कहानी संग्रह >> अपवाद और अन्य कहानियाँ अपवाद और अन्य कहानियाँशीतांशु भारद्वाज
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प्रस्तुत है कहानी संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आत्मरूप कहानी जहां स्वयं के साक्षात्कार की व्यथा है वहीं अपवाद लीक से
परे हटने को रेखांकित करती है। डूबता मस्तूल पुरानी मान्यताओं को टा-टा
करती है तो परदेशी कहानी देश से पलायन की दास्तान है।
इसी प्रकार सच की सजा भी पीढ़ी संघर्ष को उजागर करती है। साँझा परिवार में संयुक्त परिवार की महक है। कुल मिलाकर ये कहानियाँ हमारे-इर्द-गिर्द के चरित्रों को रेखांकित करने में समर्थ हैं।
इसी प्रकार सच की सजा भी पीढ़ी संघर्ष को उजागर करती है। साँझा परिवार में संयुक्त परिवार की महक है। कुल मिलाकर ये कहानियाँ हमारे-इर्द-गिर्द के चरित्रों को रेखांकित करने में समर्थ हैं।
अपना आकाश
समय इतिहास के खंडहर ही बनाकर रख छोड़ता है। पुरखों की धरती की याद आने पर
मैं अक्सर वहाँ जाने के लिए मचल उठा करता था। व्यवसाय में व्यस्त होते हुए
भी एक दिन मैं कुमायूँ की पहाड़ियों की ओर चल दिया था।
-आप किस परिवार की बात कर रहे हैं ? रणधुरा गाँव के एक बुजुर्ग मुझे सिर से पाँव तक देखने लगे थे।
-मैं यहाँ बरदूला परिवार की खोजबीन करने आया हुआ हूँ। मैंने बताया था।
-वाह साहब ! वे बुजुर्ग फिस्स-से हँस दिए थे, ये माटी सारे मनुष्यों को खाती है। पर इसे कोई न खा पाया। इस गाँव में पहले भी कई परिवार रहा करते थे। लेकिन आज उनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं रहा।
-आप कैसे कह सकते हैं कि...।
-मेरे पिताजी बताया करते थे। वे बोले थे, उन जातियों के खेत-खलिहान आज दूसरों के नाम हो आए हैं। खेतों के नाम भी उन्हीं जातियों के नाम पर हैं।
-और हमारे खेतों का क्या हुआ ? मैंने उत्सुकता से पूछा था।
-भरदूलों के खेत आज भी जहाँ-तहाँ हैं। कुछ बंजर हो चले हैं। कुछ सरकारी जंगल में समा गए हैं। कुछ बाढ़ से बह गए हैं। बुजुर्ग ने बताया था।
-क्या वे खेत अब हमें नहीं मिल सकते ? मैंने गाँव के सभापति से पूछा था।
-मुश्किल ही है। सभापति सिर खुजलाने लगे थे। वैसे आप तहसील में जाके इस बारे में दरयाफ्त कर सकते हैं।
निराश होकर मैं वहाँ से महानगर में लौट आया था। फिर भी पहाड़ का वह आकर्षण मुझे बराबर अपनी ओर आकर्षित करता रहा। पिछले वर्ष मैं यों ही शांति की खोज में गढ़वाल हिमालय की ओर निकल गया था। वहाँ के महात्माजी के आगे मैंने अपनी सारी परेशानियाँ कह डाली थीं। सुन कर उन्होंने कहा था, फिर तो बच्चा, तुम्हारा ऊपर वाला ही कल्याण कर सकता है।
-आप नहीं ? मैंने विस्मय से पूछा था।
तभी स्वामीजी ध्यानस्थ हो आए थे। मैं स्वयं पर ही झुँझलाने लगा था।
-हाँ तो वत्स ! स्वामीजी का ध्यान टूटा था, फिर क्या कहते हो ?
-मैं क्या कहूँ, महात्मन् ! मेरा स्वर रुआँसा हो आया था, मेरी समझ में कुछ भी तो नहीं आ रहा है। मैं तो यहाँ...।
-ज्ञान चक्षु खुलने पर सब कुछ समझ जाओगे, वत्स ! स्वामीजी मुस्करा दिए थे।
-लेकिन उन्हें खोलने के लिए भी तो गुरु चाहिए न !
-तुम्हें अपना दीप आप ही बनना होगा।
-ये तो आप महात्मा बुद्ध के शब्द दोहरा रहे हैं।
-हाँ। स्वामीजी गंभीर हो आए थे, सभी धर्मों के मसीहा यही कहते आ रहे हैं। आत्म-मंथन करो और उससे प्राप्त सार तत्त्व को प्रसाद रूप में ग्रहण करो।
-ठीक है, भगवन् ! मैंने गहरा उच्छ्वास भरा था। स्वामीजी को प्रणाम कर नीचे डाक बँगले में चला आया था।
डाक बँगले से मेरे साथ वाले नदारद थे। सुबह मेरे वित्तीय सलाहकार कालेलकर ने मुझसे कहा था, सर, आप अकेले ही जाइए। किसी के साथ होने पर स्वामीजी बिदक जाया करते हैं।
डाक बँगले से एक किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर मैंने स्वामीजी के आश्रम में प्रवेश किया था। किंतु वहाँ मेरे हाथ निराशा ही लगी थी। मायूस होकर मैंने चौकीदार को पुकारा था, बहादुर !
-जी साब ! गोरखा मेरे पास ही चला आया था।
-वे लोग किधर हैं ? मैंने साथियों के बारे में पूछा था।
-वे तो घूमने के लिए गए हुए हैं। चौकीदार ने बताया था। उसने पूछा था, आपके लिए चाय लाऊँ ?
-हाँ। कहकर मैं आराम कुर्सी पर पसर गया था।
आँखें मूँदें हुए मैं आत्म-मंथन करने लगा था। इतना बड़ा उद्योगपति होने पर भी मैंने कभी भी किसी मजदूर का दिल नहीं दुखाया। शुरू से ही मैं मजदूरों की भलाई की ही बातें करता रहा हूँ। फिर भी, मैं अस्वस्थ रहा करता हूँ।
-गोपाल ! वर्षों पूर्व एक दिन मेरे दादाजी मुझे वही पुरानी नसीहत देने लगे थे, कभी भी किसी गरीब का दिल न दुखाना। संतों ने भी तो यही सीख दी है न :
-आप किस परिवार की बात कर रहे हैं ? रणधुरा गाँव के एक बुजुर्ग मुझे सिर से पाँव तक देखने लगे थे।
-मैं यहाँ बरदूला परिवार की खोजबीन करने आया हुआ हूँ। मैंने बताया था।
-वाह साहब ! वे बुजुर्ग फिस्स-से हँस दिए थे, ये माटी सारे मनुष्यों को खाती है। पर इसे कोई न खा पाया। इस गाँव में पहले भी कई परिवार रहा करते थे। लेकिन आज उनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं रहा।
-आप कैसे कह सकते हैं कि...।
-मेरे पिताजी बताया करते थे। वे बोले थे, उन जातियों के खेत-खलिहान आज दूसरों के नाम हो आए हैं। खेतों के नाम भी उन्हीं जातियों के नाम पर हैं।
-और हमारे खेतों का क्या हुआ ? मैंने उत्सुकता से पूछा था।
-भरदूलों के खेत आज भी जहाँ-तहाँ हैं। कुछ बंजर हो चले हैं। कुछ सरकारी जंगल में समा गए हैं। कुछ बाढ़ से बह गए हैं। बुजुर्ग ने बताया था।
-क्या वे खेत अब हमें नहीं मिल सकते ? मैंने गाँव के सभापति से पूछा था।
-मुश्किल ही है। सभापति सिर खुजलाने लगे थे। वैसे आप तहसील में जाके इस बारे में दरयाफ्त कर सकते हैं।
निराश होकर मैं वहाँ से महानगर में लौट आया था। फिर भी पहाड़ का वह आकर्षण मुझे बराबर अपनी ओर आकर्षित करता रहा। पिछले वर्ष मैं यों ही शांति की खोज में गढ़वाल हिमालय की ओर निकल गया था। वहाँ के महात्माजी के आगे मैंने अपनी सारी परेशानियाँ कह डाली थीं। सुन कर उन्होंने कहा था, फिर तो बच्चा, तुम्हारा ऊपर वाला ही कल्याण कर सकता है।
-आप नहीं ? मैंने विस्मय से पूछा था।
तभी स्वामीजी ध्यानस्थ हो आए थे। मैं स्वयं पर ही झुँझलाने लगा था।
-हाँ तो वत्स ! स्वामीजी का ध्यान टूटा था, फिर क्या कहते हो ?
-मैं क्या कहूँ, महात्मन् ! मेरा स्वर रुआँसा हो आया था, मेरी समझ में कुछ भी तो नहीं आ रहा है। मैं तो यहाँ...।
-ज्ञान चक्षु खुलने पर सब कुछ समझ जाओगे, वत्स ! स्वामीजी मुस्करा दिए थे।
-लेकिन उन्हें खोलने के लिए भी तो गुरु चाहिए न !
-तुम्हें अपना दीप आप ही बनना होगा।
-ये तो आप महात्मा बुद्ध के शब्द दोहरा रहे हैं।
-हाँ। स्वामीजी गंभीर हो आए थे, सभी धर्मों के मसीहा यही कहते आ रहे हैं। आत्म-मंथन करो और उससे प्राप्त सार तत्त्व को प्रसाद रूप में ग्रहण करो।
-ठीक है, भगवन् ! मैंने गहरा उच्छ्वास भरा था। स्वामीजी को प्रणाम कर नीचे डाक बँगले में चला आया था।
डाक बँगले से मेरे साथ वाले नदारद थे। सुबह मेरे वित्तीय सलाहकार कालेलकर ने मुझसे कहा था, सर, आप अकेले ही जाइए। किसी के साथ होने पर स्वामीजी बिदक जाया करते हैं।
डाक बँगले से एक किलोमीटर की चढ़ाई चढ़कर मैंने स्वामीजी के आश्रम में प्रवेश किया था। किंतु वहाँ मेरे हाथ निराशा ही लगी थी। मायूस होकर मैंने चौकीदार को पुकारा था, बहादुर !
-जी साब ! गोरखा मेरे पास ही चला आया था।
-वे लोग किधर हैं ? मैंने साथियों के बारे में पूछा था।
-वे तो घूमने के लिए गए हुए हैं। चौकीदार ने बताया था। उसने पूछा था, आपके लिए चाय लाऊँ ?
-हाँ। कहकर मैं आराम कुर्सी पर पसर गया था।
आँखें मूँदें हुए मैं आत्म-मंथन करने लगा था। इतना बड़ा उद्योगपति होने पर भी मैंने कभी भी किसी मजदूर का दिल नहीं दुखाया। शुरू से ही मैं मजदूरों की भलाई की ही बातें करता रहा हूँ। फिर भी, मैं अस्वस्थ रहा करता हूँ।
-गोपाल ! वर्षों पूर्व एक दिन मेरे दादाजी मुझे वही पुरानी नसीहत देने लगे थे, कभी भी किसी गरीब का दिल न दुखाना। संतों ने भी तो यही सीख दी है न :
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरै बैल के चाम सौं, लौह भसम ह्ववै जाय।।
मरै बैल के चाम सौं, लौह भसम ह्ववै जाय।।
-जी, दादाजी। उनके उपदेशों को मैंने वहीं गाँठ बाँध लिया था, आप ठीक कहते
हैं।
-मेरे दादाजी बहुत ही गरीब आदमी थे। दादाजी मुझे पारिवारिक निर्धनता का अहसास करवाने लगे थे, उन्नीसवीं सदी में पहाड़ से आकर वे दिल्ली की गलियों में खुदरा कपड़ा बेचा करते थे।
-फिर यकायक हमारा कायापलट कैसे हो आया, दादीजी ? मैंने पूछा था।
-यह यकायक नहीं हुआ था रे ! वे बताने लगे थे, मेरे पिताजी ने कानपुर में एक छोटी सी हौजरी मिल खोल ली थी। ईश्वर उनका साथ देता गया। फिर तो हम लोग उद्यमी होते गए। हम रुपये से रुपया कमाने लगे।
-फिर मेरे पिताजी का आकस्मिक निधन कैसे हो आया था ? मैंने पूछा था।
-दरअसल, तेरे पिताजी चौबीसों घंटे निन्यानबे के फेर में ही पड़े रहते थे। दादा मुझे बताने लगे थे, दिन रात वह कोल्हू का बैल बना रहता था। श्रमिकों के प्रति भी तो उसके दिल में जगह नहीं थी। हो सकता है, उसे किसी गरीब की हाय लगी हो !
-ठीक है, दादाजी। मैंने उसी समय प्रतिज्ञा कर ली थी, मैं श्रमिकों के प्रति लचीलापन अपनाऊँगा। हमेशा ही उनकी कुशहाली की बातें सोचता रहूँगा।
समय सरकता है मेरे प्रबंधक, वित्तीय सलाहकार-सभी तो मुझे रुपये से रुपया कमाने की सीख दिया करते। इस आपाधापी में मेरा जीवन ही अनियमित होने लगा था। मेरा स्वास्थ्य गिरता ही गया।
-आप तो...। एक दिन पत्नी ने मुझे उलाहना दिया था, भगवान् के दर्शन भले ही हो जाएँ। किंतु आपके दर्शन तो..।
-मैं भी क्या करूँ, शीला ? मैं उसे ही अपने ढंग से समझाने लगा था, कारोबार फैल रहा है। मैं उसे अपने मीर मुंशियों के भरोसे ही तो नहीं छोड़ सकता न !
-नहीं जी। पत्नी ने कहा था, रुपया हमारे लिए है। हम रुपये के लिए नहीं हैं।
-ठीक है। मैं उससे सहमत हो आया था, मैं कोशिश करूँगा कि कुछ आराम भी कर लिया करूँ।
मैंने बहुत चाहा कि व्यावसायिक चिंताओं से दूर ही रहूँ। किंतु मैं उनसे मुक्त नहीं हो पाया। उधर रक्तचाप की बीमारी भी अपने जलवे दिखलाने लगी थी। डॉक्टरों से तंग आकर एक दिन मैं एक नामी-गिरामी वैद्यजी की शरण में जा पहुँचा था। मेरी नस नाड़ी के परीक्षण के बाद वे मुझे आश्वस्त करने लगे थे, यहाँ आपको समय तो जरूर लगेगा। किंतु बीमारी जड़मूल से ही नष्ट हो जाएगी।
एक वर्ष तक वैद्यजी की चिकित्सा चलती रही थी। किंतु उससे लाभ नहीं हो पा रहा था। एक दिन पत्नी ने कहा था, आप प्राकृतिक चिकित्सक से मिलें न ! वहाँ मिट्टी-पानी से ही रोगी चंगा हो आता है।
तब मैं एक प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र में जा पहुँचा था। वहाँ मुझे भर्ती कर दिया गया था। किंतु मिट्टी-पानी की वह चिकित्सा मुझे रास नहीं आ पाई थी। मैं वहाँ से घर चला आया था।
-देखिए जी ! एक दिन पत्नी ने फिर से सुझाव दिया था। आप साल में एक आध महीने के लिए किसी हिल स्टेशन चल दिया करें। हवा-पानी बदल जाएगा।
अगली गरमियों में मैं कौसानी चल दिया था। वहाँ मुझे कुछ राहत मिलने लगी थी। उसके बाद से तो मैं प्रति वर्ष ही पर्वतीय स्थलों को चल दिया था।
उस वर्ष मेरे सलाहकार जब डाक बँगले में लौटे तो मझे मायूस देख कर वे भी उदास होने लगे थे। वे लोग मुझे अंदर तक बांच चुके थे। माहेश्वर ने कहा था, सर, एक बात कहूँ !
-बोलो !
-शांति तो हमारे मन में होती है। माहेश्वर दर्शन ही बघारने लगा था, पहाड़ों में हमें भौतिक शांति ही मिल सकती है। आत्मिक शांति प्राप्त करना बहुत कठिन हुआ करता है।
-ठीक कहते हो। मैंने भी उसी का समर्थन कर दिया था। मैं भी स्वामीजी के शब्द दोहराने लगा था, हमें अपना दीप आप बनना होगा !
-राइट सर ! कालेलकर मुस्करा दिया था।
दूसरे दिन हम उस डाक बंगला से घर लौट आए थे।
कनॉट प्लेस दिल्ली का धड़कता हुआ दिल है। मैं यहाँ अपने भवन की पाँचवीं मंजिल में बैठा करता हूँ। पिछले वर्ष मैंने अपने फॉर्म हाउस को अपने निवास में बदल डाला है। बँगले के आस-पास कृत्रिम पहाड़ बनवा दिए हैं। अपने सलाहकारों से मैंने किसी पर्वतीय नगरी में जमीन खरीदने को दिए हैं। अपने सलाहकारों से मैंने किसी पर्वतीय नगरी में जमीन खरीदने को भी कहा हुआ है। वे भी एक आध स्थानों में जाकर जगह देख आए हैं।
हमारे यहाँ एक विचित्र मेहमान आए हुए हैं। घर आकर शीला आँखें नचाकर कहती है।
-क्या मतलब ? मैं चौंककर पूछता हूँ।
वह हमारे साथ अपना पारिवारिक नाता जोड़ रहा है। शीला बताती है, कहता है, वह हमारा ही वंशज है। अपने को भरदूला जाति का बतलाता है।
मेरे ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। मैं सोफे पर बैठकर कहता हूँ, उसे बुलवाओ !
अगले ही क्षण मेरे समक्ष एक युवक आ खड़ा होता है। उसे देखकर मैं ठगा सा ही रह जाता हूँ। उसका चेहरा मेरे पारिवारिक इतिहास को स्पष्ट कर रहा होता है। मैं उससे पूछता हूँ कहो भई, कैसे आए ?
कह नहीं सकता साब कि आप मेरे क्या लगते हैं। वह युवक अपना परिचय देने लगता है। मैं देवीदत्त भरदूला हूँ। आप और हम एक ही पेड़ की शाखाएँ हैं।
लेकिन नौजवान। मैं उसे नख से सिख तक देखने लगता हूँ, भरदूला जाति का तो रणधुरा से नामोनिशान ही मिट चला है। फिर तुम कैसे कह सकते हो कि...।’’
ऐसा नहीं है, साब देवीदत्त मेरी उस धारणा का खंडन करने लगता है, उस गाँव से कभी एक भाई काली कुमायूँ चला आया था। मैं उन्हीं का वंशज हूँ।
-बैठो। मैं उसे सोफे पर बैठने को कहता हूँ।
देवीदत्त सामने ही कुर्सी पर बैठ गया है। मैं उसमें अपने बेटे का रूप देखने लगता हूँ। दरअसल, मेरे तनाव और भटकाव का एक कारण यह भी रहता रहा है कि मेरा अपना कोई बेटा नहीं है आज लगता है जैसे प्रभु ने मेरा बेटा ही भेज दिया हो ! मैं अपनेपन से भर आता हूँ, क्यों रे देवी ! अपने माँ-बाप के बारे में भी तो कुछ बता न ! तुम लोग कितने भाई बहन हो ?
देवीदत्त भी उस अपनत्व के झरने के नीचे नहाने लगता है, बस ताऊजी मैं हूँ एक मेरी बहन है।
और माँ-बाप ?
-बौज्यू बूढ़े हो आए हैं। वह बताता है, माँ की आँखों में मोतिया उभर आया है। उनकी दृष्टि धुँधला चली है।
-फिर तो वे मेरे जाज्यु लगेंगे न ? मैं पूछता हूँ।
-जी। देवीदत्त मेरे अनुमान को सत्यापित कर देता है, बौज्यू ने ही मुझे बताया था कि हमारा खानदान किस प्रकार पहाड़ से बिखरता गया। आपके बारे में भी मुझे उन्होंने ही बताया था।
-और क्या-क्या बतलाया था उन्होंने ? मैं सुनने को अधीर हो आता हूँ।
-उन्होंने भी दादा-परदादा से सुनी हुई बातें ही बतलाईं। देवीदत्त हमारे इतिहास के पन्ने पटलने लगे, दो सौ वर्ष पहले रणधुरा गाँव में भरदूला जाति को दो भाई रहा करते थे। वहाँ के लोग गढ़वाल से आए थे। भाइयों के बेटे हुए। उनके लिए जमीन की कमी पड़ने लगी। उनमें से हमारे पूर्वज काली कुमायूँ में जा बसे थे। बाद में पता चला कि रणधुरा वाले भी गाँव छोड़कर देश-मैदान की ओर चल दिए हैं।
ठीक है, देवी ! संतुष्ट होकर मैं उसे आश्वस्त करता हूँ, तुम किसी प्रकार की चिंता न करना। अपने माँ-बाबू को भी यहीं बुलवा लो। मेरा भी तो आगे पीछे कोई नहीं है।
लेकिन दाज्यू...। देवीदत्त वहीं अटक जाता है।
बोलो, न भाई !
मेरे बौज्यू अपनी धरती से नहीं काटेंगे। उसने कहा।
चलो। मैं कहता हूँ, हम लोग ही उस धरती को गले लगा लेंगे। क्या वहाँ मुझे थोड़ी-सी जगह मिल जाएगी ?
वाह दाज्यू ! देवीदत्त मुस्कराता है, वहाँ जो कुछ भी है, वह सब आपका ही तो है। आप में और हम में फर्क ही क्या है ?
देवीदत्त को हमारे साथ रहते हुए तीनेक महीने हो आए हैं। वह हमारे परिवार में घुल मिल गया है। एक दिन मैं उसे लेकर काली कुमायूँ बँगला चल देता हूँ। कोसी नदी के किनारे जमीन खरीदकर उस पर मैं अपना बँगला बना लेता हूँ। देवीदत्त मेरे साथ ही रहा करता है।
कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि हमने क्या खोकर क्या पाया है ? मैं भी तो उसी दुविधा से ग्रस्त रहने लगा हूँ। कभी किसी जमाने में मेरे पुरखे अपनी जमीन से कटे होंगे। और आज मैं उसी से जुड़ता जा रहा हूँ।
अब मैं बहुत खुश हूँ। मेरी सारी परेशानियाँ और तनाव छूमंतर हो चले हैं। मेरा कारोबार ही फैलता जा रहा है। गर्मियों में मैं अपने परिवार के साथ अपने पहाड़ में आ दुबकता हूँ। शीला को तो यहाँ की दृश्यावलियाँ बहुत ही मोहक लगा करती हैं। हमारे बँगले के नीचे कोसी नदी कल-कल छल-छल का संगीत सुनाती रहती है। देवीदत्त साये की तरह से हमारे साथ ही रहा करता है।
एक दिन बूढ़े चाचा रामदत्त लाठी टेकते हुए हमारे बँगले में चले आते हैं। वे अपने वंश की विरुदावली गाने लगते हैं, गोपाल ! आज तुम्हें पाकर जैसे मैंने गंगा ही नहा ली है। हमारी वंश-बेल खूब फैलेगी।
यह सब आपके आशीर्वाद से ही हुआ है, चाचाजी ! मैं विनम्रतापूर्वक कहता हूँ।
यह तो सब ऊपर वाले का करिश्मा है, भैया ! उनका हाथ ऊपर की ओर उठ जाता है। जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय !
ठीक कहते हैं। मैं भी उन्हीं का समर्थन कर देता हूं।
चौदह वर्ष बाद तो घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। मेरे अच्छे दिन लौट आए हैं। शीला के साथ गरमियों में मैं यहीं आ जाता हूं। कभी मेरी बेटियाँ भी यहीं चली आती हैं। मुझे इस धरती से गहरा लगाव होने लगा है।
ऊपर बालिस्तभर आकाश है, नीचे धरती के गलीचे पर मेरा घरौंदा है। अपनी धरती और अपने आकाश से जुड़ना भी कितना सुखद होता है इसका अनुभव कोई भुक्तभोगी ही कर सकता है।
-मेरे दादाजी बहुत ही गरीब आदमी थे। दादाजी मुझे पारिवारिक निर्धनता का अहसास करवाने लगे थे, उन्नीसवीं सदी में पहाड़ से आकर वे दिल्ली की गलियों में खुदरा कपड़ा बेचा करते थे।
-फिर यकायक हमारा कायापलट कैसे हो आया, दादीजी ? मैंने पूछा था।
-यह यकायक नहीं हुआ था रे ! वे बताने लगे थे, मेरे पिताजी ने कानपुर में एक छोटी सी हौजरी मिल खोल ली थी। ईश्वर उनका साथ देता गया। फिर तो हम लोग उद्यमी होते गए। हम रुपये से रुपया कमाने लगे।
-फिर मेरे पिताजी का आकस्मिक निधन कैसे हो आया था ? मैंने पूछा था।
-दरअसल, तेरे पिताजी चौबीसों घंटे निन्यानबे के फेर में ही पड़े रहते थे। दादा मुझे बताने लगे थे, दिन रात वह कोल्हू का बैल बना रहता था। श्रमिकों के प्रति भी तो उसके दिल में जगह नहीं थी। हो सकता है, उसे किसी गरीब की हाय लगी हो !
-ठीक है, दादाजी। मैंने उसी समय प्रतिज्ञा कर ली थी, मैं श्रमिकों के प्रति लचीलापन अपनाऊँगा। हमेशा ही उनकी कुशहाली की बातें सोचता रहूँगा।
समय सरकता है मेरे प्रबंधक, वित्तीय सलाहकार-सभी तो मुझे रुपये से रुपया कमाने की सीख दिया करते। इस आपाधापी में मेरा जीवन ही अनियमित होने लगा था। मेरा स्वास्थ्य गिरता ही गया।
-आप तो...। एक दिन पत्नी ने मुझे उलाहना दिया था, भगवान् के दर्शन भले ही हो जाएँ। किंतु आपके दर्शन तो..।
-मैं भी क्या करूँ, शीला ? मैं उसे ही अपने ढंग से समझाने लगा था, कारोबार फैल रहा है। मैं उसे अपने मीर मुंशियों के भरोसे ही तो नहीं छोड़ सकता न !
-नहीं जी। पत्नी ने कहा था, रुपया हमारे लिए है। हम रुपये के लिए नहीं हैं।
-ठीक है। मैं उससे सहमत हो आया था, मैं कोशिश करूँगा कि कुछ आराम भी कर लिया करूँ।
मैंने बहुत चाहा कि व्यावसायिक चिंताओं से दूर ही रहूँ। किंतु मैं उनसे मुक्त नहीं हो पाया। उधर रक्तचाप की बीमारी भी अपने जलवे दिखलाने लगी थी। डॉक्टरों से तंग आकर एक दिन मैं एक नामी-गिरामी वैद्यजी की शरण में जा पहुँचा था। मेरी नस नाड़ी के परीक्षण के बाद वे मुझे आश्वस्त करने लगे थे, यहाँ आपको समय तो जरूर लगेगा। किंतु बीमारी जड़मूल से ही नष्ट हो जाएगी।
एक वर्ष तक वैद्यजी की चिकित्सा चलती रही थी। किंतु उससे लाभ नहीं हो पा रहा था। एक दिन पत्नी ने कहा था, आप प्राकृतिक चिकित्सक से मिलें न ! वहाँ मिट्टी-पानी से ही रोगी चंगा हो आता है।
तब मैं एक प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र में जा पहुँचा था। वहाँ मुझे भर्ती कर दिया गया था। किंतु मिट्टी-पानी की वह चिकित्सा मुझे रास नहीं आ पाई थी। मैं वहाँ से घर चला आया था।
-देखिए जी ! एक दिन पत्नी ने फिर से सुझाव दिया था। आप साल में एक आध महीने के लिए किसी हिल स्टेशन चल दिया करें। हवा-पानी बदल जाएगा।
अगली गरमियों में मैं कौसानी चल दिया था। वहाँ मुझे कुछ राहत मिलने लगी थी। उसके बाद से तो मैं प्रति वर्ष ही पर्वतीय स्थलों को चल दिया था।
उस वर्ष मेरे सलाहकार जब डाक बँगले में लौटे तो मझे मायूस देख कर वे भी उदास होने लगे थे। वे लोग मुझे अंदर तक बांच चुके थे। माहेश्वर ने कहा था, सर, एक बात कहूँ !
-बोलो !
-शांति तो हमारे मन में होती है। माहेश्वर दर्शन ही बघारने लगा था, पहाड़ों में हमें भौतिक शांति ही मिल सकती है। आत्मिक शांति प्राप्त करना बहुत कठिन हुआ करता है।
-ठीक कहते हो। मैंने भी उसी का समर्थन कर दिया था। मैं भी स्वामीजी के शब्द दोहराने लगा था, हमें अपना दीप आप बनना होगा !
-राइट सर ! कालेलकर मुस्करा दिया था।
दूसरे दिन हम उस डाक बंगला से घर लौट आए थे।
कनॉट प्लेस दिल्ली का धड़कता हुआ दिल है। मैं यहाँ अपने भवन की पाँचवीं मंजिल में बैठा करता हूँ। पिछले वर्ष मैंने अपने फॉर्म हाउस को अपने निवास में बदल डाला है। बँगले के आस-पास कृत्रिम पहाड़ बनवा दिए हैं। अपने सलाहकारों से मैंने किसी पर्वतीय नगरी में जमीन खरीदने को दिए हैं। अपने सलाहकारों से मैंने किसी पर्वतीय नगरी में जमीन खरीदने को भी कहा हुआ है। वे भी एक आध स्थानों में जाकर जगह देख आए हैं।
हमारे यहाँ एक विचित्र मेहमान आए हुए हैं। घर आकर शीला आँखें नचाकर कहती है।
-क्या मतलब ? मैं चौंककर पूछता हूँ।
वह हमारे साथ अपना पारिवारिक नाता जोड़ रहा है। शीला बताती है, कहता है, वह हमारा ही वंशज है। अपने को भरदूला जाति का बतलाता है।
मेरे ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। मैं सोफे पर बैठकर कहता हूँ, उसे बुलवाओ !
अगले ही क्षण मेरे समक्ष एक युवक आ खड़ा होता है। उसे देखकर मैं ठगा सा ही रह जाता हूँ। उसका चेहरा मेरे पारिवारिक इतिहास को स्पष्ट कर रहा होता है। मैं उससे पूछता हूँ कहो भई, कैसे आए ?
कह नहीं सकता साब कि आप मेरे क्या लगते हैं। वह युवक अपना परिचय देने लगता है। मैं देवीदत्त भरदूला हूँ। आप और हम एक ही पेड़ की शाखाएँ हैं।
लेकिन नौजवान। मैं उसे नख से सिख तक देखने लगता हूँ, भरदूला जाति का तो रणधुरा से नामोनिशान ही मिट चला है। फिर तुम कैसे कह सकते हो कि...।’’
ऐसा नहीं है, साब देवीदत्त मेरी उस धारणा का खंडन करने लगता है, उस गाँव से कभी एक भाई काली कुमायूँ चला आया था। मैं उन्हीं का वंशज हूँ।
-बैठो। मैं उसे सोफे पर बैठने को कहता हूँ।
देवीदत्त सामने ही कुर्सी पर बैठ गया है। मैं उसमें अपने बेटे का रूप देखने लगता हूँ। दरअसल, मेरे तनाव और भटकाव का एक कारण यह भी रहता रहा है कि मेरा अपना कोई बेटा नहीं है आज लगता है जैसे प्रभु ने मेरा बेटा ही भेज दिया हो ! मैं अपनेपन से भर आता हूँ, क्यों रे देवी ! अपने माँ-बाप के बारे में भी तो कुछ बता न ! तुम लोग कितने भाई बहन हो ?
देवीदत्त भी उस अपनत्व के झरने के नीचे नहाने लगता है, बस ताऊजी मैं हूँ एक मेरी बहन है।
और माँ-बाप ?
-बौज्यू बूढ़े हो आए हैं। वह बताता है, माँ की आँखों में मोतिया उभर आया है। उनकी दृष्टि धुँधला चली है।
-फिर तो वे मेरे जाज्यु लगेंगे न ? मैं पूछता हूँ।
-जी। देवीदत्त मेरे अनुमान को सत्यापित कर देता है, बौज्यू ने ही मुझे बताया था कि हमारा खानदान किस प्रकार पहाड़ से बिखरता गया। आपके बारे में भी मुझे उन्होंने ही बताया था।
-और क्या-क्या बतलाया था उन्होंने ? मैं सुनने को अधीर हो आता हूँ।
-उन्होंने भी दादा-परदादा से सुनी हुई बातें ही बतलाईं। देवीदत्त हमारे इतिहास के पन्ने पटलने लगे, दो सौ वर्ष पहले रणधुरा गाँव में भरदूला जाति को दो भाई रहा करते थे। वहाँ के लोग गढ़वाल से आए थे। भाइयों के बेटे हुए। उनके लिए जमीन की कमी पड़ने लगी। उनमें से हमारे पूर्वज काली कुमायूँ में जा बसे थे। बाद में पता चला कि रणधुरा वाले भी गाँव छोड़कर देश-मैदान की ओर चल दिए हैं।
ठीक है, देवी ! संतुष्ट होकर मैं उसे आश्वस्त करता हूँ, तुम किसी प्रकार की चिंता न करना। अपने माँ-बाबू को भी यहीं बुलवा लो। मेरा भी तो आगे पीछे कोई नहीं है।
लेकिन दाज्यू...। देवीदत्त वहीं अटक जाता है।
बोलो, न भाई !
मेरे बौज्यू अपनी धरती से नहीं काटेंगे। उसने कहा।
चलो। मैं कहता हूँ, हम लोग ही उस धरती को गले लगा लेंगे। क्या वहाँ मुझे थोड़ी-सी जगह मिल जाएगी ?
वाह दाज्यू ! देवीदत्त मुस्कराता है, वहाँ जो कुछ भी है, वह सब आपका ही तो है। आप में और हम में फर्क ही क्या है ?
देवीदत्त को हमारे साथ रहते हुए तीनेक महीने हो आए हैं। वह हमारे परिवार में घुल मिल गया है। एक दिन मैं उसे लेकर काली कुमायूँ बँगला चल देता हूँ। कोसी नदी के किनारे जमीन खरीदकर उस पर मैं अपना बँगला बना लेता हूँ। देवीदत्त मेरे साथ ही रहा करता है।
कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि हमने क्या खोकर क्या पाया है ? मैं भी तो उसी दुविधा से ग्रस्त रहने लगा हूँ। कभी किसी जमाने में मेरे पुरखे अपनी जमीन से कटे होंगे। और आज मैं उसी से जुड़ता जा रहा हूँ।
अब मैं बहुत खुश हूँ। मेरी सारी परेशानियाँ और तनाव छूमंतर हो चले हैं। मेरा कारोबार ही फैलता जा रहा है। गर्मियों में मैं अपने परिवार के साथ अपने पहाड़ में आ दुबकता हूँ। शीला को तो यहाँ की दृश्यावलियाँ बहुत ही मोहक लगा करती हैं। हमारे बँगले के नीचे कोसी नदी कल-कल छल-छल का संगीत सुनाती रहती है। देवीदत्त साये की तरह से हमारे साथ ही रहा करता है।
एक दिन बूढ़े चाचा रामदत्त लाठी टेकते हुए हमारे बँगले में चले आते हैं। वे अपने वंश की विरुदावली गाने लगते हैं, गोपाल ! आज तुम्हें पाकर जैसे मैंने गंगा ही नहा ली है। हमारी वंश-बेल खूब फैलेगी।
यह सब आपके आशीर्वाद से ही हुआ है, चाचाजी ! मैं विनम्रतापूर्वक कहता हूँ।
यह तो सब ऊपर वाले का करिश्मा है, भैया ! उनका हाथ ऊपर की ओर उठ जाता है। जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय !
ठीक कहते हैं। मैं भी उन्हीं का समर्थन कर देता हूं।
चौदह वर्ष बाद तो घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। मेरे अच्छे दिन लौट आए हैं। शीला के साथ गरमियों में मैं यहीं आ जाता हूं। कभी मेरी बेटियाँ भी यहीं चली आती हैं। मुझे इस धरती से गहरा लगाव होने लगा है।
ऊपर बालिस्तभर आकाश है, नीचे धरती के गलीचे पर मेरा घरौंदा है। अपनी धरती और अपने आकाश से जुड़ना भी कितना सुखद होता है इसका अनुभव कोई भुक्तभोगी ही कर सकता है।
अपवाद
अकेले फ्लैट में मैं बच्चे की उत्तर पुस्तिकाएँ जाँच रही हूं। माँ-पापा
किसी विवाह में गए हुए हैं। चार छः कापियाँ जाँचने पर ही मेरा मन ऊबने लगा
है। उन्हें एक ओर सरकाकर, गाल पर हाथ रखे हुए मैं फिर से वही आत्म-मंथन
करने लगती हूँ।
मैं अभी तक नहीं समझ पाई कि लोग खोकर कैसे क्या कुछ पा लेते होंगे। कहते हैं, मोती गहरे पानी में पैठकर ही मिला करते हैं। मैंने तो इस अथाह संसार में बहुत हाथ पाँव मारे खूब गोते लगाए। किंतु मेरा दुर्भाग्य तो देखिए कि पति और पुत्र को खोकर भी मेरे हाथ कुछ नहीं लगा। परसों ही तो कक्षा में एक बच्ची ने मुझसे पूछा था, मैडम, किसी अंक में भाग देने पर कुछ हासिल न आए तो ?
-हासिल कुछ-न-कुछ तो आना चाहिए बच्चे। मैंने कहा था।
-लेकिन कई बार...।
-हाँ। अपवाद तो हर कहीं ही होते हैं। मैंने उस बच्ची के प्रश्न का समाधान कर दिया था।
हम शिक्षकों की विवशता तो देखिए कि जहाँ हम बड़े-बड़े जटिल प्रश्नों का समाधान चुटकियों में ही निकाल देते हैं, वहीं स्वयं का समाधान नहीं ढूँढ़ पाते। दूसरों को राह बताने वाला स्वयं कहीं मँझधार में डूबने लगता है।
आप ही की तरह से मैं भी उस पराए घर में दुल्हन बनकर गई थी। विजय के साथ मेरा विवाह पारिवारिक रजामंदी से ही हुआ था। हम दोनों ने ही एक दूसरे को पसंद किया था। मेरे मामाजी उस रिश्ते पर फूले न समाए थे। उन्होंने प्रफुल्लित होकर माँ से कहा था, बहन, मैंने इतने रिश्ते तय किए। पर ऐसा रिश्ता पहली बार हुआ है, जिसमें दोनों ओर से लेन देन का छल प्रपंच नहीं है।
ठीक कहते हो, भैया ! माँ भी संतुष्ट हो आई थीं। वे बोली थीं, दान दहेज ही तो सब कुछ नहीं होता न ! सबसे बड़ा मिलान तो दिलों का मिलना होता है।
अब मैं अनुभव करने लगी हूँ कि क्योंकर लोग अकेली नारी पर अँगुली उठाया करते हैं ? कुँआरी और तलाकशुदा औरत का तो समाज में जीना ही हराम होने लगता है। सामने न सही पीठ पीछे तो सभी तो खुसुर-पुसुर किया करते हैं। विवाह के बाद मैं एक ऐसे चक्रव्यूह में आ फँसी थी कि वहाँ मेरा दम ही घुटने लगा था। किसी प्रकार मैंने ये पिछले चौदह वर्ष काटे हैं। आज मैं जीवित हूँ तो अपने कलेजे के टुकड़े के लिए मेरा अब्बू मरु भूमि के एक आवासीय विद्यालय में पढ़ रहा है। हम दोनों के बीच वह फुटबॉल बनता रहा है। हर पेशी पर उसे कोर्ट में बुलवाया जाता था। किंतु वह कुछ भी नहीं कह पाता था। पिछले महीने मुझे पति से तलाक भी मिल चुका है। लेकिन अब्बू की बात अब भी अधर में ही लटकी रह गई है। न्यायाधीश ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा था, चूँकि बच्चा अभी नाबालिग है। इसलिए वह जिसके साथ रहना चाहे, रह सकता है।
पिछले सप्ताह मैं अब्बू के विद्यालय चल दी थी। वहाँ मैं उसकी वही खुशामद करने लगी थी-अब्बू बेटे ! मैं तेरी माँ हूँ। तेरे सहारे ही मैं अपना सारा जीवन बिता दूँगी। तू एक बार जज साहब के आगे हाँ तो कर दे ! मैं निहाल ही हो जाऊँगी। तेरा मेरा खून का रिश्ता है।
मैं अभी तक नहीं समझ पाई कि लोग खोकर कैसे क्या कुछ पा लेते होंगे। कहते हैं, मोती गहरे पानी में पैठकर ही मिला करते हैं। मैंने तो इस अथाह संसार में बहुत हाथ पाँव मारे खूब गोते लगाए। किंतु मेरा दुर्भाग्य तो देखिए कि पति और पुत्र को खोकर भी मेरे हाथ कुछ नहीं लगा। परसों ही तो कक्षा में एक बच्ची ने मुझसे पूछा था, मैडम, किसी अंक में भाग देने पर कुछ हासिल न आए तो ?
-हासिल कुछ-न-कुछ तो आना चाहिए बच्चे। मैंने कहा था।
-लेकिन कई बार...।
-हाँ। अपवाद तो हर कहीं ही होते हैं। मैंने उस बच्ची के प्रश्न का समाधान कर दिया था।
हम शिक्षकों की विवशता तो देखिए कि जहाँ हम बड़े-बड़े जटिल प्रश्नों का समाधान चुटकियों में ही निकाल देते हैं, वहीं स्वयं का समाधान नहीं ढूँढ़ पाते। दूसरों को राह बताने वाला स्वयं कहीं मँझधार में डूबने लगता है।
आप ही की तरह से मैं भी उस पराए घर में दुल्हन बनकर गई थी। विजय के साथ मेरा विवाह पारिवारिक रजामंदी से ही हुआ था। हम दोनों ने ही एक दूसरे को पसंद किया था। मेरे मामाजी उस रिश्ते पर फूले न समाए थे। उन्होंने प्रफुल्लित होकर माँ से कहा था, बहन, मैंने इतने रिश्ते तय किए। पर ऐसा रिश्ता पहली बार हुआ है, जिसमें दोनों ओर से लेन देन का छल प्रपंच नहीं है।
ठीक कहते हो, भैया ! माँ भी संतुष्ट हो आई थीं। वे बोली थीं, दान दहेज ही तो सब कुछ नहीं होता न ! सबसे बड़ा मिलान तो दिलों का मिलना होता है।
अब मैं अनुभव करने लगी हूँ कि क्योंकर लोग अकेली नारी पर अँगुली उठाया करते हैं ? कुँआरी और तलाकशुदा औरत का तो समाज में जीना ही हराम होने लगता है। सामने न सही पीठ पीछे तो सभी तो खुसुर-पुसुर किया करते हैं। विवाह के बाद मैं एक ऐसे चक्रव्यूह में आ फँसी थी कि वहाँ मेरा दम ही घुटने लगा था। किसी प्रकार मैंने ये पिछले चौदह वर्ष काटे हैं। आज मैं जीवित हूँ तो अपने कलेजे के टुकड़े के लिए मेरा अब्बू मरु भूमि के एक आवासीय विद्यालय में पढ़ रहा है। हम दोनों के बीच वह फुटबॉल बनता रहा है। हर पेशी पर उसे कोर्ट में बुलवाया जाता था। किंतु वह कुछ भी नहीं कह पाता था। पिछले महीने मुझे पति से तलाक भी मिल चुका है। लेकिन अब्बू की बात अब भी अधर में ही लटकी रह गई है। न्यायाधीश ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा था, चूँकि बच्चा अभी नाबालिग है। इसलिए वह जिसके साथ रहना चाहे, रह सकता है।
पिछले सप्ताह मैं अब्बू के विद्यालय चल दी थी। वहाँ मैं उसकी वही खुशामद करने लगी थी-अब्बू बेटे ! मैं तेरी माँ हूँ। तेरे सहारे ही मैं अपना सारा जीवन बिता दूँगी। तू एक बार जज साहब के आगे हाँ तो कर दे ! मैं निहाल ही हो जाऊँगी। तेरा मेरा खून का रिश्ता है।
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