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साधना मंत्र

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5625
आईएसबीएन :9788131003435

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छोटी-छोटी कथाओं द्वारा अध्यात्म के रहस्यों का खुलासा करती एक अनमोल पुस्तक

Sadhana Mantra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साधना शब्द का अर्थ का भाव स्थिति से जुड़ा हुआ है। जो मनुष्य किसी साध्य (लक्ष्य) तक पहुंचना चाहता है, वह साधक है और जिनका उपयोग वह उपकरणों के रूप में करता है, वे साधन कहलाते हैं। साधक की ऐसी भाव-प्रक्रिया जहां जड़-साधन चेतन के रूप में प्रस्फुटित हो जाए, साधना की प्रारंभिक स्थिति हैं। इसमें साधक-साधन के तादात्म्य की पवित्र घटना घटित होती है।

साधना का व्याख्यान करने वाले ग्रंथों में बाह्य और आंतरिक साधनों की जो मीमांसा की गई है, उसका रहस्य यही है। बाह्य साधना में जड़ वस्तुओं का साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है जबकि आंतरिक साधना में उनका महत्त्व न के बराबर हो जाता है।

यात्रा में आने वाले छोटे-बड़े विभिन्न पड़ावों की तरह साधना में भी एक लंबी श्रृंखला होती है। इसमें रुक-ठहरकर, विश्राम करके, आगे की यात्रा के बारे में काफी कुछ सोच-समझकर, जान-बूझकर साधक इष्ट प्राप्ति की ओर बढ़ता है। प्रस्तुत पुस्तक में इस साधन-यात्रा में आने वाली स्थितियों-परिस्थितियों की कथा रूप में चर्चा की गई है। प्रत्येक कथा कुछ ऐसा संकेत दे जाती है जो साधक की दृष्टि पर पड़ी मोह की मोटी-पतली परत को चीर कर उसे दिव्यता प्रदान करती है।
श्रद्धेय महामंडलेश्वर श्री स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों और वार्ताओं से ली गई ये छोटी-छोटी कहानियां ऐसे सूत्रों का कार्य करती हैं जिन्हें अपना आधार बनाकर कोई भी साधक अपने जीवन को सफल बना सकता है।

 

-गंगा प्रसाद शर्मा

 

साधना शब्द का प्रयोग ‘नियंत्रण’ के अर्थ में करना ज्यादा उपयुक्त लगता है। व्यवहार में ‘प्रशिक्षित’ के अर्थ में भी इसका प्रयोग किया जाता।
उपनिषदों में एक रूपक के माध्यम से साधना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए ऋषि कहता है—‘आत्मा को रथी जानो। यह शरीर रथ है जबकि बुद्धि सारथी।

इस मंत्र में अश्वों के रूप में संकेत इंद्रियों की ओर किया गया है। इन अश्वों को मन ऊर्जावान बनाता है। इस प्रकार आध्यात्मिक साधना है मन का नियंत्रित होना—मन को प्रशिक्षित करना भी इसका संकेतार्थ हो सकता है।
प्रत्येक साधना पद्धति मन की कई परतों और इससे कई रूपों को स्वीकार करती है। यह कब अपना रूप बदल ले कुछ कहा नहीं जा सकता। साधना मन को समग्ररूप से जानने-समझने की समझ देती है। इस पुस्तक की कथाएं इसी दिशी में एक सशक्त प्रयास है। ये सभी उद्धृत हैं परमश्रद्धेय आचार्य महामण्डलेश्वर श्रीस्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों, उद्बोधनों और वर्तालापों से। हमें विश्वास है साधकों के लिए ये कथाएं परम उपयोगी सिद्ध होंगी।

 

1
गुनहगार कौन

 

 

हजरत उमर रात्रि के समय बस्ती से गुजर रहे थे कि उन्हें एक मकान से कुछ शोर सा सुनाई दिया। उन्होंने दरवाजा खोलकर देखा—एक स्त्री तथा उसका साथी पुरुष हाथ में शराब के गिलास लिए जोर-जोर से हंस रहे हैं।
यह देखकर हजरत उमर को गुस्सा आ गया। उन्होंने दोनों को फटकारते हुए कहा—‘तुम कैसे मुसलमान हो ? शराब जैसी नापक-नशीली चीज का खुलकर उपयोग कर रहे हो। साथ ही साथ रात में जोर-जोर से हंसकर पड़ोसियों की नींद में खलल डालने का गुनाह कर रहे हो ?’’

जब दोनों स्त्री-पुरुष ने अपने सामने हजरत उमर को देखा तो वे सकपका गए। पुरुष ने विनम्रता से कहा—‘‘हजरत ! यह सच है कि हम शराब पीकर हो-हल्ला कर रहे हैं परंतु आप तो एक साथ दो गुनाह के अपराधी हैं।’’
हजरत उमर ने पूछा—‘‘मैंने कौन से गुनाह कर दिए ?’’

इस पर शराबनोश करने वाले व्यक्ति ने कहा—‘‘अल्लाह का कहना है कि दूसरों के गुनाह को अनदेखा कर देना चाहिए। आपने मकान में झांककर हमारे गुनाहों को देखा—पहला अपराध तो यह किया। हमको शराब पीते और ठहाका लगाते देखकर आपको गुस्सा आ गया—यह आपसे दूसरा अपराध हो गया।’’
हजरत उमर को एहसास हुआ कि वास्तव में उनसे दो गुनाह हो गए थे। तब उन्होंने बहुत ही विनम्रता के साथ शराब की बुराइयों के बारे में उन्हें अवगत कराकर भविष्य में शराब न पीने की संकल्प दिलाया। 

 

2
अनूठा कर्मयोगी

 

 

महर्षि मुद्गल पावन तीर्थभूमि कुरुक्षेत्र के अग्रणी तपस्वी साधकों में थे। वे छात्रों को शास्त्रों का अध्ययन कराते, अतिथियों की सेवा में तत्पर रहते तथा अपने शिष्यों को दीन-दुखियों की सहायता करने की प्ररेणा देते थे। इसके अलावा शेष समय वे भगवान की उपासना में बिताते थे।
एक बार महर्षि दुर्वासा उनके अतिथि-सत्कार की परीक्षा लेने के लिए छह हाजार शिष्यों के साथ उनके आश्रम में पहुंचे। मुद्गल जी ने सभी का उपयुक्त स्वागत-सत्कार किया। महर्षि दुर्वासा ने उन्हें उत्तेजित करने का प्रयास किया किंतु मुद्गल जी ने क्रोध को पास भी नहीं फटकने दिया। तब महर्षि दुर्वासा प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया—‘‘तुम्हें शीघ्र ही स्वर्ग की प्राप्ति होगी।’’

समय आने पर देवदूत महर्षि मुद्गल को स्वर्ग ले जाने के लिए आए। महर्षि मुद्गल ने उनसे पूछा—‘‘क्या मैं स्वर्ग में वंचितों की सेवा, अतिथियों का सत्कार तथा भगवान की भक्ति कर सकूंगा ?’’
देवदूतों ने उत्तर दिया—‘‘स्वर्ग में आप केवल सुख भोग सकेंगे। वहां कोई कर्म नहीं कर पाएंगे।’’
मुद्गल जी बोले—‘‘तब आप वापस चले जाएं, मुझे यह सुख नहीं भोगना है। मुझे तो दूसरों को सुख पहुंचाने तथा सेवा-सत्कार करने में परम आनंद प्राप्त होता है। भगवान की भक्ति करके मुझे जो आत्मसंतोष मिलता है, वह भला स्वर्गिक सुखों में कैसे मिल पाएगा ? अतः मुझे इस कर्मभूमि पर ही रहने दें।’’

देवदूत उस अनूठे कर्मयोगी की बात सुनकर नतमस्तक हो गए। 

 

3
प्रायश्चित का महत्व

 

 

एक जिज्ञासु स्वामी रामानंद जी का प्रवचन सुनने पहुंचा। स्वामी जी ने प्रेरणा दी—‘‘मन, कर्म और वचन से पाप न करने का संकल्प लो। भूतकाल में जो पाप हो गए हैं, उनका प्रायश्चित करो। प्रायश्चित से मन की शुद्धि हो जाती है।’’
प्रवचन समाप्त होने के बाद जिज्ञासु ने शंका व्यक्त करते हुए कहा—‘‘स्वामी जी ! प्रायश्चित द्वारा पापों से छुटकारा कैसे पाया जा सकता है ?’

यह सुनकर स्वामी रामानंद जी उस जिज्ञासु को नदी के किनारे ले गए। वहां एक गड्ढे में भरा पानी सड़ गया था। उसमें कीड़े तैर रहे थे। स्वामी जी ने पूछा—‘‘यह पानी देख रहे हो, यह क्यों सड़ गया है ?’’
जिज्ञासु ने उत्तर दिया—‘‘स्वामी जी ! जल का प्रवाह रुकने के कारण पानी सड़ गया है।’’
स्वामी जी ने समझाया—‘‘इसी पानी की तरह जब पाप इकट्ठे हो जाते हैं तो वे अनिष्ठ करने लगते हैं। जिस तरह वर्षा का पानी इस सड़े हुए पानी को आगे धकेलकर नदी को पवित्र बना देता है, उसी तरह प्रायश्चित रूपी अमृत-वर्षा पापों को नष्ट करके मन को पवित्र बना देती है।’’
जिज्ञासु प्रयश्चित का महत्व समझकर स्वामी रामानंद जी के चरणों में नतमस्तक हो गया।    


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