कविता संग्रह >> पंजाबी कवितावली पंजाबी कवितावलीअमृता प्रीतम
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प्राचीन नवीन पंजाब की कविताओं का संचयन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पंजाबी कवितावली साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित पंजाबी संचयन चौनवी
पंजाबी कविता का हिन्दी गद्यानुवाद है, जिसमें रचनाओं का चयन एवं संपादन
पंजाबी की प्रतिष्ठित कवयित्री और कथाकार अमृता प्रीतम ने किया है। यह
संचयन तीन भागों में विभाजित है- प्राचीन कविता, नवीन कविता तथा लोकगीत।
‘प्राचीन-कविता’ के अंतर्गत शेख फ़रीद से लेकर मूल
सिंह तक 51 कवियों की काव्य रचनाओं के अलावा तीन अज्ञातनाम कवियों की रचनाएँ शामिल हैं।
‘नवीन-कविता’ के अन्तर्गत भाई वीरसिंह से लेकर तारासिंह तक 41 कवियों की काव्य रचनाओं का समावेश है। ‘लोक गीत’ शीर्षक के अन्तर्गत पंजाब के जीवन में रचे-बसे गीतों से 60 गीतों का चयन प्रस्तुत किया गया है।
समय की धूल ने पता नहीं कितने नामों का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया है। अनेक प्राचीन रचानाएँ अभी तक पांडुलिपियों के रूप में ही पड़ी हैं। कई रचनाएँ ऐसी भी हैं जो एक बार प्रकाशित तो जरूर हुईं, परन्तु उनका पुनः उपलब्ध होना प्रायः असंभव हो गया। इतिहास के खोये पृष्ठों से कुछ चिह्न सहेज लेना ही इस चयनिका का सबसे बड़ा उद्देश्य है।
पंजाबी कवितावली में जहाँ प्राचीन और नवीन कविता के सुसंस्कृत और सौरभयुक्त फूलों को व्यवस्थित रूप से सजाया गया है, वहाँ लोक गीतों जैसे जंगली फूलों को भी सम्मिलित कर लिया गया है। इस तरह इससे संपूर्ण पंजाबी कविता और उसके विविध पक्षों का अनुमान लगा पाना संभव होगा। ये पत्र-पुष्प हमारे उल्लासमय अतीत के भी प्रतीक हैं और आज के विकास के द्योतक भी। आप आने वाले समय का स्वर्ण-संकेत भी कह सकते हैं।
आशा है कि इससे वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र के पाठकों को पंजाबी कविता की विरासत, परम्परा, विकास और वर्तमान स्वरुप से परिचय प्राप्त करने में पर्याप्त सहयोग मिलेगा।
‘नवीन-कविता’ के अन्तर्गत भाई वीरसिंह से लेकर तारासिंह तक 41 कवियों की काव्य रचनाओं का समावेश है। ‘लोक गीत’ शीर्षक के अन्तर्गत पंजाब के जीवन में रचे-बसे गीतों से 60 गीतों का चयन प्रस्तुत किया गया है।
समय की धूल ने पता नहीं कितने नामों का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया है। अनेक प्राचीन रचानाएँ अभी तक पांडुलिपियों के रूप में ही पड़ी हैं। कई रचनाएँ ऐसी भी हैं जो एक बार प्रकाशित तो जरूर हुईं, परन्तु उनका पुनः उपलब्ध होना प्रायः असंभव हो गया। इतिहास के खोये पृष्ठों से कुछ चिह्न सहेज लेना ही इस चयनिका का सबसे बड़ा उद्देश्य है।
पंजाबी कवितावली में जहाँ प्राचीन और नवीन कविता के सुसंस्कृत और सौरभयुक्त फूलों को व्यवस्थित रूप से सजाया गया है, वहाँ लोक गीतों जैसे जंगली फूलों को भी सम्मिलित कर लिया गया है। इस तरह इससे संपूर्ण पंजाबी कविता और उसके विविध पक्षों का अनुमान लगा पाना संभव होगा। ये पत्र-पुष्प हमारे उल्लासमय अतीत के भी प्रतीक हैं और आज के विकास के द्योतक भी। आप आने वाले समय का स्वर्ण-संकेत भी कह सकते हैं।
आशा है कि इससे वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र के पाठकों को पंजाबी कविता की विरासत, परम्परा, विकास और वर्तमान स्वरुप से परिचय प्राप्त करने में पर्याप्त सहयोग मिलेगा।
भूमिका
नवीं अथवा दसवीं शताब्दियों का योग-साहित्य प्राचीन पंजाबी का परिवर्तित
रूप नहीं, प्रत्युत इसकी रचना उस भाषा में की गयी है जिस पर
बहुत–सी क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव है।
चन्द बरदाई द्वारा लिखित काव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ बारहवीं शताब्दी ई. की देन है। यह काल हिन्दी का वीर गाथा काल है। पंजाबी साहित्य में भी यह धारा प्रचलित हुई। वीर रस की गाथाएँ, जिन्हें ‘वार’ कहा जाता है, रची गईं। इन ‘वारों’ की प्रचलित धुनों के आधार पर ही गुरु ग्रन्थ साहिब में भी भक्ति रस की ‘वारों’ को गाने का विधान है ये, प्रसिद्ध वारे निम्नलिखित हैं :
चन्द बरदाई द्वारा लिखित काव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ बारहवीं शताब्दी ई. की देन है। यह काल हिन्दी का वीर गाथा काल है। पंजाबी साहित्य में भी यह धारा प्रचलित हुई। वीर रस की गाथाएँ, जिन्हें ‘वार’ कहा जाता है, रची गईं। इन ‘वारों’ की प्रचलित धुनों के आधार पर ही गुरु ग्रन्थ साहिब में भी भक्ति रस की ‘वारों’ को गाने का विधान है ये, प्रसिद्ध वारे निम्नलिखित हैं :
राणा कैलाश दी वार
राय कमाल मौज दी वार
टुण्डे असराजे दी वार
सिकन्दर इब्राहीम दी वार
लला बहिलीमा दी वार
हसने महिमें दी वार
मूसे दी वार; और
जोधे दी वार
राय कमाल मौज दी वार
टुण्डे असराजे दी वार
सिकन्दर इब्राहीम दी वार
लला बहिलीमा दी वार
हसने महिमें दी वार
मूसे दी वार; और
जोधे दी वार
जो भाट लोग इन गाथाओं को गाते थे, उन्हें ये सब कंठस्थ थीं। समय-समय पर इन
के गाये रहते जाने के कारण इनमें नये-नये शब्दों का प्रवेश हो गया और
पुराने शब्द लुप्त हो गये। अतः आज यह संभव नहीं कि हम इनकी मूल भाषा का
शुद्ध रूप देख सकें।
कहा नहीं जा सकता कि इतिहास के कितने पन्ने अनन्त में लीन हो गए, परन्तु जो कुछ उपलब्ध है उससे यही पता चलता है कि तेरहवीं शताब्दी में भाषा की बड़ी महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। शेख़ फरीद की भाषा प्राचीन पंजाबी का परिवर्तित रूप है और वह पंजाबी साहित्य में एक मापदण्ड के रूप में प्रस्तुत है। वैसे तो इस काल के फारसी के विद्वान् अमीर खुसरो के अपने कई-एक शेरों का भी पंजाबी रूपान्तर उपलब्ध है।
मुग़ल काल पंजाबी साहित्य के विकास का स्वर्णयुग है। इस काल के सर्वश्रेष्ठ काव्य गुरु-वाणी, भक्त-वाणी, सूफ़ी-साहित्य और किस्सा-साहित्य हैं।
गुरु-वाणी में छन्द-रचना की दृष्टि से बौद्धिक पक्ष साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है। इस साहित्य के विषय-वस्तु पक्ष की दृष्टि से कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
1. ‘‘मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से उत्तम होता है।’’ इस मूल सत्यता पर आधारित मनुष्य-मात्र की एकता पर विश्वास।
2. ‘‘धरती का धन, धरती की सार्वलौकिक पूँजी है।’’ इस तथ्य को वाणी और जीवन-प्रचार में स्पष्ट करते हुए समय की आर्थिक एकता में विश्वास।
3. प्रत्येक प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक परतन्त्रता के सम्बन्ध में सामाजिक चेतनता।
4. जीवन अथवा परमात्मा के सम्बन्ध में प्रचलित ग़लत धारणाओं पर निर्भयता से चोट।
5. स्वयं गुलाम न बनने और दूसरों को गुलाम बनाने का निर्भीक विरोध।
6. संसार को त्याग कर दृढ़योग से मन को वश में करने का ढंग नहीं बतलाया गया, इसके विपरीत हँसते-हँसते, खाते-पीते अपने-आपको वश में कर सकने वाले व्यक्तित्व का अभ्युदय।
7. आध्यात्मिक पक्ष से समाज का नेतृत्व।
8. उस प्रभु की प्रकृति में ‘कादिर’ की व्यापकता का अनुभव।
9. शांतमयी तथा स्वच्छन्द बौद्धिकता।
10. लोक-जीवन से सीधा सम्बन्ध और लोक-जीवन के साथ सीधा सम्पर्क।
वस्तु के साथ-साथ इसके रूपक पक्ष की विशेषताएँ भी इस साहित्य को अद्वितीय बना देती हैं :
1. सूक्ष्म तथा बलवान कल्पना।
2. रूप-चित्र की विशाल सुन्दरता।
3. संयत, स्वाभाविक तथा सरलतापूर्ण अभिव्यक्ति।
4. भावों के अनुसार बहुपक्षी शब्द-चयन।
5. कई नये शब्दों का निर्माण और व्याकरण के अनुसार भाषा का विकास।
6. रागों के अनुसार छन्द-रचना।
7. छन्द-रचना और अलंकारों के अनेक रूप।
गुरु-वाणी साहित्य में ‘कादर’ प्यार प्रकृति तथा मानव-प्रेम के बड़े गहन और विशाल अनुभव उपलब्ध होते हैं।
भक्त कवियों में भाई गुरदास का नाम अपने काल का प्रतिनिधि नाम है। इनकी रचना वारों, कवित्तों और सवैयों में है। वारों की भाषा शुद्ध पंजाबी है और कवित्तों तथा सवैयों की ब्रज। भाई गुरुदास द्वारा रचित वारों को पंजाबी साहित्य में एक विशेष स्थान प्राप्त है।
धार्मिक वायु-मंडल में से साहित्य को लोक-वायु-मंडल में लाने का श्रेय सबसे प्रथम कवि दामोदर को प्राप्त हुआ। इनकी लेखनी से पंजाबी में किस्सा-साहित्य का आरम्भ होता है। दामोदर ने हीर-राँझे की प्रणय-गाथा को काव्य रूप दिया। भाषा पश्चिमी पंजाब की मधुर पंजाबी थी। कवि ने ‘इश्क-मजाजी’ को आत्मिक रूप देकर ‘इश्क-हकीकी’ से रंग दिया।
पीलू ने मिर्जा साहिबाँ की प्रचलित प्रेम-वार्ता को कविता में लिखा। पीलू के किस्से में दामोदर की तरह कहानी का
सामाजिक अंग विस्तार से नहीं दिया और फिर भी साहिबाँ का सौन्दर्य, मिर्जा की बहादुरी तथा विरह-वेदना का वर्णन काफ़ी ऊँचे स्तर का है। यही कारण है कि आज भी पंजाब के ग्रामों में इसकी गूँज जीवित रूप में सुनायी देती है। डोम, मिरासी इत्यादि इसे सुरीली आवाजों में गाते हैं।
काव्यकोश में अंशदान देने वाले बहुत-से मुसलमान कवि भी हैं, अतः उस समय के साहित्य में इस्लामी परम्पराओं अथवा अरबी-फ़ारसी के शब्द काफी संख्या में मिलते हैं।
अठारहवीं शताब्दी में मुगल राज्य समाप्त हो रहा था। और नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण चल रहे थे। सिख राज्य भी उन्ही दिनों उभर रहा था। इस काल में सूफ़ी कवि बुल्लेशाह, वीर रस के कवि नजाबत और श्रंगार रस के कवि वारिस शाह ने साहित्य-निर्माण का कार्य किया।
वारिसशाह की जानकारी अथवा शब्द-भंडार काफ़ी व्यापक था। इसने अपने काल की रीति-रिवाज़ों, राजनीतिक उथल-पुथलों, धार्मिक तथा कानूनी बातों से लेकर उस समय की जातियों, आभूषणों, बर्तनों, मिठाइयों, साजों और हकीमी के प्रसिद्ध नुस्ख़ों तक का उल्लेख किया है। यह भी स्पष्ट पता चलता है कि उसे अपने समय के नामों और स्थानों की बड़ी उत्तम जानकारी थी। अपने शब्द-भंडार को पूरा रखने के लिए उसने अन्य भाषाओं के शब्द भी पंजाबी में अपनाने से संकोच नहीं किया। आवश्यकता होने पर उसने शब्द-रचना स्वयं भी की है। अपनी सारी रचना में उसने केवल एक छन्द
‘बैंत’ का ही प्रयोग किया है। एक बात जिसमें वारिस शाह अपने को सबसे आगे ले जाता है वह है उसका विरह और सोज़ का तीव्र अनुभव। वारिस की लिखी हुई पुस्तक अपने समय और संस्कृति का पूरा दर्पण है और उसमें उस काल की छोटी-से-छोटी चीज़ भी नहीं छोड़ी गयी। इससे यह भी सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय साहित्य का स्तर क्या था। यह पुस्तक ‘हीर’ 1763 ई. में लिखी गई।
समय के चक्र ने कई नामों का अस्तित्व ही मिटा दिया है। कई पुस्तकें पांडुलिपि के रूप में ही रह गयी और कुछ ऐसी हैं जो छपीं तो, परन्तु अब उपलब्ध नहीं हैं।
सिख राज्य के समय के कवियों में हाशम, कादिर यार, अहमद यार, इमाम बक्श और शाह मुहम्मद के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। शाह मुहम्मद को छोड़कर बाकी सबने प्रेम-कहानियाँ ही वर्णित की हैं। हाशिम ने सस्सी-पुन्नू, शीरीं-फरहाद तथा सोहनी-महीवाल; कादिर यार ने पूरण भक्त, राजा रसालू, सोहनी-महीवाल आदि; अहमद यार ने हीर-राँझा,
युसुफ़-जुलेखाँ, लैला-मजनूँ, काम रूप, राज बीबी आदि लगभग तीस किस्से और इमामबक्श ने लैला-मजनूँ, हुस्न बानो, शाह बरहाम, चन्द्रबदन, गुल बदन तथा गुल सनोबर आदि। इस काल का अन्तिम प्रतिनिधि कवि शाह मुहम्मद था। कवि ने अभी लिखना आरम्भ ही किया था कि रँगीले वातावरण में परिवर्तन आ गया और देश में राजनीतिक उथल-पुथल आरम्भ हो गई। इस कवि ने सिक्खों और अंग्रेजों की लड़ाई अपनी आँखों से देखी और एक दर्द भरे काव्य में उसका वर्णन किया। इसके इस काव्य का नाम ‘सिक्खों और अंग्रेजों का युद्ध’ है। इस काव्य का स्थान पंजाबी साहित्य में बहुत ऊँचा है।
कहा नहीं जा सकता कि इतिहास के कितने पन्ने अनन्त में लीन हो गए, परन्तु जो कुछ उपलब्ध है उससे यही पता चलता है कि तेरहवीं शताब्दी में भाषा की बड़ी महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। शेख़ फरीद की भाषा प्राचीन पंजाबी का परिवर्तित रूप है और वह पंजाबी साहित्य में एक मापदण्ड के रूप में प्रस्तुत है। वैसे तो इस काल के फारसी के विद्वान् अमीर खुसरो के अपने कई-एक शेरों का भी पंजाबी रूपान्तर उपलब्ध है।
मुग़ल काल पंजाबी साहित्य के विकास का स्वर्णयुग है। इस काल के सर्वश्रेष्ठ काव्य गुरु-वाणी, भक्त-वाणी, सूफ़ी-साहित्य और किस्सा-साहित्य हैं।
गुरु-वाणी में छन्द-रचना की दृष्टि से बौद्धिक पक्ष साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है। इस साहित्य के विषय-वस्तु पक्ष की दृष्टि से कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
1. ‘‘मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से उत्तम होता है।’’ इस मूल सत्यता पर आधारित मनुष्य-मात्र की एकता पर विश्वास।
2. ‘‘धरती का धन, धरती की सार्वलौकिक पूँजी है।’’ इस तथ्य को वाणी और जीवन-प्रचार में स्पष्ट करते हुए समय की आर्थिक एकता में विश्वास।
3. प्रत्येक प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक परतन्त्रता के सम्बन्ध में सामाजिक चेतनता।
4. जीवन अथवा परमात्मा के सम्बन्ध में प्रचलित ग़लत धारणाओं पर निर्भयता से चोट।
5. स्वयं गुलाम न बनने और दूसरों को गुलाम बनाने का निर्भीक विरोध।
6. संसार को त्याग कर दृढ़योग से मन को वश में करने का ढंग नहीं बतलाया गया, इसके विपरीत हँसते-हँसते, खाते-पीते अपने-आपको वश में कर सकने वाले व्यक्तित्व का अभ्युदय।
7. आध्यात्मिक पक्ष से समाज का नेतृत्व।
8. उस प्रभु की प्रकृति में ‘कादिर’ की व्यापकता का अनुभव।
9. शांतमयी तथा स्वच्छन्द बौद्धिकता।
10. लोक-जीवन से सीधा सम्बन्ध और लोक-जीवन के साथ सीधा सम्पर्क।
वस्तु के साथ-साथ इसके रूपक पक्ष की विशेषताएँ भी इस साहित्य को अद्वितीय बना देती हैं :
1. सूक्ष्म तथा बलवान कल्पना।
2. रूप-चित्र की विशाल सुन्दरता।
3. संयत, स्वाभाविक तथा सरलतापूर्ण अभिव्यक्ति।
4. भावों के अनुसार बहुपक्षी शब्द-चयन।
5. कई नये शब्दों का निर्माण और व्याकरण के अनुसार भाषा का विकास।
6. रागों के अनुसार छन्द-रचना।
7. छन्द-रचना और अलंकारों के अनेक रूप।
गुरु-वाणी साहित्य में ‘कादर’ प्यार प्रकृति तथा मानव-प्रेम के बड़े गहन और विशाल अनुभव उपलब्ध होते हैं।
भक्त कवियों में भाई गुरदास का नाम अपने काल का प्रतिनिधि नाम है। इनकी रचना वारों, कवित्तों और सवैयों में है। वारों की भाषा शुद्ध पंजाबी है और कवित्तों तथा सवैयों की ब्रज। भाई गुरुदास द्वारा रचित वारों को पंजाबी साहित्य में एक विशेष स्थान प्राप्त है।
धार्मिक वायु-मंडल में से साहित्य को लोक-वायु-मंडल में लाने का श्रेय सबसे प्रथम कवि दामोदर को प्राप्त हुआ। इनकी लेखनी से पंजाबी में किस्सा-साहित्य का आरम्भ होता है। दामोदर ने हीर-राँझे की प्रणय-गाथा को काव्य रूप दिया। भाषा पश्चिमी पंजाब की मधुर पंजाबी थी। कवि ने ‘इश्क-मजाजी’ को आत्मिक रूप देकर ‘इश्क-हकीकी’ से रंग दिया।
पीलू ने मिर्जा साहिबाँ की प्रचलित प्रेम-वार्ता को कविता में लिखा। पीलू के किस्से में दामोदर की तरह कहानी का
सामाजिक अंग विस्तार से नहीं दिया और फिर भी साहिबाँ का सौन्दर्य, मिर्जा की बहादुरी तथा विरह-वेदना का वर्णन काफ़ी ऊँचे स्तर का है। यही कारण है कि आज भी पंजाब के ग्रामों में इसकी गूँज जीवित रूप में सुनायी देती है। डोम, मिरासी इत्यादि इसे सुरीली आवाजों में गाते हैं।
काव्यकोश में अंशदान देने वाले बहुत-से मुसलमान कवि भी हैं, अतः उस समय के साहित्य में इस्लामी परम्पराओं अथवा अरबी-फ़ारसी के शब्द काफी संख्या में मिलते हैं।
अठारहवीं शताब्दी में मुगल राज्य समाप्त हो रहा था। और नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण चल रहे थे। सिख राज्य भी उन्ही दिनों उभर रहा था। इस काल में सूफ़ी कवि बुल्लेशाह, वीर रस के कवि नजाबत और श्रंगार रस के कवि वारिस शाह ने साहित्य-निर्माण का कार्य किया।
वारिसशाह की जानकारी अथवा शब्द-भंडार काफ़ी व्यापक था। इसने अपने काल की रीति-रिवाज़ों, राजनीतिक उथल-पुथलों, धार्मिक तथा कानूनी बातों से लेकर उस समय की जातियों, आभूषणों, बर्तनों, मिठाइयों, साजों और हकीमी के प्रसिद्ध नुस्ख़ों तक का उल्लेख किया है। यह भी स्पष्ट पता चलता है कि उसे अपने समय के नामों और स्थानों की बड़ी उत्तम जानकारी थी। अपने शब्द-भंडार को पूरा रखने के लिए उसने अन्य भाषाओं के शब्द भी पंजाबी में अपनाने से संकोच नहीं किया। आवश्यकता होने पर उसने शब्द-रचना स्वयं भी की है। अपनी सारी रचना में उसने केवल एक छन्द
‘बैंत’ का ही प्रयोग किया है। एक बात जिसमें वारिस शाह अपने को सबसे आगे ले जाता है वह है उसका विरह और सोज़ का तीव्र अनुभव। वारिस की लिखी हुई पुस्तक अपने समय और संस्कृति का पूरा दर्पण है और उसमें उस काल की छोटी-से-छोटी चीज़ भी नहीं छोड़ी गयी। इससे यह भी सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय साहित्य का स्तर क्या था। यह पुस्तक ‘हीर’ 1763 ई. में लिखी गई।
समय के चक्र ने कई नामों का अस्तित्व ही मिटा दिया है। कई पुस्तकें पांडुलिपि के रूप में ही रह गयी और कुछ ऐसी हैं जो छपीं तो, परन्तु अब उपलब्ध नहीं हैं।
सिख राज्य के समय के कवियों में हाशम, कादिर यार, अहमद यार, इमाम बक्श और शाह मुहम्मद के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। शाह मुहम्मद को छोड़कर बाकी सबने प्रेम-कहानियाँ ही वर्णित की हैं। हाशिम ने सस्सी-पुन्नू, शीरीं-फरहाद तथा सोहनी-महीवाल; कादिर यार ने पूरण भक्त, राजा रसालू, सोहनी-महीवाल आदि; अहमद यार ने हीर-राँझा,
युसुफ़-जुलेखाँ, लैला-मजनूँ, काम रूप, राज बीबी आदि लगभग तीस किस्से और इमामबक्श ने लैला-मजनूँ, हुस्न बानो, शाह बरहाम, चन्द्रबदन, गुल बदन तथा गुल सनोबर आदि। इस काल का अन्तिम प्रतिनिधि कवि शाह मुहम्मद था। कवि ने अभी लिखना आरम्भ ही किया था कि रँगीले वातावरण में परिवर्तन आ गया और देश में राजनीतिक उथल-पुथल आरम्भ हो गई। इस कवि ने सिक्खों और अंग्रेजों की लड़ाई अपनी आँखों से देखी और एक दर्द भरे काव्य में उसका वर्णन किया। इसके इस काव्य का नाम ‘सिक्खों और अंग्रेजों का युद्ध’ है। इस काव्य का स्थान पंजाबी साहित्य में बहुत ऊँचा है।
2
भाई वीर सिंह जी की शिखरिणी छन्द में लिखी हुई पुस्तक ‘राणा
सूरतसिंह’ बीसवीं शताब्दी की सबसे प्रथम पुस्तक है। इसके पश्चात
कवि
ने ‘लहराँ दे हार’, ‘बिजलियाँ दे
हार’,
‘मटक हुलारे’, ‘प्रीत वीणा’,
‘काम्बदी
कलाई’ और ‘मेरे साईयाँ जाओ’ छोटी कविताओं
के संग्रह
पंजाबी साहित्य को प्रदान किये। कवि की सारी कविता का प्रधान विषय अनन्त
प्रेम है। अनन्त प्रेम में ‘कादिर’ के रहस्यमय वर्णन
के साथ
इस कवि ने प्रकृति का भी कोमल तथा श्रृंगारिक वर्णन किया है।
इस कवि के नाना पं. हज़ारासिंह संस्कृत और ब्रज-भाषा के पंडित और फ़ारसी के अच्छे विद्वान् थे। कवि के पिता डॉक्टर चरणसिंह भी ब्रज-भाषा में कविता लिखते रहे। परन्तु भाई वीरसिंह ने ब्रज-भाषा और फ़ारसी की शिक्षा लेने के बाद जब लिखना प्रारम्भ किया तो उन्होंने पंजाबी भाषा को ही अपनाया। उस समय ब्रज-भाषा के कुछ विद्वानों ने पंजाबी के माधुर्य को अनुभव किया और कहा, ‘‘हमने तो भाईवीर सिंह को यहाँ इसलिए बुलाया था कि हमको ग्रामीण भाषा से हटाकर ब्रज-भाषा की ओर खींचेगे परन्तु जब उन्होंने पंजाबी में रचना सुनाई तो हमारा भी हृदय पंजाबी में लिखने को तड़प
उठा।’’ इस प्रकार इस लेखक ने न केवल सबसे पहले पंजाबी को अपनाया, प्रत्युत पहली श्रेणी के कई विद्वानों को भी पंजाबी में लिखने की प्रेरणा दी। इसका परिणाम यह हुआ कि नये आने वाले साहित्यकारों के लिए इन्होंने साहित्य की एक रूपरेखा का चित्र प्रस्तुत कर दिया।
कविता को किस्से-कहानियों वाले लोकप्रिय मार्ग से हटाकर शैलानी छन्द के एक नितान्त अलग मार्ग पर ल आना कोई सरल बात नहीं थी। प्रोफेसर पूर्णसिंह-जैसा लेखनी का धनी व्यक्ति ही ऐसा कर सकता था। इस कवि ने बौद्ध मत की प्रेरणा के अन्तर्गत भिक्षु जीवन भी व्यतीत किया। ये स्वामी रामतीर्थ की संगति में रहकर वेदान्त के प्रभाव का भी आनन्द लेते रहे और भाई वीरसिंह से मेल होने के कारण सिक्ख धर्म पर भी विचार करते रहे। इन्होंने पंजाबी तथा अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में रचना की और बड़ी समृद्ध भावनाओं से परिपूर्ण रचनाएँ साहित्य को प्रदान कीं।
फिरोजदीन शरफ़, विधाता सिंह तीर, करतार सिंह बलगन, तेजासिंह, साबर, नन्दलाल नूरपुरी, हज़ारसिंह गुरदासपुरी, बिशनसिंह उपासक इत्यादि पंजाबी के कवियों ने हमेशा जन-सम्पर्क बनाए रखा और इस प्रकार उन्होंने लोक-जीवन में कविता का स्थान बनाने में बड़ा सराहनीय कार्य किया।
धनीराम चात्रिक की कविता में वारिस शाह के बाद हमें प्रथम बार अपना पंजाब प्रत्यक्ष दिखाई देता है। कवि और जनता के सम्बन्ध बढ़े। चात्रिक ने अपनी कविता में लोगों के मेलों, ऋतुओं अथवा खेतों तथा बागों का वर्णन किया। पशु-धन और उनके चारे इत्यादि की बातें सुनायीं। चरी, मक्की इत्यादि अनाजों का उल्लेख किया और इस प्रकार नवीन साहित्य में लोक-जीवन का उल्लेख करने की परिपाटी दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही गई।
मोहनसिंह पूर्णरूप से एक लोक कवि के रूप में लोगों के समक्ष आये। कई प्यार-कहानियाँ कहता हुआ मोहनसिंह भाग्यचक्र द्वारा पद्दलित हुए जीवनों की गाथा सुनाने लगा। निस्सन्देह उसकी पूर्व रचनाओं में संकटों का वर्णन ही अधिक रहा है, परन्तु बाद में वह ‘भाग्यचक्र’ चलने वाले समाज के क्रूर हाथों की तलाश करने लग गया। मोहनसिंह के लोक-प्रिय होने का रहस्य इसी बात में है कि उसकी लेखनी जब समय की आवश्यकताओं का वर्णन करती है तो उसकी चमक नष्ट नहीं होती। मित्रों की वेदना से लोगों की वेदना बन जाने वाली साहित्यिक कहानी में उसकी देन सबसे अधिक है।
1947 में देश का विभाजन हो गया। साहित्यकारों ने समय की सामप्रदायिक नीतियों के विरुद्ध और अधिक चेतावनी दी। शरीरिक तथा मानसिक अत्याचारों को देखकर साहित्यकारों ने मूल सत्यों को जाना। आदर्शवादी अथवा छायावादी रुचियाँ काफ़ी कमज़ोर हो गईं और यथार्थवाद का युग आ उपस्थित हुआ।
यथार्थवाद के प्रारम्भिक प्रयोगों में बहुत ही नगनवादी कहानियों की रचना होने के साथ-साथ कला पक्ष से वंचित कविता भी बहुत लिखी गई। परन्तु बाद में हमारे कवियों ने लोकप्रिय छन्दों और लोक-गीतों का प्रयोग करके कविता के सनातन रूप को पुनः प्रस्थापित किया।
बाबा बलवन्त एक क्रांतिकारी कवि हैं। उसने गलत सामाजिक अथवा राजनीतिक मूल्यों पर गहन वार किये हैं। यह कवि और अधिक लोकप्रिय हो जाता, यदि इसने कविता-निर्माण, वाक्य-रचना और शब्द-चयन भी पंजाबी स्वभाव के अनुकूल ही किया होता।
पंजाबी स्वाभाव पर विजय प्राप्त कर लेने वाला कवि संतोखसिंह धीर है। लोगों के मन की गहन बातों को वह सरल तथा स्पष्ट भाषा में व्यक्त करने में सफल रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह कवि भारत-विभाजन के बाद ही लोगों के सामने आया, परन्तु फिर भी इस अल्पकाल में ही यह बहुत लोकप्रिय हो गया। इसकी रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि
इसने अपनी रचना में कामगारों के इतिहास में अपने लोगों की पुरातन सामाजिक तथा सांस्कृतिक परम्पराओं का पूरी तरह मिश्रण कर दिया है। कृष्ण, बुद्ध, नानक, माओ और स्टालिन सबका उल्लेख उसकी कविता में है। मास्को, दिल्ली, नील, गंगा, वोल्गा और पंजाबी का पना का वर्णन भी उसकी कविता में बड़ी सुन्दरता से गुँथा हुआ हमें उपलब्ध होता है।
प्यारासिंह सहराई का लोक-वेदना से बहुत गहन और सच्चा सम्बन्ध है। प्रभजोत कौर के गीतों में एक सुलझी हुई सामाजिक रुचि का प्रादुर्भाव हो रहा है। हरनामसिंह नाज़, गुरुचरण रामपुरी, अजायब चित्रकार, सुरजीत रामपुरी, तेरासिंह चन्न, हरभजनसिंह, तख्तसिंह, तारासिंह और पिछले कुछ समय में आए हुए हमारे कुछ ऐसे कवि; जिनकी सामाजिक अनुभूति के साथ काव्य-शक्ति का दिन-प्रति-दिन बराबर मेल होता जा रहा है। ईश्वर चित्रकार और सुखवीर की रचना के रूप-चित्र दिन-प्रति-दिन सूक्ष्म और प्रिय होते जा रहे हैं।
पंजाबी कविता का भविष्य बहुत ही उज्जवल गौरव तथा गौरवमयी प्रतीत हो रहा है।
इस कवि के नाना पं. हज़ारासिंह संस्कृत और ब्रज-भाषा के पंडित और फ़ारसी के अच्छे विद्वान् थे। कवि के पिता डॉक्टर चरणसिंह भी ब्रज-भाषा में कविता लिखते रहे। परन्तु भाई वीरसिंह ने ब्रज-भाषा और फ़ारसी की शिक्षा लेने के बाद जब लिखना प्रारम्भ किया तो उन्होंने पंजाबी भाषा को ही अपनाया। उस समय ब्रज-भाषा के कुछ विद्वानों ने पंजाबी के माधुर्य को अनुभव किया और कहा, ‘‘हमने तो भाईवीर सिंह को यहाँ इसलिए बुलाया था कि हमको ग्रामीण भाषा से हटाकर ब्रज-भाषा की ओर खींचेगे परन्तु जब उन्होंने पंजाबी में रचना सुनाई तो हमारा भी हृदय पंजाबी में लिखने को तड़प
उठा।’’ इस प्रकार इस लेखक ने न केवल सबसे पहले पंजाबी को अपनाया, प्रत्युत पहली श्रेणी के कई विद्वानों को भी पंजाबी में लिखने की प्रेरणा दी। इसका परिणाम यह हुआ कि नये आने वाले साहित्यकारों के लिए इन्होंने साहित्य की एक रूपरेखा का चित्र प्रस्तुत कर दिया।
कविता को किस्से-कहानियों वाले लोकप्रिय मार्ग से हटाकर शैलानी छन्द के एक नितान्त अलग मार्ग पर ल आना कोई सरल बात नहीं थी। प्रोफेसर पूर्णसिंह-जैसा लेखनी का धनी व्यक्ति ही ऐसा कर सकता था। इस कवि ने बौद्ध मत की प्रेरणा के अन्तर्गत भिक्षु जीवन भी व्यतीत किया। ये स्वामी रामतीर्थ की संगति में रहकर वेदान्त के प्रभाव का भी आनन्द लेते रहे और भाई वीरसिंह से मेल होने के कारण सिक्ख धर्म पर भी विचार करते रहे। इन्होंने पंजाबी तथा अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में रचना की और बड़ी समृद्ध भावनाओं से परिपूर्ण रचनाएँ साहित्य को प्रदान कीं।
फिरोजदीन शरफ़, विधाता सिंह तीर, करतार सिंह बलगन, तेजासिंह, साबर, नन्दलाल नूरपुरी, हज़ारसिंह गुरदासपुरी, बिशनसिंह उपासक इत्यादि पंजाबी के कवियों ने हमेशा जन-सम्पर्क बनाए रखा और इस प्रकार उन्होंने लोक-जीवन में कविता का स्थान बनाने में बड़ा सराहनीय कार्य किया।
धनीराम चात्रिक की कविता में वारिस शाह के बाद हमें प्रथम बार अपना पंजाब प्रत्यक्ष दिखाई देता है। कवि और जनता के सम्बन्ध बढ़े। चात्रिक ने अपनी कविता में लोगों के मेलों, ऋतुओं अथवा खेतों तथा बागों का वर्णन किया। पशु-धन और उनके चारे इत्यादि की बातें सुनायीं। चरी, मक्की इत्यादि अनाजों का उल्लेख किया और इस प्रकार नवीन साहित्य में लोक-जीवन का उल्लेख करने की परिपाटी दिन-प्रति-दिन बढ़ती ही गई।
मोहनसिंह पूर्णरूप से एक लोक कवि के रूप में लोगों के समक्ष आये। कई प्यार-कहानियाँ कहता हुआ मोहनसिंह भाग्यचक्र द्वारा पद्दलित हुए जीवनों की गाथा सुनाने लगा। निस्सन्देह उसकी पूर्व रचनाओं में संकटों का वर्णन ही अधिक रहा है, परन्तु बाद में वह ‘भाग्यचक्र’ चलने वाले समाज के क्रूर हाथों की तलाश करने लग गया। मोहनसिंह के लोक-प्रिय होने का रहस्य इसी बात में है कि उसकी लेखनी जब समय की आवश्यकताओं का वर्णन करती है तो उसकी चमक नष्ट नहीं होती। मित्रों की वेदना से लोगों की वेदना बन जाने वाली साहित्यिक कहानी में उसकी देन सबसे अधिक है।
1947 में देश का विभाजन हो गया। साहित्यकारों ने समय की सामप्रदायिक नीतियों के विरुद्ध और अधिक चेतावनी दी। शरीरिक तथा मानसिक अत्याचारों को देखकर साहित्यकारों ने मूल सत्यों को जाना। आदर्शवादी अथवा छायावादी रुचियाँ काफ़ी कमज़ोर हो गईं और यथार्थवाद का युग आ उपस्थित हुआ।
यथार्थवाद के प्रारम्भिक प्रयोगों में बहुत ही नगनवादी कहानियों की रचना होने के साथ-साथ कला पक्ष से वंचित कविता भी बहुत लिखी गई। परन्तु बाद में हमारे कवियों ने लोकप्रिय छन्दों और लोक-गीतों का प्रयोग करके कविता के सनातन रूप को पुनः प्रस्थापित किया।
बाबा बलवन्त एक क्रांतिकारी कवि हैं। उसने गलत सामाजिक अथवा राजनीतिक मूल्यों पर गहन वार किये हैं। यह कवि और अधिक लोकप्रिय हो जाता, यदि इसने कविता-निर्माण, वाक्य-रचना और शब्द-चयन भी पंजाबी स्वभाव के अनुकूल ही किया होता।
पंजाबी स्वाभाव पर विजय प्राप्त कर लेने वाला कवि संतोखसिंह धीर है। लोगों के मन की गहन बातों को वह सरल तथा स्पष्ट भाषा में व्यक्त करने में सफल रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह कवि भारत-विभाजन के बाद ही लोगों के सामने आया, परन्तु फिर भी इस अल्पकाल में ही यह बहुत लोकप्रिय हो गया। इसकी रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि
इसने अपनी रचना में कामगारों के इतिहास में अपने लोगों की पुरातन सामाजिक तथा सांस्कृतिक परम्पराओं का पूरी तरह मिश्रण कर दिया है। कृष्ण, बुद्ध, नानक, माओ और स्टालिन सबका उल्लेख उसकी कविता में है। मास्को, दिल्ली, नील, गंगा, वोल्गा और पंजाबी का पना का वर्णन भी उसकी कविता में बड़ी सुन्दरता से गुँथा हुआ हमें उपलब्ध होता है।
प्यारासिंह सहराई का लोक-वेदना से बहुत गहन और सच्चा सम्बन्ध है। प्रभजोत कौर के गीतों में एक सुलझी हुई सामाजिक रुचि का प्रादुर्भाव हो रहा है। हरनामसिंह नाज़, गुरुचरण रामपुरी, अजायब चित्रकार, सुरजीत रामपुरी, तेरासिंह चन्न, हरभजनसिंह, तख्तसिंह, तारासिंह और पिछले कुछ समय में आए हुए हमारे कुछ ऐसे कवि; जिनकी सामाजिक अनुभूति के साथ काव्य-शक्ति का दिन-प्रति-दिन बराबर मेल होता जा रहा है। ईश्वर चित्रकार और सुखवीर की रचना के रूप-चित्र दिन-प्रति-दिन सूक्ष्म और प्रिय होते जा रहे हैं।
पंजाबी कविता का भविष्य बहुत ही उज्जवल गौरव तथा गौरवमयी प्रतीत हो रहा है।
3
धार्मिक वाणी यदि ईश्वरी कही जा सकती है तो लोक गीतों को निस्सन्देह धरती
के लाल कहा जा सकता है। लोक-गीतो का स्वभाव किसी प्रकार के पिंगल और छंदों
पर आश्रित नहीं रहता। उनके प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए अलंकारों के
श्रृंगार की आवश्यकता नहीं। उनका यौवन मात्राओं की लाठी के सहारे नहीं
चलता। उसकी आन्तरिक अनुभूति ही उसका पथ प्रदर्शन करती है। उनकी सम्पूर्ण
भावुकता स्वयमेव संगीत का रूप धारण कर लेती है। परियों की कहानियों की
भाँति लोगों के कंठों में गीतों के सुप्त स्वर स्वयमेव जाग्रत हो जाते हैं।
बालक-बलिकाएँ अपने खेलों के साथ जिन कविताओं को गाती हैं उसके रूप ‘गीहरे’, ‘थाल’ और ‘किकली’ इत्यादि हैं। युवतियाँ तथा प्रौढ़ महिलाएँ जो कविता गाती हैं उनके रूप हैं, ‘टप्पे’, ‘गिद्धा’ और ‘बोलियाँ’। पुत्र विवाह के समय ‘घोड़ियाँ’, पुत्री विवाह के समय ’सुहाग’ और ढोलकी के साथ तीव्र गति से गाए जाने वाले चालू गीत, बिना ढोलकी के लम्बी तान से गाए जाने वाले वर्णनात्मक गीत, रोमांचक भावों के ‘ढोले’ और धार्मिक भावों के बिशन पदे तथा दोहे
समधी के स्वागत में गाए जाने वाले मज़ाकी गीत, कामन, दोहे तथा सिठनियाँ इत्यादि और पंजाबी मर्दों के गाने वाली कविता, बालो, ढोला, दोहड़े, बैंत, कवित्त, मंदा, सीहरफियाँ, कव्वालियाँ, काफ़ियाँ, बारामासा, वाराँ, बाघी, लुडी, जली, धमाल और भँगड़े की बोलियाँ इत्यादि हैं। विवाह-समारोह के अवसर पर खीऊड़े बैठाने की रीति पंजाब में काफ़ी देर प्रचलित रही है। अब भी यह कहीं-कहीं प्रचलित है। खीऊड़ियों के प्रायः दो दल बुलाए जाते हैं और ये सारी रात परस्पर प्रश्न-उत्तर देते-लेते रहते हैं।
पंजाब में गर्मी और सर्दी दोनों ही अपने पूर्ण यौवन का परिचय देते हैं। वहाँ के 365 दिन ऋतु-परिवर्तन की दृष्टि, से कई रंग देखते हैं। वहाँ के ग्रामीण जीवन के कई उतार-चढ़ाव लोग सहन करते हैं। इन कारणों से पंजाब के लोक-गीतों का रोमांच बड़ा यथार्थवादी होता है। यह गीत अपने टूटे स्वप्नों को जोड़कर अपना महल तैयार करते हैं। परन्तु इन महलों को तैयार करते हुए उन्हें अपनी झोपड़ियों का बराबर ध्यान रहता है और वे बराबर उनका उल्लेख करते हैं। वर्षा अथवा ओले इत्यादि पड़ जाने से खराब हो जाने वाले खेतों का उल्लेख भी इन लोक-गीतों में मिलता है। फसलों से हरे-भरे लहरा रहे
खेत और सुन्दर आँगन में हँसते-खेलते बच्चों को देखने की साध पंजाबी महिला के हृदय में प्रत्येक समय रहती है। यह साध स्थायी रहते हुए भी उसे कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है। वह उसके गीत भी गाती है। लोक गीतों में उसकी ध्वनि भी बराबर उपलब्ध होती है। लोक-गीतों में काल के चरण-चिन्ह बड़े गहरे होते हैं। ‘बसरे की लाम’ का उल्लेख प्रायः पंजाबी लोक-गीतों में आता है।
इससे हमारा ध्यान 1914-18 ई. में हुए प्रथम महायुद्घ की ओर आकृष्ट हो जाता है। समय के अनुसार पुरानी चीजों का स्थान नई चीज़ें ले लेती रही हैं और उसके अनुसार ही लोक-गीतों की ध्वनि निकलती रही है। ताँगा गाड़ी, साईकिल और मोटर का स्थान आज आकाश में उड़ने वाले विमान ले रहे हैं। स्टेशन, डाक-बँगले बिजली अथवा नलके का उल्लेख भी समय-समय पर लोक-गीतों में आता रहा है। इन गीतों में समय के अनुसार राजनीति के बदले हुए रुप भी व्यक्त होते रहे हैं। अकाली, आर्य समाजी और कांग्रेसी इत्यादि संस्थाओं द्वारा चालू आन्दोलनों का प्रभाव भी इन पर बराबर रहा है।
पंजाब-विभाजन के पश्चात् रचे गए लोक-गीतों में भारत-विभाजन की झलक थी। आजकल के नवीन पहाड़ी गीतों में हमें कोई सुन्दरी खड़ी सेविंग सर्टिफिकेट खरीदती हुई भी दिखाई देती है।
वास्तव में गीतों को हम हृदय की बातें कह सकते हैं और यह गीत कई बार अपनी प्रेमियों को आवाज़ देकर कहते हैं :
बालक-बलिकाएँ अपने खेलों के साथ जिन कविताओं को गाती हैं उसके रूप ‘गीहरे’, ‘थाल’ और ‘किकली’ इत्यादि हैं। युवतियाँ तथा प्रौढ़ महिलाएँ जो कविता गाती हैं उनके रूप हैं, ‘टप्पे’, ‘गिद्धा’ और ‘बोलियाँ’। पुत्र विवाह के समय ‘घोड़ियाँ’, पुत्री विवाह के समय ’सुहाग’ और ढोलकी के साथ तीव्र गति से गाए जाने वाले चालू गीत, बिना ढोलकी के लम्बी तान से गाए जाने वाले वर्णनात्मक गीत, रोमांचक भावों के ‘ढोले’ और धार्मिक भावों के बिशन पदे तथा दोहे
समधी के स्वागत में गाए जाने वाले मज़ाकी गीत, कामन, दोहे तथा सिठनियाँ इत्यादि और पंजाबी मर्दों के गाने वाली कविता, बालो, ढोला, दोहड़े, बैंत, कवित्त, मंदा, सीहरफियाँ, कव्वालियाँ, काफ़ियाँ, बारामासा, वाराँ, बाघी, लुडी, जली, धमाल और भँगड़े की बोलियाँ इत्यादि हैं। विवाह-समारोह के अवसर पर खीऊड़े बैठाने की रीति पंजाब में काफ़ी देर प्रचलित रही है। अब भी यह कहीं-कहीं प्रचलित है। खीऊड़ियों के प्रायः दो दल बुलाए जाते हैं और ये सारी रात परस्पर प्रश्न-उत्तर देते-लेते रहते हैं।
पंजाब में गर्मी और सर्दी दोनों ही अपने पूर्ण यौवन का परिचय देते हैं। वहाँ के 365 दिन ऋतु-परिवर्तन की दृष्टि, से कई रंग देखते हैं। वहाँ के ग्रामीण जीवन के कई उतार-चढ़ाव लोग सहन करते हैं। इन कारणों से पंजाब के लोक-गीतों का रोमांच बड़ा यथार्थवादी होता है। यह गीत अपने टूटे स्वप्नों को जोड़कर अपना महल तैयार करते हैं। परन्तु इन महलों को तैयार करते हुए उन्हें अपनी झोपड़ियों का बराबर ध्यान रहता है और वे बराबर उनका उल्लेख करते हैं। वर्षा अथवा ओले इत्यादि पड़ जाने से खराब हो जाने वाले खेतों का उल्लेख भी इन लोक-गीतों में मिलता है। फसलों से हरे-भरे लहरा रहे
खेत और सुन्दर आँगन में हँसते-खेलते बच्चों को देखने की साध पंजाबी महिला के हृदय में प्रत्येक समय रहती है। यह साध स्थायी रहते हुए भी उसे कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है। वह उसके गीत भी गाती है। लोक गीतों में उसकी ध्वनि भी बराबर उपलब्ध होती है। लोक-गीतों में काल के चरण-चिन्ह बड़े गहरे होते हैं। ‘बसरे की लाम’ का उल्लेख प्रायः पंजाबी लोक-गीतों में आता है।
इससे हमारा ध्यान 1914-18 ई. में हुए प्रथम महायुद्घ की ओर आकृष्ट हो जाता है। समय के अनुसार पुरानी चीजों का स्थान नई चीज़ें ले लेती रही हैं और उसके अनुसार ही लोक-गीतों की ध्वनि निकलती रही है। ताँगा गाड़ी, साईकिल और मोटर का स्थान आज आकाश में उड़ने वाले विमान ले रहे हैं। स्टेशन, डाक-बँगले बिजली अथवा नलके का उल्लेख भी समय-समय पर लोक-गीतों में आता रहा है। इन गीतों में समय के अनुसार राजनीति के बदले हुए रुप भी व्यक्त होते रहे हैं। अकाली, आर्य समाजी और कांग्रेसी इत्यादि संस्थाओं द्वारा चालू आन्दोलनों का प्रभाव भी इन पर बराबर रहा है।
पंजाब-विभाजन के पश्चात् रचे गए लोक-गीतों में भारत-विभाजन की झलक थी। आजकल के नवीन पहाड़ी गीतों में हमें कोई सुन्दरी खड़ी सेविंग सर्टिफिकेट खरीदती हुई भी दिखाई देती है।
वास्तव में गीतों को हम हृदय की बातें कह सकते हैं और यह गीत कई बार अपनी प्रेमियों को आवाज़ देकर कहते हैं :
चिट्टे दंद गुलाबी होठ
गल्लाँ करन पंजाबी लोक
इक गल सुन जाना
गल्लाँ करन पंजाबी लोक
इक गल सुन जाना
(सफ़ेद दाँतों और गुलाबी होठों वाले पंजाबी आवाज़ देकर कहते हैं कि हमारी
बात सुन जाना।)
फिर कौन ऐसा मानव हृदय है जो इनकी बात सुनने को लालायित न हो उठे।
फिर कौन ऐसा मानव हृदय है जो इनकी बात सुनने को लालायित न हो उठे।
अमृता प्रीतम
प्राचीन कविता
शेख़ फ़रीद
(1173-1265 ई.)
शेख़ फ़रीद जी का मत है कि हृदय से प्रेम करने वाले व्यक्ति ही वास्तव में
सच्चे पुरुष होते हैं। जिन लोगों की कथनी और करनी में अन्तर हो, वे ठीक
नहीं होते। उनका अस्तित्व बाह्य आडम्बर पर आधारित होता है। सच्चे नर-नारी
प्रत्येक समय ईश्वर के ही प्रम में लीन रहते हैं और जिनको प्रभु का नाम ही
स्मरण नहीं रहता, वे इस भूमि पर केवल भार-मात्र बनकर रह जाते हैं। उसके
अनुग्रह से ही हमारे जैसे साधुओं को भक्ति दान उपलब्ध है। इस प्रकार जिस
पर प्रभु की कृपा हो जाती है, उसका इस विश्व में जन्म लेना सफल हो जाता
है। उस व्यक्ति को जन्म देने वाली माता भी उसकी सफलता से कृतकृत्य हो जाती
है।
हे ईश्वर, तू इस संसार को पालने वाला, असीम और अनन्त है। तुझे समझना बड़ा कठिन है। अतः जिन लोगों ने तुझे समझ लिया है, वे इस योग्य हैं कि उनकी पूजा की जाए। हे प्रभु, हम सब तेरी शरण में हैं और तू सबके पापों को क्षमा करने वाला है। मुझे केवल एक ही दान दे कि मैं तेरी भक्ती में लीन रह सकूँ।
हे ईश्वर, तू इस संसार को पालने वाला, असीम और अनन्त है। तुझे समझना बड़ा कठिन है। अतः जिन लोगों ने तुझे समझ लिया है, वे इस योग्य हैं कि उनकी पूजा की जाए। हे प्रभु, हम सब तेरी शरण में हैं और तू सबके पापों को क्षमा करने वाला है। मुझे केवल एक ही दान दे कि मैं तेरी भक्ती में लीन रह सकूँ।
(राग आशा)
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