और उसका शीर्षक रखूँ-‘गुस्ताख़ी माफ़’।
‘गुस्ताख़ी माफ’ शीर्षक की एक छोटी-सी कहानी है। मेरे अत्यन्त प्रिय, अनुजवत् मित्र राजकुमार गौतम ने भी एक दिन मुझसे संस्मरण लखने का आग्रह किया और आग्रह के साथ ही उसका ‘शीर्षक चुनाव’ अभियान शुरू कर दिया। राजकुमार गौतम ‘किताबघर’ के लिए अल्पकालिक काम करते थे और ‘परंपरा’ के लिए सम्पादित मेरी किताब ‘लहरों के शिलालेख’ में मेरी सहायता करनेवालों में भी रहे हैं। उन्होंने ‘गुस्ताख़ियां’ शीर्षक पर अपना ध्यान केंद्रित किया जो कि उन्हें बहुत प्रिय लगा। ‘गुस्ताख़ियाँ’ शीर्षक में हल्की-सी छेड़छा़ड का भाव है जो राजकुमार को स्वभावतः बड़ा रुचिकर और प्रिय लगता है। उन्हें मुझमें भी कहीं छेड़छाड़ करने की हुनरमंदी रुचिकर और प्रिय लगती है, इसलिए उन्होंने ‘गुस्ताख़ियाँ’ या इससे मिलता-जुलता कोई शीर्षक मेरे संस्मरणों के लिए उचित माना। मैंने राजकुमार से कहा कि ‘‘राजकुमार, ‘गुस्ताखियाँ’ तो मैंने भी बहुतों से की होंगी और बहुतों ने मेरे साथ बहुतों ने बड़ी-बड़ी गुस्ताख़ियाँ क्या ज़्यादतियां तक की हैं, मगर अब संस्मरणों में उसकी कसक उतारूँ, छेड़ छाड़ करूँ, यह ठीक नहीं है। मन अगर है तो गुस्ताख़ियाँ माफ़ करने का है। इसलिए अच्छा हो कि मैंने जिन-जिनके साथ गुस्ताखियाँ कीं उनसे माफ़ी माँगूँ और जिन्होंने मेरे साथ गुस्ताखियाँ की, उन्हें माफ करूँ। मेरे खयाल से अब समय का यही तकाज़ा है। एक शे’र याद आ रहा है:
वक़्त की बरहममिज़ाजी का गिला क्या कीजिये
ये ही क्या कम है कि सर पे आसमां रहने दिया।
‘‘तो प्यारे भाई, अभी आसमान बाकी है और आसमान है, पंख भी हैं तो फिर उड़ान भी बाक़ी है। इसलिए यादों की उड़ान लेकर उन मुकामों पर थोड़ी-थोड़ी देर बैठूँगा जिनमें मेरे जीवन की बहुत सारी यादें पिरोई हुई हैं।’’
राजकुमार के जाने के बाद मैं शीर्षकों में उलझा रहा और ‘गुस्ताख़ी माफ़’ पर अटक गया।
इसके बाद मैंने इस शीर्षक का ज़िक्र अपने बुज़ुर्ग हितैषी और प्रकाशक, जिन्हें मैं हिन्दी प्रकाशन-क्षेत्र में ‘भीष्म पितामह’ का दर्जा देता हूँ, श्री विश्वनाथजी से किया। विश्वनाथजी का प्रकाशकीय अनुभव शीर्षक सुनते ही उत्फुल्ल हो उठा। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की एनेक्सी में हम दोनों बैठे चाय पी रहे थे। विश्वनाथ जी बोले, ‘इस शीर्षक के लिए बहुत-बहुत बधाई। बहुत ही प्यारा शीर्षक है, इसे पूरा कर डालिये और यह किताब मैं ही छापूँगा।’
इस तरह मैं बग़ैर लिखे, बग़ैर उस पर काम किए, ‘गुस्ताख़ी माफ़’ शीर्षक का कापीराइट होल्डर बन गया। मुझे आज तक यह नहीं मालूम कि यह शीर्षक कहीं कभी पहले इस्तेमाल हुआ या नहीं। मैंने तय कर लिया कि अगर नहीं हुआ तो मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, यदि हो गया है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, लेकिन अब मैं इस शीर्षक से हट नहीं सकता, जिसे लोकाभाषा में कहते हैं, ‘अब तो नप नई।’
किस्सा ‘नप गई’ का भी है जिसे आपने सुना भी होगा। न याद हो तो एक बार फिर सुन लीजिए कि एक गपोड़ी सज्जन बहुत लंबी-लंबी डींगें हांका करते थे और इन डींगों के कारण उनकी बड़ी किरकिरी हो जाया करती थी। यह बात उनकी पत्नी को पसंद नहीं आती थी और इसको लेकर उन दोनों में आपस में खींचतान भी हो जाया करती थी। अंततः एक समझौता हुआ और गपोड़ी साहब ने ही एक तरकीब सुझाई कि जब कभी लगे की मैं बहुत ऊंची उड़ान भर रहा हूँ तो तुम मेरे पैर को दबाते हुए इशारा दे दिया करना, तो मैं उसमें संशोधन कर दिया करूँगा।
पत्नी को यह तरकीब मुनासिब लगी। अगले ही दिन गपोड़ी सज्जन बड़ी-बड़ी बातों में शुरू हो गए कि ‘आज मैंने एक बंदर देखा जिसकी पूछ कम से कम अस्सी-नब्बे गज़ की थी।’ पत्नी ने पैर दबाया। गपोड़ी को समझ में आया और अपने वाक्य में वो सुधार करके बोले, ‘अस्सी-नब्बे नहीं तो साठ-सत्तर गज़ ज़रूर थी।’ पत्नी ने फिर पैर दबाया, लेकिन इस बार ज़रा ज़्यादा ज़ोर से दबाया तो गपोडी महोदय़ ने कहा कि ‘अगर साठ-सत्तर न भी हो तो भी तीस-चालीस गज़ तो ज़रूर थी।’ पत्नी को यह बात मंजूर नहीं थी। उसने फिर पैर दबाया तो गपोड़ी महोदय की त्योंरियां चढ़ीं, लेकिन समझौते के मुताबिक उन्होंने थोड़ा उतर कर आना फिर मुनासिब माना और बोले, ‘पच्चीस गज़ तो ज़रूर रही होगी पूंछ।’
पत्नी ने इस बार जोर से चिंकोटी काटी तो गपोड़ी महोदय झुझलाकर बोले, ‘अब तो चाहे काटो चाहे दबाओ; अब तो नप गई।’
सो साहब, ‘गुस्ताख़ी’ माफ’ शीर्षक नप गया। नप क्या गया मैंने इसी शीर्षक के अंतर्गत कुछ अंश लिखे भी और ‘ज्ञानोदय’ के एक अंक में उनमें से कुछ प्रकाशित करने के दिये तो उनमें लिख भी दिया कि ये अंश ‘गुस्ताख़ी माफ’ शीर्षक से लिखी जा रही आत्मकथा के अंश हैं। तभी एक टेक्निकल वज्रपात हो गया। ‘एन.डी.टी.वी. चैनल को यह शीर्षक इतना भाया कि उन्होंने अपने चैनल में एक व्यंगात्मक फीचर ‘गुस्ताख़ी माफ़’ को इतना चलाया, इतना चलाया कि मुझे लगने लगा कि अगर अब भी मैंने अपनी किताब का शीर्षक ‘गुस्ताख़ी माफ़’ रखा तो लोग समझेंगे कि मैंने शीर्षक ‘एन.डी.टी.वी. से; चुराया है। अकबर इलाहाबादी का लिखा याद आया जो उन्होंने डासन नामक जूता कंपनी के जूतों के चलन को केन्द्र में रखकर लिखा था;
एक दिन मेरा यह असमंजस कमलेश्वर जी के सामने जा हाज़िर हुआ वे अपनी आत्मकथात्मक तीन पुस्तकें हिन्दी को दे चुके थे। कमलेश्वर जी ने कहा कि ‘‘नन्दन, तुम्हारे सच को तो सामने आना ही चाहिए। रचनाओं में पिरोया हुआ सच कई बार इतना गूढ़ और रहस्यमय होता है कि वह लोगों की पकड़ में नहीं आता, इसलिए तुम्हें अपने संस्मरण ज़रूर लिखने चाहिए।’’
उनके इस कथन में उनका देखा-समझा मेरे जीवन का वह अंश भी लक्ष्य में था जिसको उन्होंने मेरे मुम्बई प्रवास में मुझे ‘धर्मयुग’ में काम करते हुए अनुभव किया था।
कमलेश्वरजी का मेरे जीवन में एक अहम मुकाम है। उनकी कही बात पर मैं लगातार ग़ौर करता रहा और एक दिन यह तय कर लिया कि अब मैं संस्मरण लिखूँगा। मुझे याद है जब मैं मुम्बई से दिल्ली आया था, तब वाराणसी के किसी सज्जन ने डॉ. धर्मवीर भारती पर एक पुस्तक निकालने की योजना पर मुझसे चर्चा की थी। उनका सही वाक्य तो याद नहीं रहा, लेकिन उनका आशय यह था कि ‘यदि इस पुस्तक में आपका लेख नहीं होगा, तो यह पुस्तक अधूरी रहेगी, इसलिए आप अपने भारती जी संबंधी संस्मरण लिखने की प्रार्थना जरूर स्वीकार कीजिये। आपके लिखे बिना पुस्तक अधूरी रहेगी।’
मेरा उनसे कहना था कि ‘‘आपको जिसने भी यह राय दी है कि मेरे संस्मरण के बिना भारतीजी पर लिखी हुई पुस्तक अधूरी रहेगी, यह बात तो पूरी तरह सच है, लेकिन मैं शायद अभी ही भारतीजी के अधीनत्व से बरी हुआ हूँ अभी उसमें अतीत की कुछ तल्ख़ यादें उनके निथरे हुए सच को ढंक सकती हैं, इसलिए उन्हें अभी थोड़ा विराम देना चाहिए।’’
कुछ इसी ऊहापोह में था एक दिन सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मेरे कमरे में आये और बोले कि ‘नंदन, तुमको भारतीजी पर जमकर संस्मरण लिखना चाहिए।’ बनारस वाले इन सज्जन की यह योजना बहुत मज़बूत योजना है, इसमें तुम्हें ज़रूर लिखना चाहिए।’ मुझे सर्वेश्वर जी के कहने पर एक ध्वनि यह भी मिली की जैसे ये भारतीजी जी के सारे पुराने दोस्त मेरे माध्यम से भारतीजी की फज़ीहत देखने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं और मैं उनमें उनका ‘टूल’ बन सकता हूँ। बस, इस भावना ने मेरे अंदर यह विचार पैदा कर दिया कि ‘मैं किसी के कहने पर भारतीजी पर कोई संस्मरण नहीं लिखूँगा।’ मैंने सर्वेश्वरजी से सिद्धांत बघारते हुए कहा कि ‘लिखूँगा ज़रूर कभी न कभी, अपना जीवन संस्मरणों में उतारने की कोशिश करूँगा, अपने अंदर झाँकूँगा, लेकिन सर्वेश्वरजी, किसी के उकसाने में आकर कभी कुछ नहीं लिखना चाहिए।’
सिद्धांत तो बघार दिया, यह भूल गया कि सर्वेश्वरजी पर इसका क्या असर होगा। सर्वेश्वरजी आदमी अक्खड़ थे। उन्हें यह बात नागवार गुज़री। ख़ैर नागवार तो उनको मेरी बहुत-सी बातें गुज़री थीं, जिनके लिए कहीं से भी मैं कभी ज़िम्मेदार ही नहीं था। जैसे कि मेरा संपादक बनाया जाना और उनका मेरे मातहत काम करने को विविश होना। इसके उपलक्ष्य में वे मेरा अपमान करने का अवसर ढूँढ़ते
रहते थे। मेरे इस कथन को सुनकर उस समय वे अपना-सा घूँट पीकर भले चले गए, लेकिन मेरे मन को यह संकल्प जरूर छोड़ गए कि ‘मैं किसी के उकसावे में आकर कुछ नहीं लिखूँगा।’ लेकिन इसके बावजूद कमलेश्वर जी का आत्मीयता से भरा यह वाक्य कि ‘नंदन, तुम्हारे सच को सामने ज़रूर आना चाहिए’। मुझे पिछले दिनों बारबार याद आता रहा और बड़े दिन की इस पूर्व-संध्या पर यह संकल्प बन कर बैठ गया कि मैं अपने संस्मरणों को तरतीब दूँ और उसका शीर्षक रखूँ-‘गुस्ताख़ी माफ़’।
‘गुस्ताख़ी माफ’ शीर्षक की एक छोटी-सी कहानी है। मेरे अत्यन्त प्रिय, अनुजवत् मित्र राजकुमार गौतम ने भी एक दिन मुझसे संस्मरण लखने का आग्रह किया और आग्रह के साथ ही उसका ‘शीर्षक चुनाव’ अभियान शुरू कर दिया। राजकुमार गौतम ‘किताबघर’ के लिए अल्पकालिक काम करते थे और ‘परंपरा’ के लिए सम्पादित मेरी किताब ‘लहरों के शिलालेख’ में मेरी सहायता करनेवालों में भी रहे हैं। उन्होंने ‘गुस्ताख़ियां’ शीर्षक पर अपना ध्यान केंद्रित किया जो कि उन्हें बहुत प्रिय लगा। ‘गुस्ताख़ियाँ’ शीर्षक में हल्की-सी छेड़छा़ड का भाव है जो राजकुमार को स्वभावतः बड़ा रुचिकर और प्रिय लगता है। उन्हें मुझमें भी कहीं छेड़छाड़ करने की हुनरमंदी रुचिकर और प्रिय लगती है, इसलिए उन्होंने ‘गुस्ताख़ियाँ’ या इससे मिलता-जुलता कोई शीर्षक मेरे संस्मरणों के लिए उचित माना। मैंने राजकुमार से कहा कि ‘‘राजकुमार, ‘गुस्ताखियाँ’ तो मैंने भी बहुतों से की होंगी और बहुतों ने मेरे साथ बहुतों ने बड़ी-बड़ी गुस्ताख़ियाँ क्या ज़्यादतियां तक की हैं, मगर अब संस्मरणों में उसकी कसक उतारूँ, छेड़ छाड़ करूँ, यह ठीक नहीं है। मन अगर है तो गुस्ताख़ियाँ माफ़ करने का है। इसलिए अच्छा हो कि मैंने जिन-जिनके साथ गुस्ताखियाँ कीं उनसे माफ़ी माँगूँ और जिन्होंने मेरे साथ गुस्ताखियाँ की, उन्हें माफ करूँ। मेरे खयाल से अब समय का यही तकाज़ा है। एक शे’र याद आ रहा है:
वक़्त की बरहममिज़ाजी का गिला क्या कीजिये
ये ही क्या कम है कि सर पे आसमां रहने दिया।
‘‘तो प्यारे भाई, अभी आसमान बाकी है और आसमान है, पंख भी हैं तो फिर उड़ान भी बाक़ी है। इसलिए यादों की उड़ान लेकर उन मुकामों पर थोड़ी-थोड़ी देर बैठूँगा जिनमें मेरे जीवन की बहुत सारी यादें पिरोई हुई हैं।’’
राजकुमार के जाने के बाद मैं शीर्षकों में उलझा रहा और ‘गुस्ताख़ी माफ़’ पर अटक गया।
इसके बाद मैंने इस शीर्षक का ज़िक्र अपने बुज़ुर्ग हितैषी और प्रकाशक, जिन्हें मैं हिन्दी प्रकाशन-क्षेत्र में ‘भीष्म पितामह’ का दर्जा देता हूँ, श्री विश्वनाथजी से किया। विश्वनाथजी का प्रकाशकीय अनुभव शीर्षक सुनते ही उत्फुल्ल हो उठा। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की एनेक्सी में हम दोनों बैठे चाय पी रहे थे। विश्वनाथ जी बोले, ‘इस शीर्षक के लिए बहुत-बहुत बधाई। बहुत ही प्यारा शीर्षक है, इसे पूरा कर डालिये और यह किताब मैं ही छापूँगा।’
इस तरह मैं बग़ैर लिखे, बग़ैर उस पर काम किए, ‘गुस्ताख़ी माफ़’ शीर्षक का कापीराइट होल्डर बन गया। मुझे आज तक यह नहीं मालूम कि यह शीर्षक कहीं कभी पहले इस्तेमाल हुआ या नहीं। मैंने तय कर लिया कि अगर नहीं हुआ तो मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, यदि हो गया है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, लेकिन अब मैं इस शीर्षक से हट नहीं सकता, जिसे लोकाभाषा में कहते हैं, ‘अब तो नप नई।’
किस्सा ‘नप गई’ का भी है जिसे आपने सुना भी होगा। न याद हो तो एक बार फिर सुन लीजिए कि एक गपोड़ी सज्जन बहुत लंबी-लंबी डींगें हांका करते थे और इन डींगों के कारण उनकी बड़ी किरकिरी हो जाया करती थी। यह बात उनकी पत्नी को पसंद नहीं आती थी और इसको लेकर उन दोनों में आपस में खींचतान भी हो जाया करती थी। अंततः एक समझौता हुआ और गपोड़ी साहब ने ही एक तरकीब सुझाई कि जब कभी लगे की मैं बहुत ऊंची उड़ान भर रहा हूँ तो तुम मेरे पैर को दबाते हुए इशारा दे दिया करना, तो मैं उसमें संशोधन कर दिया करूँगा।
पत्नी को यह तरकीब मुनासिब लगी। अगले ही दिन गपोड़ी सज्जन बड़ी-बड़ी बातों में शुरू हो गए कि ‘आज मैंने एक बंदर देखा जिसकी पूछ कम से कम अस्सी-नब्बे गज़ की थी।’ पत्नी ने पैर दबाया। गपोड़ी को समझ में आया और अपने वाक्य में वो सुधार करके बोले, ‘अस्सी-नब्बे नहीं तो साठ-सत्तर गज़ ज़रूर थी।’ पत्नी ने फिर पैर दबाया, लेकिन इस बार ज़रा ज़्यादा ज़ोर से दबाया तो गपोडी महोदय़ ने कहा कि ‘अगर साठ-सत्तर न भी हो तो भी तीस-चालीस गज़ तो ज़रूर थी।’ पत्नी को यह बात मंजूर नहीं थी। उसने फिर पैर दबाया तो गपोड़ी महोदय की त्योंरियां चढ़ीं, लेकिन समझौते के मुताबिक उन्होंने थोड़ा उतर कर आना फिर मुनासिब माना और बोले, ‘पच्चीस गज़ तो ज़रूर रही होगी पूंछ।’
पत्नी ने इस बार जोर से चिंकोटी काटी तो गपोड़ी महोदय झुझलाकर बोले, ‘अब तो चाहे काटो चाहे दबाओ; अब तो नप गई।’
सो साहब, ‘गुस्ताख़ी’ माफ’ शीर्षक नप गया। नप क्या गया मैंने इसी शीर्षक के अंतर्गत कुछ अंश लिखे भी और ‘ज्ञानोदय’ के एक अंक में उनमें से कुछ प्रकाशित करने के दिये तो उनमें लिख भी दिया कि ये अंश ‘गुस्ताख़ी माफ’ शीर्षक से लिखी जा रही आत्मकथा के अंश हैं। तभी एक टेक्निकल वज्रपात हो गया। ‘एन.डी.टी.वी. चैनल को यह शीर्षक इतना भाया कि उन्होंने अपने चैनल में एक व्यंगात्मक फीचर ‘गुस्ताख़ी माफ़’ को इतना चलाया, इतना चलाया कि मुझे लगने लगा कि अगर अब भी मैंने अपनी किताब का शीर्षक ‘गुस्ताख़ी माफ़’ रखा तो लोग समझेंगे कि मैंने शीर्षक ‘एन.डी.टी.वी. से; चुराया है। अकबर इलाहाबादी का लिखा याद आया जो उन्होंने डासन नामक जूता कंपनी के जूतों के चलन को केन्द्र में रखकर लिखा था;
‘बूट डासन ने बनाया
हमने इक मजमूँ लिखा
देश में मजमूँ न फैला
और जूता चल गया’’
हमने इक मजमूँ लिखा
देश में मजमूँ न फैला
और जूता चल गया’’
सो साहब मैं ‘गुस्ताख़ी माफ़’ लिखकर पूरा करूँ इसके
पहले की मेरे ‘गुस्ताख़ी माफ़’ की रेड़ मर गयी।
विश्वनाथ जी ने कहा कि नन्दन जी, शीर्षक तो बदलना ही चाहिए, सो ‘गुस्ताख़ी माफ़’ बदल गया और देखते-देखते शीर्षक हो गया ‘गुज़रा कहाँ कहाँ से’। और वह भी हुआ यों कि मैंने ‘व्यंग्यश्री’ गोपाल चतुर्वेदी को ‘गुस्ताख़ी माफ़’ की व्यथा-कथा सुना दी और उसी सिलसिले में अपने एक शेर का मिसरा भी जड़ दिया : ‘‘तेरी याद के सहारे गुज़रा कहाँ कहाँ से’’। गोपाल बोले ‘‘शीर्षक तो इसी में छिपा है भाई साहब।’’
तय कर लिया कि इस शीर्षक को भी हड़प ले इससे पहले ही किताब छपने दे देता हूँ।
अब आपने शीर्षक प्रसंग में ही देख लिया न कि ‘गुज़रा, कहाँ कहाँ से’ ! जिंदगी ने भी इसी तरह मुझको ‘‘जाने कहाँ कहाँ से’’ गुज़ारा। आइए, हम और आप मिलकर इसका मज़ा लें।
विश्वनाथ जी ने कहा कि नन्दन जी, शीर्षक तो बदलना ही चाहिए, सो ‘गुस्ताख़ी माफ़’ बदल गया और देखते-देखते शीर्षक हो गया ‘गुज़रा कहाँ कहाँ से’। और वह भी हुआ यों कि मैंने ‘व्यंग्यश्री’ गोपाल चतुर्वेदी को ‘गुस्ताख़ी माफ़’ की व्यथा-कथा सुना दी और उसी सिलसिले में अपने एक शेर का मिसरा भी जड़ दिया : ‘‘तेरी याद के सहारे गुज़रा कहाँ कहाँ से’’। गोपाल बोले ‘‘शीर्षक तो इसी में छिपा है भाई साहब।’’
तय कर लिया कि इस शीर्षक को भी हड़प ले इससे पहले ही किताब छपने दे देता हूँ।
अब आपने शीर्षक प्रसंग में ही देख लिया न कि ‘गुज़रा, कहाँ कहाँ से’ ! जिंदगी ने भी इसी तरह मुझको ‘‘जाने कहाँ कहाँ से’’ गुज़ारा। आइए, हम और आप मिलकर इसका मज़ा लें।
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